पुराण दिखाएँ मन का विस्तार, उपनिषद ले जाएँ मन के पार

Acharya Prashant

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पुराण दिखाएँ मन का विस्तार, उपनिषद ले जाएँ मन के पार

प्रश्नकर्ता: गरुड़ पुराण और ये सारे, जो वाचे जाते हैं, ये भी कल्पना हैं? कहीं न कहीं से तो ये आया है।

आचार्य प्रशांत: कुछ भी जो है, वो कहाँ से आता है? कुछ भी जिसको आप बोलते हो कि “है”, वो कहाँ से आता है? बोलिए?

प्र: रचना तो है ही, ये भी।

आचार्य: किसकी रचना है? कहाँ से है वो सबकुछ जिसको आप कहते हो कि “है”?

पुराण का अर्थ होता है समय में पुराना, पुराना। जो कुछ भी समय में है वो पुराण है, जो कुछ भी समयातीत है वो उपनिषद् है।

पुराण का अर्थ है, आदमी के मन की संरचना। पुराण का अर्थ है वो किस्से-कहानियाँ जो तब भी चल रहे थे और अब भी चल रहे हैं, पर हैं किस्से ही कहानियाँ।

तीन शब्द हैं इनमें अंतर करना सीखिए, इतिहास, पुराण और उपनिषद् ले लीजिए, तीनों प्रतीक हैं। एक ऐतिहासिक ग्रंथ होता है, वो उस घटना के बारे में बताता है जो घटी और घट कर के खत्म हो गई। फिर पुराण होते हैं, उनमें वो कहानियाँ हैं, वो बातें हैं जो आपके मन की वृत्तियों को दर्शाती हैं कि आदमी बार-बार, वही करा जा रहा है। वही चक्र है, जो नए रूपों में, बदली हुई-सी स्थितियों में, सामने आ रहे हैं, पर हैं बात वही, कुछ नया नहीं हो गया। पुराने किसी राजा की कहानी होगी कि "उसे अपनी एक पत्नी से आसक्ति हो गई थी और उसके पंद्रह-सौ पुत्र थे। फिर फलाने देवता ने आशीर्वाद दिया," ऐसे करके।

क्या है उस कहानी के मूल में? आसक्ति, काम, भय, लोभ। वही कहानी तो आज भी दोहराई जा रही है न? आज भी तो वही बात घर-घर में है, तब उस कहानी का पात्र था राजा। पात्र बदल गए हैं, किरदार नए नाम लेके आए हैं, पर बात तो वही चल रही है, कुछ बदला तो नहीं है। उसे अपनी रानी से मोह था, आपको अपनी पत्नी से। क्या बदल गया? कुछ बदला नहीं।

उपनिषद् वो, जो उसकी बात करे जो समय का भी आधार है, उसकी बात नहीं जो समय में लगातार चलता ही रहेगा।

पुराण समय के तथ्य को सामने लाते हैं, समय का तथ्य अर्थात् मन की वृत्ति। पुराण मन की वृत्ति को सामने लाते हैं, मन की कल्पनाओं को खोल के रख देते हैं और उपनिषद् वहाँ लेकर के जाते हैं जहाँ कल्पनाओं के लिए कोई जगह नहीं है, जहाँ मात्र एक अकल्पनीय, नग्न सत्य है।

प्र: आचार्य जी, लेकिन उपनिषद् भी तो किसी न किसी की रचना ही होगी न?

आचार्य: जब एक उपनिषद् लिखा जाता है तो उसका कोई रचनाकार नहीं होता, कोई रचनाकार नहीं होता।

उपनिषद् वही, जो रचनाकार के न होने पर सामने आए। यदि रचनाकार अभी है, तो उपनिषद कैसा? अधिकांश ऋषियों ने अपने नाम तक लिखने ज़रूरी नहीं समझे। और इसमें बात कोई विनम्रता की नहीं है, बात तथ्य की है। उन्हें स्पष्ट पता था कि जो आया है वो हमारा नहीं है, तो अपना नाम लिखना ठीक ही नहीं है। “उपनिषद तो है ही वही जो मेरे न रहने पर सामने आता है, तो मैं कैसे नाम लिख दूँ अपना?”

आप जो बैठकर के किस्से और कविताएँ लिखते हो और जो उपनिषद् कहा गया, उनके कहे जाने की मूल प्रक्रिया में बहुत अंतर है। आप लिखते हो मन से और उपनिषद् कहा जाता है मनातीत होकर, 'अ'-मन से। उपनिषद् उठता है ध्यान से और हमारे किस्से-कहानियाँ उठते हैं काम से। हमारी वासनाएँ ही हमारी कविताएँ बनके प्रकट हो जाती हैं, कविता में और ऋचा में यही अंतर है।

प्र: आचार्य जी, जिसे हम बोलते हैं कुरान है, गीता है, बाइबल है, तो हमारे हिसाब से वो मनुष्य की रचना नहीं है, लेकिन जैसे महाभारत से उत्पन्न हुआ गीता का सार, जो हम अपना ग्रंथ मानते हैं, हिंदुओं में ये ग्रंथ है। तो बोला जाता है महाभारत भी एक कल्पना है, रचना है, तो अगर वो है तो फ़िर गीता पढ़ने का आधार क्या होना चाहिए हमारे लिए? हम किस आधार पर उसे एक पवित्र ग्रन्थ मानें?

आचार्य: आप उसको कीमत दो तो भी फ़र्क नहीं पड़ता, कीमत न दो तो भी फ़र्क नहीं पड़ता। गीता को यदि आप इसलिए कीमत देते हो क्योंकि वो एक सम्माननीय ग्रंथ माना जाता है तो इससे क्या हो जाएगा? आपको गीता क्या समझ में आ जाएगी? आप देते रहो गीता को इज्ज़त, सभी इज्ज़त देते हैं। गीता को आप इज्ज़त वास्तविक तभी तो दे पाओगे न, जब पहले वो समझ में आए कि बात क्या है? और समझ में तो तब आएगी जब आपके भीतर से भी गीता उठती हो।

अब गीता में कुछ ऐसा तो लिखा नहीं है कि जिसका आप जा कर के प्रयोग कर लोगे और कहोगे, ठीक। “कि दूध में चाय की पत्ती डालने पर रंग बदल जाता है, ऐसा श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है, तो हम भी जाकर के ज़रा दूध में चाय की पत्ती डालें और देख लें कि रंग बदला क्या। बदला? ठीक।" तो ऐसा तो कोई प्रयोग संभव है नहीं। ईंट-पत्थर और चाय और समोसे की बात हुई नहीं है गीता में। वहाँ तो कोई ऐसी बात नहीं हुई है जिसको आप हाथ में पकड़ सकें, कि आँख से देख सकें। तो आप जानोगे कैसे, कि गीता में कुछ सार है भी कि नहीं है? कैसे जानोगे? कोई तरीका ही नहीं है, बड़ी विकट हालत है।

आप ऐसी चीज़ को सम्मान दे रहे हो जिसकी प्रामाणिकता को जान पाने का आपके पास कोई तरीका ही नहीं है। तो आपने एक सस्ता तरीका जुटा लिया है, क्या? कि "हर कोई कहता है गीता बढ़िया है तो होगी।" अन्यथा आप मुझे बताओ, आपको कैसे पता कि कृष्ण ने जो कुछ कहा है उसमें लेश-मात्र भी सत्य है? कैसे पता? हममें किसी को कुछ नहीं पता, बस इतना है कि एक रिवाज़ है। गीता हमारे लिए एक रिवाज़ है और इसीलिए वो हमारे किसी काम नहीं आती है, इसीलिए वो बंद पड़ी रहती है, इसीलिए दैनिक जीवन में उसका कोई स्थान नहीं है।

गीता होइये तो गीता को जानिए, फिर समझ में आएगा।

फिर आप ये नहीं पूछोगे कि “कैसे पता कि ये किसी मनुष्य से कही गई है, या ध्यान में कही गई है, या प्रातिभ ज्ञान है, या कौन रचनाकार है?” आपको इन बातों से अंतर ही नहीं पड़ेगा। आप कहोगे, “फ़र्क क्या पड़ता है कि इतिहास में कोई कृष्ण हुए हैं कि नहीं हुए हैं, गीता है न।

जिसने भी गीता के बोल प्रकट किए सो कृष्ण।

गीता है न, अब मुझे जानना ही नहीं है कि कृष्ण कभी कोई मनुष्य हुआ कि नहीं हुआ और हुआ था तो कैसा था और किस शताब्दी में था। जहाँ से भी ये बोल उच्चारित हुए हैं सो कृष्ण, बस बात खत्म हो गयी। मुझे करना क्या है?”

यही कारण है कि भारत में कभी इन सब ग्रंथों में कोई भूमिका ही नहीं लिखी गई। कभी लिखा ही नहीं गया कि “इन्होंने, इस वर्ष में, ऐसे-ऐसे करके, ये बातें बोलीं,” कहानियाँ है। आप में से किसी को पता है कि राम किस शताब्दी में हुए, किस सन् में जिए, किस सन् में मरे? या कृष्ण? भारत में इस तरह की कोई *रिकॉर्ड-कीपिंग *(अभिलेख रखना) की ही नहीं गई, क्योंकि फर्क ही नहीं पड़ता। जो बात समय से बाहर की है, उसके समय को नोट करके क्या मिल जाएगा? समयातीत है ये सब, मनुष्यातीत है ये सब।

क्योंकि हम कुछ नहीं जानते, तो इसीलिए हमारे लिए गधा-घोड़ा सब एक बराबर है। हमारी हालत ये है कि संस्कृत में कुछ भी लिखा हो, हमारे लिए एक बराबर है। हम वो हैं जिनके लिए ईशावास्योपनिषद् और मनुस्मृति एक बराबर है। जिनके लिए गरुड़ पुराण और अष्टावक्र-गीता एक बराबर है। "संस्कृत है भाई! कोई बड़ी बात ही होगी और दोनों में ही कुछ आत्मा-आत्मा करके लिखा हुआ है।"

वो पूरा जो पुराण है, वो यही, इसी बारे में है, गरुड़ पुराण कि “मरो तो आत्मा कहाँ निकलती है? कौन-सी नदी को कैसे पार करती है? तो पीछे से क्या-क्या दान देना चाहिए? कैसे-कैसे भोज कराओ, ये करो, वो करो। आत्मा की मुक्ति के लिए मनुष्य क्या कर सकता है?” पूरा विवरण है। आत्मा की मुक्ति के लिए मनुष्य क्या-क्या कर सकता है, वो भी अपनी नहीं, पड़ोसी की आत्मा।

अष्टावक्र भी लगातार यही कह रहे हैं, आत्मा-आत्मा। एक तो संस्कृत, ऊपर से आत्मा, अब हमारी हिम्मत कि हम कह दें कि इसमें कुछ ऊँचा और कुछ नीचा है? हम तो वो हैं जो सत्तर प्रकार के देवी-देवताओं की एकसाथ फोटो लगा देते हैं दीवाल पर, पता नहीं कौन बुरा मान जाए, सबकी लगा दो। देखा है? और सब की इकट्ठे आरती उतार दो। तो ये जो पचास प्रकार के देवताओं की आप दीवार पे इकट्ठे अगल-बगल फोटो लगा देते हैं, ये बिल्कुल वही मानसिकता है कि कुछ पता तो है नहीं कि सत्य कहाँ है, तो जो-जो लोग सत्य का दावा करते होँ उन सब के चरण स्पर्श कर लो। क्या पता कहाँ..?

प्र: आचार्य जी, लेकिन, क्षमा करिएगा ये पूछने के लिए, लेकिन मेरे समझ में, जो एक बार मैंने गीता पढ़ा था, लेकिन निश्चित रूप से यहाँ आने के बाद समझ काफी बदल गई। तो उस समय भी जब गीता पढ़ा था तो उसमें भी कुल तारने की बात और ये सब बातें लिखी हुई थीं। तो फिर...

आचार्य: किसी भी शब्द का इशारा किधर को है ये समझने के लिए आपको ध्यान की उसी अवस्था में होना पड़ेगा जिस अवस्था से वो शब्द निकला है, ये एक मूल सूत्र है, इसको समझ लीजिए।* शब्द तो शब्द होता है, पर उस शब्द का इशारा किधर को है ये जानना है तो उसको ध्यान की ठीक उसी हालत से सुनिए जिस हालत से वो शब्द उच्चारित हुआ है, अन्यथा वो शब्द किधर को इशारा कर रहा है आप कभी नहीं जान पाएँगे।

ध्यान साधिए, फिर सब स्पष्ट हो जाएगा, फिर गीता खुलेगी आपके लिए।

प्र: गीता समझनी न पड़े उसकी जगह लोग 'कृष्ण' और 'गीता' नाम रख देते हैं, गीता जिस कमरे में रखी है, वहाँ ए. सी. (वातानुकूलक) लगा दी। ये सब ताम-झाम इसलिए कि गीता समझनी न पड़े।

आचार्य: अगर कोई गीता वाले कमरे में एयर कंडीशनर * (वातानुकूलक) * फिट (लगाना) कराता है, तो इससे बड़ा प्रमाण नहीं हो सकता कि ये आदमी गीता का दुश्मन ही है।

जिसने गीता को नहीं समझा, वो गीता के विपरीत ही चलेगा।

दो ही तरह के लोग हैं दुनिया में, एक, जो गीता को समझते हैं, दूसरे जो नहीं समझते। इसके अलावा कोई तीसरा वर्ग नहीं है, यही दो हैं। इसको आप ऐसे भी कह सकते हैं कि दो ही तरह के लोग हैं दुनिया में, एक,जो सत्य के समीप हैं और एक जो सत्य से दूर हैं। उसी को मैं कह रहा हूँ कि एक, जो गीता समझते हैं, दूसरे, जो नहीं समझते।

सत्य कहो कि गीता कहो, एक ही बात है। तो जो नहीं समझता वो बहुत दूर है और जो दूर है वो गीता को दुश्मन की तरह ही देखेगा, दोस्त की तरह देखता तो पास न होता?

जो कृष्ण को खीर चटा रहा है, उसके सामने यदि गीता खुलके आ गई तो हक्का-बक्का रह जाएगा, भागेगा, कृष्ण की मूर्ति छूट जाएगी हाथों से। ये तो वो अपनी कामनाओं को नंदलाला बनाकर के खेल रहा है उनके साथ। जिस क्षण कृष्ण खुलके सामने आए, “अरे! कहाँ के कृष्ण?” हालत खराब हो जाएगी। ऐसा झटका लगेगा अहंकार को, अपने पूरे होने को, कि लगेगा जान गई, “भागो। ये कौन-सी आफत हैं कृष्ण?"

अधिकांश लोग जो अपने आपको कृष्ण भक्त कहते हैं, अगर वो वास्तव में कृष्ण को जान जाएँ तो झेल नहीं पाएँगे कृष्ण को और अपने आपको सौ गालियाँ देंगे कि "ये मैं कहाँ फँसा हुआ था? ये आदमी तो बड़ा खतरनाक है, मैं इसकी पूजा कर रहा था?"

कृष्ण तब तक ठीक हैं जब तक वो लड्डू-गोपाल हैं, तब तक ठीक हैं। तब तक ठीक हैं जब तक जन्माष्टमी पर खीर चटानी है। पर आत्मारूपी कृष्ण, वास्तविक कृष्ण, सत्यरूपी कृष्ण यदि सम्मुख खड़े हों, तो हम जल जाएँगे, उनका तेज बर्दाश्त नहीं कर पाएँगे।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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