हिन्दू धर्म में जातिवाद का ज़िम्मेवार कौन? || (2021)

Acharya Prashant

38 min
567 reads
हिन्दू धर्म में जातिवाद का ज़िम्मेवार कौन? || (2021)

का जाति:। जातिरिति च। न चर्मणो न रक्तस्य न मांसस्य न चास्तिनः। न जातिरात्मनो जातिवर्णाधरप्रकल्पिता।।

अनुवाद: शरीर (त्वचा, रक्त, हड्डी आदि) की कोई जाति नहीं होती। आत्मा की भी कोई जाति नहीं होती। जाति तो व्यवहार में प्रयुक्त कल्पना मात्र है।

~ निरालंब उपनिषद (श्लोक क्रमांक १०)

आचार्य प्रशांत: आज जो हम श्लोक लेने जा रहे हैं आरंभ में ही उसका बड़ा समसामयिक महत्व है। वास्तव में ये श्लोक जो बात कह रहा है उसको साफ़-साफ़ समझ लिया जाए तो पूरे विश्व की, विशेषकर भारत की सामाजिक, राजनैतिक स्तिथि बिलकुल पलट जाएगी, सुधर जाएगी। बहुत सारी मान्यताएँ, जो आम जनमानस में ही नहीं बल्कि बुद्धिजीवियों में भी प्रचलित हैं उनका पूरी तरह से खंडन हो जाएगा।

इतने श्लोक हैं उपनिषद में और वास्तव में श्लोक क्रमांक दस, जिसपर अभी हम वार्ता करेंगे, उससे कहीं गहरे, कहीं चमत्कारिक, कहीं ज़्यादा कालातीत भी दूसरे श्लोक प्रचुरता से मौजूद हैं, उपलब्ध हैं लेकिन इस श्लोक की सम्प्रति जो प्रासंगिकता है वो बेमेल है। तो रोचक रहेगा, आरंभ करते हैं।

ऋषि कहते हैं जाति चर्म, रक्त, माँस, अस्थियों और आत्मा की नहीं होती। जाति की प्रकल्पना तो मात्र व्यवहार निमित्त है।

ऋषि कह रहे हैं कि ना तो शरीर की जाति है, ना आत्मा की जाति है। शरीर प्रकृति है पूरे तरीक़े से। खून और खून में क्या अंतर होता है? कोशिका और कोशिका में क्या अंतर होता है?

समझ में आ रही है बात?

आपके शरीर में भी प्राणवायु है, किसी और के भी है, क्या अंतर होता है? रोग सबको एक से होते हैं। दुनिया में आठ अरब लोग हैं लेकिन आठ अरब अलग-अलग दवाइयाँ नहीं हैं। एक रोग की एक दवाई बनती है, उस रोग के रोगी हो सकता है दस करोड़ हों, वो एक दवाई लगभग उन सभी दस करोड़ लोगों को लाभ पहुँचा देती है।

कौनसी जाति?

आपको अगर कोई छोटी-मोटी हो सकता है त्वचा की बीमारी हो, कोई हो सकता है आपको बड़ी बीमारी हो — कैंसर। छोटी-सी-छोटी से लेकर बड़ी-से-बड़ी बीमारी तक कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि आप किस जाति से हैं, किस तबके से हैं, किस वर्ण से हैं, किस वर्ग से हैं, शरीर तो देखो एक ही है।

इतना ही नहीं है, बहुत सारी बीमारियाँ होती हैं जो मनुष्यों और पशुओं में भी साझी होती हैं। और जैसा कि आपने अनुमान कर ही लिया होगा, उन बीमारियों के लिए पशुओं को भी लगभग वही दवाई दी जाती है जो मनुष्यों को दी जाती है। थोड़ा बहुत अंतर हो सकता है। अंतर भी जो ज़्यादा होता है वो मात्रा में होता है। तो मात्रा में तो अंतर मनुष्यों में भी होता है। छोटा बच्चा होता है उसको आधी गोली देते हैं, वयस्क को कहते हैं "दो गोली लीजिएगा।" लेकिन मूलतः शरीर में ऐसा कुछ नहीं जिससे दो शरीरों के मध्य भेद किया जा सके। बहुत दूरगामी बात है ये, समझिए इसको। सब शरीर एक से ही हैं।

चीज़ें अलग-अलग होतीं तो अगले से गुज़रने पर उनका उत्पाद भी अलग-अलग होता। पर आग से गुज़ारने पर सब शरीर राख ही हो जाते हैं, आदमी का, औरत का, बच्चे का, बूढ़े का, अमीर का, गरीब का, विद्वान का, अल्पज्ञ का, तो शरीर के बारे में क्या बात पता चली? शरीर की जाति नहीं हो सकती।

इसका मतलब जो पैदा होता है उसकी कोई जाति होती नहीं है। ये जो शरीर पैदा हुआ है उसकी कोई जाति नहीं होती। माने जन्म से जाति हो ही नहीं सकती। ऋषि बहुत साफ़-साफ़ बोल रहे हैं। जन्म से जाति नहीं हो सकती।

और मैं इसीलिए कह रहा था कि इस श्लोक का बड़ा समसामयिक महत्व है क्योंकि हमने जाति को जन्म से ही मिली हुई कोई चीज़ मान रखा है। इतना ही नहीं, हमने कह रखा है कि ये जो जन्म के साथ जाति के निर्धारण की व्यवस्था है ये धर्म सम्मत है। हम कहते हैं, "साहब, ये बात तो हमारे धर्मशास्त्रों ने कही है कि ब्राह्मण घर में ब्राह्मण पैदा होता है, लोहार के घर में लोहार, सोनार के घर में सोनार पैदा होता है।"

तो मैं बिलकुल साफ़-साफ़ दो टूक सबसे कहना चाहता हूँ — वेदांत ने जातिप्रथा का समर्थन करना तो छोड़िए, जाति को ही अवैध घोषित किया है। जो लोग सनातन धर्म पर आरोप लगाते हों या दुखी अनुभव करते हों कि यहाँ तो जातिवाद चलता है, उनको वेदांत में छाँव मिलेगी। वेदांत उनका संबल बनेगा, वेदांत उनका गौरव है।

होंगी रूढ़ियाँ, प्रथाएँ, परंपराएँ या कुछ पुस्तकें, पारिधिक किस्म की जिनमें जातिप्रथा की बात कर दी गई या इत्यादि इत्यादि, पर सनातन मत के जो केंद्रीय ग्रंथ हैं वेद और वेदों का भी दार्शनिक मर्म जहाँ संकलित है, उपनिषद वो बहुत साफ़-साफ़ कहते हैं और एक बार नहीं, दोहरा-दोहरा कर सौ बार कहते हैं — जाति जैसा कुछ नहीं होता, जाति जैसा कुछ नहीं होता।

तो मैं और आगे बढूँ इससे पहले विचारणीय है कि ऋषि को जाति के प्रश्न पर ये बात बोलनी क्यों पड़ी।

ऋषि का स्वभाव मौन है। ऋषि मूलतः मौन रहते हैं। वो मात्र कब शब्द उच्चारित करते हैं? जब उनसे कोई सम्यक प्रश्न किया जाए किसी गहरे जिज्ञासु द्वारा, सिर्फ़ तब वो उत्तर देते हैं। तो ऋषि के सामने जिज्ञासा करी गई है भई, कि बताइए जाति क्या है। है न?

आरंभिक श्लोक में ये पूछ लिया शिष्य ने कि जाति क्या है। तो ऋषि साफ़-साफ़ समझा देते हैं कि "भैया, ना तो देह की जाति है, ना आत्मा की जाति है। अब तुम खुद ही सोच लो जाति क्या है।"

मैं चाहता हूँ कि आप सोचें कि ये प्रश्न किया ही क्यों शिष्य ने। क्योंकि जातिव्यवस्था तब भी बहुत व्यापक रही होगी। और जाति को लेकर के जो थोड़े भी समझदार लोग रहे होंगे, जैसे प्रश्न पूछने वाले शिष्य हैं यहाँ पर, उनका माथा थोड़ा ठनकता होगा, उनको बात थोड़ी अखरती होगी। वो कहते होंगे, "ये क्या चीज़ है? क्या ये बात वाकई सत्यसम्मत है, जाति?" एक ओर तो हम कहते हैं 'नास्मी देहम', देह नहीं हूँ मैं और दूसरी ओर हम कहते हैं देह के साथ जाति जुड़ी होती है और जाति असली है। देह को हम मिथ्या कह रहे हैं और देह की जाति को हम वास्तविक मान रहे हैं। तो ये बात तो अगर थोड़ा भी सोचने-समझने वाला व्यक्ति होगा तो उसको अखर जाएगी। वो कहेगा, "दाल में काला है।"

इसीलिए ये प्रश्न पूछा गया है ऋषि से। अब आप उस समय पर भी जाकर के उस समय की जो सामाजिक, धार्मिक, आध्यात्मिक व्यवस्था है उसका मन में थोड़ा खाका खींचिए। समाज में उस समय भी जातिव्यवस्था प्रचलित है। नहीं प्रचलित होती तो प्रश्न नहीं आता। समाज में उस समय भी मौजूद है जाति और उपनिषद और ऋषि उस समय भी कह रहे हैं, "व्यर्थ है जाति।"

उस समय भी समाज में मौजूद है जाति और ऋषि तब भी कह रहे हैं व्यर्थ है जाति। वही स्थिति आज भी है। समाज ऋषियों के कहे अनुसार नहीं चलता। ऋषियों के सामने तो समाज एक चुनौती की तरह, एक विपक्षी और विरोधी की तरह खड़ा होता है। समाज अगर ऋषियों के कहे अनुसार ही चल रहा होता तो ऋषियों को समाज की सीमाओं से बाहर जंगलों में क्यों ठिकाना बनाना पड़ता?

हम कहते हैं, "नहीं, समाज में जो विकृतियाँ हैं, जो मलिनताएँ हैं वो धर्म ने दी हैं या ऋषियों ने दी हैं।" तथ्य इसके बिलकुल विपरीत है भई। समाज की मलिनताएँ आदमी के पाशविक मन की मलिनताएँ हैं। वो सदा से रही हैं और सदा रहेंगी। प्रत्येक बच्चा अपने साथ बड़ी विकृतियाँ, बड़ी पाशविक वृत्तियाँ लेकर के पैदा होता है। यही बच्चे बनते हैं समाज।

ऋषि तो अपवाद हैं। ऋषि सामाजिक व्यक्ति नहीं हैं। ऋषि तो समाज की मुख्यधारा से कटे हुए एक प्रकाशित, गौरवान्वित अपवाद मात्र हैं। तो समाज पूरा वही करेगा जो उससे उसकी वृत्तियाँ कराती हैं और सामाजिक वृत्ति क्या होती है? कि, "साहब हमें अहंकार को बचाना है", अहंकार बँटवारे पर जीता है। देखो, बाँटोगे नहीं तो 'मैं' कहाँ से आएगा?

बच्चा पैदा होते ही पहला बँटवारा कर लेता है। क्या? मैं हूँ और संसार है। यहाँ तक कि अपनी माँ को भी दूसरा ही मानता है। माँ से उसका बड़ा नज़दीकी शारीरिक रिश्ता होता है आरंभ से ही। लेकिन फिर भी दूजेपन की भावना तो जन्म के पहले क्षण से ही होती है। उदाहरण के लिए, बच्चे को कभी ये डर नहीं सताएगा कि उसका अपना अंगूठा दूर चला जाएगा। पर माँ दूर चली जाएगी, इसका डर उसे लगता है।

बात समझ रहे हो?

तो बँटवारा, विभाजन हमारे शरीर में समाया होता है, हमारी कोशिकाओं में समाया होता है। वो हमें किन्हीं ग्रंथों ने नहीं सिखा दिया, वो चीज़ हम लेकर के पैदा होते हैं। जबकि आजका फ़लसफ़ा ये चलता है कि देखिए, बच्चा तो मासूम पैदा होता है, उसके बाद उसको जात-पात वगैरह तो धर्म सिखा देता है। ये बहुत मूर्खता की बात है। बच्चा मासूम नहीं पैदा होता।

असल में अगर आप बस इस झूठी मान्यता से ऊपर उठ जाएँ तो आप बहुत सारे भ्रमों से बच जाएँगे। क्या है वो मूल झूठी धारणा? कि बच्चा निर्मल-निर्दोष-मासूम पैदा होता है। नहीं, बच्चा घनघोर रूप से मलिन पैदा होता है। बच्चा बड़ा गड़बड़ पैदा होता है, एकदम पशु की तरह पैदा होता है वो। इसीलिए समझाने वालों ने कहा है कि पैदा तो सब शूद्र होते हैं। उन्होंने कहा है कि अगर जाति तुम्हें शरीर को देनी भी है तो जितने भी शरीर आजतक पैदा हुए हैं, सबको एक ही जाति देना — शूद्र।

शूद्र से क्या तात्पर्य है? कि चेतना का जो न्यूनतम स्तर हो सकता है, वो लेकर के बच्चा पैदा होता है। सारे बच्चे, फ़र्क नहीं पड़ता किसके घर में पैदा हुआ है। सब बच्चे, बिना अपवाद के। अब मनुष्य में और पशु के बच्चे में अंतर ये होता है कि पशु का बच्चा जैसा पैदा होता है, वो वैसा ही रह जाता है ज़िन्दगी भर। मनुष्य के बच्चे के साथ संभावना ये होती है कि उसको शिक्षा वगैरह मिले तो वो वैसा ना रह जाए जैसा वो पैदा हुआ था।

समझ रहे हो?

वो जो शिक्षा है जो चेतना को ऊपर उठाती है वो लेने को सब तैयार नहीं होते क्योंकि बड़ी अखरती है, उसकी कीमत अदा करनी पड़ती है।

इसीलिए मैने कहा कि ऋषि अपवाद जैसे होते हैं। हज़ारों में, लाखों में कोई एक ऋषि हो पाता है। क्योंकि आप जिस गंदे आंतरिक बोझ के साथ पैदा हुए हो उसकी सफ़ाई करने की, उसको त्यागने की, उससे मुक्ति पाने की कीमत, मूल्य हर आदमी देना ही नहीं चाहता। क्यों नहीं देना चाहता? क्योंकि उसकी वृत्ति उसे अनुमति नहीं देती।

वृत्ति से मुक्ति की अनुमति तुम्हें कौन नहीं देता? स्वयं वृत्ति ही। वृत्ति कहती है, "मैं बहुत मूल्यवान हूँ।" तो वृत्ति मूल्यवान है ये भी तुम्हें किसने बता दिया? वृत्ति ने ही बता दिया। बड़ा ज़बरदस्त फंदा है, काटना मुश्किल हो जाता है।

तो ऋषि अपवाद होते हैं, सैकड़ों लाखों में एक। तो ये जो बँटवारे की बात है, ये हर तन में जन्मगत होती है। उसे किसी-न-किसी तरीक़े से बाँटना है और बाँटने का मतलब होता है कि कुछ अच्छा होगा, कुछ बुरा होगा। आप कभी भी दो चीज़ों को बाँटते हो तो ये थोड़े ही कहते हो, "दोनों बिलकुल एक बराबर हैं"? बँटवारे का तो मतलब ही है, उसमें कुछ ऊँचा है, कुछ नीचा है, कुछ पसंद है, कुछ नापसंद है, कुछ कहेंगे अच्छा है, बुरा है, उचित है, अनुचित है, यही सब तो करोगे।

तो बँटवारे का मतलब ही है कि उसमें फिर तुम स्तर निर्धारित करोगे, एक हैरार्की की स्थापना करोगे। तल तय करोगे। फिर से उसी छोटे बच्चे के पास जाओ।

अभी चार-पाँच दिन पहले की बात है, मेरे पास एक मिलने के लिए आए, उनकी छोटी बेटी, एकदम छोटी है अभी वो, स्कूल भी नहीं जाती। अब बोल रहे हैं कि ये मीठा पसंद नहीं करती।

तय कर लिया न उसने? नमकीन ऊपर, मीठा नीचे। फिर फलों की बारी आई। बोले, फलों में सिर्फ़ केला पसंद करती है। तय कर लिया न उसने, बँटवारा कर दिया कि नहीं कर दिया?

उसने भी एक क्रम निर्धारित कर दिया कि नहीं कर दिया? एक वरीयता सूची बनाई कि नहीं बनाई? कुछ ऊपर है, कुछ नीचे।

अहंकार इसी में जीता है। अगर सबकुछ एक बराबर है तो 'मैं' टिकेगा कहाँ? अगर सबकुछ एक बराबर है तो 'मैं' चुनाव कैसे करेगा? चुनाव करने के लिए कुछ अच्छा, कुछ बुरा, कुछ करणीय, कुछ अकरणीय होना चाहिए, कुछ वरणीय, कुछ अवरणीय होना चाहिए। तो बँटवारे के साथ चलती है वरीयता। पहले बाँटो फिर कहो, "ये अच्छा, ये बुरा।" ये अहंकार का काम है। वो विविधताएँ देखता है।

समझ में आ रही है बात?

अब दिख रहा है जातिप्रथा क्या है?

तुम्हें ये करना ही करना है, चाहे जिस रूप में करो, चाहे जिस नाम से करो, चाहे जिस आधार पर करो। ये तुमको शास्त्रों ने नहीं सिखाया, ये तुमको तुम्हारे शरीर ने सिखाया है।

समझ में आ रही है बात?

और शरीर की बँटवारे की वृत्ति इतनी प्रबल होती है कि वो अपनी वृत्ति को वैध ठहराने के लिए, जायज़ बताने के लिए धर्मग्रंथों का भी सहारा ले लेता है। या इस तरीक़े के ग्रंथों की रचना भी कर लेता है जिसमें जातिप्रथा इत्यादि को वैध बताया गया हो।

समझ में आ रही है बात?

इसीलिए सिर्फ़ वेदों को अपौरुषेय कहा गया है, स्मृतियों इत्यादि को नहीं। अब मनुस्मृति है, वो अपौरुषेय नहीं है। कोई नहीं कहेगा वो अपौरुषेय है। अपौरुषेय नहीं है तो वो कहाँ से आई माने? आदमी से आई न? मनुष्य के मन से आई। और मनुष्य का मन तो जैसा है वैसा है।

वैदिक नहीं है जातिव्यवस्था। अच्छे से समझ लीजिए। वैदिक यदि होती जातिव्यवस्था तो वेदों के ही जो अमृत हैं उपनिषद, वो जातिव्यवस्था का बार-बार इतना ज़ोरदार, प्रबल खंडन नहीं करते। और कोई नहीं है जो उपनिषदों के पास आकर के कहे कि यहाँ भी जाति मौजूद है। नहीं, बिलकुल नहीं मौजूद है।

समझ में आ रही है बात?

आप पूरी बात समझ पा रहे हैं, कैसे जाति का खेल चलता है?

मुझे अपनी शारीरिक वृत्तियों के चलते किसी-न-किसी तरीक़े से अपने-आपको ऊपर रखना है, किसी को नीचे रखना है। मुझे कुछ ऐसा है जो अपना मानना है, कुछ मुझे पराया मानना है। तो मैं सीमाएँ खीचूँगा, मैं बँटवारा करूँगा और उस बँटवारे को उचित ठहराने के लिए, वैध ठहराने के लिए मैं कुछ ऐसी पुस्तकों की भी रचना कर लूँगा जिसमें इस तरह की बात की गई होगी। वो पुस्तकें आसमान से नहीं उतरी हैं, वो पुस्तकें मैंने ही लिखी हैं। और मैंने लिखी ही इसीलिए हैं ताकि मैं वो काम कर सकूँ जो मुझे करना है।

भई, भारत का संविधान है। उसका जो आमुखी है, जो प्रिएम्बल ही है वही कहता है कि वी द पीपल ऑफ इंडिया गिव टू आउर्सेलवेस दिस कॉन्स्टिट्यूशन , हम भारत के निवासी ये संविधान स्वयं को अर्पित करते हैं। बड़ी ईमानदारी की बात है। कहीं आसमान से नहीं उतरा है संविधान, हम ही ने बनाया है और हम बनाकर के ख़ुद को अर्पित करते हैं। ऐसी ही होती हैं मानव रचित सब किताबें और मानव रचित सब सामाजिक व्यवस्थाएँ और संविधान। हम ही ने बनाए हैं, हम ही ने माने? ये जो आम जन घूम रहे हैं, उन्होंने ही बनाए हैं। ऋषियों ने नहीं बना दिए।

ऋषियों ने जो ग्रंथ बनाए हैं वो बिलकुल दूसरे हैं। बार-बार कह रहा हूँ, उन्हें उपनिषद कहते हैं। और उपनिषद क्या कह रहे हैं वो बात आपके सामने है। उपनिषद तो खिल्ली उड़ा रहे हैं जातिव्यवस्था की। कह रहे हैं, "किसकी जाति?"

ऋषियों का यही तरीक़ा है। आप उनसे जाकर पूछेंगे कि "महाराज, जाति में कुछ वैधता है या नहीं?" तो कहेंगे, "जाति, पर किसकी? पहले स्पष्ट तो कर दो। *प्लीज़ स्पेसिफाई*। किसकी, बाल की?"

"नहीं, नहीं, नहीं इंसान की। इंसान की बताइए न। ऋषिवर, जाति ठीक होती है कि नहीं?"

"नहीं इंसान माने क्या, पहले इंसान माने क्या ये बताओ। इंसान माने उसकी नाक, उसकी पुतली, उसकी ज़बान, उसकी ख़ाल, उसके कपड़े?"

"नहीं, नहीं, नहीं इनकी तो कोई जाति नहीं।"

"तो इंसान माने क्या?"

"नहीं इंसान माने जो वो अंदर से होता है।"

"अच्छा, अंदर से माने इंसान की सच्चाई की बात कर रहे हो? आत्मा?"

"नहीं आत्मा भी नहीं।"

"तो इंसान माने क्या, किसकी जाति की बात कर रहे हो?"

बस बात साफ़ हो गई। उन्होंने एक बार ये पूछ लिया न, "जाति, पर किसकी?" बात वहीं साफ़ हो जाती है। हाड़-माँस की जाति नहीं हो सकती और कह रहे हैं आत्मा की भी जाति नहीं हो सकती। आत्मा तो एक है, जाति के लिए तो विभाजन चाहिए। आत्मा तो निर्गुण है, जाति के लिए कोई गुण चाहिए। आत्मा अजात है, जाति के लिए जन्म चाहिए।

समझ में आ रही है बात?

ऋषियों ने तो कोशिश करी है जातिव्यवस्था को हटाने की। उल्टी गंगा मत बहाओ। उल्टे आरोप मत लगाओ। ये मत कहो कि ऋषियों ने जातिव्यवस्था बढ़ाई, फैलाई। यहाँ देख रहे हो न ऋषि क्या कर रहे हैं?

समाज से उठ कर आया है शिष्य और शिष्य पूछ रहा है, "जाति क्या है?" माने समाज में क्या प्रचलित है? जाति। समाज में है जाति और ऋषि कह रहे हैं, "जाति व्यर्थ है।" ऋषि तो जाति का उपहास कर रहे हैं।

ये तब भी हो रहा था, ये आज भी हो रहा है। जाति सामाजिक है, धार्मिक नहीं है ये अच्छे से समझो। और सामाजिक क्यों है, ये जाकर तुम समाज के ठेकेदारों से पूछो। ऋषियों से क्या सवाल-जवाब कर रहे हो, कि "अरे-अरे तुम लोगों ने क्या जाति फैलाई।" उन्होंने तो यथाशक्ति प्रयत्न करा है जाति जैसी मूर्खतापूर्ण चीज़ों को हटाने का। उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे।

तुम सामाजिक लोग जो समाज में रहते हो, समाज के नियम-कायदों से चलते हो, इत्यादि इत्यादि। जाति वगैरह तुम्हारी दुनियादारी की बात है भई। तुम्हें सौ तरीक़े से बँटवारे करने होते हैं, "ये मेरा घर, ये पड़ोसी का घर। फलाना चचा मुझे पसंद है, फलाना ताऊ मुझे नापसंद है। इस रंग की धोती पहनता हूँ, उस रंग की धोती ठीक नहीं है। हफ़्ते में फलाने दिन मैं बाल नहीं कटाता, हफ़्ते में फलाने दिन मैं खाना नहीं खाता।"

ये सब तरीक़े के विभाजन तुम करते हो, ये ऋषियों ने थोड़े ही करे हैं। जैसे तुम हज़ार तरीक़े के विभाजन करते हो, वैसे ही तुम विभाजन आदमी और आदमी में भी कर लेते हो। कहते हो, "ये ऊँचा है, ये नीचा है।"

भारत में ही नहीं, दुनिया भर में ऐसे विभाजन हुए हैं। एक काला है, एक गोरा है। तुम मुझे कोई धार्मिक धारा बता दो जिसके भीतर विभाजन ना हों। इसाईयत ले लो, इस्लाम ले लो। यहाँ तक कि तुम उन धाराओं को भी ले लो जिनका जन्म ही इस आधार पर हुआ था कि यहाँ कोई भेदभाव नहीं होगा। वहाँ भी भेदभाव है, इसलिए नहीं कि उन धर्मों ने या उन संप्रदायों ने भेदभाव सिखाया है। वहाँ भेदभाव इसलिए है क्योंकि कितना भी सिखा लो, आदमी का बच्चा रहता तो जानवर का जानवर है।

ये ऐसी सी बात है कि मरीज़ की हालत बहुत ख़राब है, बहुत ख़राब है, बहुत ख़राब है और तुम उसे लेकर के आओ चिकित्सक के पास और चिकित्सक भरपूर उसके साथ कोशिश कर रहा है, कर रहा है, लेकिन मरीज़ है बिलकुल दुरबुद्धी और हठी। चिकित्सक के बताए अनुसार चलता भी नहीं है।

ऋषियों की सीख पर ये समाज चलता है क्या?

तो चिकित्सक जो बात बता रहा है उसको मरीज़ मान भी नहीं रहा है। नतीजा, उसका रोग पहले की तरह ही बना हुआ है या ठीक होता भी है तो थोड़ा बहुत। और तुम ये सब देखो और जाकर के चिकित्सक का सर फोड़ दो। कहो, "बहुत बेकार है ये। इसी ने तो उसको रोग लगा दिया। इसकी दवाई से ही उसको रोग लग गया है।"

तुम पागल हो बिलकुल? कैसी बातें कर रहे हो? वो जो मरीज़ है वो पैदाइशी रोगी ही। उसके शरीर की हर कोशिका में रुग्णता है। उसको किसी ने बीमार नहीं किया, उसको जन्म ने बीमार किया है। हर इंसान आंतरिक रूप से बीमार ही पैदा होता है। किसी को दोष मत देना यदि किसी बच्चे में तुम हिंसा देखो तो। किसी ने उसमें हिंसा स्थापित नहीं कर दी है। और छोटे बच्चे बहुत हिंसक होते हैं। बाल नोचना, घूँसे मारना, छोटे-छोटे नीचे जानवर जा रहे हों, कीड़े-मकोड़े, प्राणियों को उनको काट देना, कुछ भी कर देना। वो तो उनके पास शारीरिक सामर्थ्य नहीं होती, नहीं तो ये जो नन्हे बालक होते हैं, बहुत कुछ ऊटपटाँग कर जाएँ।

ईर्ष्या छोटे बच्चों में नहीं होती, बिलकुल छोटे बच्चों में? भरपूर होती है। डर नहीं होता वहाँ पर? और तो और अगर तुम मनोविज्ञान पढ़ोगे तो पाओगे कि छोटे से छोटे बच्चों में कामवासना तक होती है, बीज रूप में मौजूद। वो कई बार अपनी कामवासना बड़े खुलेआम प्रदर्शित भी कर देते हैं। आपको मेरी बात अटपटी लगेगी, लेकिन एकदम ही जो छोटे बालक होते हैं, वो तक हस्तमैथुन की कोशिश करते हैं। एकदम ही छोटे होते हैं जो। नहीं, उनके प्रयास से कुछ होता नहीं पर ये वृत्ति जन्मगत होती है। और मेरी बात आपको अगर पच ना रही हो तो पढ़ लें या गूगल कर लें या जाकर के किसी मनोवैज्ञानिक से बात कर लें। वो जो ज़रा सा बच्चा है वो अपने साथ सारे दोष, सारे दुर्गुण लेकर पैदा हुआ है। कहाँ से आपने राग अलापना शुरू कर दिया, "बच्चे की तरह मासूम!" कौनसी मासूमियत?

मासूमियत तो बड़ी साधना के बाद किसी ऋषि में मिलती है। बच्चे में थोड़े ही मासूमियत होगी कि पैदा भर होने से मासूम हो गया? मासूम होना बहुत बड़ी नियामत होती है। निर्दोषता को उपलब्ध हो जाना निर्वाण से कम नहीं। ऐसे ही आप निर्दोष हो जाएँगे कि पैदा हुए, निर्दोष हो गए?

कह रहे हैं, "ये तो निर्दोष है, निर्मल, मासूम बच्चा है, निष्कपट। ये तो कुछ जानता ही नहीं।" तो फिर तो वो साक्षात बुद्ध ही होगा अगर एकदम ही वो निरंजन-निष्कपट हो गया है तो। ऐसा नहीं है।

बात समझ में आ रही है?

तो हम पैदाइशी बीमार हैं, ऋषि हमारे चिकित्सक हैं। लेकिन हम ऐसे मूरख और हेय कोटि के मरीज़ होते हैं कि ऋषि कितनी भी कोशिश कर लें, हम सुधरते नहीं। और उसपर तुर्रा ये कि जब हम सुधरते नहीं तो हम आरोप लगाते हैं कि ऋषि ने हमें बीमार कर दिया। "ऋषि ने हमें बीमार कर दिया। जातिव्यवस्था ऋषियों की ही तो फैलाई हुई है।"

ये आरोप देखो। इस आरोप में मूर्खता तो है ही, मुझे बड़ा दुःख होता है कि कृतघ्नता कितनी है। कृतघ्नता समझते हो? एहसान फ़रामोशी।

उन्होंने तुम्हें क्या दिया और तुम उनपर क्या लाँछन लगा रहे हो! और ये जो लाँछन है, अब बड़ा समाजस्वीकृत हो चुका है। किसी ऋषि का कोई चित्र हो तो आजकल के उदारमना, बुद्धिजीवी जितने हैं वो उसको देखकर कहेंगे, "यही तो है। यही तो है। इसी ने तो जातिव्यवस्था शुरू कर रखी है। यही तो है, यही तो है।"

उसने नहीं शुरू कर रखी। तुमने शुरू कर रखी है, उन्होंने तो जाति हटाने की पूरी कोशिश की थी पर तुम मानो तब न। जो तुम्हें बचाने आया था, तुम उसी का हाथ काट रहे हो। जो तुम्हारे ऊपर का और अन्दर का मल साफ़ करने आया था, तुम उसी के ऊपर कीचड़ उछाल रहे हो। तुमको उपनिषदों और मनुस्मृति में अंतर नहीं समझ में आता?

कुछ समझ में आ रही है बात?

साफ़ कह रहे हैं कि जाति की प्रकल्पना तो केवल व्यवहार के निमित्त है। ये जो तुम्हारा सामाजिक व्यवहार चलता है, इसमें तुमने जाति बैठा रखी है, नहीं तो जाति की बात बिलकुल प्रपंच है, कुछ नहीं है। एकदम मिथ्या, मानसिक क्योंकि शरीर की नहीं जाति, आत्मा की नहीं जाति, तो ले-देकर जाति का खिलौना खड़ा किसने करा है? ये बखेड़ा पूरा आया कहाँ से?

मन से।

तो मानसिक है, माने काल्पनिक है। तुम्हारी सोच में है जात। ना शरीर में है, ना आत्मा में है। ना प्रकृति में है, ना सत्य में है। विचार मात्र में है।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम, हम लोग ये भी सीखे हैं कि मन भी शरीर ही है। शरीर मन एक ही चीज़ हैं। तो जब शरीर की नहीं और सत्य की है नहीं तो फिर ये मन की कहाँ से है? मन भी तो शरीर ही है।

आचार्य: नहीं, मन शरीर से उठने वाली वृत्तियों का आरोपण है आत्मा पर।

मन क्या है? अगर आप शरीर मात्र को लें तो वो पदार्थ है, उसमें कोई चेतना होती नहीं। मन में चेतना कहाँ से आ गई?

शारीरिक वृत्तियाँ जब आत्मा को ढक लेती हैं, उस चीज़ को मन कहते हैं। आत्मा है विशुद्ध चेतना, शरीर है विशुद्ध पदार्थ। आत्मा है विशुद्ध चेतना, शरीर है विशुद्ध पदार्थ, मन क्या चीज़ हुई फिर? कि ये जो पदार्थ है, ये जब चेतना को संक्रमित कर देता है, चेतना पर स्वयं को आरोपित कर देता है, सुपरइम्पोज कर देता है, उसको मन कहते हैं।

बात समझ रहे हो?

और यही जो मन है यही सबसे मिथ्या चीज़ है। क्योंकि आप देख ही नहीं पा रहे हो मन होकर के कि आत्मा और शरीर एकदम पृथक हैं।

मन क्या करता है? जो दो अलग-अलग हैं, आत्मा और शरीर उनको एक बना देता है।

ठीक है न?

जब उनको एक बना देता है तो मन के अनुसार शरीर ही आत्मा हो जाता है क्योंकि दोनों को तो उसने एक बना दिया न। और फिर शरीर ही क्या हो जाता है? सत्य हो जाता है। शरीर यदि आत्मा है तो शरीर सत्य है।

समझ रहे हो?

तो जहाँ तक पदार्थ की बात है, उसकी कोई जाति नहीं होती। लेकिन वही पदार्थ जब सत्य पर चढ़ बैठता है तो तमाम तरीके के विचित्र खेल खेलता है अर्धविक्षिप्त चेतना बनकर। ना तो शुद्ध पदार्थ की कोई जाति है, ना शुद्ध चेतना माने आत्मा की कोई जाति है। पर ये दोनों जब मिल बैठे हैं जिसको माया कहते हैं - दो ऐसों को मिला देना जिनका कोई मेल हो नहीं सकता - ये दोनों जब मिल बैठे हैं तो मन का निर्माण होता है। तो इस तरह से मन मात्र शरीर नहीं है। मन शरीर मात्र नहीं है। मन यदि शरीर मात्र होता तो मुर्दे में भी मन होता। मन यदि शरीर मात्र होता तो आपके शरीर में नब्बे प्रतिशत से ज़्यादा बस कार्बन है, ऑक्सीजन है, नाइट्रोजन है, ये तीन तत्व हैं, इन तीनों को आप ले लेते और शरीर में जिस अनुपात में ये मौजूद हैं, उस अनुपात में मिला देते तो भी चेतना आ जाती। नहीं आती न?

बात समझ रहे हैं?

तो शरीर से ही मन नहीं हो जाता है। शरीर और आत्मा के मध्य जब एक विचित्र सेतु बन जाता है, उसको मन कहते हैं।

वो सेतु करता क्या है? वो आत्मा को शरीर और शरीर को आत्मा बना देता है। माने उसके लिए जो सत्य है वो संसार हो जाता है। पदार्थ ही उसका सत्य होता है। शरीर माने पदार्थ, आत्मा माने सत्य, दोनों को अगर एक बना दिया तो पदार्थ ही क्या हो गया? सत्य हो गया।

तो शरीर की कोई जाति नहीं होगी, आत्मा की भी कोई जाति नहीं होगी लेकिन ये जो बीच में घपला हो जाता है, ये जाति पैदा कर देता है।

समझ में आ रही है बात?

कार्बन, ऑक्सीजन, नाइट्रोजन ये जो आपका शरीर है, इसकी कोई जाति नहीं होने वाली। ना ये जो आपके शरीर में अणु-परमाणु हैं, ये कूदकर के आएँगे, कहेंगे, "जाति जाति।"

ठीक है?

आपकी चेतना प्रसुप्त हो, माने मन सोया पड़ा हो तो क्या आपका शरीर जाति याद रखता है?

आप अपने-आपको कुछ मानते होंगे, मान लीजिए आप अपने-आपको ब्राह्मण मानते हैं। जब मन सोया पड़ा है तब भी क्या आप ब्राह्मण होते हैं? शरीर तो होता है न?

तो पहली बात तो शरीर और मन बिलकुल एक नहीं होते। क्योंकि शरीर है, मन सोया पड़ा है। जब मन सोया पड़ा है तो शरीर की जाति बचती है क्या?

तो दो बातें हैं, पहली — मन और शरीर एक ही नहीं हैं। शरीर आपका जैसा है ऐसा रहते हुए भी मन बिलकुल बदला जा सकता है। शरीर आपका जैसा है ऐसा रहते हुए भी मन बिलकुल बदला जा सकता है और मन तो बदलता ही रहता है।

'मन के बहुतक रंग हैं पल-पल बदले सोय।'

क्या शरीर भी बदल रहा है साथ में? तो मन शरीर से भिन्न है और ये जो भिन्नता है यही जाति की कल्पना करे बैठे है। मन ना हो तो शरीर कभी उठकर नहीं कहने वाला कि "मेरी जाति है।"

जाति से फिर मुक्त कौन होता है? अच्छे से समझेंगे। जाति से दो ही हैं जो मुक्त हो सकते हैं। एक वो जो पूरे तरीके से प्रकृतिस्थ हो जाए। उनके लिए अब जाति जैसी कोई चीज़ नहीं रहेगी। चेतना शून्य ही हो जाएँ बिलकुल। कह लीजिए, जैसे क़रीब-क़रीब बेहोश आदमी, उसके लिए कोई जाति नहीं बचेगी।

चेतना को बिलकुल गिरा दो, गिरा दो, गिरा दो। कोई जाति नहीं बचेगी, बेहोश हो गए।

दूसरा उदाहरण देता हूँ। पंडित जी दिन में छाया से भी बचकर रहते थे कुछ तथाकथित निचली जाति के लोगों की। एक दिन रात में पाया गया, आधी रात के बाद कि पंडित जी उन्हीं तथाकथित नीची जाति के लोगों के साथ नशे में धुत हैं।

नशे के जो यार होते हैं उनके बीच जात-पात चलती है क्या?

अपनी चेतना को आप ख़ूब गिरा दीजिए, जाति हट जाएगी। आप उन कामों में लग जाइए जिनमें चेतना अपने न्यूनतम स्तर पर रहती है, निम्नतम स्तर पर, जाति हट जाएगी। जो व्यक्ति वैश्यालय जा रहा है वो वैश्या से उसकी जाति पूछकर के संभोग करता है?

घटिया कामों में आप उतर आइए, जाति बिलकुल मिट जाएगी। हाँ, उसके बाद वो सुबह-सुबह जाएगा, पवित्र जल में स्नान करेगा और सब आते-जातों से पूछेगा — मैं थोड़ा अतिसंयोक्ति कर रहा हूँ पर बात समझिएगा — सब आते-जातों से जाति वगैरह पूछेगा और हो सकता है कि वैश्या की छाया से भी बचकर चले, कि "अरे-अरे, ये तो गर्हित स्त्री है।" और रात में उसी गर्हित स्त्री का थूक चाट रहा था।

घटिया कामों में लिप्त हो जाओ, जाति मिट जाएगी। खेद की बात ये है कि आधुनिक लिबरल (उदार) समाज ने जाति को मिटाने का यही तरीका निकाला है। सबको चेतना के सबसे निचले स्तर पर गिरा दो, जाति मिट जाएगी।

और जाति मिटाने का दूसरा तरीका उपनिषदों का है। सबको चेतना के ऊँचे और ऊँचे स्तरों पर ले जाओ, वहाँ भी जाति मिट जाएगी। जो काम ऋषि करते हैं। अब आपको तय करना है कि जाति कैसे मिटानी है।

सब में कामवासना बुरी तरह भड़का दीजिए, और शहर भर में तमाम अलग-अलग नामों से, अलग-अलग बहानों से तरह-तरह के वैश्यालय खड़ा कर दीजिए, जाति मिट जाएगी। आपको बस ये करना है कि शहर के सब जवान लोगों में कुछ करके लगातार आप कामवासना भड़काए रहें। और आपको ये करना है कि वैशायालय को वैशायालय ना बोलें, उसे कुछ और बोल दें। आप उसे थियेटर बोल सकते हैं या आप उसे कुछ और बोल सकते हैं। जाति मिट जाएगी। कोई एक-दूसरे से नहीं पूछेगा, "तुम किस जाति के हो, तुम किस जाति के हो?"

और जाति को मिटाने का एक और तरीका है जो थोड़ा कठिन है इसीलिए लोग उसको आज़माते नहीं। वो यही है कि आदमी को ऐसी शिक्षा मिले, ऐसा ज्ञान मिले कि उसका मन साफ़ हो, उसकी समझ में गहराई आए, उसकी चेतना ऊँचाई पाए। वो भी जाति का ख़्याल नहीं करेगा।

सिगरेट, हुक्का, ये सब जब चल रहा होता है तो आप देखते हो न, एक ने कश मारा और दूसरे को थमा देता है। कौन उस वक़्त सोच रहा है कि किसके होठों से उठ कर सिगरेट मेरे होठों तक आई है। हाँ, आप सिगरेट के साथ कुछ खा-पी रहे हैं तो सबके चम्मच अलग-अलग होंगे। बात बहुत अजीब है। चम्मच अलग हैं, सिगरेट एक है।

ये कैसे हुआ?

प्र: आचार्य जी, एक संदेह और है कि त्रिगुणात्मक प्रकृति है, तीन गुण वाली — सत, रज, तम वाली। तो उस आधार पर भी कभी-कभी लिंक (जोड़) कर देते हैं जाति को कि वो सत वाला है, वो तम वाले से ऊँचा है।

आचार्य: नहीं, वो ठीक है पर जिनका जन्म हो रहा है उनमें कौनसा भेद है?

आप अगर ये भी कहना चाहते हो कि कोई बच्चा पैदा होता है तो वो ज़्यादा सतगुणी है, कोई पैदा होता है ज़्यादा तमोगुणी है तो फिर तो उसमें भी आपके लिए जाति को विभाजन करना बड़ा मुश्किल हो जाएगा।

आप क्या कहोगे, कि दुनियाभर में जितने तमोगुणी लोग हैं, वो सब एक जाति के हैं, दूसरे जो हैं रजोगुणी वो एक जाति के हैं, सतोगुणी तीसरी जाति के हैं, तीन ही जातियाँ फिर चलनी चाहिए दुनिया में। और ये तीन जातियाँ आप चलाओगे तो भी मुश्किल हो जाएगी। क्योंकि जो आज तमोगुणी है वो ज़रूरी नहीं है कि कल भी रहे। इतना ही नहीं हो सकता कि वो तमोगुणी से उठकर के सात्विक हो जाए, ये तक हो सकता है कि वो त्रिगुणातीत चला गया है। कौनसी जाति?

अगर आप ये मान भी लो कि प्रकृति में तीन गुण होते हैं तो उन तीन गुणों के आधार पर तीन विभाजन कर दिए जाएँ तो भी ये तीन विभाजन स्थाई नहीं हो सकते। और अध्यात्म तो करता ही यही है कि तुम प्रकृति के जिस भी गुण से आबद्ध हो, तुम्हें उससे छुटकारा दिला दे। तो अध्यात्म का तो काम है आपकी जाति को नष्ट कर देना। आप अगर कहोगे कि आपकी जाति है रजोगुणी तो अध्यात्म आपकी जाति को नष्ट कर देगा। और वैसे भी जिस तरह से जातिप्रथा चलती है उसमें ये थोड़े ही देखा जाता है कि कौन किस गुण के आधिक्य के साथ पैदा हुआ है। उसमें तो ये देखा जाता है कि कौन किस घर में पैदा हुआ है।

घर के साथ कोई जाति इत्यादि नहीं चल सकती। आदमी और आदमी में देखिए फ़र्क अगर करना ही है तो सिर्फ़ इस आधार पर हो सकता है कि किसकी चेतना का तल कितना है। और ये अंतर करना वैध होगा, जायज़ होगा, न्यायसंगत होगा। क्यों? क्योंकि अपनी चेतना का निर्धारण करने की शक्ति और विकल्प आपको उपलब्ध है।

ये कोई जन्मगत जाति जैसी बात नहीं कि "मैं क्या करूँ मेरा घर ही अगर फलाने परिवार में हो गया, मैं क्या कर सकता हूँ?"

आप अगर पच्चीस वर्षीय हैं, पैतीस या पैतालीस वर्षीय हैं और आपकी चेतना बड़े निचले तल की है, आपकी सोच में कोई गहराई नहीं है, आपकी समझ में कोई पैनापन नहीं है तो आप ये नहीं कह सकते कि आप क्या करें, आपकी तो पैदाइश ही ग़लत हुई है या परवरिश ही ग़लत हुई। आपके पास सदा चुनाव का विकल्प था। आपमें सामर्थ्य थी कि ज़िन्दगी जैसी भी है उसको और गहराई से देखें, सोचें, समझें।

आपने नहीं किया। तो बस यही आधार है जिस आधार से आप किसी मनुष्य को श्रेष्ठ कह सकते हो और किसी मनुष्य को हीन कह सकते हो। मैं फिर कह रहा हूँ — कुछ मनुष्य श्रेष्ठ होते हैं, कुछ मनुष्य हीन होते हैं लेकिन वो श्रेष्ठता और हीनता जन्म से नहीं होती। वो आपके अपने चुनावों और कर्मों से होती है। आपने क्या चुना, आप कैसे जिए इससे निर्धारित होता है कि आप कितने ऊँचे आदमी कहलाने योग्य हो। और वो जो श्रेष्ठता और हीनता है वो जीवन में कभी भी पाई जा सकती है और गँवाई भी जा सकती है। जाति की तरह नहीं कि एक बार ठप्पा लग गया तो लग गया।

आप पैंतालीस की उमर में भी अगर संकल्प करो कि आपको एक बेहतर व्यक्ति बनना है तो आपको मौका उपलब्ध है। आपके पास कुछ ऊँचा लक्ष्य होना तो चाहिए, मौका उपलब्ध है। जीवन किसी के साथ ये अन्याय नहीं करता।

देखिए, हो सकता है आर्थिक तरक्की के रास्ते आपको उपलब्ध ना हों, हो सकता है राजनैतिक सत्ता के रास्ते आपको उपलब्ध ना हों लेकिन आंतरिक तरक्की का रास्ता प्रत्येक व्यक्ति को प्रत्येक क्षण पर उपलब्ध होता है। वो आपसे कोई नहीं छीन सकता। ये इंसान की सबसे बड़ी ताक़त है। आपसे सब कुछ छीना जा सकता है लेकिन आपसे आपकी समझने की शक्ति नहीं छीनी जा सकती।

कोई कहे कि उसने आपका सब छीन लिया, आप कहो कि "तुम मेरे समझने की ताक़त थोड़े ही छीन सकते हो?"

वो एक चीज़ है जो आपकी अपनी है। और वो अगर आपकी अपनी है तो उसका प्रयोग करने या ना करने की ज़िम्मेदारी भी पूरी तरह आपकी है। मन को ऊँचा उठाने के विकल्प का आपने कभी इस्तेमाल नहीं किया, किसी और को दोष मत दीजिएगा। मत कहिएगा, "मैं क्या करूँ, मुझे बचपन से माहौल ही अच्छा नहीं मिला, किताबें अच्छी नहीं मिलीं, मैं फलाने विद्यालय नहीं गया, मेरा कॉलेज ऐसा नहीं था, मेरी यूनिवर्सिटी में संगति ठीक नहीं थी।"

अरे, युनिवर्सिटी में लोग नहीं ठीक थे तो तुम कहीं और की संगति करते। और तुम्हारे विश्वविद्यालय में अगर तीन हज़ार, पाँच हज़ार लोग थे, पन्द्रह हज़ार लोग थे, वो सब-के-सब व्यर्थ थे, सब बेहूदा थे? तुम क्या बोल रहे हो? साफ़-साफ़ मानते क्यों नहीं कि संगति का चुनाव व्यक्ति स्वयं करता है?

हाँ, ये कह सकते हो तुम ज़रूर कि कई बार कुछ चुनाव कठिन होते हैं। कई बार कुछ चुनावों में बड़ा श्रम लगता है, बड़ा मूल्य देना पड़ता है। वहाँ तक आपकी बात सही होगी लेकिन अगर आप ये कहें कि आपके पास कोई विकल्प ही नहीं तो आप झूठ बोल रहे हैं, आप बेईमानी कर रहे हैं।

समझ रहे हैं?

तो इंसान और इंसान में भेद अवश्य किया जाना चाहिए। यहाँ तक कि एक व्यक्ति को भी अपनी एक और दूसरी अवस्था में भेद करना चाहिए। एक क्षण हो सकता है आपके अनुभव में जब आप उपनिषदों के सामने बैठे हैं और देखिए आपका उस समय मन कैसा है, देखिए कि भीतर उस वक़्त कितनी शुद्ध गंगा बह रही है। और उसी के कुछ घण्टों आगे या पीछे एक क्षण हो सकता है जब आप किसी फ़ूहड़ काम में लिप्त थे। नशाखोरी कर रहे थे, मारापिटी कर रहे थे, गालीगलौज कर रहे थे। तब याद करिए, उस समय आपकी शक्ल कैसी थी और आँखें कैसी थीं और मन कैसा था।

तो ये तो छोड़िए कि दो आदमीयों में अंतर होता है, एक आदमी की भी अपनी चेतना में अंतर होता है। एक समय पर उसको 'आप' कहना चाहिए और उससे कुछ घण्टों बाद ही वो ऐसा हो सकता है कि उसे 'तू' कहकर संबोधित किया जाए। एक ही व्यक्ति को। एक ही व्यक्ति दिन में ग्यारह बजे सम्मान का अधिकारी हो सकता है और रात में ग्यारह बजे घोर अपमान का अधिकारी हो सकता है। तो अंतर तो ज़रूर किया जाना चाहिए। जो अपमान का अधिकारी है उसे इस आधार पर नहीं छोड़ सकते कि, "सुबह ग्यारह बजे तो ये सम्माननीय था, अब कैसे इसका मान छीन लें?"

इसी तरीके से एक बार जिसका अपमान कर लिया, अगर क्षणभर बाद ही पाओ कि उसने मन के किसी ऊँचे तल का चुनाव कर लिया है, वो व्यक्ति भीतर से अभी कहीं और ऊँचा जाकर के बैठ गया है, तो उसको सम्मान दो। फिर ये ना कहो कि "अभी एक घण्टे पहले तो ये मूरख कैसी बहकी हुई बातें कर रहा था।"

एक घण्टे पहले मूर्ख था, अभी नहीं है। अगर अभी वो मूरख नहीं है तो अभी उसे सम्मान दो।

बात समझ में आ रही है?

ठप्पे मत लगाओ। कोई भी व्यक्ति कुछ भी सदा नहीं होता, हम एक प्रवाह हैं। हम निरंतर परिवर्तनशील हैं। क्या ठप्पे लगा रहे हो! जो जिस वक़्त जैसा है वो उस वक़्त उसके अनुसार बर्ताव का, व्यवहार का अधिकारी है।

तुम भी जिस वक़्त जैसे हो उस समय उसी अनुसार अपने प्रति कर्म करो, अपने प्रति दृष्टि रखो। स्वयं को भी पुरस्कार भी दिया करो, दंड भी। क्योंकि तुम एक नहीं हो, कोई भी एक नहीं होता। हम सब लगातार बदलते रहते हैं। जिस वक़्त जैसे हो, उस वक़्त वैसा अपने-आपको देखो, जानो।

जाति क्या कर देती है? कि कोई अब निश्चित रूप से अपरिवर्तनीय रूप से ऊपर है और कोई निश्चित रूप से अपरिवर्तनीय रूप से नीचे है। ये बात एकदम ग़लत है। ऐसा नहीं हो सकता।

अगर निश्चित रूप से कोई ऊपर है तो वो सत्य है, निश्चित रूप से कोई नीचे है तो वो असत्य है। इनके अलावा कुछ नहीं है जिसको तुम्हें निश्चित मानना है। सब प्रवाहमान है।

स्पष्ट हो रही है बात?

प्र२: प्रणाम आचार्य जी, आचार्य जी, जातिव्यवस्था इतनी अंतर्निहित है कि इससे निजात पाना बहुत मुश्किल है। तो क्या इसका प्रयोग आध्यात्मिक प्रगति के लिए किया जा सकता है?

आचार्य: नहीं, ऐसा कोई प्रयोग नहीं किया जा सकता। जो चीज़ ही व्यर्थ है, झूठी है उसका आप सही क्या प्रयोग कर लोगे? और आप क्यों कह रहे हो कि ये चीज़ इतनी गहरी है कि इससे निजात पाना मुश्किल है?

ना जाने कितने हज़ार, कितने लाखों लोग हैं जो जाति के संकीर्ण दायरों से कबके बाहर आ चुके हैं। मैं हिन्दू समाज की बात रहा हूँ। लाखों, बल्कि हो सकता है करोड़ों लोग हों जिनके मन से और जिनके जीवन से जाति पूरी तरह निकल चुकी हो। तो आप ही क्यों कह रहे हैं कि बड़ी मुश्किल है, और पता नहीं क्या है उसका मतलब।

मैं आपके सामने बैठा हूँ, मैं सच कह रहा हूँ, अभी यहाँ जो लोग मौजूद हैं मुझे शायद उनमें से दो-चार की भी जाति नहीं पता। जिनकी एकदम ही स्पष्ट है उनकी तो पता चल ही जाती है क्योंकि वो तो उनका उपनाम ही ढिंढोरा पीट देता है। शर्मा साहब हैं तो पता है कि क्या हैं। वरना इतने लोग तो संस्था में ही हैं और सालों से हैं, मुझे नहीं पता उनकी जाति। विचार ही नहीं आया कभी।

अब आप कह रहे हैं कि जाति बड़ी अकाट्य चीज़ है तो इसलिए मैं उदाहरण के तौर पर बता रहा हूँ। जिस दिन से आप लोगों से बात ही करना शुरू कर दिया कि अब यही है, उस दिन से तो जो मैंने भी अपना जातिसूचक उपनाम था वो त्याग ही दिया। वो बस अब सरकारी फाइलों में है। तो जाति से मुक्ति कैसे आपको इतनी दुष्कर लग रही है मैं नहीं समझ पाता।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
Categories