प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आप हमें जो ज्ञान देते हैं, वह कहाँ से आता है?
आचार्य प्रशांत: कल कहा था न मैंने कि आप मुझसे सीख रहे हो और मैं आपसे सीख रहा हूँ। ज़िन्दगी देखता हूँ, और ज़िन्दगी में वो सारे गुरुजन शामिल हैं जो इस संसार में रहे और हमारे लिए इतने नायाब तोहफ़े छोड़ गए।
जब मैं कहता हूँ कि मैं ज़िंदगी से सीखता हूँ तो मेरा आशय यह नहीं है कि मुझे ग्रंथों से, गुरुओं की वाणी से, धर्मों की सीख से, संतों के उपहार से कोई गुरेज़ है। मेरे लिए सब जीवन में शामिल है न। मुझे आप मिले, मैंने आपसे सीखा, तो मुझे कबीर साहब मिलेंगे तो मैं उनसे नहीं सीखूँगा क्या? उनसे तो मैं और लपट कर सीखूँगा, पाँव पकड़ लूँगा। जो मिला, मैंने उसी से सीखा।
कई बार यह मन बड़ा विद्रोह-सा करता है, मैं चिड़चिड़ा जाता हूँ, फ़िर मैं इन लोगों (स्वयंसेवियों) से कहता हूँ, “तुम लोगों ने किन झंझटों में फँसा दिया है, तुम्हारे मारे मुझे पढ़ने का समय नहीं मिलता, तुम्हारे मारे मुझे अपना साहित्य लिखने का समय नहीं मिलता। यही (शिविर) करता रहता हूँ, करता रहता हूँ बस।” तो ये सुन लेते हैं और बाद में धीरे से मुस्कुरा कर कहते हैं, "आप पढ़ तो रहे हैं। लिख तो रहे हैं किताब, बस वो किताब आप काले अक्षरों में नहीं लिख रहे हैं। ज़िन्दगी की किताब है, आप दूसरे तरीके से लिख रहे हैं। ये लाइव सेशन (सजीव सत्र) है, अब यही आप लिख रहे हैं। और हर चीज़ तो कैमरे में क़ैद भी नहीं होती न। किताब लगातार लिखी जा रही है।" पता नहीं ये सही कहते हैं, ग़लत कहते हैं, पर ऐसा ही है बिलकुल।
आज आप लोग किसी दुर्ग में गए थे, मैं भी किसी दुर्ग में गया था। तो वहाँ मैं क्या कर रहा था? वहाँ मैं सत्र की तैयारी कर रहा था। क्या मैं वहाँ यह तैयारी कर रहा था कि मैं संध्या को क्या बोलूँगा? मुझे क्या पता कि मैं क्या बोलूँगा! मुझे यही नहीं पता कि आप क्या पूछोगे तो मुझे क्या पता मुझे क्या कहना है। पर छोटी-छोटी बातें, बहुत छोटी-छोटी बातें।
एक बिल्ली थी, अरे, इतनी मोटी। उसको ये (स्वयंसेवी) उठा लाई, लाई इसलिए थी क्योंकि मैं कह रहा था, “ले आओ, रोटी खिलाएँगे।” वो (बिल्ली) डर कर भगी। मैंने देखा। मैं उसको पास ला रहा हूँ रोटी खिलाने के लिए, वो डर कर भाग गई क्योंकि उसे लाखों वर्षों के विकास ने, उसकी प्रकृति ने यही सिखाया है कि अजनबियों से डरना। मेरी मंशा भले ही उसको रोटी खिलाने की है, वो मुझसे डर कर भाग गई।
फ़िर वहाँ वेटर आया, उसने (स्वयंसेवी) कहा, “वह बिल्ली उठा कर ले आइए।”
वेटर बोला, “मैं नहीं उठाऊँगा।”
तो पूछा, "काहे नहीं उठाएँगे?"
तो बोला, "वो पँजा मार देगी।"
"कितने दिनों से बिल्ली यहाँ पर है?"
"अरे, हमेशा से है।"
"तुम्हारा और बिल्ली का हमेशा का रिश्ता है, तुमने एक बार भी बिल्ली नहीं उठाई? क्यों नहीं उठाई? हम तो अभी-अभी आए हैं, हमने उठा भी ली, हमें पँजा भी नहीं मारा।"
मैं तो बैठा देख रहा था। और कोई सीख इससे मिल रही होगी तो मिल रही होगी। इरादा नहीं था मेरा कि मुझे इस बात से सीखना है। ऐसा इरादा रखूँगा तो ज़िन्दगी नहीं जी पाऊँगा। फ़िर तो ऐसा लगेगा कि हमेशा परीक्षा है और उसकी तैयारी कर रहे हैं। ऐसे कौन जीना चाहता है? तो मैं तो देख रहा था, कुछ सीख लिया होगा तो सीख लिया होगा।
यही वजह है कि बहुत सारे संतों ने सीधे-सीधे कहा कि हम पढ़े-लिखे नहीं हैं। ऐसा नहीं कि वो पढ़े लिखे नहीं थे, ऐसा नहीं कि उनको वेदों में उपलब्ध ज्ञान का कुछ पता नहीं था। पता था, पर वो ये कह रहे थे कि प्राथमिक तौर पर हम जो ये कहते हैं, वो बात किसी किताब से नहीं आ रही, वो बात जीवन से आ रही है। इसका मतलब यह नहीं है कि किताबें बंद कर देनी हैं। किताबें तो बहुत-बहुत आवश्यक हैं।
भाई, जीवन में जब सबकुछ शामिल है तो जीवन में पुस्तकालय नहीं शामिल है? मैं कहूँ, “मैं बाज़ार से गुज़रता हूँ तो सीखता हूँ", और बाज़ार के बगल में लाइब्रेरी (पुस्तकालय) है तो उससे नहीं सीखूँगा क्या? वहाँ भी तो जाऊँगा न। किताबें हैं तो उनको भी पूरा-पूरा पढ़ूँगा। ऐसे ही चलता रहता है।
पूछोगे, “मेरे ज्ञान का स्रोत क्या है?” स्रोत कुछ नहीं है, एक ईमानदारी है कि जो बात जैसी है, कह देनी है ख़री-ख़री। क्या कहूँ कि स्रोत क्या है? जब तुम पूछते हो कि स्रोत क्या है, तो तुम शायद किसी विशिष्ट स्रोत का नाम सुनना चाहते हो। जिस स्रोत से मुझे पता चल रहा है, उस स्रोत से तुम्हें भी पता चल ही रहा है। बस मैंने एक शर्त रख दी है कि जो देखा है, जो जाना है, उसे बेलाग, बेलौस बोल देना है, बेखटके। अंजाम क्या होगा, सोचना नहीं है। जो बात जैसी है, सामने रख दी। इसको ईमानदारी चाहो तो ईमानदारी बोल लो, और अकड़ चाहे तो अकड़ बोल लो। हमें दोनों बात स्वीकार है। ये भी कह सकते हो ईमानदारी है, ये भी कह सकते हो सत्यनिष्ठा है, और ये भी कह सकते हो कि धौंस है, हठ है, चौड़ है। हाँ, चौड़ है।
तुम्हें भक्त मानना है तो भक्त मान लो, सूरमा मानना हो तो सूरमा मान लो। तुम्हें विनम्र मानना है तो विनम्र मान लो, तुम्हें अकड़ू मानना है तो अकड़ू मान लो, जो मानना है मानो। बात बस इतनी-सी है कि ऐसा कुछ नहीं है जिसको दबाने-छुपाने की आवश्यकता हो। बिना लागलपेट के सीधी बात कही जा सकती है। साफ़ देखो ताकि साफ़ बयाँ कर सको, और पाक़ ज़िन्दगी जियो ताकि साफ़ बात बोल सको।
अभी थोड़ी देर पहले कह रहा था न कि सुनना चाहो अगर तो और अंदर की अंदरूनी बातें भी उघाड़ दूँ। पर वो बातें उघाड़ना ज़रा गरिमाहीन हो जाएगा। प्रेम की गरिमा इसी में है कि प्रेमपूर्ण आँखों के सामने ही नग्न हो। बाज़ार में नंगे होकर घूमना शोभा नहीं देता। सामने वाले की आँखों में प्यार हो तो तुम फ़िर उसके सामने उधेड़ सकते हो अपने आपको।
ज़िन्दगी ऐसी जियो कि पूरी तरह उधेड़ सको। कुछ भी छुपाने को ना रहे।
यही मेरे सत्र हैं। तुम पास आने को तैयार हो तो मैं तुम्हें सब बताने को, दर्शाने को तैयार हूँ, यही शर्त है। छुपाने को कुछ नहीं है। और क्या बताता हूँ मैं तुमको? वही बताता हूँ जो देख तुम भी रहे हो, पर पता नहीं क्यों डरे हुए हो। जो देखते हो उसको दबा देते हो, स्वीकार नहीं करते, उसका ज़िक्र ही नहीं करते हो। होगी तुम्हारी कोई समझदारी, कोई होशियारी।
हम ज़रा कम समझदार हैं, कुछ बातें हमें नहीं समझ आती। तो फ़िर तुम्हें वही बता देता हूँ जो तुम भी देख रहे हो। इसीलिए तुम सुन भी लेते हो क्योंकि तुम्हें पता है कि बात तो ठीक ही है। ज़िक्र तो ये उसी मंज़र का कर रहे हैं जिस मंज़र को इन आँखों ने भी देखा। तुम इनकार कैसे कर दोगे? बस मैं कह देता हूँ और तुम चुप रह जाते हो। क्यों चुप रह जाते हो, ये तुम जानो। एक बात पक्की है, जिस दिन तुम भी कहना शुरू कर दोगे, उस दिन मैं चुप हो जाऊँगा। बोल इसलिए रहा हूँ ताकि तुम बोल सको। नहीं तो बोलने में मुझे कुछ बहुत रुचि इत्यादि नहीं है।
जाओगे मेरी माँ से पूछोगे तो वो तुमको बताएँगी कि ये बहुत शर्मीला था, चुपचाप अपना कोने में बैठकर पढ़ता रहे। मैं जब छोटा था तो दूसरों के सामने आना ना चाहूँ। स्कूल का रिक्शा होता है न, बंद डब्बा वाला, पहले चलता था, अब तो एयर कंडिशन्ड (वातानुकूलित) बसें चलने लगी हैं। वो आता था, और उसमें बैठने की बारी आए और मैं शोर मचाना शुरू कर देता था। क्लास में जाऊँ तो दुबका-दुबका रहूँ, किसी एक से मित्रता हो जाए, उसी से बात करूँ। स्टेज पर आना तो, अरे, राम का नाम लो, स्टेज ! लोगों के सामने आना हो, अरे, बिलकुल भी नहीं।
अभी भी तुम्हारे सामने बोल रहा हूँ क्योंकि अनिवार्यता है, अन्यथा मैं बहुत हद तक वैसा ही हूँ। मुझे ना बहुत बोलना पसंद है, ना खुलना पसंद है। तुम ना हो तो चुपचाप कहीं एकांत में पड़ा रहूँ। मैं कोई पेशेवर पब्लिक स्पीकर (वक्ता) नहीं हूँ। एक काम कर रहा हूँ, ये धर्म निभा रहा हूँ। धर्म की माँग है इसीलिए ये किरदार है। जिस दिन वो माँग पूरी हो जाएगी, उस दिन कौन रहने वाला है इस किरदार में!
अभी तो तमाशा बने हुए हैं जोकर जैसे। एक इसकी शक्ल है (बगल में रखे सैंटा क्लॉज़ की ओर इशारा करते हुए), एक हमारी शक्ल है। देखो, कोई अंतर है? कौन अपना नमूना बनवाना चाहता है इस कुर्सी पर बैठकर? गुब्बारे लगा दिए हैं, ये धर्मगुरु की महिमा बढ़ाई जा रही है। पीछे गुब्बारे दमक रहे हैं, मेरा नाम जोकर का राजकपूर!
मैं वैसा नहीं हूँ, जैसा मैं वहाँ से दिखता हूँ जहाँ तुम बैठे हो। मैं वैसा बिलकुल नहीं हूँ। मैं ऐसा यहाँ तुम्हारे सामने इसलिए हूँ क्योंकि तुम वैसे हो जैसे तुम हो। जब तुम वैसे नहीं रहोगे जैसे तुम हो, तो मैं भी वैसा नहीं रहूँगा जैसा मैं हूँ।
कबीर साहब को कहाँ से दोहा सूझ गया, "चलती चाकी देखकर…"? कौन से उपनिषद में चाकी का ज़िक्र आता है, भाई, बताना ज़रा? कहाँ से आया? बस देख रहे थे चक्की को और बज गया साज़। ज़िन्दगी है, चक्की को देखा, दिख गया कुछ।
मन्दिर को देखा, मस्जिद को देखा, बोल दी कोई बात। "कांकड़ पाथर जोड़ के मस्ज़िद लई चुनाय।" देखा होगा किसी मस्जिद को बनते हुए, गुज़र रहे होंगे बगल से। मस्जिद बन रही है। "ता पर मुल्ला बांग दे, बहरा भया खुदाय।" अब मस्जिद को बनते हुए तो बहुतों ने देखा होगा न? तो कुछ अनूठा, नया तो नहीं देख लिया? पर बात ईमानदारी की है, और बात साफ बयानगी की है, बात है बेधड़क खुलासा कर देने की।
लोग होंगे, कोई फलाने गिरि की परिक्रमा कर रहे होंगे, फलाने शिखर का तीर्थ करने जा रहे हैं, तो कह दिया, "पाथर पूजे हरि मिले" और चादर बीनी जा रही है, तो "चदरिया झीनी रे झीनी।"
कहाँ से आते हैं कबीर के उद्गार? चाँदों से, सितारों से, सूर्यों से। सबका ज़िक्र है। बोलो, काहे का ज़िक्र नहीं है? दीवार का ज़िक्र है, घर का ज़िक्र है, परिवार का ज़िक्र है, बच्चों का ज़िक्र है। जो कुछ भी उनके सामने उपलब्ध था उन्होंने उसी का ज़िक्र कर दिया क्योंकि वही तो दिख रहा है, वहीं से तो सीख रहे हैं।