आचार्य प्रशांत: एकाध-दो लाइनें बताओ सब लोग। बताओ, बता सकते हो तो अपनी-अपनी। इतना गाया है। (भजन कराने वाले स्वयंसेवक से प्रश्न करते हुए) सब तुम्हीं ने गाया है या औरों ने भी गाया है?
स्वयंसेवक: सभी ने गाया है।
आचार्य: एक-एक दो-दो लाइनें बताओ जो एकदम झनझना गई हों। कुछ मेरा भी एनरिचमेंट (समृद्धि) हो।
पीले प्याला हो मतवाला, प्याला नाम अमीरस का रे। बालापन सब खेल गँवाया, ज्वान भयो नारी बस का रे॥
~ कबीर साहब
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, 'बालपन सब खेल गँवायो', तो वो तो सभी खेलते ही हैं बालपन में तो फिर गँवाना क्या हुआ उसके अंदर?
आचार्य: इस सेंस (अर्थ) में कि तुम अपनी टोटल ऐज (आयु) गिनते हो साठ-सत्तर, जिसमें से बीस तो बाय डिफ़ॉल्ट माइनस है। कबीर साहब ये नहीं बोलते तुमसे अगर तुमने साठ की उम्र में अपनी उम्र बताई होती चालीस। पर तुमने एकाउंटिंग एरर (लेखा त्रुटि) कर रखा है न! नहीं समझे? एक ओर तो तुम अभी आर्ग्युमेंट (तर्क) दे रहे हो कि बीस तो भई गॅंवानी ही है, सभी गॅंवाते हैं। अगर बीस गॅंवानी ही है तो अपनी उम्र साठ क्यों बताते हो? चालीस बताओ। तुम्हारी अभी क्या ऐज है?
प्र: तीन। (श्रोतागण हँसते हैं)
आचार्य: है ना! तो वो तुम्हारा एकाउंटिंग एरर है इसलिए उन्हें बोलना पड़ रहा है कि बेटा तुम ग़लत कर रहे हो जो तुम अपनी ऐज बता रहे हो चालीस। वो चालीस तुम्हारी उम्र है ही नहीं, उसमें से पच्चीस तो तुमने बाय डिफ़ॉल्ट माइनस कर रखा है। लेकिन अगर सोसाइटी (समाज) इतनी इवॉल्व्ड (विकसित) होती कि चालीस साल का बंदा अपनी उम्र पंद्रह बता रहा होता तो वो ये बात नहीं कहते। समझ में आयी बात? चूँकि तुम ग़लती कर रहे हो इसलिए वो तुमको याद दिला रहे हैं कि तुम्हारी टोटल कैलकुलेशन (कुल गणना) में शुरू में ही एरर है।
प्र२: 'गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूँ पाय। बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो मिलाए।।'
आचार्य: निराला भाई तुम! (सभा हँसती हुई) बात अच्छी तो कर रहे हो पर ईमानदारी की है कि नहीं, ये हम नहीं जानते। गुरु गोविंद, पाँव! गुरु गोविंद के अलावा तीसरे भी होते हैं और पाँव के अलावा शरीर में और चीज़ें भी होती हैं। (प्रश्नकर्ता से सवाल करते हुए) गुरु गोविंद का ही ख़्याल चलता रहता है मन में? और जिनका भी ख़्याल चलता है उनके बस पाँव का ही ख़्याल चलता है? असली बातें करो, असली। असली बातों का फ़ायदा ये होता है कि उनसे असली फ़ायदा होता है। है ना? बाकी सब तो फिर ऐसा हो जाएगा कि 'अच्छा, अच्छा, अच्छा! नमस्ते, नमस्ते, टिंकू कैसा है?' 'जी रिंकू जैसा है।' 'अच्छा, अच्छा, ठीक है, नमस्ते!'
प्र३: 'गुरु शरण जाइके, तामस त्यागिए। भला-बुरा कहा जाए तो उठ नहीं भागिए।।'
आचार्य: इसमें स्ट्राइकिंग (झनझनाने वाला) क्या है?
प्र३: भागना नहीं हैं।
आचार्य: मन है भागने का? जो कुछ भी स्ट्राइकिंग लगता है वो अपनी जो स्थिति होती है, अपनी पोज़ीशन , उसी के कंटेक्स्ट (संदर्भ) में लगता है न।
प्र२: 'जोगी चलो संभल के, नारी नयन चले हैं बाण।'
आचार्य: हम्म, आईक्यू थोड़ा तो बढ़ा! (सभा हँसती हुई) आईक्यू माने? ईमानदारी कोशिएंट (सभा पुनः हँसी)। पाँव से नैन तक तो आए, बीच का लेकिन अभी भी सब बाइपास कर रखा है। और बताओ। यहाँ तो हर लाइन ही पंचलाइन होती है, सुपरहिट डॉयलॉग होता है, तुम लोग एक नहीं बता पा रहे? साहब की बात कर रहा हूँ।
प्र४: 'राम बिनु तन की ताप न जाई।'
प्र५: 'लाहे कारण मूल गंवायो। अजहुं न गई मन की तृष्णा रे।।'
प्र६: 'आग बुझी मत जान दबी है राख में।'
प्र१: एक दोहा है आचार्य जी,
कहना था सो कह दिया, अब कछु कहा न जाय। एक गया सो जा रहा, दरिया लहर समाय।।'
~ कबीर साहब
दूसरी लाइन का मतलब समझ में नहीं आता।
आचार्य: जब तुम अपने आपको वन मानते हो तो वो क्या हो गया? इफ़ दिस (बॉडी) इज़ रियल एंड यू टेक इट एज़ रियल, राइट? इफ़ दिस इज़ रियल देन वॉट इज़ दैट। (यदि यह वास्तविक है और आप इसे वास्तविक मानते हैं, है न? अगर ये सच है तो वो क्या है?) 'दैट' समझते हो? तत्, तत्। इफ़ दिस इज़ रियल देन दैट इज़, एकॉर्डिंग टू यू, अनरियल। (यदि यह वास्तविक है तो आपके अनुसार वह असत्य है) तो वो दूजा हो गया ना फिर।
हमारी दृष्टि में तो वो जो 'दैट' है, 'तत्' है, वो क्या है? अनरियल (असत्य) है न! वो अनरियल क्यों है? क्योंकि ये दो अलग-अलग हैं। जो दो अलग हैं तो दो रियल तो नहीं हो सकते। हम इसको रियल मानते हैं। ये (एक श्रोता की ओर इशारा करते हुए) कौन है? ये राघव है। अगर राघव असली है तो वो जो दूसरा है वो तो नकली हो गया न!
तो इसलिए कह रहे हैं, 'एक गया दूजा रहा।' वो दूजा नहीं है वही पहला है, वही असली है, वही एकमात्र है। लेकिन उसको दूजा इसलिए कह रहे हैं क्योंकि हमारी दृष्टि में वो दूजा है। वो वास्तव में दूजा नहीं है। तात्विक दृष्टि से वो दूजा नहीं है। नहीं समझे बात को? नहीं समझ में आ रही बात?
अहम् है, आत्मा है। अहम् के लिए आत्मा क्या है? कोई दूजी चीज़ है न! दूजी, दूर की, पराई, तो इसलिए कह रहे हैं, 'एक गया दूजा रहा।' यहाँ पर 'एक' किसको कह रहे हैं? अहम् को। वो गया, वो जो दूजी चीज़ थी, जो अभी तक दूजी लग रही थी बस वही बची। अहम् के लिए तो वो दूजी है ही, ये खरी बात है।
प्र१: ये जो चीज़ें बोलते हैं कि दूजा या फिर 'दैट' मतलब इसी वक्त बताइए न कि अभी सामने की क्या चीज़ है?
आचार्य: किसको बताएँ?
प्र१: जो पूछ रहा है, उसे।
आचार्य: कौन है वो? दो ही होते हैं।
प्र१: अब इस वक्त तो मैं हूँ न!
आचार्य: तुम कौन हो अभी भी?
प्र१: जो ये एक्सपीरियंस (अनुभव) कर रहा है अंदर से कि…
आचार्य: हाँ, जो पूछ रहा है। जो पूछ रहा है यानि उसको पता नहीं है। जिसको पता नहीं है वो आत्मा तो नहीं हो सकता। आत्मा तो सर्वज्ञ है। सर्व-ज्ञ, ज्ञ माने ज्ञाता; उसे सब पता है। तो जो पूछ रहा है वो अभी भी कौन है? अहम् ही है न! अहम् सुन पाएगा क्या अगर वो यही कहेगा मैं वो हूँ जो पूछ रहा है। जब तक तुम पूछने वाले की आइडेंटिटी (पहचान) भी पकड़ के बैठे हुए हो, जब तक तुम अपनी आवाज़ में तल्खी ले के ये भी कह रहे हो कि 'मैं पूछ रहा हूँ।' तब तक भी तुम्हें समझ में नहीं आएगा।
तो उसको तो नहीं ही समझ में आएगा जिसको कोई प्रश्न ही नहीं है, उसको भी समझ में नहीं आएगा जो बहुत आस्तीन चढ़ा के बोलता है कि 'साहब! मैंने सवाल पूछा है, बताइएगा ज़रा! बता क्यों नहीं रहे हैं?' इस आदमी ने क्या किया है? इसने भी तो अपने आपको अहम् ही बना लिया है। आत्मा थोड़े ही सवाल पूछती है या वो पूछती है? आत्मा को थोड़ी कोई उलझन वगैरह होती है।
तुम बहुत बड़े सवाली बन गए अगर तो भी तुमने अपनेआप को क्या बना दिया? बिलकुल रोक दिया न, क्या बना के?
श्रोतागण: अहम्।
आचार्य: वही बने रहो फिर।
प्र१: अगर अहम् का अपने प्रति सवाल नहीं भी है तो भी दुनिया के अंदर तो इतना सब चीज़ें चलती रहती हैं न। अब एक पशु प्लास्टिक खा रहा है तो उसके ऊपर सवाल आएगा ही आएगा। अब वो आत्मा का सवाल नहीं होता लेकिन इंसान ने देखा।
आचार्य: पशु प्लास्टिक क्यों खा रहा है?
प्र१: क्योंकि हमने प्लास्टिक फैलाया है।
आचार्य: अहम् ने न! तो बात पशु की होनी चाहिए या बात अहम् की होनी चाहिए कि 'मैं ऐसा क्यों हूँ?'
प्र१: अगर मैं करना रोक दूॅं तो भी थोड़ी ना रुक जाएगा?
आचार्य: अभी भी तुम ये सोच रहे हो कि मैं और दूसरे अलग-अलग हैं, ये दृष्टि भी किसकी होगी? अहम् की होगी और इसी दृष्टि के कारण पशु मर रहा है। क्योंकि हर आदमी यही सोच रहा है, जैसे तुमने अभी कहा कि 'मैं और मेरा पड़ोसी अलग-अलग हैं।' ठीक उसी तरह तुम्हारा पड़ोसी कह रहा है कि 'मैं और पशु अलग-अलग हैं।' तो तुम और तुम्हारा पड़ोसी एक हो, पशु अगर मर रहा है तो उसे पड़ोसी नहीं मार रहा, तुम भी बराबर ही मार रहे हो।
जिस भावना से तुम ये कह रह हो कि 'मैंने थोड़े ही प्लास्टिक फैलाया, मेरे पड़ोसी ने फैलाया। मैं और मेरा पड़ोसी अलग-अलग हैं।' उसी भावना से तुम्हारा पड़ोसी भी कह रहा है कि 'मैं और पशु अलग-अलग हैं, मैंने प्लास्टिक फैलाया तो पशु ही तो मरे, मैं थोड़े ही मरा।' जब तक तुम ये नहीं समझोगे कि ये सारा काम किस बिन्दु से निकल रहा है तब तक तुम एक सोशल एक्टिविस्ट (सामाजिक कार्यकर्ता) तो बन जाओगे, स्पिरिचुअल (आध्यात्मिक) आदमी नहीं बन सकते।
सोशल एक्टिविस्ट की प्रॉब्लम (समस्या) ये है कि वो मूल ग़लती करता है कि वो सोचता है कि 'करने वाले दूसरे हैं, मैं दूसरों को सुधार रहा हूँ।' उसको ये पता ही नहीं होता कि करने वाली एजेंसी वास्तव में कौन है। और इसीलिए वो कोई रिफ़ॉर्म (सुधार) ला भी नहीं पाता है।
प्र१: रिफ़ॉर्म तो दोनों ही नहीं लेकर आ पाए, इतने सारे संत और गुरुजन भी हुए और इतने सारे….
आचार्य: ये तुम क्या बिलकुल लीचड़ बातें पेल रहे हो — संत और गुरुजन हुए। संत गुरुजन नहीं हुए होते तो क्या होता, वो तुम्हें पता है?
प्र१: हाँ, वो बात ठीक है…
आचार्य: वो ठीक नहीं है। तब तुम ही नहीं होते, उसकी जगह यहाँ पर एक राक्षस, एक जानवर बैठा होता। ठीक कैसे है? वो ठीक है? तुम जानवर होते, ये ठीक रहता? इतने सस्ते तरीक़े से बात मत करो न! कि वो बात ठीक है, कैसे ठीक है? संत-गुरुजन नहीं हुए होते तो तुम्हारी जगह यहाँ पर कोई बैठा होता जिसके दो सींग और एक पूँछ होती। ठीक है? तो बहकी-बहकी बातें काहे कर रहे हो? ठीक है?
किसी का असेसमेंट (आंकलन) इसी बात से मत किया करो कि क्या दिख रहा है? या कि उसने क्या किया? असेसमेंट करते वक्त जो एक बहुत बड़ी चीज़ मिस आउट (छूट जाना) हो जाती है, आइसबर्ग (हिमशैल) के नौ बटे आठ हिस्से की तरह, वो ये होती है कि क्या-क्या हो सकता था जो हुआ नहीं उसकी वजह से। क्या-क्या वो कर सकता था मगर उसने किया नहीं। वो हम अपने असेसमेंट में कभी फ़ैक्टर ही नहीं करते।
तुम्हें ये तो दिख रहा है कि किसी मकान में आग लगी और फायरफाइटर्स (आग बुझाने वाला) घुसे उसके बाद भी दो लोग मर गए। तुम कह रहे हो, 'फायरफाइटर्स का फ़ायदा क्या? दो मर गए।' तुम्हें ये नहीं पता कि उस इमारत में दो सौ लोग थे, एक सौ अट्ठानवे बच गए। पर ये न तब के लक्षण होते हैं जब आदमी उन फायरफाइटर्स के ख़िलाफ़ खड़ा होना चाहता है।
'इनग्रैटीच्यूड इज़ द बिगिनिंग ऑफ़ इविल।' (कृतघ्नता बुराई की शुरुआत है)
अदरवाइज़ हाउ विल यू मेक योरसेल्फ़ ऐग्रीएबल टू इविल। (नहीं तो तुम अपनेआप को बुराई का समर्थक कैसे बनाओगे?) आपको इविल करना है तो उसके लिए सबसे पहले आपको दोष निकालना पड़ेगा न संतो में, साधुओं में कि 'इन्होंने तो कुछ अच्छा करा नहीं, अब मैं अपनेआप को ये अनुमति देता हूँ कि मैं इनके ख़िलाफ़ हो जाऊँ।' आप दोनों काम एक साथ नहीं कर पाओगे कि आप कहो कि मुझे संतों पर ग्रैटीच्यूड (कृतज्ञता) भी है और मैं संतो के ख़िलाफ़ भी हूँ।
जब किसी वजह से भीतर माया तैयार हो रही होती है, खिलाफ़त करने की, तो वो सबसे पहले क्या करती है? इनग्रैटीच्यूड (कृतघ्नता) तैयार करती है; और इनग्रैटीच्यूड तैयार करने के लिए एक बहुत अच्छा साधन होता है — फ़ैक्ट्स (तथ्यों) के प्रति या तो उपेक्षा या उनका डिस्टॉर्शन (विरूपण)। या तो फ़ैक्ट्स को डिस्टॉर्ट कर दो या फिर फ़ैक्ट्स के उन आठ बटे नौ हिस्से को देखो ही नहीं जो आसानी से दिखाई नहीं देता।
भई! उदाहरण के लिए, राम वैराग्य और अनुशासन और मर्यादा के प्रतीक हैं, ठीक! राम प्रतीक हैं वैराग्य, अनुशासन और मर्यादा के। अब आपकी ज़िंदगी में कोई मुकाम आ गया है जहाँ आप वैराग्य रख ही नहीं सकते। मान लो कोई कामिनी आ गई है आपकी ज़िंदगी में, या कि कोई बहुत बड़ा लालच आ गया है आपकी ज़िंदगी में जैसे अयोध्या का राजपाट; आपको भी कुछ ऐसा ही राजपाट मिल रहा है: आपके लिए अब संभव ही नहीं है कि आप मर्यादा रखो, अनुशासन रखो। तो आपको अब राम का विरोध करना पड़ेगा।
आप ये तो कह नहीं पाओगे कि आप राम का विरोध इसलिए कर रहे हो क्योंकि राम अनुशासित थे, मर्यादित थे तो आप क्या कहोगे? 'पता है राम ने क्या किया था? राम ने न वो फ़लाना शूद्र था उसके कान में पिघला हुआ सीसा डाल दिया था। और पता है राम ने क्या किया था? गर्भिणी सीता को वनवास दे दिया था। और पता है राम ने क्या करा था? राम ने शबरी के जो बेर वगैरह जो खाए थे, वो कुछ नहीं थी, वो राजनीति थी। और पता है राम ने क्या करा था? ज़बरदस्ती जाकर के रावण की लंका में घुस गए थे जबकि पहले उसके बहन की नाक खुद ही काटे थे।'
अब ये सब बातें तुम्हारे दिमाग़ में राम के खिलाफ़ आने लगेंगी ताकि अब तुम राम के खिलाफ़ हो सको और राम के खिलाफ़ होते ही तुम खिलाफ़ हो गए अनुशासन, मर्यादा और वैराग्य के। तो वस्तुतः तुमको समस्या राम से है ही नहीं। तुम्हें समस्या उन चीज़ों से है राम जिनके प्रतीक हैं। बात समझ रहे हो?
पर अब तुम्हें अगर वैराग्य को छोड़ना है तो राम को गाली देना आवश्यक हो जाता है। इसी तरह संत जिन चीज़ों के प्रतीक होते हैं, जब वो तुमको त्यागनी होती हैं—क्योंकि तुम्हारी ज़िंदगी में कोई बहुत बड़ा आकर्षण या डर या विक्षेप आ गया होता है—तो तुम्हारे लिए फिर आवश्यक हो जाता है कि तुम संतों के ही खिलाफ़ बोलना शुरू कर दो।
और खिलाफ़त हमेशा यही नहीं होती कि कबीर साहब बुरे आदमी थे; खिलाफ़त ये भी होती है कि कबीर साहब असफल आदमी थे। खिलाफ़त करने के लिए ये कहना ही ज़रूरी नहीं है कि आप बुरे आदमी हो। खिलाफ़त ऐसे भी की जा सकती है कि आपने मेहनत तो बहुत की, आपको मिला क्या? क्या कर लिया इन सब साधु-संतों ने, इतने दिनों से बोल रहे हैं, दुनिया इतनी ख़राब है, देखो पशु मर रहे हैं।
सावधान रहा करो! थोड़ा-सा भीतर कीड़ा उठे तभी चेत जाओ, उसको फूँक मार के उड़ा दो। नहीं तो कीड़ा बहुत जल्दी डाइनासोर बन जाता है। वैचारिक संयम रखना बहुत ज़रूरी है। विचार कब कर्म बन जाएँगे, तुमको पता नहीं चलेगा। संतों के खिलाफ़ विचार का ‘व’ भी उठे, उसी समय चेत जाओ। ये मत सोचो कि 'मैं तो अपने एकांत में ही सोच रहा हूँ, मैंने कुछ कर थोड़े ही दिया!'
ये जो काम अपने एकांत में आप कर रहे हो न सोच-सोच के, एकांत वगैरह कुछ होता नहीं है। आप अपने एकांत में भी अगर भ्रष्ट चिंतन कर रहे हो तो भ्रष्ट चिंतन आपका कर्म बन गया। भीतर से जैसे ही दुर्भावना उठे, उसी वक्त उस पर ढक्कन रख दिया करो। कुछ बातों की अपनेआप को अनुमति नहीं देनी चाहिए।
अभी कल ही आया था एक जोड़ा, मैं उनको बोल रहा था कि ‘वाक् संयम’ और ‘विचार संयम’ दोनों ‘कर्म संयम’ से पहले आते हैं। सबसे पहले तो अपनेआप को अनुमति मत दो कुछ भी उल्टा सोचने की। किसी तरह अगर विचार पर तुम संयम नहीं रख पाए, कुछ उल्टा-पुल्टा सोच भी लिया तो वाक् को, वाणी को अनुमति मत दो उल्टा बोलने की।
पहले तो संतों के खिलाफ़ विचार ही नहीं आना चाहिए और आ गया तो ज़बान पर नहीं आना चाहिए। पुराने समय में कहते थे, 'ज़बान से अगर एक शब्द भी निकला संत पुरुषों के खिलाफ़ तो इस ज़बान को ही काट दूँगा, खुद ही काट दूँगा।' ये ‘वाक् संयम’ कहलाता है, इसी को ‘वाक् निग्रह’ भी कहते हैं।
गीता का सत्रहवाँ अध्याय उठा के पढ़ो। यही तीन तल बोलते हैं कृष्ण ‘साधना’ के — वैचारिक साधना, शाब्दिक और फिर कार्मिक। यही तीन चीज़ें संभालने की होती हैं — विचार संभाल लो, ज़बान संभाल लो और कर्म संभाल लो।
अब दो बातें तो तुम्हारी बहक गईं। विचार तो गड़बड़ रहे ही होंगे तभी वाणी से भी गड़बड़ बात बोल रहे हो। बस अब जो तीसरा गड्ढा है उसमें और जाकर गिरना है कि कर्म भी गड़बड़ शुरू कर दो।
आग लगी ज्यों समुद्र में, उठी राख बेजार। ना होते जो साधु जन, जर मरता संसार।।
~ कबीर साहब
समुद्र में आग लग जाती अगर साधुजन न होते। कम से कम आज समुद्र में तो आग नहीं लगी हुई है न! नहीं समझ में आ रही बात?
पशु प्लास्टिक क्यों खा रहे हैं? पशु हैं तो प्लास्टिक खाने के लिए, न होते जो साधुजन तो पशु दिखाई भी पड़ते? और फिर पशु प्लास्टिक खा रहे हैं तो दोष किसका निकाला? संतजनों का! ये तो ग़जब बात हो गई। पशु प्लास्टिक खा रहे हैं तो संत जनों का दोष है कि 'तुम आज तक रोक क्यों नहीं पाए। तुम इतने बड़े-बड़े संत कहलाते हो! तुम्हारे होते हुए भी पशु प्लास्टिक खा रहे हैं।' किसका दोष है? संतजनों का। ज़बान को हिमाकत की इजाज़त नहीं देनी चाहिए। और उससे पहले खोपड़े को।
फिर कह रहा हूँ, कुछ बातें विचार बनें उससे पहले उन पर ढक्कन मार देना चाहिए। विचार को रोकना आसान है, एक बार वो छा गया, उसके बाद तुम उसके गुलाम हो, फिर नहीं रोक पाओगे। शुरू में ही उसको रोक दो तो संभव है। इसीलिए तो हमारा बिगड़ना इतना आसान है न! कुछ करना थोड़े ही होता है, किसी के खोपड़े में एक ईविल थॉट (दुष्ट विचार) डालना पड़ता है, बस! अच्छे खासे आदमी के कान में कोई ईविल चीज़ फूँक दो, वो ख़त्म हो जाएगा। उल्टा नहीं होता।
ये नहीं होता कि बिगड़े हुए इंसान के कान में तुम कोई श्लोक फूँक दोगे तो वो ठीक हो जाएगा, ऐसा नहीं होगा। और जिसके दिमाग में तुमने एक बार किसी बेहूदे विचार का कीड़ा डाल दिया, फिर उसको बचाना, उसको साफ़ करना, ये सब बहुत मुश्किल होता है। एक बात बताओ — इस दीवाल पर यहाँ से मैं स्याही फेंक के मारूँ, वो आसान है या उस फिर स्याही को छुड़ाना? जल्दी बोलो!
श्रोतागण: फेंक के मारना।
आचार्य: तो ये जो दीवाल है ये आदमी का मन है। उसको गंदा करना बहुत आसान है। उस पर स्याही फेंक के मारो अभी गंदा हो जाएगा। उसकी सफ़ाई में बहुत वक्त लगता है और सफ़ाई फिर तुम कर भी दो तो निशान रह जाते हैं। सतर्क रहा करो! तुम्हारे भीतर कोई काले विचार प्रविष्ट ही ना कर पाए। और सबसे ज़्यादा वो विचार इसी रास्ते से घुसते हैं: किसी ने आकर कान में कुछ फूँक दिया।
ये जो फ़ोन चिपकाए-चिपकाए घूमते हो, सबसे ज़्यादा खतरा उनको है। कुछ नहीं हुआ, फोन आया, किसी ने एक बात बस फूँक दी कान में, बस फूँक दी, हो गया! अब वो बात भीतर जाएगी, जड़ लेगी, पनपेगी, बड़ी हो जाएगी।
याद रखा करो कि हम आंतरिक रूप से बहुत कमज़ोर लोग हैं। हममें वो ताकत नहीं होती है कि हम आत्मबल के द्वारा भीतर सिर्फ़ सही चीज़ों को प्रवेश करने दें और अगर कुछ ग़लत प्रवेश कर गया हो तो आत्मबल से ही उसको रोक दें। हम बहुत अनप्रोटेक्टेड (अरक्षित) और वल्नरेबल (असुरक्षित) हैं। हम अभी इतने ऊँचे साधक नहीं हुए हैं कि भीतर अगर ग़लत चीज़ जाएगी तो हम उसको क्वारेंटीन (अलग करना) कर देंगे या ख़त्म कर देंगे या इमिट (फेंकना) कर देंगे, बाहर निकाल देंगे, ऐसा हम नहीं कर पाते हैं। भीतर अगर गड़बड़ चीज़ गई तो वो पकड़ लेगी। मत जाने दो अपने भीतर कोई बेहूदा विचार।
प्र६: आचार्य जी, जैसे आपने इनसे कहा कि अहम् की ग़लती ये है कि वो दूसरे को अलग मानता है तो अगर जैसे मतलब मैं—'मैं' कहना चाहिए या नहीं—आत्मा से जीता हूँ तो पड़ोसी तो तब भी अहम् से जी सकता है न? तो वो तो जानवर है तब भी?
आचार्य: फिर पड़ोसी अहम् से अगर जी रहा होगा, तुम्हें पता चलेगा कि वो पड़ोसी का अहम् नहीं है, वो तुम्हारा भी अहम् है। तुम जिस फ्रेमवर्क (रूपरेखा) में बात कर रहे हो, वो फ्रेमवर्क कहता है — 'मैं अच्छा आदमी बन जाऊँ तो भी दूसरा तो बुरा रह सकता है न?' ये कह रहा है तुम्हारा फ्रेमवर्क। जब तुम अच्छे आदमी बन जाते हो तो ये अच्छे-बुरे का फ्रेमवर्क ही गिर जाता है। जब तुम वाकई अच्छे आदमी हो जाते हो तो ये जो अच्छे-बुरे का डिवीज़न (विभाजन) है, ये फ्रेमवर्क ही गिर जाता है।
बुरा किसी को कहने के लिए पहले तुम्हें खुद को अच्छा कहना पड़ेगा। जो आत्मस्थ है, वो अच्छा नहीं है, वो आत्मस्थ है। जब तुम कहते हो 'कोई अच्छा है', तो उससे तुम्हारा क्या आशय होता है? ‘अच्छा’ इन कॉन्टैक्स्ट ऑफ़ वॉट ? (किस संदर्भ में) दूसरा बुरा है। डिवीज़न है, ‘अच्छा हूँ मैं उसकी तुलना में, उसके कम्पैरिज़न (तुलना) में।' जो आत्मस्थ है वो किसी के कंपैरिज़न में अच्छा नहीं है। उसकी अच्छाई द्वैतात्मक नहीं होती है। तुम ये नहीं कह पाओगे कि वो अच्छा है और वो बुरा है।
जिसको आप संत कहते हो वो इनकंपेयरेबली (अतुलनीय) अच्छा है। वो सिर्फ़ अच्छा है। वो कम्पैरेटिवली (अपेक्षाकृत) अच्छा नहीं है। समझ में आ रही है बात?
बुरा कहना ज़रूरी होता है अपनेआप को रिलेटिवली (अपेक्षाकृत) अच्छा कहने के लिए। और जब तक तुम्हें अपनेआप को रिलेटिवली अच्छा कहना है, तुम कौन से अच्छे हो गए? रिलेटिवली अपनेआप को अच्छा कहना चाहते हो तो फिर तो कोई बुरा चाहिए। फिर तो तुम खुद चाहोगे कि किसी को बुरा बनाऊँ।
प्र६: लेकिन तब भी आचार्य जी दूसरा चुनाव कर सकता है न अहम् अगर है तो?
आचार्य: हाँ, बिलकुल कर सकता है। लेकिन वो बात देखकर के फिर तुम ऐसे नहीं रहोगे जैसे अभी तुम हो। न उसकी वो बात तुम्हारे लिए इतनी महत्वपूर्ण होगी जितनी अभी है।
प्र६: तो उसको रोकूॅंगा क्या?
आचार्य: पता नहीं क्या करोगे। अगर मैं अभी से बता दूँ क्या करना है तो तुम करना शुरू कर दो, बन जाओ संत। दिन-रात वीडियो पर बैठे रहते हो, टाइटलिंग (शीर्षक देना) भी कैसे करते हो? पूछ रहे हैं कि जब मैं आत्मस्थ हो जाऊँगा तो मैं क्या करूॅंगा? तुम कुछ मत करो, तुम अभी काम करो। बहुत आगे की और ऊँची बातें अभी तुम्हें लाभ नहीं देने वाली।
प्र७: आचार्य जी, फिर क्या अकेले रहें, किसी की संगति न करें यदि सब अहम् के केंद्र से जी रहे हैं तो?
आचार्य: भाई! जैसे तुम दो हो वैसे ही दुनिया भी दो है और चूॅंकि तुम दो हो इसलिए दुनिया भी दो है। तो दुनिया में दोनों हैं, क्या? वो जिससे मैं तुम्हें बचने के लिए कह रहा हूँ और दुनिया में वो भी है जो तुम्हें बचाएगा। दुनिया में वो भी है जिससे तुम्हें बचना है और दुनिया में वो भी है जो तुम्हें बचाएगा।
पिक्चर देखी थी मैंने। उसमें कतई एक बुड्ढा था और उसका बिल्कुल एकदम बुड़बक लौंडा, कतई! इंजीनियर था। तो वो बुढ़वे को कुछ लोग दौड़ा रहे हैं। ठीक है! वो दूर से दौड़ता हुआ आ रहा है और कह रहा है, 'अरे, अरे, अरे, अरे! दरवाज़ा बंद कर, दरवाज़ा बंद कर, चोर आ रहे हैं, डाकू आ रहे हैं; मारेंगे मारेंगे, मारेंगे!' ठीक है! दरवाज़ा खुला हुआ था घर का। घर का दरवाज़ा खुला हुआ है और दरवाज़े पर खड़ा कौन है? वो बुड़बक लौंडा (सभा मुस्कुरायी); और बाहर से वहाँ से बाप चिल्लाता हुआ आ रहा है, 'बाहर आ! खिड़की-दरवाज़े सब बंद कर, वो पीछे आ रहे हैं, बहुत मारेंगे, बहुत मारेंगे।'
बाप आ रहा है और उससे पीछे, थोड़ा पीछे, दूर वो पाँच-सात हैं जो मारने आ रहे हैं। और ये जो बुड़बक खड़ा है इसने क्या किया? बोला बाप ने ही तो बोला है दरवाज़ा बंद करना है, दरवाज़ा बंद कर दिया। (सभा हँसी) और बुढ़वा दरवाज़े के बाहर दे दना दन पिट रहा है, धमाधम-धमाधम पिट रहा है।
किसके लिए दरवाज़ा बंद करने को कहा है, बाप के लिए या चोर के लिए? और इसने दोनों के लिए बंद कर दिया। चोर के लिए तो बंद किया ही, बाप के लिए भी बंद कर दिया। इसे बोलते हैं मति हीनता; कि आचार्य जी आइसोलेट (अलग) हो जाएँ, दरवाज़ा बंद कर दें बिलकुल? हाँ, बाप के लिए भी बंद कर दो। अब बाप भी अंदर नहीं आ सकता, वो अभी पिट रहा है बाहर।
तुम्हारा अनुभव आज तक का ये रहा है कि आज तक तुम्हारे साथ जो लोग रहे हैं वो सब ऐसे ही थे कि तुम्हें कुसंगति ही देते। लेकिन उसका अर्थ ये थोड़े ही है कि दुनिया में ऐसे लोग नहीं हैं जो सही संगति दे सकते हैं। यही समस्या उन सबकी है जिनको लड़कियाँ चाहिए; कि आचार्य जी ने तो बड़ा टफ़ क्राइटेरिया (कठिन मापदंड) रख दिया है, ऐसी तो कोई होती नहीं। वैसी तुम्हें आज तक दिखी नहीं, मिली नहीं; तुम्हें दिख भी नहीं सकती थी, मिल भी नहीं सकती थी क्योंकि तुम, तुम हो। तुम, तुम हो।
तुम बदलो, दुनिया बदलती है। तुम सही रहो तो अपने आस-पास सही लोग ही पाओगे। इसका मतलब ये भी ज़रूरी नहीं है कि—मान लो तुम्हारे पास अ रहता है—इसका मतलब ये भी नहीं है कि तुम अगर बेहतर आदमी हो गए तो तुम्हारे पास अ की जगह ब रहना शुरू कर देगा। इसका मतलब ये है कि जब तुम बदल जाते हो न तो अ भी बदल जाता है तुम्हारे लिए। नहीं समझे बात को?
इज़ ही टू यू, व्हाट ही इज़ टू हिम? (क्या वो तुम्हारे लिए भी वैसा है जैसा वो अपने लिए?) लोग तुम्हें भी अपना वही चेहरा दिखाते हैं जिसके तुम हक़दार होते हो। एक आदमी के सौ चेहरे हो सकते हैं, वो तुम्हें कौन-सा चेहरा दिखा रहा है अपना, बताओ? जैसे तुम हो। एक आदमी के कई चेहरे हो सकते हैं न? तुम्हें वही चेहरा दिखाएगा वो, तुम जिस चेहरे को देखने के हक़दार हो। और तुम्हें शायद ये लगे कि ये तो उस आदमी का एकमात्र चेहरा है।
ये उसका एकमात्र चेहरा नहीं है। तुम दूसरे होते, वो व्यक्ति तुम्हें अपना चेहरा भी दूसरा दिखाता। तो कंपनी बदल गई कि नहीं बदल गई? भले ही आदमी वही रहा। मान लो तुम दो ही लोग हो, लेकिन तुम बदल गए तो तुम्हारी संगत बदल गई न! क्योंकि वो व्यक्ति अब तुम्हें अपना कोई दूसरा चेहरा दिखाएगा, जो चेहरा देखने के तुम हक़दार हो। तुम बेहतर हो जाओ, तुम पाओगे कि दूसरा तुम्हारे लिए बेहतर हो गया।
तो कहीं जाना नहीं पड़ता है ढूँढने की, कि कोई और मिल जाएगा अच्छा-अच्छा। 'आचार्य जी बोलते हैं कि जब तुम बदलते हो तो तुम्हारा समाज ही बदल जाता है। इसका मतलब जब मैं बदलूँगा, तो दूसरे लोग मिल जाएँगे।' नहीं, दूसरे लोग नहीं मिल जाते। हो सकता है लोग वही रहें, तुम्हारे लिए वो बदल जाएँ।
प्र५: 'जो मन से न उतरे, माया कहिए सोय।'
आचार्य: माया कहिए सोय।
प्र५: इसे पढ़कर भी विवेक जागृत नहीं होता।
आचार्य: विवेक जाग्रत है, वो भी माया के कद्रदानों में से है। क्या, समस्या क्या है? 'माया कहिए सोय' माने ये नहीं होता कि उसका नाम माया रख दो। 'माया कहिए सोय' का मतलब होता है कि वो चीज़ गई। उसको जान लिया वो माया है। एक बार जिसको जान लिया कि माया है वो चीज़ अब बच नहीं सकती।
तुम कह रहे हो, 'नहीं, मेरे दिमाग पर माया चढ़ी रहती है।' जब तक जाना नहीं वो माया है तब तक चढ़ी थी, तब तक समझ में आता है—पता ही नहीं था माया है, तो दिमाग पर चढ़ी हुई थी। तब तक उसका कुछ और नाम था, क्या नाम था? छाया, मोहिनी। तो दिमाग पर चढ़ी हुई थी। अब दिख गया कि वो मोहिनी नहीं है, माया है; जैसे ही दिखा माया है तो इसका मतलब तो ये होता है न कि वो गई। तुम कह रहे हो, 'चढ़ी रहती है कॅन्टीन्यूअसली (लगातार)' तो इसका मतलब तुम्हें दिख ही नहीं रहा है कि माया है।
ये देख पाना 'कुछ माया है' ये आशय थोड़े ही रखता है कि बस तुम उसका नाम माया रख दोगे। नाम नहीं रखना है माया। जब तुम कहते हो कि मैंने किसी चीज़ को माया जान लिया, उसका तात्कालिक आशय ये होता है कि वो चीज़ अब गई। माया माने नकली। माया माने वो जो है ही नहीं। तो अब वो चढ़ा कैसे रहेगा जो है ही नहीं?
माया माने वो जो एम्पटी (खाली) है, हॉलो (खोखला), जो है ही नहीं वो तुम्हारे दिमाग पर चढ़ा कैसे हुआ है? बताओ मुझे! तुम कह रहे हो, 'चढ़ी रहती है।' और अगर चढ़ी रहती है इसका मतलब तुम अभी उसे माया देखते ही नहीं हो। तुम्हारे लिए वो एम्पटी नहीं है, तुम्हारे लिए वो सब्सटैंशियल (अस्तित्वगत) है।
तुम्हें उसको सब्सटैंस (मूल्य) देने में कुछ मज़ा आता होगा, क्योंकि दिमाग़ किसका है? तुम्हारा। उसमें जो कुछ भी है उसका पालन-पोषण करने वाला, उसको जगह देने वाला कौन है? तुम हो। तो तुमने अगर माया को सब्सटैंशियल बना रखा है तो उसमें तुम्हें कुछ मज़ा आता होगा, लेते रहो मज़े। इसमें आचार्य जी क्या कर पाएँगे? ये तो तुम्हारे और उसके बीच की बात है, तुम ले रहे हो मज़े, लो!
असली मज़ा सिर्फ़ केवल (एक प्रतिभागी को संबोधित करते हुए) को है, उसने भजन गाए, जो मिला उसको मिला। उसी की आंतिरक समृद्धि हो रही है। बाकी सब बेकार चीज़ें हैं, कुछ नहीं है। तुम सब अपने ही मायाजाल में उलझे हुए हो। जो गा रहा है, वो पा रहा है; पप्पू समय गॅंवा रहा है।