तुम्हारा अहंकार ही तुम्हारी समस्याओं का कारण || (2016)

Acharya Prashant

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तुम्हारा अहंकार ही तुम्हारी समस्याओं का कारण || (2016)

प्रश्नकर्ता: क्या अहंकार ही हमारी समस्याओं का कारण है?

आचार्य प्रशांत: अहंकार अगर समस्याओं का कारण है, तो उन समस्याओं का अनुभोक्ता कौन है? अहंकार के कारण समस्याएँ हैं, किसको?

तो ये कहना ठीक है कि अहंकार के कारण समस्याएँ होती हैं। पर ये कहना और ज़्यादा ठीक है कि अहंकार को ही समस्याएँ होती हैं। अर्थ क्या है इसका?

अभी आप यहाँ बैठे हुए हैं, इस कक्ष में बहुत कुछ है। आपके लिए क्या है? पीछे एक मेज़ रखी हुई है, वो आपके लिए है? ऊपर पंखें हैं, वो आपके लिए हैं? और पीछे एक दरी पड़ी है, वो आपके लिए है? अभी आपके लिए क्या है? आपमें से कितने लोग अभी बैठे हो तो कुर्सी का ख़्याल कर रहे हो? आप यहाँ अगर मौजूद हो तो आपके लिए क्या है? और अगर आप वो हो जो सुख-सुविधा की ही तलाश में है लगातार तो फिर आपके लिए कुर्सी, मेज़, दरी, पंखा, एसी (वातानुकूलक) ये सबकुछ हैं। अगर आप वो हो जो दुनिया के साथ ही लगा हुआ है, तो आपके लिए दरवाज़े से बाहर जो कुछ है, वो सबकुछ है। आपके लिए क्या है?

जो यहाँ ध्यानपूर्वक मौजूद है उसके लिए यहाँ पर सबकुछ होते हुए भी कुछ नहीं है। उसके लिए या तो मौन है, या वक्ता का स्वर है, या मात्र एक शांत-सामीप्य है। ठीक उसी तरीके से इस कक्ष को अगर आप पूरा संसार मानें, जगत मानें, तो इसमें हर तरफ़ स्थितियाँ पड़ी हुई हैं, जिसमें से कुछ स्थितियों को अहंकार अनुकूल मानता है कुछ को प्रतिकूल मानता है। जिनको प्रतिकूल मानता है, उनको समस्याएँ कहता है, पर उनकी ओर वह आकृष्ट तभी होगा जब उसका वास्तविक से कोई लेना-देना ना हो। अन्यथा समस्याएँ पड़ी रहेंगी; अहंकार के लिए नहीं होंगी, आपके लिए नहीं होंगी। ठीक वैसे जैसे यहाँ पीछे कुछ अलमारियाँ पड़ी हुई हैं लेकिन आपके लिए नहीं हैं। क्या हैं? शायद हैं। क्या आपके लिए हैं? बिलकुल नहीं हैं। आपके बगल में हो सकता है रखी हुई हो लेकिन फिर भी आपके लिए नहीं है। आपको उसकी मौजूदगी से कोई लेना-देना नहीं।

एक शांत मन के लिए आस-पास तमाम उपद्रव होते हैं; क्या होते हैं? हाँ, होते हैं, पर क्या उसके लिए होते हैं? नहीं, उसके लिए नहीं होते। ठीक वैसे जैसे अभी आपका पड़ोसी, क्या है? हाँ, है, शायद होगा, पर क्या आपके लिए है? और यदि आपको अभी आपके पड़ोसी की उपस्थिति का संज्ञान है तो आप यहाँ मौजूद नहीं हैं। फिर सत्य से सामीप्य में आपकी कोई रुचि नहीं है। फिर तो आपका मन अभी पड़ोसी के ही इर्द-गिर्द डोल रहा है।

दुनिया में क्या स्थितियाँ हैं? हाँ, बिलकुल हैं। प्रकृति है? हाँ, बिलकुल है। माया है? हाँ, हो सकती है। तमाम तरह की ऊँच-नीच, उठा-पटक हैं? हाँ, बिलकुल हैं, पर किसके लिए है? जो उस पर ध्यान दे उसके लिए है, जिसकी उसमें रुचि हो उसके लिए है। जिसको उसमें रस मिले उसके लिए है। जो उससे बल पाता हो, जिसका उससे रिश्ता-नाता हो उसके लिए है। नहीं तो होगा, हमें क्या।

क्या मेज़ में चार पायें हैं? होंगे। पाँच हैं क्या? हो सकते हैं। तीन? होंगे, हमें क्या। हम यहाँ मेज़ की ख़ातिर थोड़े-ही आए हैं। क्या दुनिया में समस्याएँ हैं? होंगी, हमें क्या। शरीर में समस्या है? हाँ, होगी, हमें क्या। मन में समस्या है? होगी, हमें क्या।

अहंकार कहता है, "नहीं, है और बहुत महत्त्वपूर्ण है, मेरे लिए है।" वो जुड़ जाता है समस्याओं से, यही अहंकार की निशानी है। उसके लिए समस्याएँ होती हैं, और विशुद्ध अहं के लिए, शांत मन के लिए सत्य होता है, हैं दोनों ही। किसी के अस्तित्व से इनकार नहीं। प्रश्न ये है कि आप किसको देख रहे हैं। अहंकार से देखो तो समस्याएँ दिखेंगी, आत्मा से देखो तो सत्य दिखेगा। तुम देखना किसको चाहते हो? तुम्हारी नज़र किधर है? और झूठ नहीं बोल रहे हो तुम। तुम्हारा दावा यदि ये है कि दुनिया में समस्याएँ-ही-समस्याएँ हैं, तो बिलकुल झूठ नहीं कह रहे हो, सच कह रहे हो। क्योंकि तुम वही कह रहे हो जो तुम्हें दिख रहा है, तो तुमने झूठ नहीं बोला। तुम्हारा अनुभव गवाह है, तुमने झूठ नहीं बोला। तुम्हें वास्तव में समस्याओं का ही अनुभव होता है। तुम पीड़ा में जी रहे हो। तो ये नहीं कि तुमने झूठ बोला है। तुम्हारे आँसू सच्चे हैं; तुम्हारे लिए सच्चे हैं।

पर फिर भी ये प्रश्न पूछना जायज़ है, कि तुम्हें समस्याएँ ही क्यों दिखती हैं। क्योंकि समस्याएँ अहंकार के लिए ही हैं। तुम्हें सत्य कहीं क्यों नहीं दिखता? ज़रा आगे बढ़ेंगे, गहरे जाएँगे तो पता चलेगा, इसलिए क्योंकि दृश्य दृष्टा पर निर्भर करता है; दृश्य और दृष्टा एक हैं। तुम यदि खुद एक समस्या हो तो सम्पूर्ण जगत तुम्हारे लिए मात्र समस्या रहेगा। तुम्हें अगर चारों तरफ़ बस समस्याएँ-ही-समस्याएँ दिखती हैं तो अर्थ ये है कि तुम खुद एक विकराल समस्या हो। समस्या के अतिरिक्त तुम कुछ नहीं हो। तुमने अपने-आपको परिभाषित ही समस्या के रूप में किया है। "मैं कौन?", तकलीफ़।

तुम अपनी मौजूदगी का एहसास ही तब कर पाते हो जब या तो तुम तकलीफ़ में हो या किसी को तकलीफ़ दे रहे हो। जब रोते हो और कष्ट पाते हो, तभी मात्र कह पाते हो कि "ज़िंदा हूँ।" जब तनाव में होते हो तो ज़रा गर्मी अनुभव करते हो। शांत होते हो तो परेशान हो जाते हो, "कहीं मर ही तो नहीं गए?"

अगर आपने जीवन को दौड़, उपलब्धि, संघर्ष इसी रूप में जाना है तो आप अपने-आपको जीवित भी कब कह पाएँगे? जीवन की यदि आपकी परिभाषा ही ये है कि जीवन अनवरत संघर्षरत रहने का ही नाम है, तो आप अपने-आपको जीवित कब कहेंगे? जब आप संघर्ष में हों। और यदि आप संघर्ष में नहीं हैं, यदि उठा-पटक नहीं चल रही है, यदि तनाव नहीं है, यदि घर्षण नहीं है तो आपको कैसा लगेगा? कि आप क्या हैं? आपको लगेगा मुर्दे जैसे। तो फिर ज़रा जीवित अनुभव करने के लिए आप स्वयं ही अपने-आपको तकलीफ़ में झोंक देंगे। यही अहंकार की विडंबना है। चाहिए उसे आनंद पर अपनी उपस्थिति का ज्ञान ही उसे दुःख में होता है, इसीलिए दुःख उसके अस्तित्व के लिए अनिवार्य है। चाहिए तो आनंद, पर जिसे आनंद चाहिए वो जीवित ही दुःख में है, तो उसके लिए फिर ज़रूरी हो जाता है दुःख-सुख का द्वैतात्मक खेल खेलना।

बड़ी विरोधाभासी-सी बात है, समझिएगा इसको। चाह आनंद की है, पर जिसको चाह है वो स्वयं दुःख है। वो दुःख ना होता तो आनंद की चाह ना करता। और चाहिए दोनों: आनंद मिले भी और 'मुझे' मिले। 'मैं' कौन? दुःख। तो दुःख को आनंद मिले, और दोनों शर्तें एकसाथ पूरी हों। "मैं दुःख भी रहूँ और मुझे आनंद उपलब्ध भी हो जाए", होगा नहीं।

संसार ना ऐसा है, ना वैसा है, आप जैसे हैं संसार ठीक वैसा है। संसार क्या बहुत बड़ी समस्या है? बहुत बड़ी, आप जितना सोच सकते हो उससे कहीं ज़्यादा बड़ी। ऐसी समस्या जिसे आज तक कोई सुलझा नहीं पाया। संसार क्या एक सरल, प्रत्यक्ष सत्य है? हाँ, बिलकुल। कहीं कोई उलझन ही नहीं है। जो है, प्रकट है। क्या इन दोनों बातों में कोई विरोधाभास है? नहीं कोई विरोधाभास नहीं है, बिलकुल नहीं। आपके ऊपर है, आपकी मर्ज़ी।

और फिर कह रहा हूँ, दोनों पक्षों में से किसी को भी झूठा मत कहिएगा। जिसे समस्या दिखती हो उसके लिए समस्या है, क्योंकि वो ख़ुद समस्या है। और जिसे सत्य दिखता हो उसके लिए सत्य, सरलता, प्रेम है, क्यों? क्योंकि वो ख़ुद सत्य है, सरल है। तो यहाँ पर सवाल फिर सही-ग़लत का नहीं है। यहाँ पर सवाल आपके चुनाव का है। आपको चाहिए क्या? आपको कैसे जीना है? आपको जैसे जीना हो, चुन लीजिए।

ग़लत मत समझ लीजिएगा। मैं कह नहीं रहा हूँ कि समस्याओं की ओर से आँखें बंद कर लेनी हैं। मैं नहीं कह रहा हूँ कि वो शुतुरमुर्ग बन जाना है जो शत्रु को सामने देखकर के मुँह छुपाता है। मैं कह रहा हूँ कि आपके लिए प्रमुख क्या है, आपके लिए महत्त्वपूर्ण क्या है, आपको घनी-अँधेरी रात में भूत-प्रेत दिखते हैं या टिमटिमाता दिया? आपके लिए महत्त्वपूर्ण क्या है? हैं दोनों, आपको दिखता क्या है? आपका मन कहाँ जाकर अटकता है?

कचरे के मध्य हीरा पड़ा हुआ है, और दोनों अलग नहीं। यहाँ हीरा कुछ ऐसा है जिसकी कचरे से ही पैदाइश है। जैसे कोयले की खदान में से उपजता हो। दोनों अलग नहीं; आपको दिखता क्या है?

जैसे उषाकाल हो, और बड़ा गहरा अँधेरा होता है भोर से ज़रा पहले, और साथ ही प्रथम रश्मियाँ प्रकट हो रही होती हैं। आपको दिखता क्या है? हैं दोनों। हमें इनकार नहीं दोनों के वजूद से। आपके लिए क्या प्रथम है?

प्र: जिसे समस्याएँ दिखती हैं उसे ये बात तो पता लग गई कि, "मैं ख़ुद समस्या हूँ इसीलिए मुझे दिख रही हैं", अब वो बदले कैसे?

आचार्य: कोई सवाल नहीं बदलने का। तुम्हें अच्छा लगता है क्या ऐसे जीना?

प्र: लेकिन आदत तो वही है।

आचार्य: अच्छी लगती है ये आदत?

प्र: नहीं।

आचार्य: बस, हो गया, बदल जाओगे। ये याद तो रखो न कि तुम्हें ये पसंद नहीं। जैसे अभी कह रहे हो कि पसंद नहीं, वैसे ही लगातार कहो कि पसंद नहीं। तुम्हारी अनुमति के बिना, तुम्हारे स्वीकार, तुम्हारे अनुमोदन के बिना कुछ भी तुम्हारे साथ कैसे रह लेगा? हर आदत को ऊर्जा देने वाले तुम ही हो। तुम कह दो अगर कि तुम्हें नहीं ठीक लगता, तुम्हें नहीं चाहिए, तो कुछ भी तुम्हारे साथ रह कैसे लेगा?

सच तो ये है कि आदमी लगातार इसी द्वंद्व में जीता है। थोड़ी देर पहले हमने बात करी थी - दुःख को आनंद चाहिए। अपने-आपको बचाऊँ या आनंद को पाऊँ? दुःख को आनंद चाहिए, आनंद मिलेगा तो दुःख का क्या होगा? नष्ट हो जाएगा। अब यही इंसान का जीवन है। या तो ख़ुद को बचा लो या सत्य को पा लो। या तो अपना दुःख सहेजे रहो या प्रेम को उपलब्ध हो जाओ। दोनों एकसाथ तो मिलेंगे नहीं। चुन लो।

प्र२: क्यों कोई वो चुनता है, और कोई दूसरा चुनता है?

आचार्य: वो तुम्हारी मर्ज़ी है। ये प्रश्न ही दुःख को और बढ़ा देगा। मर्ज़ी है, और कोई इसका उत्तर नहीं है; मर्ज़ी है। मर्ज़ी के अलावा अगर और कुछ होता तो तुमसे बात क्यों कर रहा होता? मुझे मालूम है कि तुम्हारी मर्ज़ी के कारण ही है, इसीलिए बात कर रहा हूँ। क्या पता मर्ज़ी बदल जाए! अगर मुझे पता होता कि कोई और बात है, कि तुम अभिशप्त ही हो ग़लत चुनाव करने के लिए, तो तुमसे बात ही क्यों करता? जानता हूँ कि तुम्हारे हाथ में है, जब चाहो बदल सकते हो, मर्ज़ी है, इसलिए तो बात कर रहा हूँ न।

पूरी ज़िंदगी इसी खींचातान का नाम है: खुद को बचाएँ या शान्ति पाएँ, दामन साफ़ रखें या प्रेम के घर जाएँ, समाज के रहें या सत्य के हो जाएँ। जीवन इसके अलावा और कुछ नहीं। यही निर्णय, यही उहापोह। और चालाकी मत करना, ये मत सोचना कि दोनों पा सकते हो। ये वैसे ही होगा कि बर्फ़ कहे कि ठोस भी रहे और भाँप बनकर उड़ भी जाए, कि अपना आकार भी बचाए रखे, और बादलों को भी चूम आए; हो नहीं पाएगा। चुन लो, या तो ये, या तो वो। और यदि अगर चुनाव सही है तो पाओगे कि चुनाव कुछ था ही नहीं। क्योंकि सत्य और भ्रम में कोई चुनाव होता है क्या? एक और दो में चुनाव हो सकता है, दो और चार में चुनाव हो सकता है, केले और सेब में चुनाव हो सकता है, नीम और पीपल में चुनाव हो सकता है, इस घर और उस घर में चुनाव हो सकता है, दो ऐसी सत्ताएँ जो तुलना योग्य हों उनमें चुनाव हो सकता है। पर सत्य और स्वप्न में चुनाव का क्या प्रश्न?

जिन्होंने भी सही चुना उन्होंने पाया कि चुनने के लिए कोई विकल्प था कहाँ, एक ही तो था चुनने योग्य, दूसरा तो था ही नहीं। नाहक ही उसको महत्त्व देते थे, नाहक ही उसे किसी गिनती में रखते थे। हम ऐसी जगह चुनाव पैदा कर रहे थे, ऐसी जगह विकल्प देख रहे थे जहाँ एक के अतिरिक्त दूसरे की कोई सत्ता नहीं। वहाँ चुनना क्या था? पर वो बात दूर की है। हम जैसे हैं, हमें तो अभी यही लगता है कि विकल्प है। और न केवल हमें ये लगता है कि विकल्प है, बल्कि हमें जो छद्म-विकल्प है वही ज़्यादा आकर्षक लगता है।

तो मैं आपसे नहीं कहूँगा कि देखिए कि निर्विकल्पता है। आपको चूँकि दो दिखते हैं तो मैं कहूँगा, इन दोनों में ज़रा सावधानी से चुनिए, ज़रा निडर होकर चुनिए, ज़रा प्रेमपूर्ण होकर चुनिए। क्योंकि हमारे लिए तो कदम-कदम पर चौराहें हैं। हमें तो विकल्प दिखते ही हैं। हैं नहीं, पर दिखते हैं।

प्र: चुनने वाला ही ग़लत होगा तो चुनाव सही करेगा कैसे?

आचार्य: चुनने वाले को पसंद है ग़लत रहना? फिर पूछ रहा हूँ। चुनने वाला तो इतनी हेठी के साथ कह रहा है कि चुनने वाला ग़लत है। जैसे ग़लती का पूरा दारोमदार लेकर आया हो, "हमें ग़लत ही रहना है।" ग़लत ही रहना होता तो यहाँ क्या कर रहे होते? बैठे यहाँ पर हो, चलकर आए हो, और कह रहे हो चुनने वाला ग़लत है। ग़लत होता तो यहाँ बैठा होता? ग़लत रहने के लिए यहाँ आए हो? ग़लत रहना पसंद था तो बहुत कुछ और था जो कर सकते थे। यहाँ किस ख़ातिर बैठे हो? अब तुम्हारे ऊपर है, चुन लो। या तो जिसे जीवन कहते हो उसको बचा लो, या जो प्राणों से गहरी चाहत है उसको पा लो।

काँटे की लड़ाई है। मुश्किल सवाल है। पाए बिना रहा नहीं जाता और दूसरी तरफ़ डर सताता, कि पा लिया वो तो ठीक, पर पाकर हम ही नहीं बचे तो पाया किसने। "भाई, अगर पाएँ, तो पाने के सुख का अनुभव भी तो करें!" यही हमारा लालच, यहीं फँस जाते हैं। "हाँ, हाँ, ठीक, माल घर आया, पर घर में हमें भी तो होना चाहिए, नहीं तो माल का सुख कौन लेगा?" अब माल भी चाहिए और अपनी मौजूदगी भी।

यहाँ खेल दूसरा है। यहाँ जो मिलता है वो तुम्हारी कीमत पर मिलता है। तुम जब अपने-आपको बेच आते हो तो माल घर आता है। माल तो घर आएगा, तुम नहीं रहोगे। और जिन लोगों को घर से बहुत लगाव हो उन्हें कह दूँ, कई बार घर भी बेच देना पड़ता है, तब माल घर आता है। तो अब तो पक्का ही हो गया, कोई चुनाव करना ही नहीं है। ऐसा माल चाहिए ही नहीं। हम भी बिक गए, घर भी बिक गया, अब ये माल किस काम का?

माल किस काम का नहीं, तुम्हारी तकलीफ़ ये है कि माल किसके काम का? तुम्हारे अनुसार जो कुछ हो वो तुम्हारे काम का होना चाहिए। तुम ये समझ भी नहीं रहे हो कि तुम्हें यदि अपने को बचाने की इतनी ही इच्छा होती तो तुम्हारे भीतर उसकी प्यास उठती ही नहीं जो तुम्हारा प्राण माँग रहा है। इतनी-सी बात दिखती नहीं? तुम्हारे लिए यदि इतना ही आवश्यक होता अपने को सुरक्षित रखना तो तुम लगातार उसको कैसे माँगते जिसके लिए जीवन भी दिया जा सकता है? फिर तो तुम कोई छोटी-मोटी चीज़ माँगते न? पर छोटा-मोटा तुम माँगते नहीं। छोटे-मोटे से तुम्हारा पेट भरता नहीं। है कोई जो क्षुद्र से राज़ी हो? है कोई जिसका दिल ज़रा-से में भर जाता हो? है कोई यहाँ पर? तुम्हें तो चाहिए, पूरा चाहिए। पूरे से ज़्यादा पूरा चाहिए, अनंत चाहिए।

तुम सीमित, चाह अनंत की। तो बात दिखती नहीं? इतना ही आवश्यक होता तुम्हारे लिए अपने-आपको बचाना तो तुम अनंत को क्यों माँगते? तब तो तुम कहते, "ठीक, दो-चार बून्द दे दो, हम तर गए।" दो-चार बून्द से तरते हो कभी? फिर तो कहते हो, "और चाहिए, और चाहिए!" तो चुन लो न।

प्र३: वो बगल में बैठकर चाशनी चाटे भी जाता है।

आचार्य: मैं कुछ कहूँगा ही नहीं। क्योंकि दोनों ही बातें सही हैं। हम जहाँ खड़े हैं, हमारे लिए तो दोनों ही बातें सही हैं। चाशनी की मिठास भी सत्य है, और मन में जो चींटी जैसी क्षुद्रता बैठ गई है, हमारे लिए वो भी सत्य है। तुम तय कर लो। तुम्हारे लिए ज़रूरी क्या है? मिठास?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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