ये तो ब्राह्मण नहीं || (2020)

Acharya Prashant

14 min
627 reads
ये तो ब्राह्मण नहीं || (2020)

प्रश्नकर्ता: आज शिविर में वज्रसूचिकोपनिषद् का पाठ किया तो जाना कि सचमुच में ब्राह्मण कौन होता है। आज तक लगता था कि ब्राह्मण जन्म या जाति के आधार पर बनते हैं; आज वो धारणा टूट रही है। ब्राह्मण कौन होता है, आचार्य जी और स्पष्ट करें।

आचार्य प्रशांत: पहले तो मैं पढ़ ही देता हूँ, ये वज्रसूचि उपनिषद् है। इसको पढ़ना इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि बड़ा भ्रम है, बड़े अंधविश्वास हैं, बहुत सारी व्यर्थ की मान्यताएँ हैं। जो लोग अपनेआप को ब्राह्मण कहते हैं, उनमें ये मान्यता है कि वो किसी ब्राह्मण घर में पैदा हो गए हैं तो ब्राह्मण कहला सकते हैं। इससे ज़्यादा भ्रामक मान्यता दूसरी हो नहीं सकती।

और दूसरी ओर वो लोग हैं जो कहते हैं कि भारतीय शास्त्र, सनातन धर्म के शास्त्र तो एक शोषक वर्ण व्यवस्था की पैरोकारी करते हैं, कि शास्त्रों में ही उल्लिखित है कि जातियाँ जन्म से बनेगी, और कौनसी जाति ऊँची कहलाएगी, कौनसी नीची कहलाएगी; और ऊँची जाति नीची जाति का उत्पीड़न करेगी। बार-बार मनुस्मृति आती है, किताबों का हवाला दिया जाता है। बार-बार ये साबित करने की कोशिश की जाती है कि ये देखो हिंदुओं के तो सारे ग्रंथ ही एक व्यवस्था के हिमायती हैं।

बड़ी झूठी तस्वीर दोनों तरफ़ खिंची हुई है; सच कोई जानना नहीं चाहता, समझना नहीं चाहता। अच्छी बात है कि आपने यहाँ पर उपनिषद् का उल्लेख किया है, तो मैं इस मौके का लाभ उठाऊँगा। उपनिषद् है, बहुत ही संक्षिप्त है, मैं इसका पाठ ही कर दूँगा। सबसे पहले सार बताए देता हूँ।

यः कश्चिदात्मानमद्वितीयं जातिगुणक्रियाहीनं ।

उपनिषद्कार कहते हैं कि जो समस्त दोषों से रहित, अद्वितीय, आत्मतत्व से संपृक्त है, वही ब्राह्मण है।

—वज्रसूचि उपनिषद् (श्लोक ९)

कहीं नहीं लिखा है यहाँ पर कि जन्म से, कुल से, जाति से ब्राह्मण होते हैं।

सच्चिदानान्दमात्मानमद्वितीयं ब्रह्म भावयेदित्युपनिषत् ।

आत्मतत्व सत्, चित्, आनंद रूप ब्रह्म भाव से युक्त होता है, इसलिए ब्रह्म भाव से संपन्न मनुष्य को ही (सच्चा) ब्राह्मण कहा जा सकता है।

—वज्रसूचि उपनिषद् (श्लोक ९)

जिसमें ब्रह्म भाव, सो ब्राह्मण। इसी बात को कबीर साहब ने कई शताब्दियों बाद ऐसे कह दिया, "सोई ब्राह्मण जो ब्रह्म विचारे।" जो ब्रह्म के विचार में लीन रहे, वही ब्राह्मण है। अब थोड़ा विस्तार में जाते हैं। उपनिषद् आरंभ करता है एक प्रश्न उठाकर।

ब्राह्मक्षत्रियवैष्यशूद्रा इति चत्वारो वर्णास्तेषां वर्णानां ब्राह्मण एव प्रधान इति वेदवचनानुरूपं स्मृतिभिरप्युक्तम् । तत्र चोद्यमस्ति को वा ब्राह्मणो नाम किं जीवः किं देहः किं जातिः किं ज्ञानं किं कर्म किं धार्मिक इत ॥

ब्राह्मण ही प्रधान है, ऐसा वेद कहते हैं, और स्मृतियाँ भी कहती हैं। प्रश्न उठता है कि ब्राह्मण है कौन। क्या वो जीव है, कोई शरीर है, कोई जाति है, कर्म है, ज्ञान है, धार्मिकता है, ब्राह्मण है कौन?

—वज्रसूचि उपनिषद् (श्लोक २)

आरंभ में ही उपनिषद् ने प्रश्न कर दिया। बड़े वैज्ञानिक तरीके से उपनिषद् आगे बढ़ते हैं: पहले प्रश्न करते हैं और फिर उसके उत्तर का अनुसंधान करते हैं। तो अब ब्राह्मण को लेकर जो-जो विकल्प सोचे जा सकते थे, उन विकल्पों का एक-एक करके उपनिषद् परीक्षण करता है। तो पूछा है, ‘ब्राह्मण कौन है? क्या वो जीव है, शरीर है, जाति है, कर्म है, ज्ञान है, या धार्मिकता है?’ तो कहते हैं:

तत्र प्रथमो जीवो ब्राह्मण इति चेत् तन्न। अतीतानागतानेकदेहानां जीवस्यैकरूपत्वात् एकस्यापि कर्मवशादनेकदेहसम्भवात् सर्वशरीराणां जीवस्यैकरूपत्वाच्च।

सबसे पहले यदि मान लें कि जीव ही ब्राह्मण है (कि ब्राह्मण किसी जीव का नाम है), तो ये संभव नहीं है क्योंकि भूत और भविष्य में अनेक जीव हुए हैं और होंगे। उन सबका स्वरूप एक जैसा ही होता है। जीव एक होने पर भी स्व-स्व कर्मों के अनुसार (अपने-अपने कर्मों के अनुसार) उनका जन्म होता है, और सब शरीरों में, जीवों में एकत्व रहता है।

—वज्रसूचि उपनिषद् (श्लोक ३)

भई शरीर और जीव तो सब एक ही जैसे हैं न। थोड़ी देर पहले मैं कह रहा था कि माँस तो बकरे का ले लो कि आदमी का ले लो, एक ही है।

तस्मात् न जीवो ब्राह्मण इति।

इसलिए जीव को तो ब्राह्मण नहीं कह सकते।

—वज्रसूचि उपनिषद् (श्लोक-३)

बात खारिज। पहली संभावना नकार दी गई। अब दूसरी संभावना पर आते हैं। तो फिर क्या शरीर ब्राह्मण है? उपनिषद् प्रश्न करता है:

र्हि देहो ब्राह्मण इति चेत् तन्न। आचाण्डालादिपर्यन्तानां मनुष्याणां पञ्चभौतिकत्वेन देहस्यैकरूपत्वात् जरामरणधर्माधर्मादिसाम्यदर्शनत् ब्राह्मणः श्वेतवर्णः क्षत्रियो रक्तवर्णो वैश्यः पीतवर्णः शूद्रः कृष्णवर्णः इति नियमाभावात् ।

क्या शरीर ब्राह्मण है? नहीं, ये भी नहीं हो सकता। अरे, चांडाल से लेकर सभी मानवों के शरीर तो एक जैसे ही होते हैं, पाञ्चभौतिक (पाँच भूतों से बने सब मानव के शरीर), तो शरीर तो ब्राह्मण नहीं हो सकता। सब शरीरों में जरा-मरण धर्म-अधर्म भी समान होते हैं। ब्राह्मण गौर वर्ण, क्षत्रिय रक्त वर्ण, वैश्य पीत वर्ण, और शूद्र कृष्ण वर्ण वाला ही हो, ऐसा कोई नियम भी देखने में नहीं आता।

—वज्रसूचि उपनिषद् (श्लोक ४)

ऐसा कोई नियम भी नहीं है कि ब्राह्मण गोरा होगा, और क्षत्रिय के मुँह पर लालिमा होगी, और वैश्य पीत वर्ण का होगा (थोड़ा पीलापन लिए होगा उसका शरीर या चेहरा), और शूद्र कृष्ण वर्ण वाला ही होगा, माने शूद्र सावला होगा ज़रा। ऐसा तो कोई नियम भी देखने में नहीं आता; सब वर्णों के लोग सब रंगों में अनुभव किए जाते हैं।

पित्रादिशरीरदहने पुत्रादीनां ब्रह्महत्यादिदोषसम्भवाच्च। तस्मात् न देहो ब्राह्मण इति ॥

पिता, भाई के शरीर का दाह संस्कार करने से पुत्र आदि को ब्रह्म हत्या आदि का दोष भी लग सकता है। अस्तु, शरीर का ब्राह्मण होना संभव नहीं है।

—वज्रसूचि उपनिषद् (श्लोक ४)

भई, अगर शरीर ब्राह्मण होता, तो शरीर को जलाने पर तो ब्रह्म हत्या का पाप लगता न। अगर शरीर ही ब्राह्मण है, तो शरीर को जलाना तो ब्रह्म हत्या का पाप कहलाता। लेकिन जिनको हम ब्राह्मण कहते हैं, उनके शरीर को तो उनके ही बच्चे जला रहे होते हैं, भाई जला रहे होते हैं। उन्हें तो कोई पाप नहीं लगता। आप तर्क समझ रहे हैं? कुछ यहाँ श्रद्धा इत्यादि की बात नहीं है। उपनिषदों का मैं इसीलिए बहुत गहरा प्रशंसक रहा हूँ, उपनिषदों में इसीलिए मेरी गहरी आस्था रही है क्योंकि उनका तरीका बड़े वैज्ञानिक अनुसंधान का है। आगे बढ़ते हैं —

तर्हि जाति ब्राह्मण इति चेत् तन्न। तत्र जात्यन्तरजन्तुष्वनेकजातिसम्भवात् महर्षयो बहवः सन्ति। ऋष्यशृङ्गो मृग्याः, कौशिकः कुशात्, जाम्बूको जाम्बूकात्, वाल्मीको वाल्मीकात्, व्यासः कैवर्तकन्यकायाम्, शशपृष्ठात् गौतमः,वसिष्ठ उर्वश्याम्, अगस्त्यः कलशे जात इति शृतत्वात् । एतेषां जात्या विनाप्यग्रे ज्ञानप्रतिपादिता ऋषयो बहवः सन्ति। तस्मात् न जाति ब्राह्मण इति ॥

उपनिषद् आगे प्रश्न करता है — तो क्या जाति ब्राह्मण है (माने क्या ब्राह्मण कोई जाति है)? उत्तर देता है — नहीं, ये भी नहीं हो सकता; क्योंकि विभिन्न जातियों एवं जंतुओं में भी बहुत से ऋषियों की उत्पत्ति वर्णित है। जैसे मैगी से श्रृंगी ऋषि की, कुश से कौशिक की, जंबुक से जांबुक की, वल्मिक से वाल्मीकि की, मल्लाह कन्या से वेदव्यास की, शशक पृष्ठ से गौतम की, उर्वशी अप्सरा से वशिष्ठ की, कुंभ से अगस्त्य ऋषि की उत्पत्ति वर्णित है। इस प्रकार पूर्व में कई ऋषि ब्राह्मण जाति के हुए बिना ही प्रकांड विद्वान हुए हैं, इसलिए ब्राह्मण कोई जाति भी नहीं हो सकती।

—वज्रसूचि उपनिषद् (श्लोक ५)

अब ये बात उन सबको पढ़नी चाहिए जो बार-बार कहे जा रहे हैं कि ब्राह्मणों ने तो ज्ञान पर कब्ज़ा कर लिया था, ज्ञान पर कब्ज़ा कर लिया था। ब्राह्मण ही सब ऋषि बने बैठे रहते थे, प्रिस्टली क्लास (पुरोहित वर्ग), और बाकी सब जातियों को ज्ञान से वंचित रखा जाता था।

देखिए, यहाँ क्या बोला गया है। और ये कोई आधुनिक षड्यंत्र नहीं है किसी जाति के खिलाफ़, ये हम उपनिषद् की बात कर रहे हैं। उपनिषद् कह रहा है, ‘विभिन्न जातियों और जंतुओं में भी बहुत से ऋषियों की उत्पत्ति वर्णित है।’ कठोर नहीं थी जाति व्यवस्था; सब जाति से, सब तरफ़ से ऋषिजन आते थे। तो जाति से भी कोई ब्राह्मण नहीं हो सकता, बात सीधी है। फिर आगे —

तर्हि ज्ञानं ब्राह्मण इति चेत् तन्न। क्षत्रियादयोऽपि परमार्थदर्शिनोऽभिज्ञा बहवः सन्ति। तस्मात् न ज्ञानं ब्राह्मण इति ॥

तो क्या ज्ञान को ब्राह्मण माना जाए? तो उत्तर दिया है — नहीं, ऐसा भी नहीं हो सकता; क्योंकि बहुत से क्षत्रिय (राजा जनक) आदि भी तो परमार्थ दर्शन के ज्ञाता हुए हैं। तो ज्ञान भी ब्राह्मण नहीं हो सकता।

—वज्रसूचि उपनिषद् (श्लोक ६)

भई जो लोग क्षत्रिय रहे हैं, उनको भी तो बहुत ज्ञान रहा है। इतने ज्ञानी हुए हैं जो जाति से ब्राह्मण नहीं थे, तो ज्ञान से भी हम किसी को ब्राह्मण नहीं कह सकते। तो कहा फिर आगे —

तर्हि कर्म ब्राह्मण इति चेत् तन्न। सर्वेषां प्राणिनां प्रारब्धसञ्चितागामिकर्मसाधर्म्यदर्शनात्कर्माभिप्रेरिताः सन्तो जनाः क्रियाः कुर्वन्तीति। तस्मात् न कर्म ब्राह्मण इति॥

क्या कर्म को ब्राह्मण माना जाए? माने जो ब्राह्मण-संबंधी कर्म करता हो, कर्मकांड जानता हो, पूजा-पाठ, यज्ञ वगैरह। तो कह रहे हैं — नहीं, ऐसा भी संभव नहीं है; क्योंकि समस्त प्राणियों के संचित, प्रारब्ध, और आगामी कर्मों में साम्य प्रतीत होता है। तथा कर्माभिप्रेरित होकर ही व्यक्ति क्रिया करते हैं। अत: कर्म को भी ब्राह्मण नहीं कहा जा सकता।

—वज्रसूचि उपनिषद् (श्लोक ७)

कह रहे हैं, देखिए, कर्म तो सब प्राणियों के एक तल पर एक जैसे ही होते हैं; क्योंकि भीतर कर्ता एक ही है। ऊपर-ऊपर से सबके अलग-अलग दिखाई देंगे लेकिन ले-देकर उनके पीछे सिद्धांत तो एक ही चल रहा है न — आगामी कर्म, प्रारब्ध कर्म, संचित कर्म और कार्य-कारण सिद्धांत। सब जीव जिस कामना से प्रेरित होकर कर्म करते हैं, सब जीवों में वो मूल कामना भी एक जैसी है, चाहे वो जीव एक ब्राह्मण वर्ण का हो या किसी अन्य वर्ण का, लेकिन मूल कामना तो एक सी ही है, भले ही ऊपर-ऊपर उस कर्म का स्वरूप अलग दिखाई देता हो। तो हम कैसे कह दें कि कर्म से कोई ब्राह्मण बन जाता है।

तर्हि धार्मिको ब्राह्मण इति चेत् तन्न। क्षत्रियादयो हिरण्यदातारो बहवः सन्ति। तस्मात् न धार्मिको ब्राह्मण इति ॥

तो फिर पूछा है कि क्या धार्मिकता से कोई ब्राह्मण हो सकता है? यहाँ पर धार्मिकता से आशय है धार्मिक आचरण करने से। क्या धार्मिकता से कोई ब्राह्मण हो सकता है? तो उपनिषद् कहता है — नहीं, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता; क्योंकि क्षत्रिय आदि लोग भी तो बहुत से स्वर्ण आदि का दान करते रहते हैं।

—वज्रसूचि उपनिषद् (श्लोक ८)

भई अगर सत्कर्म करने से ब्राह्मणत्व निश्चित होता हो, तो सत्कर्म तो सब जातियों के लोग करते हैं। तो उससे भी नहीं हो जाता कि आप ब्राह्मण हैं। तो ये तो सारी ही बातें खारिज कर दी गईं। तो ब्राह्मण है कौन? अब ज़रा ध्यान से सुनिएगा।

तर्हि को वा ब्रह्मणो नाम। यः कश्चिदात्मानमद्वितीयं जातिगुणक्रियाहीनं ।

उपनिषद् कहता है, ब्राह्मण फिर माना किसे जाए? उपनिषद् उत्तर देता है— जो आत्मा के द्वैत भाव से युक्त न हो (जो अद्वैत में जीता हो); जाति, गुण और क्रिया से भी युक्त न हो।

—वज्रसूचि उपनिषद् (श्लोक ९)

जिसकी कोई जाति न हो, वो ब्राह्मण हुआ। ब्राह्मण एक जाति कैसे हो सकती है? उपनिषद् कह रहा है, ‘जो जाति, गुण और क्रिया से भी युक्त ना हो।’ माने ब्राह्मण वो जिसकी कोई जाति नहीं है; जो जाति से ऊपर उठ गया, सिर्फ़ वो ब्राह्मण है।

षडूर्मिषड्भावेत्यादिसर्वदोषरहितं सत्यज्ञानानन्दानन्तस्वरूपं स्वयं निर्विकल्पमशेषकल्पाधारमशेषभूतान्तर्यामित्वेन वर्तमानमन्तर्यहिश्चाकाशवदनुस्यूतमखण्डानन्दस्वभावमप्रमेयं अनुभवैकवेद्यमपरोक्षतया भासमानं करतळामलकवत्साक्षादपरोक्षीकृत्य कृतार्थतया कामरागादिदोषरहितः शमदमादिसम्पन्नो भाव मात्सर्य तृष्णा आशा मोहादिरहितो दम्भाहङ्कारदिभिरसंस्पृष्टचेता वर्तत एवमुक्तलक्षणो यः स एव ब्राह्मणेति शृतिस्मृतीतिहासपुराणाभ्यामभिप्रायः।

षड्-उर्मियों और षड्-भावों आदि समस्त दोषों से मुक्त हो; सत्य, ज्ञान, आनंद स्वरूप, स्वयं निर्विकल्प स्थिति में रहने वाला, अशेष कल्पों का आधार रूप, समस्त प्राणियों के अंतस में निवास करने वाला, अंदर-बाहर आकाशवत संव्याप्त; अखंड आनंदवान, अप्रमेय, अनुभवगम्य, अप्रत्यक्ष भासित होने वाले आत्मा का करतल आमलकवत परोक्ष का भी साक्षात्कार करने वाला; काम-रागद्वेष आदि दोषों से रहित होकर कृतार्थ हो जाने वाला; शम-दम आदि से संपन्न; मात्सर्य, तृष्णा, आशा, मोह आदि भावों से रहित; दंभ, अहंकार आदि दोषों से चित्त को सर्वथा अलग रखने वाला हो, वही ब्राह्मण है। ऐसा श्रुति, स्मृति, पुराण और इतिहास का अभिप्राय है।

—वज्रसूचि उपनिषद् (श्लोक ९)

चार तरह के ग्रंथ होते हैं हमारे सामने: श्रुति, स्मृति, इतिहास, पुराण। उपनिषद् कह रहा है, ‘जहाँ कहीं भी तुम ‘ब्राह्मण’ शब्द का उल्लेख पाना, उसको वो समझना जो अभी-अभी तुमको समझाया, वत्स।’ भले ही पुराणों में, स्मृतियों में और इतिहास में ‘ब्राह्मण’ शब्द की इतनी स्पष्ट व्याख्या न हो जितनी अभी उपनिषद् ने दी है, लेकिन जहाँ कहीं भी तुम ब्राह्मण शब्द पाना, उससे आशय वही समझना जो तुमको अभी-अभी समझाया गया है, ऐसा उपनिषद् कह रहा है।

अन्यथा हि ब्राह्मणत्वसिद्धिर्नास्त्येव ।

ये जो ब्राह्मण का अर्थ समझाया, इस अर्थ के अतिरिक्त किसी भी प्रकार से ब्राह्मणत्व सिद्ध नहीं हो सकता।

—वज्रसूचि उपनिषद् (श्लोक ९)

उपनिषद् हमारे लिए भ्रम में लौटने के सारे दरवाज़े बंद कर रहा है। उपनिषद् कह रहा है कि ये जो तुमको ब्राह्मण का अर्थ समझाया, इसके अलावा ब्राह्मणत्व का कोई और अर्थ होता नहीं। कहीं भी ब्राह्मण शब्द देखो, तो उसका अर्थ इसी प्रकार करना, किसी भी और तरीके से नहीं।

सच्चिदानान्दमात्मानमद्वितीयं ब्रह्म भावयेदित्युपनिषत् ।

आत्मा ही सत्-चित् और आनंद स्वरूप तथा अद्वितीय है। इस प्रकार के ब्रह्म भाव से संपन्न मनुष्यों को ही ब्राह्मण माना जा सकता है। यही उपनिषद् का मत है।

—वज्रसूचि उपनिषद् (श्लोक ९)

स्पष्ट हुई बात? तो ये जो सब शब्द इस्तेमाल किए जाते हैं, ब्राह्मणवादी व्यवस्था इत्यादि-इत्यादि, ये शब्द बड़े अज्ञानमूलक हैं। इन शब्दों का इस्तेमाल वही लोग कर सकते हैं जो न ब्रह्म जानते हैं, न ब्राह्मण जानते हैं। और खेद की बात ये है कि बाकी दुनिया जितने अज्ञान में है ब्राह्मणत्व के प्रति, उतने ही अज्ञान में वो लोग हैं जो अपनेआप को ब्राह्मण बोल रहे हैं। जो अपनेआप को ब्राह्मण कहते हैं आज के समय में, वो ब्राह्मणत्व से ठीक उतने ही दूर हैं जितना कि कोई और। वो व्यर्थ ही इस अहंकार में हैं कि उनका ब्राह्मणत्व से या ब्रह्म भाव से कोई ताल्लुक है। उनके जीवनों को देखो। उनके जीवन में कहाँ तुमको ब्रह्मचर्या दिखाई देती है। जिसके जीवन में ब्रह्म दिखाई देता है, वो ब्राह्मण है — ऊपर-ऊपर से उसकी जाति चाहे जो भी हो, फ़र्क नहीं पड़ता — और जिसके जीवन में ब्रह्म दिखाई नहीं पड़ रहा, वो अपनेआप को लाख ब्राह्मण बोले, वो अपनी कुंडली दिखाकर, वो अपना कुल वृक्ष दिखाकर अपनेआप को उच्चतम कोटि का ब्राह्मण भी सिद्ध करे, तो भी वो प्रलाप कर रहा है, झूठ बोल रहा है।

तुम दिखा दो अपनी सात पुश्तों की सूची कि देखो, वो ब्राह्मण थे, फिर वो ब्राह्मण थे, फिर वो ब्राह्मण थे। हम तो सीधे भारद्वाज मुनि के ही वंशज हैं। कुछ नहीं सिद्ध हो जाता कि तुम ब्राह्मण हो। ब्राह्मणत्व कमाना पड़ता है; ब्राह्मणत्व तुम्हारी साधना का फल होता है, जन्म से मिलने वाली चीज़ नहीं होती।

ज़िंदगी लगा देनी पड़ती है, तब ब्राह्मण बनते हैं। इसीलिए ब्राह्मण को द्विज कहा जाता है। जो दूसरा जन्म कमाए अपनी मेहनत, अपनी साधना से, सिर्फ़ वो ब्राह्मण है। और जो भी कोई मेहनत कर-करके अपने अतीत को पूरी तरह त्याग दे, अपने जन्मगत अहंकार और संस्कार को पूरी तरह त्याग दे, एक नया जन्म ही ले ले ब्रह्म रूप में, वो ब्राह्मण कहलाने का अधिकारी है, भले ही उसकी जन्म से जाति कुछ भी रही हो। कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि जन्म से आपकी जाति क्या थी। जन्म ने आपको जो कुछ दिया — शारीरिक वृत्तियाँ, मानसिक संस्कार — आप इन सबका उल्लंघन करके उनसे आगे बढ़ आए हैं, तो आप द्विज हो गए, आप ब्राह्मण हुए। और अगर आप उनसे आगे नहीं बढ़ आए हैं, तो बेकार में ही अपनेआप को ब्राह्मण-ब्राह्मण न कहें। आ रही है बात समझ में?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
Categories