सहस्त्रशीर्षा पुरुष: सहस्त्राक्षः सहस्त्रपात्। स भूमिं विश्वतो वृत्वाऽत्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम्॥
वह परमात्मा सहस्त्र सिर वाला, सहस्त्र नेत्रों वाला और सहस्त्र पैरों वाला है। वह सम्पूर्ण जगत को सब ओर से घेर कर भी दस अंगुल बाहर (सम्पूर्ण रूप से) स्थित है अथवा नाभि से दस अंगुल ऊपर हृदयाकाश में स्थित है।
~ श्वेताश्वतर उपनिषद् (अध्याय ३, श्लोक १४)
आचार्य प्रशांत: जितनी आपकी सीमित चेतना है, सीमित हस्ती है, सीमित इन्द्रियाँ हैं, उन्हीं की पृष्ठभूमि में अनंत का चित्रण और वर्णन किया जाता है।
सहस्त्र माने हज़ार। वह हज़ार सिरों वाला, नेत्रों वाला, पैरों वाला है। आपका एक सिर है, एक प्राण है, एक बुद्धि है। उसके पास आपसे हज़ार गुनी ज़्यादा सामर्थ्य है। ये बात कही जा चुकी है पहले, फिर दोहराऊँगा ताकि बिलकुल स्पष्ट हो जाए। कोई इकाई नहीं है कहीं पर जो आपसे हज़ार गुनी ज़्यादा सामर्थ्यवान है। बिलकुल नहीं। ऐसा नहीं सोचना है।
हज़ार का आँकड़ा एकदम सांकेतिक है। कहीं नहीं कोई बैठा है जिसके हज़ार सिर हों, हज़ार गर्दनें हों, हज़ार हाथ या पाँव हों इत्यादि। चूँकि आप एक हैं तो आपसे एक बहुत दूर की भिन्नता दर्शाने के लिए सहस्त्र का सांकेतिक आँकड़ा लिया जाता है। तो एक माने छोटा, हज़ार माने बड़ा, बस इतनी सी बात है। एक माने छोटा या सीमित, और हज़ार माने एक से बहुत, बहुत दूर, अत्यंत भिन्न, अत्यंत दूरस्थ; इतनी दूर का कि आप हिम्मत ही ना कर पाएँ अपनी सीमित सामर्थ्य के साथ उसको पकड़ लेने की, पा लेने की, कल्पना करने की।
नहीं कहा कि वह हज़ार हाथों वाला, हज़ार सिरों वाला, हज़ार पैरों वाला है। मान लीजिए इतना ही कह दिया कि आपके एक सिर हैं, दो हाथ हैं, दो पाँव हैं और परमात्मा के तीन सिर हैं, चार हाथ हैं, चार पाँव हैं तो तुरंत हमारा अहंकार उछल करके धृष्टता कर देगा, क्या?
कि 'पकड़ ही लूँगा, तीन गुने का ही तो अनुपात है न, कोशिश करने में क्या जाता है? वैसे भी बचपन में जब मैं पहली कक्षा में था तो एक बार उस तीसरी कक्षा वाले लंगूर को मैंने पटखनी दे दी थी, याद है न? मैं कक्षा एक में था और एक वानर था कक्षा तीन में और मैं उसको पटक आया था तो अभी-अभी पता चला है कि मैं एक सिर वाला हूँ और परमात्मा तीन सिर वाला है तो एक बार हाथ आज़माने में क्या जाता है? क्या पता परमात्मा को ही पटक ही दूँ!'
अहंकार तुरंत ऐसी धृष्टता, ऐसी गुस्ताखी कर डालेगा, तो इसलिए उसको बहुत दूर का बनाया जाता है। क्यों दूर का बनाया जाता है? इसलिए नहीं कि वो दूर का है, इसलिए ताकि आपको समझ में आए की आप कितने छोटे हो। यही वह बात है जो अहंकार मानना नहीं चाहता कि 'मैं छोटा हूँ', और यही वह बात है जो उसे बहुत आकर्षित भी करती है, कि 'कोई हो जो मेरी सब सीमाओं से और कमज़ोरियों से एकदम भिन्न, अलग हो।'
विचित्र स्थिति है हमारी, एक ओर तो हम मानना नहीं चाहते कि हममें कोई कमी है और दूसरी ओर हमें चाह उसकी है जिसमें कोई वैसी कमी ना हो जैसी कमी हममें है। अगर तुममें कोई कमी ही नहीं है तो तुम किसी ऐसे की चाह क्यों कर रहे हो जिसमें कोई कमी नहीं है? फिर तो वह तुम ही हो।
तो अतिशयोक्तिपूर्ण तरीकों से जब भी परम सत्ता का वर्णन हो, विवरण हो तो कारण साफ़ समझ लेना। ये मत कर लेना कि परमात्मा को कह दिया कि सहस्त्र सिरों वाला है तो तुम जा करके कोई चित्र या मूर्ति बना लो या कथा लिख दो जिसमें परमात्मा के सौ सिर हैं। ऐसा हमने खूब करा है जबकि बातें सिर्फ़ सांकेतिक हैं।
और कोई बड़ी बात नहीं कि कोई ऐसा कलाकार भी निकल ही आए जो अपनी कलाकारी दिखाते हुए एक प्रतिमा खड़ी कर दे जिसके सहस्त्र सिर हों। भई, दस तक तो हम दशहरे पर ही चले जाते हैं तो सहस्त्र तक जाने में भी कोई बहुत बड़ी दुविधा नहीं है। अब तो वैसे भी शिल्प कला बहुत आगे बढ़ गई है, तो आपने बना दिया हज़ार सिर वाला कोई, और बनाकर के अपनी पीठ ठोक रहे हो कि 'देखो हमने परमात्मा का चित्रण-निरूपण कर डाला।'
उसके कितने सिर हैं ये बात प्रमुख नहीं है। फिर, क्या प्रमुख है? हमारा सिर बहुत छोटा है, और यह बात क्यों प्रमुख है? इसके मनोविज्ञान में घुसिए। ये बात क्यों ज़रूरी है बार-बार दोहराने की कि 'हमारा सिर बहुत छोटा है'? यह बात इसलिए दोहरानी है क्योंकि हम दुःख में हैं। अगर हम दुःख में ना होते तो कोई ज़रूरत नहीं थी अपनी खोट निकालने की। भई, सबकुछ ठीक चल रहा है, क्या ज़बरदस्ती खोट निकालते फिरें? पर हम दुःख में हैं और हमारे दुःख का कारण हमारे विचार, हमारी धारणाएँ, हमारे निर्णय ही हैं।
तो माने हमारे दुःख का मूल कारण क्या है? स्वयं हम। हमारे दुःख का फिर मूल कारण क्या है? ये जो हमारा सिर है, यह सिर ही हमारे दुःख का कारण है, इसलिए फिर हमें कहना पड़ता है कि हमारा सिर बहुत छोटा है। जैसा है वैसा ठीक नहीं है, जैसा है वैसा होकर के ये हमें क्या देता है? दुःख देता है।
चूँकि जैसा है वैसा ठीक नहीं है इसलिए फिर दो दिशाओं में बात की जा सकती है। या तो कह दो कि बहुत छोटा है (हमें हज़ार सिर वाला चाहिए, एक सिर में तो हमें बहुत दुःख मिलता है), या पलटकर के दूसरे तरीके से भी कह सकते हो कि 'यह सिर हमारा बहुत बड़ा है इसलिए इतना दुःख है, तो हमें शून्य सिर वाला चाहिए, हमें यह सिर काट देना है, हटा देना है'; और अध्यात्म में दोनों तरीकों से बात की जाती है। अभी यहाँ पर हमारे सामने बात की जा रही है कि परमात्मा हज़ार सिरों वाला है और कहीं और आप पाएँगे कि बात की जा रही है कि यह जो सिर है, यह काट कर के चढ़ा देना है तभी चैन मिलेगा। इस सिर का समर्पण करना ही शांति देता है।
दोनों ही बातें की जाती हैं लेकिन दोनों बातों के मूल में यही स्वीकृति है कि यह जो सिर है यह ठीक नहीं है। जो यह मान लेता है उसी की आध्यात्मिक यात्रा शुरू होती है कि 'मेरा खोपड़ा मेरे लिए ही ठीक नहीं। मेरे जीवन में बहुत तड़प है और उसका कारण यह मेरा खोपड़ा ही है।'
"वह सम्पूर्ण जगत को सब ओर से घेर कर भी दस अंगुल बाहर स्थित है अथवा नाभि से दस अंगुल ऊपर हृदयाकाश में स्थित है।"
वह इस जगत को, माने तुम्हारे जगत को। यह जगत कोई वस्तुगत इकाई तो है नहीं, जब हम 'जगत' कहते हैं तो जगत माने वह जो हमें प्रतीत होता है, जगत जैसा हम जानते हैं। वह हमारे जगत को पूरी तरह से घेरे है। कोई किसी को पूरी तरीके से घेरे हुए हो तो बड़ा कौन है, घेरने वाला या जो घिरा है? घेरने वाला। माने तुम्हारी हस्ती से बड़ी है उसकी हस्ती।
यह तुम्हारा जगत है, ठीक? तुम कहते हो कि तुम्हारा जगत तुमसे बहुत बड़ा है, है न? हम कहते हैं कि इस संसार में हम एक छोटी सी इकाई हैं, हैं न? तो जगत और जगत के केंद्र पर हम; हमारा जगत जो हमसे बहुत बड़ा है, और श्लोक कह रहा है कि परमात्मा उसको भी बाहर से घेरे हुए है। तो फिर हमारे आकार में और परमात्मा के आकार में क्या रिश्ता हुआ? हमसे बड़ा जगत और जगत से भी बड़ा? परमात्मा। तो हमारे और उसके आकार में क्या संबंध हुआ? बहुत-बहुत बड़ा। जगत हमसे बहुत बड़ा और परमात्मा जगत से भी बड़ा।
फिर कहता हूँ, यह कल्पना मत कर लेना कि जगत को बाहर से कोई घेरे हुए है। और सिर्फ़ घेरने की बात नहीं की गई है, कहा गया है कि घेरते हुए भी वह जगत से थोड़ा दूरी बनाए हुए है। यह अहंकार के लिए अब दूने अपमान की बात हो गई। यह ऐसा कहा जा रहा है कि जैसे किसी ने तुमको चारों ओर से जकड़ रखा है लेकिन जकड़कर भी वह तुमसे थोड़ी दूरी बनाए हुए है, तुम्हें स्पर्श नहीं कर रहा, वह तुम्हें इस लायक नहीं समझता कि तुमको पकड़ करके तुमको जकड़े। तो उसने तुमको जकड़ तो लिया है लेकिन तुमसे दूरी बनाकर के।
अहंकार को उसकी जगह दिखाई जा रही है। परमात्मा तुम्हें सब तरीके से नियंत्रण में रखता है लेकिन तुम्हें नियंत्रित करने के बावजूद भी वह तुम्हें स्पर्श तक नहीं करता। वह तुम्हें नियंत्रित करने के बावजूद भी तुम्हें स्पर्श तक नहीं करता।
एक तो तरीका यह होता है कि आपको किसी को नियंत्रण में रखना है तो आप उससे बिलकुल लिपट जाऍं और कुश्ती करने लग जाऍं और उसको दबा दें, चित्त कर दें; और यह करने में आप उसके साथ धूल में लोट गए, आप दोनों का पसीना एक हो गया। फिर एक तरीका यह होता है कि जैसे लोग कुत्ता घुमाने निकलते हैं, कि पट्टा डाल रखा है और हाथ में रस्सी ले रखी है, तो दूरी तो है लेकिन फिर भी संपर्क है।
फिर एक बड़ा सूक्ष्म तरीका होता है नियंत्रित करने का, कि जैसे रिमोट कंट्रोल से टीवी चलाया जाता है, कि आप छू ही नहीं रहे हो टीवी को फिर भी टीवी पर नियंत्रण है। लेकिन यहाँ पर भी सूक्ष्म संपर्क तो आपमें और टीवी में बना हुआ है न? वह जो लहरें निकल रही हैं, जो रिमोट कंट्रोल से वेव्स (लहर) आ रही हैं उनके माध्यम से आप टीवी को छू ही रहे हो। यहाँ परमात्मा का पूर्ण वर्चस्व देखो। वह तुम्हें ही नहीं, तुम्हारे पूरे जगत को चला रहा है जगत को बिना छुए, बिलकुल दूरी बना करके, अस्पर्शित।
अब जब यह कहा जा रहा है तो परमात्मा की कल्पना नहीं करनी है कि परमात्मा कितना सर्वसामर्थ्यवान है। तुरंत किस पर ध्यान देना है? कि हम कितने असमर्थ हैं। जल्दी से यह नहीं कह देना है कि 'तू बड़ा सामर्थ्यशाली है', तुरंत यह कहना है कि 'हम कितने असमर्थ हैं'।
परमात्मा की बात बार-बार आपसे इसलिए की जा रही है ताकि आप स्वयं तक लौट सकें, इसलिए नहीं की जा रही है कि आप परमात्मा का चरण वंदन और स्तुति गान शुरू कर दें। उसकी स्तुति करने से क्या मिलेगा? अपने में दोष बने ही हुए हैं और परमात्मा की स्तुति कर रहे हो, तो दोषपूर्ण स्तुति तो दोष की ही हुई।
"अथवा नाभि से दस अंगुल ऊपर हृदयाकाश में स्थित है।"
हृदय शरीर के किसी अंग की ओर इशारा नहीं करता जब अध्यात्म में प्रयुक्त होता है। यह ना समझ लिया जाए कि हृदय का मतलब है शरीर का वह हिस्सा जो पूरे शरीर को रक्त की आपूर्ति करता है। नाभि से दस अंगुल ऊपर हृदयाकाश में स्थित है परमात्मा, माने तुम्हारी हस्ती में मौजूद है। अब शिष्य है और देह से बड़ा तादात्म्य है उसका तो वह तो कहेगा न कि, "कहाँ मौजूद है?" वह कहेगा 'कहाँ मौजूद है?' तो इस प्रश्न का उत्तर यह है 'तुम्हारे हृदय में मौजूद है'; हृदय जो कि नाभि से दस अंगुल ऊपर है, वहाँ पर मौजूद है।
हृदय में ही क्यों मौजूद है? क्योंकि बड़ा केंद्रीय है न हृदय, शरीर को देखोगे तो बिलकुल केंद्र में बैठा है, और गति करता रहता है न, और साफ़-साफ़ पता चलता रहता है कि जीवन तभी तक है जब तक हृदय में धड़कन है। और रमण महर्षि इसमें ऐसे भी कहते थे किसी व्यक्ति को जब अपनी ओर संकेत करना होता है तो वह ऐसे ही कहता है न 'मैं' (अपने हृदय की ओर इशारा करते हुए), 'मैं'। तो 'मैं' कहने के लिए आप अपना हाथ बिलकुल छाती पर रखते हो, तो इसलिए वह कहते थे कि 'हृदय'। अन्यथा जो शारीरिक अवयव है 'हृदय' उसमें कोई विशेष बात नहीं है। वह तो फिर वैसा ही है जैसे गुर्दा हो गया, जैसे आँतें हो गईं, जैसे अन्य न जाने कितने हिस्से हो गए शरीर के।
बाहर भी वही है, भीतर भी वही है; जो भीतर है वही बाहर है; आत्मा ही ब्रह्म है, ये उपनिषदों की सर्वोच्च घोषणाओं में से एक है। दुनिया उपनिषदों को अकसर जानती ही इसी उद्घोषणा से है। क्या? कि आत्मा ही ब्रह्म है, कि यह जो बाहर जगत दिखाई देता है उसका सत्य और जो तुम्हारा आंतरिक जगत है उसका सत्य, दोनों एक ही हैं।
श्लोक कह रहा है 'वह है सत्य जिसने जगत को बाहर से घेर रखा है और तुमको भीतर से संचालित कर रहा है'। सत्य क्या है? जिसने जगत को घेर रखा है बाहर से और तुमको चला रहा है भीतर से। और ये बाहर-भीतर का भेद सत्य के लिए नहीं है, तुम्हारे लिए है। तुम जीव हो, तुमको ये दो दिखाई देते हैं इसलिए तुमसे इस भाषा में बात की जा रही है।