प्रश्न: एक तरफ तो सम्मुख होने को महत्व दिया जाता है, दूसरी तरफ यह भी कहा जाता है कि निकटता जानने में बाधा है। ऐसा क्यों?
वक्ता: दूसरे शब्दों में, सवाल यह है कि एक तरफ तो ये कहा जाता है कि बिना करीब आये जान नहीं पाओगे, दूसरी तरफ ये भी कहा जाता है कि ये निकटता ही जानने से रोकती है। कौन है? किसको करीब आना है? किस तल पर बात की जा रही है? अब अपने आसपास के लोगों को देखिये, उनकी निकटताओं को देखिये, तो समझिये कि आमतौर पर हमारे लिए निकटता का क्या अर्थ होता है। दो लोग जो आपको बहुत आसपास दिखें, जो बड़े करीबी हों एक-दूसरे के, तो वहाँ पर क्या घटना घट रही होती है? या आपको ही किसी वस्तु से नज़दीकी बहुत पसंद है, तो वहाँ पर क्या घटना घट रही होती है? या तो शरीर से शरीर का आकर्षण है, या कोई मानसिक अनुराग है।
ये करीब आना नहीं हुआ, ये करीब आने के विपरीत हुआ। हम जिसे निकटता बोलते हैं वो निकटता है ही नहीं। जब आप कहते हैं कि आप किसी के करीब हैं, तो आपका आशय यही होता है कि आप शारीरिक रूप से बहुत करीब हैं उसके। आप बहुत समय गुज़ारते हैं उसके साथ। और यदि समय नहीं गुज़ार पाते हैं, तो आप उसकी स्मृतियों में रहते हैं। आप ख़्याल खूब करते हैं उसका। या तो दैहिक रूप से निकटता है, आप उसके आसपास रहते हैं, साथ खाते-पीते हैं, उठते-बैठते-चलते हैं, या फिर आप उसके विषय में ख़्याल-विचार करते हैं। यही तो है न निकटता से आपका आशय? जब आप कहते हो कि आप किसी के निकट हो, तो यही आपका निकटता से आशय होता है? ये निकटता है ही नहीं।
संसार के नियम सत्य पर लागू नहीं होते। जब कहा जाता है कि करीब आओ तो ही जान पाओगे, तो इस करीब आने की बात नहीं की जा रही है। अर्थ का अनर्थ मत कर लीजियेगा। करीब वही आ सकता है जिसमें करीब आने का सामर्थ्य है। शरीर में करीब आने का सामर्थ्य है ही नहीं। तुम किसी के शरीर के कितने भी करीब चले जाओ, यह निकटता नहीं है। तुम करीब जाते ही इसीलिए हो ताकि तुम उसके शरीर को भोग सको। भोग तुम तभी सकते हो जब तुम्हारा शरीर भी कायम रहे। अलग रहना ज़रूरी है। तो निकटता कहाँ बनी? तुम्हारी तथाकथित निकटता, दूरी के बिना चल ही नहीं सकती।
जिह्वा शक्कर का स्वाद ले, इसके लिए ज़रूरी है कि जिह्वा शक्कर ही न बन जाए। क्योंकि शक्कर, शक्कर का स्वाद नहीं ले पाएगी। जिह्वा का जिह्वा रहना कायम है, और ज़रूरी है। हमारी निकटता में अलगाव बहुत ज़रूरी है। जिह्वा अलग, शक्कर अलग, तभी जिह्वा को शक्कर का मज़ा आएगा। यही होती है विषय-परख निकटता। यह निकटता है ही नहीं। ठीक इसी तरीके से जब तुम किसी का ख़्याल करते हो, किसी के बारे में सोचते हो, तो किसी के बारे में सोचने के लिए तुम्हारा तुम होना बड़ा आवश्यक है। तुम्हारी पहचानों का कायम रहना आवश्यक है। जो विचार करता है, उसका बना रहना बहुत आवश्यक है। यदि वही नहीं रहा, तो तुम विचार कैसे करोगे?
जब तुम कहते हो, “मैं फलाने का विचार कर रहा हूँ, उसकी यादों में डूबा हुआ हूँ,” तो तुम हो जो याद कर रहा है, और कोई और है जो उस याद का विषय है। ये दो हैं, और अलग-अलग हैं, पृथक हैं। ये पृथकता कायम रहनी ज़रूरी है, नहीं तो तुम ख़्याल नहीं कर पाओगे। तो निकटता कहाँ है, यहाँ तो अलगाव है, यहाँ तो दूरी है। हाँ, ऊपर-ऊपर से देखो तो यही लगेगा कि बड़ी नज़दीकी है। ये तो दिन-रात ख़्यालों में डूबा रहता है। मैं तुमसे कह रहा हूँ कि तुम जिसके विषय में खूब सोचते हो, तुम उससे बहुत दूर होते हो। दूरी न होती तो सोच कैसे पाते?
यूँ ही कबीर ने नहीं कहा है,
माया माया सब कहैं, माया लखै न कोय।जो मन से न ऊतरे, माया कहिये सोय ।।
माया का काम ही यही है कि वो विचार पैदा करती है, मन को पाने के ख़्याल से भर देती है, दूरी का भाव पैदा करती है, जो संनिकट है उसको दूर कर देती है। “जो मन से न ऊतरे, माया कहिये सोय।” तो अमित का सवाल है कि एक तरफ तो सम्मुख होने को, निकटता को महत्व दिया जाता है, दूसरी ओर आप ये भी कहते हैं कि निकटता जानने में बाधा है। मैं ये बिल्कुल कहता हूँ कि निकटता जानने में बाधा है। शारीरिक तल पर, वैचारिक तल पर जब भी निकटता होगी, वो निकटता, निकटता होगी ही नहीं, वो बाधा होगी।
तो फिर वास्तविक निकटता क्या है? वास्तविक निकटता है उसके निकट आ जाना, जहाँ पर निकटता संभव है। शरीर कैसे निकट आएगा? वो तो सीमाबद्ध है। सीमा का मतलब समझते हो? सीमा का मतलब है, “इसके आगे मैं नहीं, अब और निकट नहीं आ पाऊँगा।” कितना निकट आ सकते हो? खाल से खाल रगड़ लोगे, और क्या कर लोगे? उससे ज़्यादा निकट आ सकते हो? दूरी तो रह ही जाएगी। वास्तविक निकटता का अर्थ है इतना करीब आ जाना कि दूरियाँ बिल्कुल ही मिट गयीं। निकटता तो तब हुई जब तुम मिटे। नहीं तो कैसी निकटता? तुम्हारे कायम रहते तो बस दूरी ही हो सकती है न, क्योंकि तुम हो। तुम हो।
मैं कहता हूँ, “निकट होकर ही जाना जा सकता है।” मैं कहता हूँ, “अपने को हटा कर ही जाना जा सकता है।” बात बहुत सीधी है- तुम्हारे होते कुछ जाना नहीं जा सकता। प्रेम हो, चाहे निकटता हो, दोनों से अभिप्राय एक ही होता है, अपने को हटाना। और जब मैं कहता हूँ- अपने को हटाना- तो उस सब को तुम्हें हटाना पड़ेगा जो रोकेगा तुम्हें करीब जाने से, जो सीमा बन कर खड़ा हो जाएगा, जिसमें काबिलियत ही नहीं है करीब जाने की।
शरीर सीमा बन कर खड़ा हो जाएगा, उसमें काबिलियत ही नहीं है। मन भी सीमा बन कर खड़ा हो जाएगा, उसमें काबिलियत ही नहीं है। मन तो विचारों में जीता है न? विचार कैसे करीब जाएँगे? काबिलियत ही नहीं है उनमें, निकट जाना उनकी प्रकृति ही नहीं है।
मन की, शरीर की निकट आने की प्रकृति ही नहीं है। वो तो बने ही अलगाव की आधारशिला पर हैं। तो निकट वही आएगा जिसमें काबिलियत हो पास पाने की, जिसका स्वभाव हो पास आना। उसे ‘आत्मा’ कहते हैं। वहाँ ही और सिर्फ़ वहाँ ही संभावना है निकटता की। शारीरिक तल पर तो जिसके जितना निकट आओगे, अक्सर वहाँ उतनी ज़्यादा दूरी पाओगे।
कई बार कह चुका हूँ कि जिनके साथ जिंदगी बिताते हो, उन्हें सबसे कम जान पाओगे क्योंकि वहाँ तो तुम्हारा रिश्ता ही सीमाओं का है। जहाँ रिश्ता ही सीमाओं का है, वहाँ सीमाओं का अतिक्रमण कैसे होगा। रिश्ता ही ऐसे बना है कि मैं पुरुष, तुम स्त्री। पुरुष क्या है? पुरुष एक सीमा है, पुरुष एक परिभाषा है, एक सीमा है। मैं मेरी सीमा, तुम तुम्हारी सीमा और दोनों सीमाएं एक-दूसरे को सहारा देती हैं। जैसे कि एक सीमा रेखा खींची जाए तो उसके इस पार भी एक क्षेत्र होता है और उसके उस पार भी एक क्षेत्र होता है और चूँकि दो अलग-अलग क्षेत्र हैं, वही सीमा को कायम रखते हैं।
सोचिये कोई ऐसी सीमा हो जिसके उस पार कुछ हो ही न, ऐसी कोई सीमा हो सकती है? कुछ तो होगा उस पार और जो उस पार है वही सीमा को कायम रखता है। पुरुष का होना स्त्री के होने से कायम है। स्त्री का होना पुरुष के होने से कायम है और दोनों का होना सदा अलग-अलग है, निकटता कैसी! कैसी निकटता? जिस दिन निकटता हो गयी उस दिन पुरुष बचेगा कहाँ, उस दिन स्त्री बचेगी कहाँ। जब तक पुरुष, पुरुष है और स्त्री, स्त्री है निकटता हो ही नहीं सकती। हाँ, आकर्षण खूब रहेगा और वो आकर्षण सीमा के कारण होगा और सीमा को और बल देगा।
यदि रिश्ता आकर्षण का है तो जब स्त्री तुम्हारे सामने आएगी तो तुम और पुरुष हो जाओगे, तुम्हारा सोया पुरुषत्व जाग उठेगा। और यदि रिश्ता आकर्षण का है तो जब तुम्हारे सामने पुरुष आएगा तो तुम और स्त्री हो जाओगी। वैसे तुम भले भूली रहती हो कि मैं औरत हूँ पर जब पुरुष सामने आएँगे तो तुम्हें अचानक याद आ जाएगा कि तुम औरत हो। इससे यही पता चलता है कि गहरे देय भाव में जी रहे हो।
निकटता तब जानिये जब आप आप न रहें, उसके अतिरिक्त कोई निकटता नहीं है, बाकी सब आकर्षण है और आकर्षण दूरी पर ही पलता है। दूरी न रही तो आकर्षण कैसा! आकर्षण सीमाओं के कारण होता है और सीमाओं को ही पुख्ता करता है। आकर्षण को निकटता मत मान लेना। प्रेम में और आकर्षण में यही मूलभूत अंतर है। आकर्षण तुम्हारे होने को और पुख्ता करता है और प्रेम तुम्हें गला देता है। तुम जो कुछ भी हो आकर्षण उसको और मज़बूत करेगा। तुम पुरुष हो तो और बड़े पुरुष हो जाओ, तुम लालची हो तुम और लालची हो जाओगे, तुम ज्ञानी हो तुम और ज्ञानी हो जाओगे। तुम जो कुछ भी हो वो और मज़बूत हो जाएगा। ये आकर्षण में होता है। और प्रेम में तुम जो कुछ भी हो वो बचेगा नहीं। तो निकटता सिर्फ़ प्रेम में संभव है।
अब जानने की बात पे आते हैं, ये जानना क्या है? एक जानना होता है मानसिक तौर पे जानना, उसे ज्ञान कहते हैं। उस जानने में आप जो हैं, बने रहते हैं और सामने कोई विषय होता है, जिसके विषय में, जिसके बारे में आपको जानकारी मिल जाती है। ये वो जानना है जिसे हम साधारणतया जानना कहते हैं, ये ज्ञान है। ये ज्ञान कुछ नहीं है बस मन की वृत्तियों का ही प्रकटीकरण है। इसमें कुछ जाना-वाना नहीं गया है। वृत्ति छुपी हुई है, वो छुपी हुई वृत्ति जब प्रकट हो जाती है तो आप उसे ज्ञान बोलना शुरू कर देते हैं।
उदाहरण के लिए, ये दीवार है। इसमें कुछ रंग है, इसका एक आकार है, ऊँचाई है, चौड़ाई है। ये आपने जब तक देखी नहीं है तब तक आप कहेंगे आपको इसका ज्ञान नहीं है। जब दिख जाएगी तो आप कहेंगे आपको इसका ज्ञान हो गया, आपको इसकी स्तिथि का पता चल गया, रूप-रंग, आकार का पता चल गया। लेकिन दीवार का दिखना और रंगों का रंगों के रूप में भासित होना आपकी अपनी वृत्तियों पर है, उसमें कुछ नया नहीं है।
दीवार है भी, इसका प्रमाण सिर्फ़ आपका मन है। आपकी अपनी संरचना, आपका अपना मस्तिष्क ऐसा है जो दुनिया को त्रिआयामी रूप में देखता है, समय को देखता है, स्थान को देखता है और पदार्थ को देखता है। तो आपको एक दीवार है ऐसी प्रतीति होती है। वो जो दीवार है वो खड़ी ही आपने करी है, उसी लिए ये अक्सर कह दिया जाता है कि संसार मन का ही प्रक्षेपण है। दीवार मन ने ही खड़ी करी है। ये जो रंग दिखाई देते हैं, ये आपके मन की ही कृति हैं। तो आप पहले तो दीवार को प्रक्षेपित करें आप पहले रंगों को रचें और फिर कहें कि मैंने दीवार देखी, मैंने रंग देखे, तो इस बात में कोई ख़ास वज़न नहीं है।
जिसे हम तौर पर ज्ञान कहते हैं वो कुछ नहीं है, हमारी ही वृत्ति का प्रकटीकरण है। उसमे दो बातें, पहली हमारी ही वृत्ति हमारे सामने आती है, दूसरी अलग-अलग होना बहुत ज़रूरी है। मैं दीवार को देख पाऊँ इसके लिए मेरा दीवार से अलग होना बहुत ज़रूरी है। दीवार, दीवार को नहीं देख सकती। तो जो ज्ञान से जानना है उसमें कभी निकटता हो नहीं सकती, उसमें तो अलगाव बहुत ज़रूरी है। और हमारा जो कुछ भी जानना है वो ऐसा ही जानना है कि आप जिसको जानते हो उससे अलग खड़े हो और उसके विषय में जानकारी इकठ्ठा कर रहे हो। ये हमारा जानना है, ये है द्वैत की दुनिया में जानना।
एक दूसरा जानना भी होता है। उसमें जाना जाता है हो कर, मिल कर, गल कर। ऐसे समझ लीजिये कि समुद्र को जानना है तो कि जान रहा है किनारे पर खड़ा होके और कोई दूसरा है जिसे समुद्र को जानना है तो वो जान रहा है गोता मार के। गोता मारना भी बहुत समुचित उदाहरण नहीं है क्योंकि गोता मारने में भी आप भले समुद्र के भीतर होते हैं लेकिन अपनी सीमाओं के साथ होते हैं। अपने आप को कायम रखते हैं, शेष होते हैं। तो वास्तविक रूप से समुद्र को जानने का अर्थ हुआ समुद्र ही हो जाना। अब आप समझ रहे होंगे कि निकटता और जानना दोनों एक साथ कैसे चलते हैं। किनारे पर खड़ा हो कर के समुद्र को नहीं जाना जाता, समुद्र होके समुद्र को जाना जाता है।
जब कबीर कहते हैं कि
जिन ढूँढा तिन पाइयाँ, गहरे पानी पैठ।
मैं बौरा डूबन डरा, रहा किनारे बैठ।।
तो अब उसका अर्थ आपको स्पष्ट हो रहा होगा। हाँ, किनारे बैठ कर के आप हो सकता है कि पूरा एक ग्रन्थ लिख डालें नदी के ऊपर, समुद्र के ऊपर पर उसे आप जान नहीं पाएंगे वास्तव में कभी, जानने के लिए वही होना पड़ेगा। दूर बैठ कर के तो आपको तो बस वो दिखेगा जो आपका प्रक्षेपण है जैसे दीवार दिखती है। दूर रह कर के आपको बस वो दिखेगा जो आपका प्रक्षेपण है। मन से देखोगे तो मन ही दिखाई देगा। तुम देखोगे तो बस दुनिया भर में अपनी ही छवि देखोगे, अपने ही द्वारा प्रक्षेपित दृश्य देखोगे और कुछ नहीं देखोगे।
इसीलिए जानने वालों ने फिर अंततः कह दिया है कि ज्ञान फ़िज़ूल है, निरर्थक है क्योंकि ज्ञान में कुछ जाना तो गया ही नहीं गया। ज्ञान तो ऐसा ही है कि तुम सपना देखो। सपना भी देखा जाता है न, उससे तुम्हें कुछ पता चल जाता है क्या? समस्त ज्ञान स्वप्नवत है। कैसे? सपना किसका? तुम्हारा। सपना किसके मन से उपजा? तुम्हारे मन से। सपने में क्या है? जो भी कुछ तुम्हारे पास था, तुम्हारे अतीत में था, तुम्हारे मन में संचित था, वही है सपने में। और सपने को देखा भी किसने, दावा कौन कर रहा है कि देखा? तुमने देखा। तो एक ओर तो तुम्हें लग रहा है कि तुमने कुछ देखा, कुछ घट रहा है, कोई घटना हो रही है, तुम कुछ देख रहे हो। दूसरी ओर ये बात भी बिल्कुल सही है कि कुछ नहीं देख रहे हो। जो देख रहे हो तुम्हारा ही पैदा किया हुआ है।
जैसे कोई चित्रकार किसी की छवि बना दे, किसी का चित्र बना दे किसी दीवार पर, उसको देखे और कहे आज एक आदमी को देखा। अरे! क्या देखा? जो देखा वो तुम्हारा अपना बनाया हुआ था, तुम्हारा अपना रचाया हुआ था। तुमने कुछ देखा थोड़े ही। ज्ञान ऐसा ही देखना है। जो देखते हो वो तुम्हारा ही फैलाव होता है। बोध बात दूसरी है, वो तुम्हारे न होने में होता है। वो तुम्हारी सीमाओं के टूटने पर होता है। सीमाओं का उपयोग करके कभी बोध नहीं हो पाएगा। शरीर का उपयोग करके कभी कुछ नहीं जान पाओगे, क्योंकि शरीर सीमा है। मन का उपयोग करके भी कभी कुछ नहीं जान पाओगे, क्योंकि मन सीमा है। सीमाओं का उपयोग करके कोई असीम हो सकता है! शारीरिक निकटता तो पूरा आयोजन है सदा दूर बने रहने का।
मानसिक विचारबाज़ी, कि चलो सोचेंगे हम तुम्हारे बारे में, तुम हमारे बारे में सोचो, हम तुम्हारे बारे में सोचें। पक्का प्रबन्ध है सदा दूर बने रहने का। अगर आपने ज़रा भी ध्यान से सुना हो तो बात, नतीजे आपको हैरत में डालेंगे। आपने तो जिससे भी प्रेम किया है उसका खूब ख़्याल किया है, और उसी को आप प्रेम कहते भी हो। दिन-रात सोचते रहते हो और हकीकत ये है कि जितना सोच रहे हो उतना दूर हो।
श्रोता: सर जो विषयबद्ध ज्ञान का बोध से संबंध नहीं है, तो फिर रीडिंग का क्या महत्त्व रहा?
वक्ता: क्योंकि हम जिससे जुड़े हुए हैं, हमने जिसको अपनी पहचान बना रखा है, वो ज्ञान के अलावा और कुछ अब ग्रहण करता ही नहीं। इंसान के अलावा किसी और को ज्ञान की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि इंसान के अलावा किसी और को ज्ञान से आसक्ति नहीं है। इस बात को समझो, तुम ज्ञान के अलावा और कुछ ग्रहण करते हो? तो ज्ञान में कोई खासियत नहीं पर ज्ञान के अलावा कोई रास्ता नहीं।
ये ऐसी सी ही बात है कि किसी ने आदत पाल ली हो नाक के माध्यम से ही खाना खाने की, अब इसमें कोई सहजता नहीं है। ये स्वाभाव नहीं है कि नाक के माध्यम से खाना खाया जा रहा है। पर उसने मुँह की कुछ ऐसी बीमारी लगा ली है कि मुँह के माध्यम से अब खाना उसको आता ही नहीं। तो उसको एक अनैसर्गिक, अस्वाभाविक मार्ग से ज्ञान दिया जा रहा है कि लो भई।
तो तुम्हें ज्ञान ही दिया जा सकता है कि लो ज्ञान लो। ज्ञान के अलावा तुम्हें और कुछ लेना आता नहीं। हाँ, यदि सौभाग्य है तुम्हारा, तो वो ज्ञान तुम्हें ऐसे दिया जाएगा कि वो बाकी सारे ज्ञान को मिटा दे। तुमने जो आदत डाल रखी है ज्ञान के अलावा कुछ और न ग्रहण करने की, वो इस आदत के ज्ञान को भी मिटा दे। तुमने बहुत सारा उल्टा-सीधा खा रखा है। फिर तुम्हें कुछ और भी खाने को दिया जाता है, जो तुमने जो भी उल्टा सीधा खा रखा है उसको तुम्हारे तंत्र से निकाल देता है, गमन करा देता है। कुछ और खा ही रहे हो पर ये जो खाना है ये पिछले खाने से अलग था।
किस मामले में अलग है, कि पहले जो कुछ खाया वो तुम्हारे तंत्र के भीतर जम कर के बैठ गया और अब जो खा रहे हो ये सब पुरानी जमी हुई गंदगी को बाहर कर देगा, ये अंतर है। खाया दोनों ही चीज़ों को जा रहा है। कचरा भी खाया जाता है और दवाई भी खायी जाती है। पर दवाई का काम ये है कि जब वो भीतर जाएगी तो खुद तो भीतर रुकेगी ही नहीं, जो पहले से भीतर रुका हुआ है उसको भी बाहर कर देगी।
तो वास्तविक ज्ञान, लाभप्रद ज्ञान वही है जो पहले से संचित सारे ज्ञान को साफ़ कर दे और खुद भी न रुके। दो बातें कहीं, पहली, ज्ञान की आवश्यकता ही इसलिए है तुम्हें क्योंकि ज्ञान के अलावा तुम और कुछ ग्रहण करते ही नहीं, और तुम्हें दिया क्या जाए? तुम्हें क्या दिया जाए? तुम इतने ज़्यादा मन केंद्रित हो गए हो कि तुम्हें और कुछ दिया नहीं जा सकता। सहज समाधि कैसे पाओगे? सहज प्रेम कैसे पाओगे? इन सबके द्वार तो तुमने बंद कर दिए हैं। हाँ, ज्ञान का द्वार तुम्हारा पूरा खुला हुआ है। ज्ञान से अहंकार को बल मिलता है। वो द्वार तुमने पूरा खोल रखा है कि हाँ ज्ञान दीजिये। तो ठीक है ज्ञान लो, लेकिन यदि सौभाग्य है तो वो ज्ञान तुम्हें ऐसा मिलेगा जो पुराने सारे ज्ञान को काट देगा।
जब ज्ञान कटता है तो ये धारणा भी कटती है कि ज्ञान में कुछ महत्त्व है, क्योंकि ये धारणा भी एक ज्ञान ही है। ये धारणा तुम ले के नहीं आये थे कहीं से, ये धारणा भी तुम्हारे भीतर बैठाई गयी थी। तुम्हारे भीतर से ये धारणा भी जाती है कि ज्ञान में कोई बड़ी बात है। जब ज्ञान बड़ी बात नहीं रह जाता तो अलगाव भी बड़ी बात नहीं रह जाता, क्योंकि ज्ञान की आधारशिला क्या है, अलगाव। जैसे-जैसे ज्ञान पर से तुम्हारा यकीन कम होगा, वैसे-वैसे अलगाव से भी तुम्हारा यकीन कम होता जाएगा। दोनों घटनाऐं साथ घटेंगी। तब तुम किसी व्यक्ति को ऐसे नहीं देखोगे कि इसके बारे में जानकारी ले लें तो कुछ पता चले। फिर एक अलग ही तरीका होगा तुम्हारा दुनिया को, लोगों को, वस्तुओं को, घटनाओं को देखने का।
अभी तो ऐसे ही देखते हो कि कोई मिलता है तो पूछते हो अपने बारे में कुछ जानकारी दीजिये। तुम ज्ञान इकठ्ठा करते हो। तुम ज्ञान इकठ्ठा ही इसीलिए करते हो क्योंकि तुमने दुनिया को देखने का और कोई तरीका कभी जाना ही नहीं। तो साहब आप कौन हैं! ये जानने के लिए तुम पूछते हो, अपना नाम बताइये, अपनी उम्र बताइये, कहाँ से आ रहे हैं, अपनी आर्थिक स्तिथि बताइये, अपनी राष्ट्रीयता बताइये, ये ही सब तमाम बातें।
फिर ऐसे नहीं मिलोगे, फिर मिलने का तुम्हारा अंदाज़ बदलेगा क्योंकि अब ज्ञान से तुम्हारा यकीन हट गया है, अब निकटता हो सकती है। अब निकटता हो सकती है। तुम जिससे मिले और मिलते ही तुमने उसके बारे में तमाम जानकारी इकठ्ठा कर ली उससे निकटता कैसे होगी तुम्हारी! अब तो तुम जानकारी से खेल रहे हो। ध्यान दो न, अगर जानकारी दूसरी होती तो तुम्हारी सारी बातें दूसरी हो जातीं। तो ये कौन सी निकटता है!
कभी गौर किया है, तुम्हें किसी के बारे में कुछ तथ्य पता हैं, कुछ जानकारी है, वो जानकारियाँ बदल जाएँ, तुम्हारा नज़रिया बदल जाता है। किसी का नाम ही बदल जाए, तुम्हारा पूरा नज़रिया बदल जाएगा। राम सिंह अगर रहीम खान हो जाये, वही व्यक्ति, सब कुछ बदल जाएगा तुम्हारा। तुम्हें यदि अपने बारे में ही कुछ नयी जानकारी मिल जाये तो तुम्हारा अपने साथ ही संबंध बदल जाएगा। मैं कौन हूँ? इस प्रश्न का जवाब ही बदल जाएगा अगर तुम्हें तुम्हारे बारे में कोई पुराने दस्तावेज मिल जाऐं, सब उलट-पुलट हो जाना है।
हम इतने ज्ञान केंद्रित हैं, हम अपने आप को भी सीधे-सीधे, डाइरेक्टली निकटता से नहीं जानते हैं। हम अपने आप को भी कैसे जानते हैं, जानकारी के माध्यम से। हमें बताया गया है हमारे बारे में कुछ। देखा नहीं है तुमने लोगों को, पता चल जाए कि किसी परीक्षा में फेल हो गए हैं, अपनी नज़रों में गिर जाते हैं। तुम जो हो, तुम्हें ये जानने के लिए एक कागज़ के पुर्जे की ज़रूरत थी। जब पर्चा सामने आया तो पता चला कि तुम कौन हो, और उस आधार पे तुमने अपना नज़रिया बनाया। पर अपने साथ भी निकटता नहीं है न।
तुम्हारी पूरी दुनिया बदल जाए, अगर आज तुम्हें पता चले कि तुम्हारे नाम पे कोई वसीयत छोड़ गया है पांच-दस करोड़ की। सब कुछ बदल जाएगा, कुछ भी शेष नहीं बचेगा। दोस्त-यार बदल जाएंगे, भविष्य के दृश्य बदल जाएंगे, आत्म-छवि बदल जाएगी, प्रेमिका बदल जाएगी, सब बदल जाएगा। कपड़े और गाड़ी तो बदलेंगे ही बदलेंगे, वो तो कहने की ही बात नहीं। सब बदल जाएगा, थोड़ी सी ख़बर कुछ आ जाए इधर से उधर से। तो मैं कौन हूँ! जो अपने आप को ख़बरों के माध्यम से जानता है।
कोई बड़ी बात नहीं कि हम सुबह-सुबह अखबार भी इसीलिए पड़ते हों कि पता चल जाए मैं कौन हूँ। कहीं छोटा-मोटा, कोने-कतरे हमारा भी कोई नामलेवा हो। और ये एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है, आप अखबार में कुछ और नहीं ढूँढ रहे होते, आप अपनी पहचान ढूँढ रहे होते हैं। जिन लोगों को अखबार में या टीवी पर खबरें देखने की, समाचार देखने की बहुत आदत होती है, आपको क्या लगता है वो किसका समाचार ढूँढ रहे हैं? वो अपना समाचार ढूँढ रहे हैं, अपने बारे में कुछ पता चल जाए, मैं हूँ कौन। वो ज्ञान से पता चलेगा नहीं। तुम कितना देखते रहो, तुम जिंदगी भर अखबार पढ़ते रहो और किताबें पढ़ते रहो, कैसे कुछ पता चलेगा!
-‘बोध सत्र’ पर आधारित | स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं |