प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। जो मन की गन्दगियाँ हैं उनको साफ़ करना ही धर्म है। पर मुश्किल हो रही है कि मन की गन्दगियाँ दिखती नहीं हैं जब तक कि हम किसी ऐसी परिस्थिति में होते हैं या किसी से सम्बन्ध बनाते हैं या कोई हमारे जीवन में होता है। तो ये तो एक बहुत बड़ी निर्भरता है।
अगर मैं इस यात्रा पर निकला हूँ और आपने बोला कि देखो, अब वो दिख ही नहीं रही और वो दिखती तब है जब हम उसमें पूरा गुथे होते हैं और वो भी जब एकदम कोई झटका लगता है। फिर वो विडियोज़ देखने शुरू होते हैं, फिर वो पूरी यात्रा दोबारा शुरू होती है। तो ये निर्भरता ख़त्म हो सकती है या हमेशा दूसरे की ज़रूरत पड़ेगी-ही-पड़ेगी?
आचार्य प्रशांत: दूसरे की ज़रूरत तो पड़ेगी-ही-पड़ेगी। दूसरे की ज़रूरत को लेकर तुम परेशान भी इसलिए हो क्योंकि तुम अपनी सत्ता को नहीं समझते। अपनेआप को नहीं जानते न इसीलिए दूसरे को लेकर परेशान हो। दूसरे की ज़रूरत तो पड़ेगी-ही-पड़ेगी जब तक अपने बारे में वैसे ही ख़याल हैं जैसे अभी हैं।
प्रश्न ये है कि दूसरा वो हो कैसा जिसकी ज़रूरत पड़े। उसमें सावधान रहो कि किसको ज़िन्दगी में लेकर के आ रहे हो। बहुत बार बोला है मैंने, किसी ऐसे के सामने बैठो जो दर्पण की तरह हो, जिसका कोई स्वार्थ न हो तुम्हें झांसा देने में। जो साफ़-साफ़ दिखा दे, बता दे या जिसकी मौज़ूदगी में तुम्हें ही दिखने लग जाए कि गड़बड़ कहाँ है, गन्दगी कहाँ है। और उसमें फिर साहस लगता है, थोड़ी असुविधा होती है। देखो, केन्द्र के हिसाब से परिधि अपनेआप को ढाल लेती है। समझे? तुम्हारे शरीर में कहीं कोई चीज़ कमज़ोर होने लग जाए तो तुम्हारी दिनचर्या चुपचाप बदल जाती है उस कमज़ोरी के अनुसार, तुम्हें पता भी नहीं चलेगा। समझ रहे हो बात को?
मान लो तुम्हारा एक कन्धा कमज़ोर होने लग जाए, ज़रूरी नहीं है कि तुम्हें पता चले, हो सकता है तुम्हें दो-तीन साल तक पता भी न चले कि एक कन्धा कमज़ोर हो रहा है। कैसे नहीं पता चलेगा? जब भी कुछ उठाना होगा दूसरा कन्धा सामने आ जाएगा। ये है दायाँ कन्धा (दायें कन्धे की ओर संकेत करते हुए), अगर ये कमज़ोर होने लग गया है — और ऐसा बहुत होता है कि वो चीज़ छुपी रह गयी, छुपी रह गयी क्यों छुपी रह गयी? क्योंकि दिनचर्या ने, जीवनचर्या ने अपनेआप को कमज़ोरी के इर्द-गिर्द ही व्यवस्थित कर लिया, ढाल लिया। पता तो तब चलता न जब कोई भारी वज़न उठाना था और इस हाथ से उठाते, दायें से। अब दायाँ कन्धा कमज़ोर था इससे कोई वज़न उठाते तो भेद खुल जाता कि भाई, कोई कमज़ोरी आ रही है, उठ नहीं रहा। पर होगा क्या कि कुछ पड़ा है और उठाना है तो अपनेआप ही बायाँ हाथ आगे चला आएगा और उठा लेगा अपनेआप।
तो हमारी जो ज़िन्दगी है वो हमारी कमियों और कमज़ोरियों को छुपाने के हिसाब से व्यवस्थित हो जाती है, एडजस्ट हो जाती है। तो फिर कैसे पता चलेंगी कमियाँ-कमज़ोरियाँ? ज़िन्दगी तोड़नी पड़ेगी। जैसा चल रहा है मामला उससे लगातार जानबूझकर कुछ-न-कुछ अलग करते रहना पड़ेगा। जब कुछ अलग करोगे तो तुम्हारा जो ढर्रा है वो टूटेगा और भेद खुलेंगे कि कहाँ पर नयी कमज़ोरियाँ आ गयी हैं।
सबसे ज़्यादा ख़तरा उन लोगों के लिए होता है जो ज़िन्दगी में अब पूरे तरीक़े से किसी ढर्रे में बँध गये हैं, किसी ढाँचे में धँस गये हैं। जो सेटल्ड क़िस्म के लोग होते हैं न, वेल सेटल्ड , नाइसली एडजस्टेड , रोज़ वो सुबह एक ही समय उठते हैं, एक ही काम करते हैं, एक ही तरह का नाश्ता करते हैं, एक ही दफ़्तर जाते हैं, वापस आते हैं। दफ़्तर में भी उन्हीं कुछ पाँच-सात ख़ास लोगों का मुँह देखा, वापस आते हैं उन्हीं पाँच-सात ख़ास लोगों का मुँह देखा, उसी बिस्तर पर सोते हैं, वही पुराने सपने लेते हैं, सुबह फिर उठ जाते हैं। ऐसे लोगों को अब कभी नहीं पता लगने वाला कि उनकी ज़िन्दगी में कितनी गन्दगियाँ, कमज़ोरियाँ, बीमारियाँ आ चुकी हैं क्योंकि उनकी पूरी ज़िन्दगी ही अब क्या कर चुकी है? उन्हीं बीमारियों के इर्द-गिर्द एडजस्ट कर चुकी है।
उदाहरण के लिए, आप अगर ऐसे आदमी हैं जिसको पसन्द नहीं है कि उसकी ग़लतियाँ कोई उसके मुँह पर बताये तो उसने अब तक ये सुव्यवस्थित कर लिया होगा अपने दफ़्तर में कि उससे जो पाँच-सात लोग मिलने आते होंगे, वो कौन हैं? वही फ्लेटरर्स , चाटुकार। घर पर बीवी-बच्चों को, माँ-बाप को, सबको पता चल चुका होगा कि इनसे कैसी बात करनी है। कैसी बात करनी है? जिसमें इनकी कोई खोट न निकलती हो। तो अब तुम्हारा पूरा ढर्रा ही ऐसा हो चुका है जिसमें सब इसी हिसाब से व्यवस्थित है, सेट है कि तुम्हारी बीमारी अब छुपी रहेगी।
फिर तो एक ही तरीक़ा है — उस ढर्रे को तोड़ो, ज़बरदस्ती तोड़ो। नये लोगों से मिलो, नयी जगहों पर जाओ, नयी किताबें पढ़ो। एक काम कर रहे हो, दूसरे काम में जाओ। ज़बरदस्ती अपनेआप को चुनौती दो, भले ही लग रहा हो कि सब ठीक चल रहा है। सबको लग रहा होता है सब ठीक चल रहा है, अभी फुल बॉडी चेकअप करा दिया जाए तो कोई ऐसा नहीं होगा जिसके दो-चार आँकड़े लाल-पीले नहीं आएँगे।
प्र: इसमें आचार्य जी, एक चीज़ और जोड़ूँगा, जैसे मैं आपकी वीडियोज़ घर में देखता हूँ तो जैसे मेरे पिताजी का कहना था कि लड़के में बदलाव है, धैर्य है पर जब इसकी शादी होगी तो ये और निखरेगा। (श्रोतागण हँसते हैं) आचार्य जी, इसका क्या मतलब हुआ? जो आपने अभी सारी बात बोली है कि कुछ नया करो और वो परिस्थितियाँ आती रहनी चाहिए, तो मैं उनका इशारा थोड़ा समझा, थोड़ा नहीं भी समझा।
आचार्य: इसका मतलब ये है कि पिताजी से प्यार हो तो उन्हें यहाँ ले आना अगली बार। उनकी हालत बहुत ठीक नहीं है। (श्रोतागण हँसते हैं) मुझे अभी उनके बारे में क्या बोलना चाहिए, सबसे पहले तुम्हारे बारे में बोलूँ। अभी-अभी आपने जो बोला उसमें बेईमानी थी। तुम्हें अच्छे से पता है कि पिताजी ने जो बोला उसका अर्थ क्या है फिर भी मेरे मुँह से सुनना चाहते हो।
तुम नहीं जानते कि धैर्य का बीवी से क्या मतलब? तुम ख़ुद नहीं जानते क्या, बोलो जानते हो न? तो फिर मुझसे क्यों सुनना चाहते हो?
प्र: आचार्य जी, जो मेरा पहला प्रश्न था वो यही था कि क्या दूसरे से कुछ ऐसे इवेंट्स जेनरेट (घटनाएँ उत्पन्न) होंगे?
आचार्य: पत्नी से कैसे ऐसे इवेंट जेनरेट होंगे कि धैर्य बढ़ जाएगा? 'नहीं, हो सकते हैं।'(आचार्य जी मुस्कुराते हुए)
(श्रोतागण हँसते हुए)
प्र: नहीं, जब घर में क्लेश होगा और फिर मैं कोई वीडियो देख रहा होऊँगा तो
आचार्य: ऐसी बातें क्यों पूछ रहे हो जहाँ उत्तर तुम्हें पहले ही पता है? पिताजी धैर्य के उपासक हैं, उनको धैर्य से इतना प्रेम है, वो धैर्य को इतना मूल्य देते हैं कि धैर्य की ही ख़ातिर तुम्हारी जीवन में एक स्त्री लाना चाहते हैं, है न? धैर्य प्रथम है और तुम्हारे जीवन में धैर्य बढ़ जाए, संयम बढ़ जाए, करुणा बढ़ जाए, इस ख़ातिर तुम्हारे जीवन में वो एक स्त्री लाना चाहते हैं। ये कहानी किसको सुना रहे हैं हम? हम नहीं जानते, बात क्या है असली? अब कोई ये खुलेआम थोड़े ही बोलेगा कि बेटा, तू भी वही सब कर जैसा मैंने करा है, घर में खरगोश चाहिए नन्हें-मुन्ने।'
तो फिर वो जो पुराना प्रकृतिक पाशविक उद्देश्य है उसको आध्यात्मिक लिफ़ाफ़े में लपेटकर के पेश किया जाता है, 'नहीं, शादी कर लो, उससे ध्यान में गहराई आती है।' शादी से ध्यान में गहराई आती है? सीधे-सीधे बताओ न क्यों करवाना चाहते हो, क्योंकि पता तो तुमको भी है क्यों करवाना चाहते हो, पता हमको भी है क्यों की जाती है। ये उसमें ध्यान क्यों ज़बरदस्ती बीच में ला रहे हो, ध्यान, धैर्य? और कोई भी चीज़ हो उसके लिए शादी कर लेगा, 'लड़के की नौकरी नहीं लग रही, शादी कर दो!' अजीब बात है! ‘लड़के को कब्ज रहती है, शादी करा दो।’ वो क्या करेगी?
और अगर छुपाना पड़ रहा है इतना असली उद्देश्य को तो ज़रूर असली उद्देश्य में कुछ गड़बड़ होगी। नहीं तो साफ़-साफ़ बता दिया जाता न कि शादी के लिए इतना क्यों ठेला जाता है। बता ही दो, कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा, शादी तब भी होगी। फिर छुपा-छुपी क्यों? नहीं? क्यों व्यर्थ के शब्दों का इस्तेमाल करना, पवित्रता, ऊँचाई, प्रेम? जो असली बात है खुलकर बोलो न।
प्र२: आचार्य जी, प्रणाम। आचार्य जी इतनी अधिक स्पष्टता तो नहीं है कि क्या सही है क्या ग़लत है लेकिन कई बार ग़लत चीज़ को इसलिए नहीं टोका जाता कि मतलब कुछ कमियाँ ख़ुद के अन्दर भी दिखाई देती हैं। उन कमियों पर अभी वर्कआउट नहीं किया गया है इसलिए फिर वो झिझक रहती है अपने अन्दर कि कैसे टोकें। ख़ुद पर एक गिल्ट (ग्लानि) का भाव रहता है कि जब मैं सही नहीं हूँ — भले ही उस पक्ष में तो नहीं लेकिन किसी अलग पक्ष में ग़लत हूँ — तो वहाँ पर फिर एक डर और संशय रहता है टोकने में।
आचार्य: किस बात का संशय रहता है?
प्र२: एक तो इस बात का कि जब ख़ुद पर वो बात आएगी तो मैं ख़ुद का सामना नहीं कर पाऊँगा।
आचार्य: तो बस यही है न? अपनी करतूतें नहीं रोकनी हैं इसलिए दूसरे को भी उसकी करतूत करने दो। और ये भी सिर्फ़ स्वार्थवश नहीं कर सकते तुम, इसमें स्वार्थ के साथ एक चीज़ और जुड़ी है उसका नाम है 'अप्रेम'। बाप शराबी हो तो भी बेटा अगर शराब पीता हो तो उसे रोकेगा नहीं? जवाब तो दो! या बाप ये बोलेगा, 'अरे! जब मैं ही आजतक शराब नहीं छोड़ पाया तो बेटे को कैसे रोक दूँ?' बोलो! तुम्हारे तर्क के अनुसार तो बाप को बेटे को नहीं टोकना चाहिए। बाप कह रहा है, 'जब मैं पीता हूँ तो बेटा पिएगा, मैं टोक कैसे दूँ?' पर टोकेगा क्योंकि क्या है? प्रेम है।
लवलेस (प्रेमहीन) लोग हैं हम। दूसरे को टोका इसलिए नहीं जाता कि दूसरे की ऐसी-तैसी करनी है, नीचा दिखाना है। दूसरे को टोका इसलिए जाता है कि क्योंकि प्रेम है उससे। और प्रेम ये नहीं देखता कि पहले मैं तो परफेक्ट हो जाऊँ फिर इसको टोकूँगा। आप यहाँ बैठे हुए हैं, आपमें से कई लोग अभिभावक होंगे, आप अपने बच्चों को टोकने से पहले ये कहते हो पहले मैं परफेक्ट हो जाऊँ फिर इसको टोकूँगा? बोलो! प्रेम ये इन्तज़ार नहीं कर सकता। ये बहुत ग़लत आदर्श हैं, इनसे बचो।
मैं बिलकुल समझता हूँ कि तुम जो काम कर रहे हो वो काम करते हुए दूसरे को टोकना एक तरह का पाखंड है, दोगलापन है। पर ये पाखंड और दोगलापन भी स्वीकार है अगर इससे दूसरे की जान बचती है, जीवन बचता है। बहुत अच्छा होता अगर ये पाखंड और दोगलापन नहीं करना पड़ता, लेकिन क्या करें अपने सामने उसको शराबी होते तो नहीं देख सकते न! न ये इन्तज़ार कर सकते हैं कि जिस दिन हम शराब छोड़ेंगे उस दिन उसको कहेंगे कि तू भी मत पी।
तो ये बात बिलकुल हिपोक्रेसी की है कि हम शराब पीते हैं लेकिन अपने बेटे को कह रहे हैं, ‘शराब मत पी।' ये बात निश्चित रूप से हिपोक्रेसी की है लेकिन हिपोक्रेसी स्वीकार है, लवलेसनेस नहीं स्वीकार है।
कोशिश करेंगे कि हिपोक्रेसी भी न करनी पड़े, कोशिश करेंगे कि हम भी छोड़ दें, पर इन्तज़ार नहीं कर सकते छोड़ने का। इसको तो अभी रोकना पड़ेगा। बेटे को तो अभी रोकना पड़ेगा नहीं तो वो तो गया। या हम इन्तज़ार करेंगे कि पहले दो साल हम शराब छोड़ें फिर बेटे के पास जाएँगे? उतने में तो वो निकल गया पियक्कड़ बनकर, फिर?
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