प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, पहले मैं ध्यान करता था, लेकिन जब से नाईट शिफ्ट (रात की पाली) लगी है, समय नहीं मिल पाता। क्या करूँ?
आचार्य प्रशांत: तुम्हारा कैसा ध्यान था कि ध्यान के बावजूद तुम नाईट शिफ्ट में फँस गए बेटा? ये कौन सा ध्यान था जिसने तुम्हें इतना भी नहीं सिखाया कि कहाँ काम करना चाहिए और कहाँ नहीं? ध्यान के बाद भी अगर तुम घटिया चुनाव कर लो तो तुम्हारा ध्यान भी?
प्र: घटिया होगा।
आचार्य: घटिया ही रहा होगा। ये जो नकली और बाज़ारू ध्यान होता है, उसका नतीजा यही निकलता है। ध्यान का अर्थ होता है, अपनी वृत्तियों के प्रति विद्रोह क्योंकि वृत्तियाँ ध्यान नहीं चाहतीं। वृत्तियाँ विचलन चाहती हैं। वृत्तियाँ विक्षेप चाहतीं हैं। ध्यान का अर्थ होता है अपने ही खिलाफ बगावत। ध्यान का ये मतलब थोड़े ही होता है कि ध्यान करा और उसके बाद वही सब कुछ कर रहें हैं जो जमाना कर रहा है। कहीं कोई आग नहीं, कहीं कोई विद्रोह नहीं।
तुम दस साल से एक दवाई ले रहे हो और दवाई लेने के बाद भी तुम्हारे बाल झड़ रहे हैं, तुम्हारे दाँत झड़ रहे हैं, तुम्हारी आँत भी झड़ रही है। दवाई के बारे में क्या पता चला? वो दवाई नहीं है, वो बीमारी ही है।
ध्यान जिनकी ज़िन्दगी में उतरता है वो बेख़ौफ़ हो जाते हैं। वो फिर रूढ़िगत निर्णय नहीं लेते। और कोई सर घुटाले, कोई जनेऊ पहन ले, इसको तो तुम कह देते हो कि ये रूढ़ियों का पालन कर रहा है। कह देते हो न?
प्र: हाँ।
आचार्य: ज़ाहिर सी बात है। रूढ़िवादी बात है। पर अगर कोई वही सबकुछ करे जो ज़माने में सब करते हैं: एक ही तरह की नौकरी, एक सा ही पेशा, एक सा ही सामाजिक बर्ताव, वही पढ़ाई, वही शादी, वही चाकरी तो उसको तुम फिर रूढ़ि क्यों नहीं मानते? वो रूढ़ि क्यों नहीं है? उसको तो तुम कह देते हो, “नहीं ये तो प्रचलन है। ये आधुनिकता है। ये आज के समय का रुख है।”
अंधविश्वास क्या वही है जिसका पालन पाँच-सौ साल से हो रहा हो? अगर अभी के समय में सबको तुम एक सी ही जीवनचर्या पर विश्वास करता देखो तो क्या वो अंधविश्वास नहीं है? जो लोग चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण में घर में घुस जाते हैं, उनको तो बड़ी आसानी से कह देते हो कि अंधविश्वासी हैं। ज़ाहिर सी बात है कि वो तो अंधविश्वासी हैं। और जो लोग कहते हैं कि इस तरह की नौकरी नहीं मिली तो ज़िंदगी खराब है, वो अंधविश्वासी नहीं हैं? और जो लोग कहते हैं कि पूरा मोहल्ला जिस तरह चल रहा है हम भी वैसे ही चलेंगे, वो अंधविश्वासी नहीं हैं? और जो लोग कहते हैं कि हमारा खाना-पीना, उठना-बैठना, कपड़े-जेवर-त्यौहार सब वैसे ही होंगे जैसे दूसरों के हैं, वो अंधविश्वासी नहीं हैं? बोलो।
तो कैसा ध्यान है तुम्हारा जो अंधविश्वास को नहीं तोड़ पाया? ध्यान अगर तुम करते ही होते तो तुम ऐसे चक्करों में कैसे पड़ जाते जो ध्यान को तोड़ देंगे? तुम कह रहे हो कि नाईट-शिफ्ट में जाने के कारण ध्यान टूट गया। तुम्हें इस बात की विद्रूपता नहीं दिख रही? ध्यान से उद्भूत कोई कर्म ध्यान का विपरीति कैसे हो सकता है? ध्यान से किया गया चुनाव, ध्यान को खंडित कैसे कर सकता है? ध्यान के फलस्वरूप अगर तुमने कोई नौकरी चुनी, तो वो नौकरी ध्यान का दुश्मन कैसे बन गई? ज़ाहिर सी बात है, ध्यान ही क्षद्म था।
ध्यान से जो कर्म उठेगा, आविर्भूत होगा, वो ध्यान को और प्रगाढ़ करेगा। सच की राह जो चलते हैं वो सच के और करीब आते हैं। जो सच से प्रेरित हो जाते हैं, सच उन्हें और स्पष्ट हो जाता है। तुम ये थोड़े ही कहोगे कि, "सच से प्रेरित होकर मैं सच की राह चल रहा था और अब सच धुंधला गया है।" ऐसा होगा क्या? बोलो।
प्र: नहीं हो सकता।
आचार्य: नहीं हो सकता न।
प्र२: आचार्य जी आपने कहा था कि अस्तित्व के करीब जाओ।
आचार्य: अरे सब बनता-मिटता रहता है। परमात्मा के अलावा किसी को भी अमर-अनंत मत जान लेना। जिसको तुम अस्तित्व कहते हो, उसका होना तुम्हारे होने से जुड़ा हुआ है। तुम्हारी आँखें हैं तो कह देते हो ब्रम्हांड है। ये सब आने-जाने वाली चीज़ें हैं। हाँ, कुछ चीज़ों की उम्र ज़रा लम्बी होती है, कुछ की उम्र ज़रा छोटी होती है। पर अकाल तत्व एक ही है, उसके अलावा कुछ नहीं है जो अविनाशी है। सब मिटेगा। सब मिटता रहा है। हज़ारों करोड़ों बार मिट चुका है और फिर पुनः निर्मित हो चुका है। जब मिटता है तो सदा के लिए मिट नहीं जाता और जब बनता है तो सदा के लिए बन नहीं जाता।
प्र: आचार्य जी, ध्यान इसलिए भी नहीं हो पाता क्योंकि पहले तो नियमित जीवन चल रहा था और अब नाइट शिफ्ट और ये सब हैं।
आचार्य: तुम अभी भी मान रहे हो कि उस नियमित जीवन में ध्यान होता था?
प्र: हाँ।
आचार्य: इतनी देर से क्या समझाया? अभी भी तुम मान नहीं रहे कि वो जो नियमित जीवन था, उसमें जो नियमित ध्यान था वो बड़ा गड़बड़ ध्यान था। क्योंकि वो नियमित था। नियमित समझते हो क्या होता है? विनियमित; समाज द्वारा बंधित। दुनिया द्वारा निर्धारित ध्यान था तुम्हारा। वो तो होगा ही नकली, बाज़ारू। किसी ने बता दिया कि मुंडी में लाल रोशनी होती है उसपर ध्यान करो तो जुटे हुए हो।
पद्धति-बद्ध नहीं होता ध्यान। ध्यान बड़ी ईमानदारी का नाम है। ध्यान साँस-साँस की सतर्कता का नाम है। न उसको पद्धति में, न समय में बाँधा जा सकता है। क्या बोलोगे भगवान से कि घंटे भर के लिए तुम्हारा होता था और तेईस घंटे शैतान का होता था? वो सामने आ जाए तो क्या बोलोगे कि, "घण्टा भर तो तुम्हें जपता था"? जवाब ये देना होता है कि, "चौबीस घंटे साँस-साँस में तुम ही थे!" यही जवाब देना होता है न? तो फिर पद्धति कैसी? प्रेम की कोई पद्धति होती है?
प्र: नहीं।
आचार्य: तो? खाने की कोई पद्धति होती है? छोटा बच्चा भी जानता है कि नाक से पानी नहीं पिया जाता। उसे सीखाना पड़ता है? बच्चे को बहुत बातें सिखाते हो। ये भी सिखाते हो क्या कि कान में पानी मत डाल?
कल मैंने देखा, मेरे घर में छिपकली आकर के नल की टोटी पर उल्टी लटक कर पानी पी रही थी। उसको किसने सिखाया कि ये नल है इसमें पानी आता है? नल की टोटी में बूंद-बूंद पानी गिर रहा है। वो आकर के उल्टी लटक गई है और उसमें से पानी पी रही है। सबको पता है।
कुछ बातें ऐसी होती है जो प्राणों से उठती हैं। उसमें पद्धति का क्या काम? छिपकली को किसी ने सिखाया पानी कैसे पीना है? क्या पद्धति है? “पहले गिलास में भर उसके बाद गिलास लेकर जा तश्तरी पे, उसके बाद पानी पीना।” और वो छिपकली गिलास लेकर घूम रही है। उसने सब पता कर लिए हैं कि ये नल है, इसी से आता है पानी, यहीं मिलेगा।
जो मूल बातें हैं जीवन में उनमें पद्धतियाँ नहीं चलतीं बेटा। और पानी तो फिर भी बाहरी बात है। शरीर भर की माँग है पानी। तुम्हारे केंद्र की जो माँग है, तुमने उसको कैसे घंटे भर तक और एक क्रिया तक सीमित कर दिया? पर बाज़ार में क्रियाएँ बिक रहीं हैं खूब और तुम खरीद लाते हो। और क्रियाएँ सुकून देती हैं क्योंकि अहंकार क्रियाओं में सुरक्षा पा जाता है न। इतना ही करना है। क्रिया माने, इतना ही करना है। और अध्यात्म माने, जो करना है सो अनंत है। अर्थात अपना करना ही छोड़ना पड़ेगा। निरंतरता में आना पड़ेगा।
थोड़ी देर तो तुम्हें कुछ भी करने को कह दिया जाए तो तुम राज़ी हो ही जाओगे। थोड़ी देर तो तुम्हें ये भी कह दिया जाए कि बड़े विनीत हो जाओ, बड़े विनम्र हो जाओ, बड़े भक्त हो जाओ, तो तुम कुछ जुगाड़ करके, वैसा भी आचरण कर ही लोगे। कि अभी मैं एक घंटे के लिए विनीत हूँ और भक्त हूँ। दिक्कत तुम्हें तब पड़ेगी जब कहा जाए कि चौबीस घंटे तुम्हें—और एक चौबीस घंटा नहीं, चौबीस घंटे-सात दिन, तीस दिन, तीन सौ पैंसठ दिन, कैसा रहना है? विनीत ही रहना है और भक्त ही रहना है। अब तुम फँसे। कहोगे “न, ये तो फँसा दिया। लेने-देने की बात करो बाबा। एक घंटे नहीं तो डेढ़ घंटे पर मान जाओ। तुम क्या बता रहे हो कि लगातार।”
(एक श्रोता की ओर इशारा करते हुए) ये अपनी फ़ोटो खिंचवाता है एक टाँग पर खड़े होकर। मैं इससे पूछता हूँ कि तुझे आनंद आता है एक टाँग पर खड़े होकर फ़ोटो खिंचवाने में? कहता है, “हे हे हे”। मैं कहता हूँ अब तू एक ही टाँग पर खड़ा होगा। अगर तुझे एक टाँग पर खड़ा होने में आनंद है, तो तू अपना आनंद तोड़ता क्यों है? अब लगातार एक टाँग पर खड़ा रह। पर नहीं।
ये नहीं दिखता तुम्हें कि एक टाँग पर खड़ा होने में और मोर जैसी मुद्रा बनाने में और साँप जैसी और शेर जैसी मुद्रा बनाने में अहंकार सुख पाता है, बल पाता है। तुझे शेर और मोर और साँप और कुत्ते जैसी मुद्रा बनानी है तो शेर, साँप, मोर और कुत्ता ही पैदा हो जाता। हमने तो किसी मोर को आदमी जैसी मुद्रा बनाते नहीं देखा। तो आदमी क्यों पगलाया हुआ कि उसे मोर जैसी मुद्रा बनानी है? इसमें अहंकार सुख पाता है।
“देखो हमने कुछ ऐसा करा जो खास है। जो दूसरे नहीं कर सकते। ये देखो, हमने शरीर को इतना मोड़ दिया, दूसरे नहीं मोड़ सकते।” और जितना मोड़ा उसके बाद जो एकदम अति हो गई मोड़ने की तो किसी से कहा कि फ़ोटो खींचो। और फ़ोटो को ये लगाता है *प्रोफ़ाइल पिक्चर*। “ये देखो, इतना बिलकुल गोल कर लिया है।” मैं कहता हूँ, बहुत सुंदर लग रहा है, अब ऐसे ही रहना। अब गोल ही रहना, सीधे मत बैठना पालथी मार कर आदमी की तरह। अब मोर ही बनकर घूम। आदमी अब बनना मत।
तुम इन चक्करों में हो कि तुम मोर, कबूतर, मुर्गा, सियार कुछ हो जाओ। मैं कह रहा हूँ कि पहले इंसान हो जाओ। तुम कहते हो मुर्दा बन कर लेट जाओगे इसमें तुम्हें शांति मिल जाएगी। विश्राम के लिए शवासन में आते हो। मैं कहता हूँ, कितनी देर तक पड़े रहोगे शवासन में? और तुम्हें शांति मिलती है तो फिर उठना मत।
वो मौत मरो न, जिस मौत के मरने के बाद किसी आसन की ज़रूरत नहीं पड़ती। वो असली मृत्यु है, वो महा-मृत्यु है। उसको मारो जो मरना ही चाहता है। ऊपर-ऊपर से लेटने का क्या तुम स्वांग कर रहे हो कि, "हम मुर्दा हो गए: पाँच मिनट के लिए शवासन कर लिया।" भीतर जो जिजीविषा है वो बनी ही हुई है। बनी है कि नहीं? भीतर से जीव-भाव जाता नहीं। भीतर से अपने आप को तो जीवित ही मानते हो। और जो अपने-आपको भीतर से जीवित मानता है उसी को तो कहते हैं अहंकार। सारे संत समझा गए हैं कि उसको मारो। उसको शव कर दो, पर तुम उसको शव नहीं करोगे। तुम शवासन लगाओगे। कितनी देर के लिए? पाँच मिनट के लिए।
संतों से, ऋषियों से पूछोगे तो वो कहेंगे कि भीतर जो है उसको मृत्यु दो। उसको तो मारते नहीं। पाँच मिनट के लिए लेट जाते हो और झूठ ही बोलते हो, “मैं शव हो गया।” जैसे छोटे बच्चे होते थे न, वो रज़ाई के भीतर घुस जाते थे और बोलते थे, “मैं सो गया।” वैसे ही तुम बोलते हो कि ये शवासन है।
हमने मुर्दे को फिर दोबारा उठ कर भगते तो कभी देखा नहीं। तुम तो उठ कर भग जाते हो। असली मौत मरो। अध्यात्म असली मौत मरने की कला है। ये थोड़ी-थोड़ी देर के ध्यान लगाना कि मुद्राएँ लगाना, पद्धतियों का और क्रियाओं का पालन करना, इससे बात नहीं बनने वाली। ये झूठे इलाज हैं। अहंकार को सीधे-सीधे देखो, उसको पकड़ो और फिर अगर पसंद न आए तो उससे पिंड छुड़ा लो। ये अध्यात्म है। बाकी सब खेल-खिलौने हैं, मन बहलाव है।
प्र: तो आप जो कह रहे हैं वो कैसे करूँ?
आचार्य: फिर पूछ रहे हो, "कैसे करूँ?" तुम समझ ही नहीं पा रहे हो कि पद्धति की माँग सीमा की माँग है। क्योंकि जो भी कुछ तुम करते हो उसका करना कभी शुरू होता है और कभी खत्म होता है। तो तुम कुछ ऐसा माँग रहे हो जो कभी-न-कभी खत्म हो जाएगा। मैं तुम्हें ऐसा कुछ देना चाहता हूँ जो कभी खत्म ना होता हो। तुम खत्म क्यों करना चाहते हो, जानते हो? तुम वैसे ही खत्म करना चाहते हो जैसे कोई छोटा बच्चा अपना गृहकार्य, अपना होमवर्क खत्म करना चाहता है। ताकि खत्म करने के बाद?
प्र: आराम से खेलना है।
आचार्य: अरे, जाएगा मैदान पर मिट्टी में लोटेगा। किसी का शीशा फोड़ेगा। किसी को गाली देगा। तो इसीलिए तुम ऐसा कुछ चाहते हो जो खत्म हो जाए। ताकि उसके खत्म होने के बाद तुम दोबारा जाकर टी.वी. देख सको। कह रहे हैं “योग का समय खत्म हुआ, चलो रे लगाओ ज़रा, कौन नाच रही है टी.वी. पर आज?” इसीलिए तुम प्रक्रियाएँ माँगते हो, तुम पद्धतियाँ माँगते हो ताकि उनकी सीमा रहे।
असीम कैसे मिल जाएगा तुमको सीमित विधियों से? तुम अपने लिए व्यक्तिगत क्षेत्र आरक्षित रखना चाहते हो। तुम परमात्मा को अनुमति ही नहीं देना चाहते कि वो तुम्हारे जीवन पर पूरी तरह से छा जाए। तुम थोड़े इधर के और थोड़े उधर के होना चाहते हो और इसमें अध्यात्म का बाज़ार तुम्हारी मदद कर रहा है। इस तरह से बँटे-बँटे जीने में तुम्हें मदद मिल जाती है बाज़ार से। मत जियो बँटे-बँटे।
कैसे करने का कोई प्रश्न नहीं। जो कुछ भी कर रहे हो उसके पीछे सदा सचेत रहो। "क्यों जा रहा हूँ दफ्तर, क्यों जा रहा हूँ नाइट-शिफ्ट ? क्या पा रहा हूँ और क्या गँवा रहा हूँ? माहौल कैसा है यहाँ पर? और अगर परेशान हूँ तो परेशानी के बाद भी रोज़ यहाँ पहुँच कैसे जाता हूँ? क्या लालच है मुझे? छोड़ क्यों नहीं पाता? क्या डर है मुझे?"
प्र: ऐसे तो खत्म ही हो जाएगा सबकुछ, कुछ बचेगा ही नहीं।
आचार्य: देखा, यही तो डर है। हाँ, खत्म हो जाएगा पर ये भी तो देखो कि उसे तो आज तक तो बचाया ही न। आजतक बचा कर क्या पाया?
(प्रश्नकर्ता की ओर इशारा करते हुए) इसे देखो अभी तक कुछ चाहिए। चले आ रहे हैं बच्चू। ये नहीं जानते कि जिधर जा रहे हैं वहाँ कष्ट ही पाएँगे। एक बार हाथ रखा नहीं कि कष्ट-ही-कष्ट। पर वो अपनी तरफ से होशियारी दिखा रहे हैं। ऐसे ही जीव की दशा है। अपनी तरफ से होशियारी। और मिलता है? दुःख।
खत्म हो जाने का अर्थ होता है: अपनी डोर किसी और के हाथ में सौंप दी। भीतर जो भावना थी चालाकी, चतुराई, होशियारी की, उस भावना की व्यर्थता देख ली। अपने ही हित में उस भावना की व्यर्थता देख ली।
भई, आपको गाड़ी चलानी नहीं आती। खुद चलाओगे कि ड्राइवर को सौंपोगे? अपने ही हित में दोगे न उसको? इसमें अपमान थोड़े ही है। या अपमान है? बोलो। बस अध्यात्म यही है। गाड़ी, चालक को चलाने दो। तुम चालाकी करोगे तो चालक बन जाओगे। और अपनी चालाकी के चलते अगर तुम चालक बन भी गये तो?
प्र: दुर्घटना होगी।
प्र२: आचार्य जी, ये तो फिर हमारी गलती होगी कि हम ये कह रहे हैं कि शवासन ऐसा होगा, जिन्होंने इसकी उत्पत्ति करी होगी उन्होंने फिर क्यों करा? और आप कह रहें है कि पूरा ही मरना है।
आचार्य: बनाने वालों ने तो उपनिषद भी बनाए हैं, गीता भी बनाई है। तुम बताओ तुमने एक ही ग्रंथ क्यों पढ़ा?
(एक श्रोता को बताते हुए) ये नाश्ता लेकर आई होगी सुबह और यहाँ मिट्टी भी है, और ये कह रहे हैं, "अगर मिट्टी खाने से पेट खराब होता है तो ये बताइए बनाने वाले ने मिट्टी बनाई क्यों?" उसने बनाई तो बनाई, तैने खाई क्यों? जिन्होंने वो ग्रंथ लिखे, उन्होंने लिखे, तूने पढ़े क्यों? पढ़ने के लिए इतना कुछ और भी तो था।
मैं अभी पूछूँ फ़रीद पता है? नहीं पता। रूमी पता है? नहीं पता। कबीर पता है? नहीं पता। अष्टावक्र पता है? नहीं पता। नानक पता है? नहीं पता। हाँ, एक चीज़ पता है। वही क्यों पता है? और बाकी सब पता होते तो वो एक चीज़ छूट चुकी होती न अब तक।
छूटने से अर्थ ये नहीं है कि तुम अपना धंधा छोड़ दो। छूटने का अर्थ ये है कि धंधे की सीमाएँ पता चल जाएँगी। फिर समझ जाओगे कि ये शरीर की मजबूती के लिए है। फिर उसके साथ तुम आत्मा को जोड़कर नहीं देखोगे।
अभी दिक्कत ये है कि जिसको तुम योग कहते हो उसके साथ तुमने आत्मा का और समाधि का संबंध भी प्रचारित कर रखा है, और वहाँ कोई संबंध नहीं है। वो पूर्णतया एक शारीरिक क्रिया है। उससे शरीर में सुधार आता है इसमें कोई शक नहीं। पर तुम ये कभी कहते ही नहीं कि तुमको इससे एक स्वस्थ, सुंदर और मज़बूत शरीर मिलेगा। तुम तो कहते हो कि इससे आपको शांति और समाधि मिल जाएगी। ये झूठ है, ये गुनाह है।
प्र: इसलिए जो मैं योग करता था उसे छोड़ दिया।
(श्रोतागण हँसते हैं)
आचार्य: तुमने इसलिए नहीं छोड़ा कि उससे परमात्मा नहीं मिल रहा था। तुमने इसलिए छोड़ा क्योंकि उससे शरीर को तकलीफ़ होती थी। परमात्मा तो तुम्हें ध्यान से भी नहीं मिल रहा था। ध्यान काहे ना छोड़ा?
प्र: मिलता था।
आचार्य: परमात्मा मिल जाता था? तो परमात्मा ने आकर के, तुमसे मिल करके तुमसे कहा कि नाईट-शिफ्ट करो? ध्यान से तुम्हें परमात्मा मिला। फिर परमात्मा ने ये भी कहा होगा कि नाईट-शिफ्ट करो?
प्र: पूरे दिन भर ध्यान केंद्रित रहता था।
आचार्य: तो उसी ध्यान केंद्रित रहने के कारण तुम नाईट-शिफ्ट में घुस गए?
प्र: नहीं।
आचार्य: तुम मानोगे नहीं न?
परमात्मा मिला और परमात्मा ने आकर कहा कि, "बेटा अब ऐसी जगह में जाकर घुस जा जहाँ परमात्मा का कोई नाम लेवा नहीं है।"
प्र३: आचार्य जी, जैसे अभी आपने कहा कि शवासन में मरने का नाटक कर रहे हो क्योंकि असली मुर्दा तो उठकर खड़ा नहीं होता है। आपने कहा कि अंदर से असली मौत होनी चाहिए। तो फिर अंदर से असली मौत हुई अहंकार की, तो वापस नहीं आता कभी क्या?
आचार्य: कई-कई बार मारना पड़ता है उसको। उसकी प्रकृति ये है कि मुर्दा उठ-उठ कर भगता है। उसे बार-बार मारना पड़ता है। कबीर कहते हैं कि माया अगर मर भी गई हो तो उस मृतक का विश्वास मत कर लेना। वहाँ तो मामला ये है कि पिंजर भी साँस लेता है। समझ रहे हो न? मुर्दा भी हो गया हो, तो भी वो साँस लेता है। विश्वास मत कर लेना कि मर ही गई है। ढोंग करती है वो मरने का, वो बार-बार खड़ी हो जाती है। तो उसको बार-बार लगातार मारते रहना पड़ता है।
प्र३: क्या कभी ऐसा समय भी आता है कि वो खड़ी हो ही ना वापस?
आचार्य: तब समय नहीं रहता। फँस गए। वैसा समय जब आएगा तब समय रहेगा ही नहीं।
प्र: तो ये इंतजार ही त्याग देना चाहिए कि ये मरे?
आचार्य: हाँ, बहुत बढ़िया।
(श्रोता की ओर इशारा करते हुए) अभी आज आदमी की तरह बैठा है टेढ़ा होकर के तो सब बता दिया। यही आसन में आकर के बैठा होता तो कुछ समझ में नहीं आता इसको।
यहाँ आते हैं लोग सुनने के लिए। हमेशा जब सुन रहे होते हैं तो उसमें से पाँच-दस ऐसे होते हैं जो ऐसे (पद्मासन में) बैठ जाएँगे सुनने के लिए। उनको देखकर पहले ही समझ आ जाता है कि इनको कुछ नहीं पल्ले पड़ने वाला। जो सहज बैठा है, कोई टिक कर बैठा है, कोई पालथी मार कर बैठा है, उसको आ जाएगा समझ में। और जितने बैठ जाते हैं मुद्राएँ धारण करके, इनका पक्का है इनके कुछ पल्ले नहीं पड़ेगा।
प्र२: आचार्य जी, आपने कहा था कि जैसे मोर बन रहा है। अगर मोर इसलिए बन रहा हूँ मैं कि उसमें ऐसा लिखा है कि ऐसा आसन करने से आपकी पाचन शक्ति बढ़ती है।
आचार्य: हाँ ठीक है खाना पचाने के लिए बन जाओ। उसमें कोई दिक्कत नहीं है।
प्र२: जैसे मोर सब पचा लेता है।
आचार्य: उसके लिए बनना है तो बन जाओ। वो अगर उस उद्देश्य के लिए करना है तो मुझे भी सिखा दो। मैं भी चाहता हूँ मेरा खाना और बेहतर पचे। पर तुम ये थोड़े ही कहते हो कि ये करने से खाना अच्छा पचेगा। तुम क्या बोलते हो? तुम बोलते हो कि ये करने से परमात्मा की प्राप्ती हो जाएगी। ये गुनाह है। ये मत करो। मैं भी उत्सुक हूँ कि तुम मुझे सिखाओ जो तुम्हें आता है, अपनी कला। पर कला के तौर पर सिखाओ। तुम उसे अध्यात्म के तौर पर बेच रहे हो। ये गलत है।
प्र२: वो (योग) ऐसे बोलता है कि जितने भी चौरासी लाख चेतनाएँ हैं उनके माध्यम से मनुष्य गुज़रे।
आचार्य: तुम्हारा अनुभव है ऐसा कि जिन्होंने किया वो पहुँचे? तुम्हारे यहाँ इतने आते हैं जो करते हैं। तुमने उनके जीवन में वास्तविक बदलाव देखे हैं?
प्र२: बिलकुल नहीं देखे।
आचार्य: तो फिर क्यों बात कर रहे हो?
प्र२: जैसे शिवानंद जी...
आचार्य: तुम्हारे साथ बैठ कर खाते-पीते थे? तुम्हें पता है उनका जीवन?
प्र२: नहीं।
आचार्य: फिर? तुम खुद इस धंधे में इतने सालों से हो, तुम्हारा अपना इतना अनुभव है, अपने अनुभव से बताओ न। उस पूरी नगरी (ऋषिकेश) में जितने आते हैं, क्या वो वास्तव में हार्दिक बदलाव के लिए आते हैं? काया का बदलाव एक बात है और अक्सर काया के बदलाव का जो इक्षुक होता है वो काया से ही तादात्म्य रखता है।
प्र२: हार्दिक बदलाव के लिए तब भी नहीं आ सकता क्योंकि हार्दिक बदलाव भी तो पता होना चाहिए।
आचार्य: क्या पता होना चाहिए?
प्र: कि हार्दिक बदलाव कैसे होता है।
आचार्य: तुम दोनों गले मिलो अगल बगल बैठे हो। वो भी कैसे-कैसे कि रट लगा रहा है और तुम भी कह रहे हो कैसे होगा। ऐसे तो नहीं होगा जैसे प्रयत्न कर रहे हो। जैसे कर रहे हो, वैसे तो होता नहीं पा रहे। तो कम-से-कम इसको तो छोड़ो। फिर कह रहा हूँ, इसको छोड़ने से मेरा आशय ये नहीं है कि तुम अपना व्यवसाय छोड़ दो। इसको (योग) छोड़ने से मेरा आशय ये है कि तुमने इसके साथ जो समाधि का संबंध बना रखा है, उस संबंध को छोड़ो।
तुम जागरूकता पैदा करो कि शरीर स्वस्थ होना चाहिए। शरीर स्वस्थ है तो मन को शांत रखने में सहायता मिलती है। उस हद तक योग लाभप्रद है। हठ-योग की बात कर रहा हूँ मैं। उस हद तक हठ-योग लाभप्रद है। फिर तुम अपना काम करो, अच्छी बात है। पर तुम एक पद्धति दिखा करके लोगों से कह रहे हो, पद्धति पर चलो परमात्मा मिलेगा। ये झूठ है। ये दुष्प्रचार है और ये सबको भ्रमित करने वाला काम है, इसे रोको।
प्र: आचार्य जी ये बात भी कही गई है कि स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन होगा।
आचार्य: स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन होगा पर मात्र शरीर के स्वस्थ होने से मन थोड़े ही स्वस्थ हो जाता है। ये बात बिलकुल ठीक है कि शरीर अगर स्वस्थ है तो मन के स्वास्थ्य में मदद मिलती है। फिर तो सबसे बड़े पीर, औलिया, संत, पैगम्बर, सब ओलंपिक में ही नज़र आते क्योंकि सबसे ज़्यादा स्वस्थ शरीर तो उन्हीं के हैं। पागल, इतनी सी बात कभी नहीं सोची? पर ओलम्पिक में जितने भी घूम रहे होते हैं उनमें से सबका तो परीक्षण करना पड़ता है कि नशीली दवाएँ कौन-कौन लेता है। अभी कॉमनवेल्थ हुए थे, उसमें भी पकड़े गए। और वो सब बड़े स्वस्थ शरीर वाले थे। और कर क्या रहे हैं? बेईमानी, ड्रग्स ले रहे हैं।
एक आए थे योग-केंद्र के प्रबंधक। बैठे हुए हैं सत्र में सुनते रहे। दो-हज़ार-सोलह की बात है। ऋषिकेश में था। पर उस दिन उनके माथे से तनाव ही नहीं उतर रहा था। मैं पूछा क्या बात है? बोले, “यूरोप का एक दल आया था। उनका कोर्स पूरा हुआ”—योग का कोर्स चलता था— बोले, “कोर्स पूरा हुआ, बिलकुल योगा-रूढ़ हो गए वो। रिश्ता उनसे अच्छा बन गया। हमने उन्हें उनके सर्टिफिकेट भी दे दिए।” लोग आते हैं ये करके सर्टिफिकेट माँगते हैं ताकि अपने देशों में फिर अपना धंधा चला सके। वो बोले, “उनका कोर्स पूरा हो गया। उनके सर्टिफिकेट भी दे दिए।”
मैंने कहा, फिर, उन योगा-रूढ़ लोगों का क्या हुआ? बोले, “वो बिना पैसे दिए लापता हैं। आखिरी किस्त बची थी। हमने यकीन करके ली नहीं थी।” मैंने कहा, ये तो विचित्र बात है। योगा-रूढ़ शिष्य, योगाचार्य के पैसे लेकर लापता है। ये कौन सा योग है? शरीर के स्वस्थ हो जाने भर से मन स्वस्थ नहीं हो जाता। उससे सहायता मिलती है पर वो पर्याप्त नहीं है।
गाड़ी अच्छी हो तो फिर अपने-आप मंज़िल तक पहुँच जाएगी? हाँ, गाड़ी अच्छी हो तो यात्रा ज़रा तबियत से हो जाती है या ज़रा सुकून से हो जाती है। लेकिन फिर भी सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण क्या है? गाड़ी या चालक?
प्र: चालक।
आचार्य: तुम गाड़ी को घिसे जा रहे हो, घिसे जा रहे हो कह रहे हो, “गाड़ी बहुत अच्छी होगी तो सीधे स्वर्ग में उतारेगी।” ये क्या मूर्खतापूर्ण प्रचार है? गाड़ी बहुत अच्छी होगी तो स्वर्ग में उतारेगी और चालक कौन है इसकी तुम बात ही नहीं करते। इस मुद्दे को बिलकुल दबा जाते हो कि चालक कौन है। स्वचलित तो नहीं होती गाड़ी कि होती है? गाड़ी तो गाड़ी है।
जो चलाने वाला है उसकी तो तुम बात ही नहीं करना चाहते। क्योंकि चलाने वालों को घिसा नहीं जा सकता न। तुम गाड़ी को घिसते हो। चलाने वाले का तो कुछ कर ही नहीं सकते तो उसकी बात ही नहीं करते। क्योंकि उसके बारे में जब कुछ कर नहीं सकते तो फिर उसके नाम से पैसा भी नहीं ऊगा सकते।
हाँ, गाड़ी बदली जा सकती है, चमकाई जा सकती है, मॉडल बदला जा सकता है, पुर्ज़े बदले जा सकते हैं। तो वहाँ पर तुम्हारा सारा कर्ताभाव है। देह को बदलने के लिए तत्पर हो और मैं उसका विरोधी नहीं हूँ। घटिया गाड़ी से अच्छा है कि गाड़ी बढ़िया रहे। अस्वस्थ शरीर से अच्छा है कि शरीर स्वस्थ रहे। कोई बीमार ही पड़ा हुआ है तो वो तो यहाँ बैठ करके बातचीत भी नहीं कर पाएगा। तो अच्छा ही है कि लोगों की काया सुडौल रहे, मज़बूत रहे, लचीली रहे। लेकिन तुमने काया को इतना महत्व दे दिया कि अब काया ही काया है। काया को ही तुमने माया बना डाला। सारा ध्यान ही किस पर है?
प्र: काया पर।
आचार्य: काया पर है। "काया सुडौल रहे, काया सुडौल रहे!" फिर तो जितने मॉडल रैम्प-वाल्क करते हैं, इन सबको इंद्र और वरुण और अग्नि होना चाहिए था। यही देवता हैं। क्यों भाई? इनकी काया कैसी है? अभी भी समझ में नहीं आया? ये जितने मॉडल देखे हैं? हर तरीके से लंबे भी हैं, चौड़े भी हैं, मज़बूत भी हैं। इन सबको तो स्वर्गवासी होना चाहिए था।
प्र२: जो किताबें हैं उनमें सब बातें लिखी हैं।
आचार्य: वो भी तुम इसलिए उन किताबों की बात कर रहे हो क्योंकि जो वास्तविक किताबें हैं उनको पढ़ने से घबरा रहे हो। प्रदीपिकाएँ मत पढ़ो। तुम्हें कौन रोक रहा है सीधे वेदांत की तरफ जाने से? तुम्हें कौन रोक रहा है कि तुम दत्तात्रेय को और अष्टावक्र को ना पढ़ो? कबीर और नानक के पास जाने से तुम्हें कौन रोक रहा है? उनका तुम नाम नहीं लेते। तुम बार-बार एक (योग की) किताब को पकड़ कर उसी का ज़िक्र करते रहते हो।
गाड़ी खटारा भी हो तो भी एक सुजान चालक उसे मंज़िल तक पहुँचा देगा। पर गाड़ी बिलकुल नई नवेली मरसिडीज़ भी हो और चालक पियक्कड़ है तो दुघर्टना पक्की है। अब बताओ किसका कितना महत्व है? चालक का कितना है और गाड़ी का कितना है?
चालक यदि सुजान है तो उसको तो तुम गाड़ी ना भी दो तो पैदल ही यात्रा करके देर-सवेर पहुँच जाएगा। पर गाड़ी तुमने खूब चमका दी, काया तुमने खूब चमका दी और चालक? वो धुत्त। तो वो गाड़ी तुम्हें नर्क में ही ले जाएगी। तुम अपनी काया का क्या उपयोग करोगे? तुम अपनी गाड़ी का क्या उपयोग करोगे? सीधे नर्क में जाने के लिए उपयोग करोगे।
तो महत्व गाड़ी का भी है, महत्व चालक का भी है पर याद रखो कि किसका कितना महत्व है। चालक का कितना प्रतिशत महत्व है?
प्र: निन्यानवे प्रतिशत।
आचार्य: और गाड़ी का?
प्र: एक प्रतिशत।
आचार्य: और तुम, जिसको एक प्रतिशत महत्व देना चाहिए उसे महत्व दे रहे हो?
प्र: निन्यानवे।
आचार्य: निन्यानवे पर भी कहाँ रुक रहे हो तुम? तुम तो सीधे सौ जा रहे हो। कह रहे हो समाधि लग जाएगी इसी से।