बहता पानी निर्मला || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

Acharya Prashant

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बहता पानी निर्मला || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

बहता पानी निर्मला, बंधा गंदा होये | साधु जन रमता भला, दाग न लागे कोये ||

वक्ता: बहने से क्या तात्पर्य है? रुकने से क्या तात्पर्य है?

जिसे हम जीवन कहते हैं वही बहना है, वही बहाव है, वही प्रवाह है| लगातार कुछ हो रहा है, लगातार गति है| समय बह रहा है, एक धारा है जो अभी है, वो तत्क्षण नहीं है, यही बहना है| बहने का अर्थ ही है- न होना| बहने का अर्थ है- जब तक आप कहें की है, तब तक ही उसका होना असत् हो जाए, अब वो नहीं है| बहने का अर्थ ही यही है कि उसकी अपनी कोई सत्ता, कोई नित्यता नहीं है, बस प्रतीत हो रहा है|

ठहरना क्या है? जो कुछ भी बह सकता है, जो कुछ भी समय में है, उसको सत्य जानकर महत्व दे देना, उसको अपने होने का हिस्सा बना लेना, ये ठहरना है| जो बहा ही जा रहा था, रुकना जिसकी प्रकृति नहीं है, उसको रोकने की चेष्टा करना, ‘जो था ही नहीं मैंने उसको अस्तित्व दे दिया’|

‘बहता पानी निर्मला…’, और तुम, तुम हो, बहाव के साक्षी, तब सब ठीक है| पानी की प्रकृति है बहना, तुम्हारा स्वाभाव है होना, कायम रहना| पानी की प्रकृति है चलायमान रहना, तुम्हारा स्वभाव है अचल रहना| जब तक पानी, पानी है, तुम, तुम हो, तब तक सब ठीक, तब तक कोई बात ही नहीं, सब कुछ ठीक है| सब कुछ वही है जहाँ उसे होना है, और वैसा ही है जैसा उसे होना है| पर, गड़बड़ हो जाती है, मिश्रण हो जाता है, मिलावट हो जाती है|(ज़ोर देते हुए) दाग़ लग जाता है|

जो है ही नहीं, हम उसे पकड़ कर अपने होने का हिस्सा बना लेते हैं, इसी को कहते हैं- दाग लगा लेना| ये जो गतिशील संसार है, ये जो मन का पूरा प्रवाह है, हम इसके साथ तादात्मय बना लेते हैं| अब साक्षित्व नहीं रहा, अब एका हो गया| अब ये बात नहीं रही कि जो हो रहा है सो हो रहा है, हमारा उससे प्रयोजन क्या| ‘हम तट पर खड़े हैं और सामने नदी बह रही है| हम क्या हैं उस प्रवाह के? साक्षी मात्र’, अब वो बात नहीं रही| अब जो बह रहा था आप उसके साथ जुड़ लिए, आपका कैवल्य, आपका अनछुआपन अब नष्ट हो गया| और ये अनहोनी है क्योंकि आप किसी और तल पर हो, प्रवाह किसी और तल है, आप सत् हो, प्रवाह असत् है| ये जुड़ कैसे सकते हैं?

पर आप जोड़ लेते हो| आप संसार के साथ नाते बना लेते हो| आप समय की धारा से संयुक्त हो जाते हो| आप कहते हो, ‘मेरा अतीत’, आप कहते हो, ‘मेरा भविष्य’| समय भागा जा रहा है और आप उसके पीछे-पीछे दौड़ते हो, इसी को कहते हैं, ‘भविष्य की दौड़’| समय भागा जा रहा है और आप उसके विपरीत भागते हो, इसको कहते हैं, ‘स्मृतियों से मोह’| इसी को कबीर कहते हैं- ‘लागा चुनरी में दाग’|

जो पानी को देखेगा उसे कोई दाग नहीं, जो प्रवाह से एका कर लेगा, उसे दाग ही दाग| जितना ज़्यादा तुम उससे एका करोगे, उतने ही दाग| बहने का अर्थ है- जो भी कुछ बह सकता है, उसको कभी गंभीरता से मत लेना, अलग खड़े रहना, जुड़ न जाना|

‘साधु जन रमता भला, दाग न लागे कोये’

साधु जन वही जो रम सके, रमण कर सके| ‘रमण’ का अर्थ है कि वो कहीं का नहीं है| उसने कोई पहचान, कोई तादात्मय, कोई एका बैठाया ही नहीं है, वो तो रम रहा है, रमण कर रहा है, वो कहीं का नहीं है| कोई आसक्ति, कोई मोह, कोई लगाव उसे छू नहीं सकता| कोई आशा नहीं, कोई हताशा नहीं, कोई दुराशा नहीं|

लेकिन भूलना नहीं, तुम वृत्तियों के पुंज हो और तुम्हारी वृत्तियाँ तुमसे चिल्ला-चिल्ला कर कहेंगी कि जो कुछ बह रहा है उसे भोगो, उसके साथ एक हो जाओ और फिर दाग ही दाग हैं क्योंकि अब तुम जहाँ एक होओगे, तहाँ गंदे हो जाओगे| भूलना नहीं, ‘बंधा गंदा होये’|

जो बंध गया, वही गंदा हो गया|

गंदा कौन? जो बंधा| जो बंधा, सो गंदा और बंधने को तुम खूब तैयार हो| तुममें रिश्ते-नाते बनाने की बड़ी हसरत है, इससे दोस्ती कर लूं, उससे यारी कर लूं| ‘बंधा, गंदा होये’| जितने बंधन, उतनी गंदगी, जितने रिश्ते, उतना तुम्हारा अनछुआपन गया| जितनी तुम्हारी परिभाषाएं, उतने तुम्हारी सत्ता में दाग| परिभाषाएँ बढ़ती जाती हैं, और परिष्कार घटता जाता है| ‘बंधा, गंदा होये’| किससे बंधा? उससे जो बह रहा है| जब भी मन बंधने लगे, मोह हावी होने लगे, आसक्ति उठे, तो बस एक सवाल पूछना अपने आप से, ‘जिससे बंध रहा हूँ, वो बह रहा है या नहीं? कल भी रहेगा? परसों भी रहेगा?’

नहीं| बह करके आगे निकल जाएगा| जो कुछ भी बह रहा है, उससे बंधना नहीं है, यही कबीर का संदेश है| जो भी कुछ बह रहा है, उससे बंधना नहीं है| मन तो बह ही रहा है, शरीर भी बह रहा है| संसार ही बह रहा है, इससे बंध मत लेना| जब तक बहते को बहता रहने दिया, तब तक निर्मल रहोगे|

*बहता पानी निर्मला, बंधा गंदा होये |*साधु जन रमता भला, दाग न लागे कोये ||

रमते रहो| सत्य के लिए बड़ा सुन्दर नाम है- अनिकेत| अनिकेत का अर्थ ही है वो, जो लगातार रमण करता रहे, जिसका कोई घर नहीं हो गया, जिसका कोई निकेत नहीं है| कहीं घर न बना लो, रमण करो| कहीं टिक न जाओ| वो करने की कोशिश मत करना जो हो नहीं सकता| अपने स्वभाव को पहचानो और याद रखो की इसमें बस वही कहा जा रहा है, जो होना तय है| तुम विपरीत गंगा नहीं बहा सकते| पूर्ण का अपूर्ण से कैसा मिलन? प्रकाश का अँधेरे से कैसा मिलन?

सत्य, संसार से रिश्ता क्या बनाएगा? यही कह सकता है कि संसार मुझमें है| सम्बन्ध क्या बनाओगे? असम्भव को संभव नहीं कर पाओगे| तुम्हारे भीतर जो सत्ता है, उसका स्वभाव है, अनछुआ रहना| उसका स्वभाव है, एकांत| एक और पूरा! कैवल्य है उसका स्वभाव है| उसके अलावा कोई दूसरा है ही नहीं, तो रिश्ता बनाओगे किससे?

रिश्ता बनाने का अर्थ ही है, भ्रम में जीना, क्योंकि रिश्ता बनाने के लिए दो चाहिये और रिश्ता बनाने के लिए अपूर्णता चाहिये, दोनों बातें एक ही हैं| दो कर देना, और अपने आप को अपूर्ण कर देना, एक ही बात है, बिल्कुल एक ही बात है|

‘बंधा गंदा होये’| बंधने का अर्थ ही है कि, ‘कोई दूसरा था, जिससे मैं बंधा’| जिस दूसरे से बंध रहे हो, वो है ही नहीं, तो क्या बंध रहे हो? तुम अपनी ही छाया से बंध रहे हो| लेकिन विपरीत चलती है हमारी पूरी मानसिक व्यवस्था| हम इस बंधने को ही जीवन का सार मान लेते हैं, जैसे कोई काराग्रह को ही अपना घर मान ले| और जो रमता है, हम उसको हेय दृष्टि से देखते हैं| हम कहते हैं,’बेचारा बेघर है’| इससे बड़ी उपलब्धि क्या हो सकती है अगर कोई बेघर रह जाये? सूरमाओं का काम है, बेघर रह जाना|

घर तो हर चूहा भी बना लेता है, और हमने ऐसी व्यवस्था बना ली है जिसमें घर बनाने को और घर अर्जित केर लेने को हम बड़ी बात मानते हैं, और बड़े सम्मान की दृष्टि से देखते हैं| इससे ज्यादा निकृष्ट काम नहीं हो सकता| मैं सिर्फ भौतिक घर की बात नहीं कर रहा हूँ, वो तो सिर्फ़ एक स्थूल प्रदर्शन होता है हमारी वृत्तियों का: ईंट-पत्थर का घर| हम जगह-जगह घर बनाते हैं| जहाँ-जहाँ तुम जुड़े, वहीं-वहीं तुमने घर बनाया| घर भौतिक कम, मानसिक ज़्यादा होता है| देखो न हम कितने आतुर रहते हैं सीमाएं खीचने को|

घर क्या है? एक सीमा ही तो है| जहाँ ही तुमने सीमा खींची, वहीं घर हो गया|

‘ये चार मेरे यार हैं| ये क्या है? ये घर है| ये चार मेरे यार हैं, ये मेरा घर है| ये सब मेरे धर्म के हैं, ये मेरा राष्ट्र है, ये मेरा घर है’| अपनी ही सत्ता को दायराबन्द कर देने के लिए देखो हम कितना उत्सुक रहते हैं कि, ‘मैं इतना ही तो हूँ, छोटा-सा, मेरी परिधि इतनी ही तो है, मेरे घर जितनी’| ‘साधु जन रमता भला’, उसका कोई घर नहीं होता, उसकी कोई सीमाएं नहीं होतीं| वो अपने असीम स्वभाव में जीता है| मात्र वही जीता है|

तो बहने का अर्थ है कि जो प्रवाहमान है, उसे प्रवाहमान ही रहने देना| उसको रोकने की कोशिश ना करना, उससे जुड़ने की कोशिश ना करना| उसको तो बस ये कहना, ‘जा, तुझको तो बस बहना है| आया है, जा’|

– ‘बोध-सत्र’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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