प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। मैं आपको पिछले दो सालों से सुन रहा हूँ। ये मेरा पहला सत्र है। तो पिछले काफ़ी टाइम से में तनाव में रहा। सत्र में आने से पहले काफ़ी चीज़ों, आपके सारे पुराने वीडियोज़ में देख रहा था। तो उसमें आपने ये कहा था कि अपनेआप को देखो, पूछो कि तनाव कहाँ है, किधर है।
तो जब खुद से सवाल पूछता था तो सब समस्याएँ खत्म होती नज़र आती थीं, कुछ सामने होता नहीं था। मन में एक हल्का सा आनन्द सा उठता था, पर पाँच मिनट बाद फिर से वो सारी चीज़ों का दोहराव शुरू हो जाता। तो अब वो समझ नहीं आता कि आखिर जो कल के लिए जो तनाव मेरा कम हुआ था, जो मैंने खुद से सवाल करा था। तो उस चीज़ को मैं कैसे बनाये रखूँ?
आचार्य प्रशांत: नहीं, वो बन नहीं सकती है, वो वैचारिक शान्ति है, वो द्वैतात्मक शान्ति है। वो वैसी ही शान्ति है कि तनाव की लहर चलती है तो उसमें ऐसे एक शीर्ष आता है फिर एक घाटी आती है (इशारे से वक्र समझाते हुए), वो वैसे ही शान्ति है, उसमें कुछ नहीं रखा है। तुम सोच-समझकर शान्ति लाना चाहते हो तो वो, आजकल वो सब लेकिन बहुत चलता है, पॉजिटिव थिंकिंग (सकारात्मक सोच) वगैरह।
वही है ये। कुछ ऐसा सोचो जिससे शान्त हो जाओ। बहुत सोचोगे तो बीच-बीच में शान्त हो ही जाओगे, इसलिए नहीं कि तुमने कुछ बहुत बढ़िया या बहुत सही सोच लिया, इसलिए कि सोच होती ही है ज्वार-भाटा की तरह। उसमें दुख का ज्वार आएगा, तो शान्ति का भाटा भी आएगा। वो सब नहीं है। शान्ति इतनी सस्ती चीज़ नहीं होती है कि बैठकर के विचार भर करने से मिल जाएगी। ज़िन्दगी की आहुति देनी पड़ती है।
असल में जो एक बात है वो ये है, आप में से बहुत सारे लोग आ जाते हैं यूट्यूब वीडियो देखकर के और वो साधन भी है, वैसे ही आयेंगे। तो काम बहुत श्रवण आधारित रहता है। कुछ सुना, कुछ सोचा; श्रवण कर लिया, कुछ मनन भी कर लिया, जीवन नहीं किया। मैं जहाँ से देखता हूँ वहाँ श्रवण, मनन, निदिध्यासन उसके बाद आता है जीवन। उसी को समाधि कहते हैं।
श्रवण, मनन तो ठीक है, जीवन कहाँ है? जीवन होता नहीं। आपको लगता है कि यूट्यूब पर एक वीडियो है, मैं बोल रहा हूँ, आप सुन रहे हो और कुछ आपको एक-दो चीज़ें मिल गयीं और आप उनको, वो टिप ऑफ द आइसबर्ग (हिमखंड की नोक) है भाई जो सुन रहे हो। उतना भी नहीं है। बहुत-बहुत शुरुआती चीज़ है वो, कि सुन लिया। उसको बहुत सालों तक जीना पड़ता है। तब जाकर शुरुआत होती है।
बहुत सालों तक जीना पड़ता है, तब जाकर शुरुआत होती है। डेढ़ महीना, दो महीना, छह महीना, एक साल, इतने में तो वार्मअप (गर्म कर देना) भी नहीं होता। इंस्टेंट (तुरन्त) कॉफी थोड़े ही है। वो भी यूट्यूब रेसिपी (व्यंजन विधि) वाली। पर दुनिया में हर चीज़ अब वैसी ही है, टू (दो) मिनट। तो हमें लगता है यहाँ भी (वैसा ही कुछ है)।
कई लोग तो आते हैं और बड़े आग्रह के साथ बोलते हैं, ‘आचार्य जी आपको सुनते हुए पूरे सात महीने हो गये, लेकिन ये संशय अभी भी नहीं जा रहा।’ हैं भाई! सात महीने। क्या चाहते हो। प्रकृति के इतने कल्पों के बन्धन तुम्हें सात महीने में त्याग देने हैं, इतना श्रम किया तुमने क्या।
वजह यही है कि हमको लगता है कि स्पष्टता या शान्ति या समाधि भी कोई हल्की चीज़ है। हल्की चीज़ है तो भाई मिल जानी चाहिए न? दो महीने, सात महीने, दो साल में मिल जानी चाहिए। वो इतनी बड़ी चीज़ है कि अगर बीस साल में भी मिल जाए तो उपकार मानो। और हमें उस चीज़ की महत्ता का कोई अनुमान ही नहीं है। हमें लगता है हमने दो महीने लगा दिये हैं या दो साल, तो बहुत दे दिया।
गलती किसी की नहीं है। गलती है कि ये जो हम काम कर रहे हैं वास्तव में ये कोई यूट्यूब के स्तर का है ही नहीं। लेकिन इस युग की विडम्बना ये है कि यूट्यूब से ज़्यादा अच्छा माध्यम नहीं है इस काम को प्रसारित करने का। अब यूट्यूब पर जो बाकी सामग्री रहती है वो उसी तरह की रहती है जो आपको तुरन्त लाभ दिला देगी। वो भले ही लाभ एकदम ही घटिया लाभ हो, पर मिल तुरन्त जाएगा। तो आप चार-छः उस तरह का कुछ देख रहे हो, जिस भी दिशा का है वो, कुछ देख रहे हो, कोई खबर पढ़ ली, कुछ और देख लिया, ये देखा, वो देखा, फिर आप एक ऐसे वीडियो पर भी आ जाते हो।
तो यकायक आपको ये बात कौंधती ही नहीं कि ये जो वीडियो मेरे सामने आ गया है ये किसी और आयाम का है। आप उस वीडियो को लेकर के भी यही उम्मीद पाल लेते हो कि इससे भी बस दो-चार महीने में कुछ मिल जाएगा। वो चीज़ दूसरी है भाई। ये सिर्फ़ संयोग की बात है कि वो यूट्यूब पर है। वास्तव में ये उस वीडियो का अपमान है कि वो यूट्यूब पर है। ये इस युग की त्रासदी है कि ऐसी बातें यूट्यूब पर रखनी पड़ रही हैं। क्योंकि वहाँ न रखें तो आप पहुँचेंगे ही नहीं।
कोई और काल होता तो जनता सम्मुख आ कर बैठती, पर अब कितनी जनता को सम्मुख बैठायें। एक-सो-चालीस-करोड़ तो भारत की ही आबादी है। इतने सम्मुख बैठने लग गये तो मर जाएँगे हम ही। तो चलो यूट्यूब पर। और वो भी कुछ ऐसे ही आड़ा-तिरछा देख लिया, एक २०१७ का वीडियो देखा, फिर एक २०२२ का देखा। एक देखा जिसमें कोई प्रौढ़ व्यक्ति हैं उनसे बात हो रही है, एक देखा जिसमें कोई कॉलेजी लड़का है उससे बात हो रही है। एक कहीं का देखा, एक कहीं का देखा। "कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, भानुमती ने कुनबा जोड़ा।"
और फिर मेरे सामने आकर कहते हैं आचार्य जी आपके पाँच वीडियो देखे हैं। अभी तक भ्रम नहीं मिटा। मैं बोलता हूँ, ‘यस सर, कस्टमर सटिस्फेक्शन इज़ ऑवर फर्स्ट प्रायोरिटी’ (जी श्रीमान, ग्राहक सन्तुष्टि हमारी पहली वरीयता है), बताइए क्या कर सकते हैं आपके लिए? (हँसते हुए)
प्र२: प्रणाम, आचार्य जी। सुरंगों की जब बात चल रही थी तो सुरंगों पर पर्दा, यदि डालते रहें तो फिर वो सुरंग, सुरंग रह जाते हैं और वो कामना फिर भी रहती है। तो इसमें और दमन करने में क्या अन्तर है?
आचार्य दमन की विधि तब उपयुक्त होती है जब जान भी लिया उसके बाद भी भीतर कोई बैठा है जो फुदक रहा है तब दमन करना होता है। लेकिन जाने बिना दमन तो मूर्खता भी है और अनुपयोगी भी है। तो पहली चीज़ तो यही है कि जो चीज़ बहुत आकर्षित करती हो उसकी ओर निर्भीक होकर जाओ उसकी जाँच पड़ताल करने के लिए। जाँच पड़ताल कर लो, स्पष्ट हो जाए बिलकुल कि वो सुरंग अन्धी सुरंग है, कहीं को लेकर नहीं जाती, उसके बाद भी भीतर से आग्रह उठता रहे कि चलो सुरंग की ओर, चलो सुरंग की ओर, तब दमन करा जाता है।
स्थूल अनुशासन को कहते हैं दमन। सूक्ष्म अनुशासन को कहते हैं शमन।
इन्द्रियाँ भाग रही हों किसी और को, उनको रोक देना, ये कहलाता है दमन। मन भाग रहा हो किसी दिशा में, उसको रोक देना, ये कहलाता है शमन। लेकिन दमन, शमन ज्ञान से पहले नहीं आते। पहली बात तो यही है कि कुछ भी ऐसा है जो छुप-छुपकर के तुमको रिझाता है तुम उसे छुपा रहने ही मत दो। तुम उसे अनावृत कर दो। वास्तव में तुम्हें आकर्षित करने का एक बड़ा प्रमाणिक तरीका होता है छुप-छुप कर रिझाने का। जो कुछ भी तुम्हें आकर्षित करता हो तुम उसे पूरा उघाड़ दो। सम्भावना यही है कि आकर्षण बहुत कम हो जाएगा।
जब तक आधा-अधूरा कुछ दिख रहा होता है, अनुभव में आ रहा होता है सिर्फ़ तभी तक कल्पना को मौका मिल पाता है उसकी एक बड़ी लुभावनी तस्वीर खींचने का और स्वयं ही उस तस्वीर के मोह में पड़ जाने का। तुम बात पूरी ही समझ लो न निर्भीकता के साथ। बताओ पूरी बात क्या है, पूरी बात समझ लो, आकर्षण कम हो जाता है।
और पूरी बात समझने के बाद भी भीतर एक बैठा होता है मूर्ख, जो सबकुछ समझ गया है लेकिन अभी भी फुदका जा रहा है कि मुझे सुरंग में घुसना है, चूहा है वो कह रहा है जाना है सुरंग में। जान गया है कि सुरंग में मृत्यु है, फिर भी कह रहा है जाना है। तब दमन और शमन लाभकारी होते हैं। लेकिन दमन ज्ञान से पहले मत कर लेना। जानते कुछ नहीं, दमन में लगे हुए हो तो बड़ी दयनीय हालत हो जाएगी तुम्हारी। क्योंकि तुम्हें पता ही नहीं होगा कि तुम दमन कर किसका रहे हो। दमन कर रहे हो किसका ये नहीं जानते।
प्र२: पूरी बात समझ में आने के बाद भी दमन करने की आवश्यकता पड़ रही है, तो क्या पूरी बात समझ में आयी नहीं है?
आचार्य: समझ में पूरी तरह आने में ये भी सम्मिलित होता है कि दमन भी कर दो। पूरी तरह बात समझ में आने में ये भी सम्मिलित होता है कि समझो, पूरी तरह समझो, जितना समझ सकते हो समझो और उसके बाद भीतर जो चूहा बैठा रह जाए जो अभी भी समझने से इनकार कर रहा है, फिर उसका अनुशासन पूर्वक दमन कर दो। लेकिन पहले तो उसको क्या करना है? समझाना है।
समझा दोगे, समझा दोगे तो उसका बल बहुत कम हो जाएगा। बल कम होने के बाद उसमें जो प्राण शेष रह जाएँ उनका फिर दमन कर दिया जाता है। और तब दमन आसान भी हो जाता है। नहीं तो देखा है कि लोग दमन में कितनी मार खाते हैं। वो कहते है कि मैं स्प्रेस (दमन) कर रहा हूँ। और कर रहे हैं, कर रहे हैं और उस चक्कर में एक दिन विस्फोट हो जाता है। वो दमन कर ही नहीं पाते। क्यों नहीं कर पाते, क्योंकि उस दमन में क्या सम्मिलित नहीं था ज्ञान।
पता ही नहीं करा था, बस एक झूठा अपने ऊपर अनुशासन डाल लिया था। नैतिकता की रस्सियों से खुद को बाँध लिया था। बिना ये जाने कि तुम्हें चीज़ खींच क्या रही है। जो कुछ भी तुम्हें खींच रहा है, निडर रहो बिलकुल और आश्वस्त रहो बिलकुल कि जो भी कुछ तुम्हें खींच रहा है सच्चाई से दूर, कृष्ण से दूर उसमें कोई दम नहीं हो सकता। वो कितनी भी मिठास दिखा रहा हो, वो बहुत कड़वा होगा।
तो ये डरो ही मत अगर उसकी ओर चले गये तो कहीं हम कृष्ण को खो न दें, नहीं खाओगे। उसकी ओर जाओगे तो कृष्ण के और पास आ जाओगे, और उससे दूर रहे आओगे, उसको ठोक बजाकर आज़माओगे ही नहीं तो भीतर लगातार एक सन्देह कुलबुलाता रहेगा। क्या? कहीं ऐसा तो नहीं कि वो चीज़ जो हमें बुला रही है, आकर्षित कर रही है उस चीज़ में कोई खास स्वाद हो, कोई विशेष रस हो, कोई बड़ा मूल्य हो, कहीं ऐसा तो नहीं कि उधर कोई बड़ा भारी खजाना छुपा हो। अब उधर जो कुछ है उसमें कोई दम नहीं है। लेकिन उसकी छान-बीन न करके तुमने उसको बड़ा मूल्यवान बना दिया है।
जो चीज़ तुमको बुला रही थी वो चीज़ थी दो कौड़ी की, लेकिन तुमने कभी जाकर के उसको जाँचा ही नहीं। तो दो कौड़ी की चीज़ तुम्हारे मन में, तुम्हारी कल्पना में क्या बन जाएगी, वो कौड़ी से करोड़ की हो जाएगी। तो चले जाओ उधर और उसको आज़मा ही लो। आज़माने के बाद पाओगे कि बड़े आत्मविश्वास से भर गये हो, बिलकुल दिखाई दे गया है कि डरने की कोई बात ही नहीं। ये जो कुछ भी मुझे विकल्प के तौर पर रिझाता है इसमें कोई मूल्य नहीं है। अब मैं सन्तुष्ट होकर, आश्वस्त होकर, अपने काम में पूरी तरह डूब सकता हूँ निर्विकल्प होकर।
कहीं-न-कहीं हमें ये सन्देह है कि कृष्ण के विपरीत या कृष्ण से अलग भी जो है उसमें बड़ा मूल्य है, तो हम डर जाते हैं। हमें लगता है कहीं वो हमें खींच न ले। अरे, उसमें कोई दम होगा तब न तुम्हें खींचेगा। कोई दम नहीं है उसमें। उसकी जाँच-पड़ताल न करके तुमने उसको दमदार बना दिया है। अन्यथा उसमें कोई दम नहीं है। तुमने आज़माया तो होता उसको, जाओ आज़मा लो। कोई दम नहीं मिलेगा वहाँ। जाओ आज़माओ।
और जितनी बार आज़माओगे उतनी बार आज़माने की खुजली भी कम पड़ती जाएगी। तुम कहोगे कितना तो आज़मा लिया इसमें कुछ दम नहीं है। हम ऊब गये हैं, अब ये विरक्ति है। हम इसको आज़माने से भी ऊब गये हैं। ये तो छोड़ दो कि हमें इसकी लालसा है, ये तो छोड़ दो कि हम अपनी ओर से भाग रहे हैं कि क्या है, क्या है, लाओ। हममें इसको लेकर के इतना आग्रह भी नहीं बचा है कि हम प्रयोग भी करें। हम प्रयोग भी करके अब ऊब चुके हैं।
हमने दो बार, चार बार, छः बार प्रयोग करके देख लिया। जितनी बार प्रयोग किया उतनी बार अमृत की जगह घासलेट (तुच्छ वस्तु) पाया। अब क्या बार-बार मुँह खराब करें, मिट्टी का तेल। वहाँ लिखा रहता है अमृत कलश है और दिल बड़ा खिंचता है उसकी तरफ़, अमृत कलश है, अमृत कलश है, और जाते हैं और अमृत कलश की दो-चार बून्दें हम भी चखते हैं कि हमें भी अमृत मिल जाए। घासलेट। और वही घासलेट जब तक तुमने जाँच-पड़ताल नहीं की तुम्हारे लिए क्या बना रहता है अमृत। अब तुम एकदम कहाँ कृष्ण के मन्दिर में फँस गये, अमृत से चूके जा रहे हैं, अमृत तो उधर रखा है।
प्र३: नमस्कार, आचार्य जी। आपने बताया था कि विचार वृत्ति से आते हैं और वृत्ति आत्मा से आती है। उस सत्र के बाद जब मैंने सोचना शुरू किया, उन्हीं से सम्बन्धित हैं कि जो वृत्तियाँ हैं हमारी चाहे वो काम है, क्रोध है, अलग-अलग वृत्तियाँ हैं। जब मैं उसके ऊपर प्रश्न करता हूँ तो ऐसा लगता है ये वृत्ति आ क्यों रही है। और वो बार-बार आती हैं और वो प्रश्न करती हैं। इस सत्र से पहले विचार था कि मेरा प्रश्न होना चाहिए कि क्या अपनेआप को कोई सज़ा दी जाए जिससे ये वृत्तियाँ रुके।
आचार्य: रिवॉर्ड (इनाम) दीजिए न? क्योंकि वो जो वृत्ति हैं वो वृत्ति अपनेआप में पनिश्मेंट (सज़ा) नहीं है क्या पर्याप्त?
प्र३: लेकिन उसकी वजह से जो विचार आ रहे हैं वो विचलित कर रहे हैं। आप हँसते भी हो अपने ऊपर यार ये विचार कैसे आ गया।
आचार्य: यही दण्ड हैं न? और हम हैं आनन्दधर्मा। सच्चिदानन्द स्वभाव की भी बात करते हैं। अगर सत्-चित-आनन्द स्वभाव है आपका और हम जी रहे हैं वृत्ति जनित कलह में, दुख में। तो क्या ये अपनेआप में पर्याप्त दण्ड नहीं है?
प्र३: लेकिन उसको तो एक बार स्वीकार करते हैं फिर वो दोबारा आता है, फिर वो तीसरी बार भी आता है, आता रहता है।
आचार्य: कोई विकल्प नहीं दे रहे न आप। ये सिर्फ़ स्वीकार करने से क्या होगा कि ये गलत है, वृति क्षुद्र है, ऐसा नहीं करना चाहिए। वही जो बात कह रहे थे, ये बोलने से क्या होगा, उसको जो चाहिए उसको दे दीजिए। और आप उसको वो न दें तो वो कुछ और चाटे तो इसमें उसकी क्या गलती। जैसे घर का बच्चा हो, वो भूख लगी है उसको, उसको भूख लगी है, आप उसे खाना दे नहीं रहे तो वो मिट्टी खा रहा है, छोटे बच्चे करते हैं। वो मिट्टी खा रहा है या कहीं कुछ झूठा पड़ा है उठाकर चाट ले रहा है। तो क्या करना है, उसको झूठा भी नहीं चाटने देना है या उसको पर्याप्त पौष्टिक खाना लाकर देना है। क्या करना है?
प्र३: पौष्टिक खाना देना है।
आचार्य: स्वयं को पौष्टिक खाना दीजिए।
प्र३: पिछले सत्र में ये समझ में आया था कि वृत्तियों की वजह से आ रहा है। अब मुझे एक ऊँचे लक्ष्य की तलाश करनी है। अगर लक्ष्य मिल जाएगा तो वृत्ति पर अपनेआप ही धीरे-धीरे…
आचार्य: वो गोल (लक्ष्य) क्या है? वृत्ति क्या है? वृत्ति, आत्मा की माया है। चूँकि वो सीधे आत्मा से आती है इसीलिए भारत ने उसकी भी पूजा करी है। उसी का नाम तो ‘महामाया’ या ‘महामाँ’। माँ उसी को तो कहते हैं। पूरा शाक्त समुदाय है जिसमें देवी आराधना होती है, वो और क्या है, मूल वृत्ति ही माँ हैं, वो वहीं से आ रही है।
तो क्या करना है उसको पूजना है। पूजना माने उसको समझना है। चाह क्या रही है। मुक्ति भी वही दिलाएगी। उसको जान गये कि वो क्या है, तो मुक्ति भी वही दिला देती है। हाँ, उसको जाने नहीं और बस भटकते रहे इधर-उधर, ये-वो तो फिर जो भटक रहा है वही तो असुर है। फिर माँ उसको (मारने का इशारा करते हुए)।
प्र३: धन्यवाद, आचार्य जी।
प्र४: नमस्कार, आचार्य जी। अभी विचारों को लेकर बात चल रही थी तो थोड़ा सा कबीर साहब का दोहा मुझे याद आ रहा था। “सोता साधु जगाइए, करे नाम का जाप। ये तीनों सोते भले, साकट, सिंह और साँप।” तो यहाँ पर जो साधु को जगाना है, यहाँ पर कबीर साहब किस नाम की बात कर रहे हैं? और ये जो तीनों दोषों का नाम लिया है इनका दमन करना ठीक है क्या?
आचार्य: साधुता की बात हो रही है। आपके मन का एक हिस्सा होता है जो आत्मा मुखी होता है उसको साधु कह रहे हैं। उसी से वो बात करते हैं हमेशा। उन्हें और किसी से करनी ही नहीं बात। जब वो बात करते हैं तो बोलते हैं, ‘सुनो भाई साधु’, उन्हें और नहीं बात करनी हैं। आपका वो हिस्सा जो आत्मा को पीठ करे हुए है, जो संसार मुखी है, उससे वो बात करना ही नहीं चाहते। तो साधु से अर्थ है वो मन का हिस्सा कहिए या वो मन का — मन के हज़ार चेहरे होते हैं न — जो आत्मा की ओर देख रहा हो, उसको उधर प्रेम हो, उसको जगाने को कह रहे हैं। उठो। उसको जगाओ। वो अच्छी बात है।
साकट, सिंह और साँप। दो तो सीधे ही सीधे पशु हैं इसमें से, और एक जो आपकी दुष्टता की वृत्ति है, साकटता, उसकी बात हो रही है। कह रहे हैं कि ये सो जाए तो भला है। सोना माने कि इनको सक्रिय मत होने दो। जैसे नीन्द में आदमी निष्क्रिय हो जाता है। होता तो है पर होकर भी कुछ कर नहीं पाता। इनको वैसा रहने दो। भीतर ये मौजूद तो रहेंगे। इनको सुलाये रखो, सुलाये रखो। सोते-सोते तुम इतनी दूर निकल आओ कि फिर इनके जगने की नौबत ही न आये।
प्र४: और कबीर साहब जो ‘नाम’ लेते हैं, ये किसकी बात कर रहे हैं?
आचार्य: कोई भी ऐसा नाम जो आपको दुनिया के और नामों से अलग कर दे। बाकी देखिए जितने नाम होते हैं वो सब इशारा करते हैं किसी भौतिक वस्तु की ओर। किसी ऐसी ओर दिशा करते हैं आपकी जिसकी आप कल्पना कर सकते हैं। मैं आप से कहूँ, ‘कुर्सी।’ तुरन्त क्या चित्र आता है कुर्सी। मैं तारामंडल कहूँ, तारामंडल। आकाश कह दूँ, आकाश। चश्मा (कह दूँ), चश्मा। पत्नी कह दूँ, पत्नी। सब आ गये न?
एक नाम ऐसा होना चाहिए जिसके साथ आप कोई छवि जोड़ न पायें, लेकिन उसके साथ भाव ऐसा हो कि बाकी सब छवियों को काट दे, छवियों का सारा प्रवाह खट से रुक जाए, जैसे इमरजेंसी ब्रेक लग गया हो, वो ‘नाम’। इसलिए नाम जप की इतनी महत्ता बतायी गई है। नामों से तो मन लगातार क्लान्त रहता ही है। एक नाम ऐसा ले आओ जीवन में जो सब नामों को काट दे।
मन का क्या काम है? मन नाम ही जपता रहता है। पर वो सारे नाम जीवन को बर्बाद कर देते हैं। एक-एक नाम ऐसा है जो मन पर बोझ की तरह है। तो फिर एक विशेष नाम की विधि ईजाद की गयी जो बाकी सब नामों को काट देगी, बाकी सब नामों को पीछे छोड़ देगी।
वो नाम कुछ भी हो सकता है, राम कहिए, कृष्ण कहिए। तमाम नाम हैं। शर्त बस एक है, उस नाम के साथ कोई कहानी नहीं जोड़नी है। उस नाम के साथ बस नकार जुड़ा होना चाहिए। उस नाम की पहचान ये होनी चाहिए कि वो नाम स्मृति में आया नहीं कि बाकी सारे नाम शिथिल पड़ गये, ये उस नाम की पहचान है। और अगर वो नाम ये काम नहीं कर पा रहा तो फिर आपने वो नाम भी व्यर्थ कर दिया।
प्र४: इसलिए शायद जपजी साहब में बोला, ‘गुरु प्रसाद जप।’
आचार्य: इसीलिए सिक्ख पन्थ में निर्गुण की उपासना है, निर्गुण की भक्ति है। आप कल्पना नहीं कर सकते। वहाँ जिस तत्व की बात हो रही है उसके बारे में ज़्यादा बात नहीं की गयी, उसका कोई चित्र नहीं बताया। बता दिया तो गड़बड़ हो जाएगी। लेकिन फिर भी उसे जपना है निरन्तर, जपते चलो, जपते चलो। किसको? किसी ऐसे को जो सबसे आगे का है। चूँकि वो सबसे आगे का है इसलिए तुम उसकी कल्पना नहीं कर सकते। उसका काम बस ये है कि बाकी सबको पीछे छोड़े रखे।
प्र४: जी, धन्यवाद।