बच्चे की शिक्षा, बड़े शहर और बड़े स्कूल का लालच || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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बच्चे की शिक्षा, बड़े शहर और बड़े स्कूल का लालच || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मेरे इस जीवन के अभी तक के पड़ाव में, मैं बहुत सारे बंधनों से अटूट हूँ, जुड़ा हुआ हूँ, अभी तक जकड़ा भी हुआ हूँ। मेरा प्रश्न सांसारिक रूप से सम्बन्धित है।

मेरा बैंगलौर आने का प्रयोजन था कि मेरे बच्चे का एजुकेशन (शिक्षा) अच्छा हो। मैं बैंगलौर में पिछले दो साल से हूँ। मेरा बच्चा सेकंड स्टैंडर्ड (दूसरी कक्षा) में पढ़ता है। इधर जॉब मिला, अच्छा जॉब मिला, अच्छी सैलरी (आमदनी) का मिला।

लेकिन सुबह जब उठता हूँ, बच्चे को छोड़ता हूँ स्कूल में, उसके बाद ट्रैफिक फिर टिर्र-टिर्र (परेशान होकर रोज़ के ट्रैफिक का हाल व्यक्त करते हुए), पूरा दिमाग ख़राब हो जाता है। ऑफिस में पहुँचता हूँ, ऑफिस में ये नहीं वो नहीं, वो नहीं (दफ़्तर के तनाव का माहौल व्यक्त करते हुए)। फिर शाम होती है, फिर आता हूँ, फिर ट्रैफिक से गुज़रता हूँ।

अभी मन को ऐसा लग रहा है कि मेरे बच्चे का एजुकेशन के पीछे मेरे ब्रदर-सिस्टर सभी हैं कि एजुकेशन अच्छा होना चाहिए, बैंगलौर में अच्छा होगा, नहीं तो आगे जाकर नहीं बढ़ पाएगा।

मेरा घर महाराष्ट्र में है, मैं कागल एक शहर है, उसमें रहता हूँ। अभी मेरे दिल में — वो बंधनों से जुड़ा हूँ — अभी मुझे ऐसा लगता है कि मैं अपने गाँव में जाकर कोई दूसरा जॉब , कोई छोटा-मोटा जॉब , कोई भी जॉब जो मुझे मिले, उसे करके उधर अपना थोड़ा शांति से जीवन गुज़ार सकूँ। ये मेरे मन में चल रहा है।

वो मैं अपना शेयर (साझा) किया, ब्रदर, सिस्टर , अपने फैमिली को, वाइफ को। तो उनका प्रतिक्रिया था — 'तुम अपना रिलैक्स (आराम) देख रहे हो, अपना रिलैक्स देख रहे हो, तुम अपनेआप को रिलैक्स करना चाहते हो। बच्चों के ऊपर तुम देख नहीं रहे।'

अभी दो ऑप्शन (विकल्प) मेरे पास हैं। एक तो ये है कि मुझे ऐसे ही चलना पड़ेगा और बच्चे का एजुकेशन मेरे को कराना पड़ेगा। दूसरा विकल्प मेरे पास कुछ है नहीं।

तो मुझे सुझाव करें कि मैं क्या डिसीज़न (निर्णय) लूँ। क्योंकि जो शांति के मार्ग में चलना है, तो शांति और नौकरी, दोनों ऐसा चीज़ है कि दोनों में संतुलन नहीं कर पा रहा हूँ।

तो ऐसा नौकरी ढूँढूं कि जॉब भी मेनटेन हो, चाहे छोटा-मोटा नौकरी ही हो, और मेरा स्पिरिचुअल प्रोग्रेस (आध्यात्मिक प्रगति), ये भी स्टेबल (संतुलित) रहे। तो कृपया करके मुझे सुझाव करें।

आचार्य प्रशांत: जब आप कहते हो कि बच्चों को अच्छी शिक्षा देनी है, तो वो शिक्षा क्या स्कूल के छः घंटों तक ही सीमित है? बच्चा अपने पिता और माता और अपने बाक़ी माहौल का चेहरा देखकर शिक्षित नहीं हो रहा क्या?

और पिता का चेहरा अगर रूखा है, चिड़चिड़ा है, बेजान है, तो बच्चे को उस चेहरे से क्या शिक्षा मिल रही है? या शिक्षा का मतलब बस स्कूल द्वारा दिया गया प्रगति-पत्र ही होता है?

ध्यान से तथ्यों का अन्वेषण तो करिए। क्या वास्तव में बैंगलौर के जिस स्कूल में वो पढ़ रहा है, उसमें इतनी कुछ विशिष्ट शिक्षा दी जा रही है कि वो अन्य शहरों या कस्बों के स्कूलों में मिल ही नहीं सकती? ऐसा है क्या?

आमतौर पर वही किताबें होती हैं, वही तरीक़े होते हैं। कौनसे सुर्ख़ाब के पर लगे हैं बैंगलौर के स्कूलों में भई! और इन स्कूलों के जो उत्पाद हैं, उनको भी देखा करिए, उनसे भी मिला करिए। उनमें से ऐसे कितने हैं कि उन्हें देखें आप और कहें, 'काश! मेरा बच्चा भी ऐसा बन जाए?'

क्या ये वही चाह नहीं है जो एक व्यक्ति को सपनों में बाँधकर के, किसी बड़े शहर की धूप, धूल और प्रदूषण में पटक देती है? कभी बच्चे के लिए, कभी अपने लिए, केंद्र में तो अरमान ही होते हैं।

मैं प्रगति का विरोध नहीं कर रहा हूँ। मैं कह रहा हूँ, छानबीन करिए कि क्या प्रगति वास्तव में इस तरह के कर्मों और निर्णयों में निहित भी है?

एक बीस साल का लड़का, अपना घर छोड़कर, घर से भागकर मुंबई पहुँच जाता है, कहता है हीरो बनना है। अरमान तो उसके पास भी है न? उसने भी अपना घर, देश, गली, मोहल्ला छोड़ा है। वो भी एक मेट्रो शहर आ गया है। वो भी प्रगति का आकांक्षी है। फिर उसको क्यों कहते हो, 'ये तो मूरख है?' बोलो!

ऐसों के तो ऊपर हँसते हो कि अपना घर छोड़कर हीरो बनने आया है। और वो सब तमाम लोग जो अपने-अपने गाँव, कस्बे, शहर छोड़ करके दिल्ली, गुड़गाँव, बम्बई, बैंगलौर की ओर भागते हैं, वो क्यों नहीं हॅंसी के पात्र हैं?

प्रगति के लिए घर छोड़ देना बिलकुल भी बुरा नहीं है, अगर प्रगति हो रही हो तो। क्या प्रगति वास्तव में होती है घर छोड़ने से? अगर हो रही है तो बेशक छोड़ो। क्या प्रगति होती है?

सौ में से एक या दो की होती है। बाक़ी अट्ठानवे तो बस अरमान खाते हैं, अरमान पीते हैं, अरमान पहनते हैं और अरमानों पर ही सो जाते हैं। तरक्क़ी वास्तव में हो रही है क्या? वास्तव में बच्चे को बैंगलौर में दूसरी जगह से बेहतर शिक्षा मिल रही है क्या?

कुल मिला-जुलाकर बच्चे का यहाँ के माहौल में बेहतर विकास हो रहा है क्या? अगर हो रहा है तो प्रेम है बच्चे से, ज़रूर रुको बैंगलोर में। पर सिर्फ़ अनुमान पर मत चलना, धारणा पर मत चलना कि बैंगलोर है तो बेहतर है। बिलकुल आवश्यक नहीं है कि बैंगलौर है तो बेहतर है।

आप भलीभाँति जानते हो कि आपके छोटे शहर के पचीस हज़ार और बैंगलौर और गुड़गाँव का पचास हज़ार एक बराबर होता है। होता है कि नहीं, बोलो।

उसी तरीक़े से, बिलकुल हो सकता है कि बैंगलोर का नब्बे प्रतिशत—रिपोर्ट कार्ड (प्रगति-पत्र) में—और किसी छोटे शहर का अस्सी प्रतिशत, एक बराबर ही हो। हो सकता है कि बच्चे को यहाँ (बैंगलोर) पढ़ा रहे हो, उसके नब्बे प्रतिशत आ जाएँ। हो सकता है उसे कहीं और ले जाओ तो वो पचहत्तर-अस्सी पर ही अटक जाए, पर ये भी हो सकता है कि वो पचहत्तर-अस्सी इस नब्बे से ज़्यादा क़ीमत रखता हो।

न मैं यहाँ रुकने को कह रहा हूँ, न वापस जाने को कह रहा हूँ। मैं कह रहा हूँ धारणा पर मत चलो, हक़ीक़त क्या है, इसकी जाँच-पड़ताल कर लो।

सिर्फ़ इसलिए कि स्कूल का ब्रैंड बड़ा है, शहर का ब्रैंड बड़ा है, कंपनी का ब्रैंड बड़ा है, मान मत लो कि उस स्कूल में और उस शहर में और उस कंपनी में तुम्हारी तरक्क़ी है ही। हम असलियत नहीं परखते, हम ब्रैंड ख़रीद लेते हैं। (मुस्कुराते हुए) और ब्रैंड महँगा आता है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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