आचार्य प्रशांत: आचार्य विनोबा भावे के जीवन से एक घटना है। वो युवा ही थे अभी और जीवन का अर्थ खोजने की कोशिश कर रहे थे। तो कहते हैं — यूँही एक दिन उन्होंने ट्रेन पकड़ ली और उत्तर भारत की ओर आ गये। हिमालय जाना चाहते थे, उससे पहले वाराणसी आ गये। ‘वाराणसी घूमूँगा, कुछ समझूँगा और उसके बाद हुआ तो हिमालय चला जाऊँगा।’
तो वहाँ यूँही घाटों पर टहल रहे थे, कहना चाहिए भटक रहे थे तो जगह पर एक उन्होंने थोड़ी भीड़ देखी। आचार्य विनोबा भावे के नाम से तो परिचित हैं न? उन्हें गाँधी जी का आध्यात्मिक उत्तराधिकारी कहा जाता है।
उनके नाम से कौनसा आन्दोलन जुड़ा हुआ है? कौनसा?
श्रोतागण: भूदान।
आचार्य: भूदान आन्दोलन जुड़ा है, हाँ ठीक है। तो आप में से जो लोग थोड़ी सी प्रौढ़ उम्र के हैं, उन्होंने अपने जीवनकाल में भी विनोबा के बारे में कुछ पढ़ा-सुना होगा खबरें इत्यादि, बहुत पुराने नहीं हैं विनोबा और उनकी पुस्तकें हैं, वो बहुत लाभ की हैं। हमारी लाइब्रेरी में भी विनोबा का एक पूरा खंड है। तो अपने जीवनकाल में आचार्य विनोबा भावे के नाम से जाने गये। तो लगी थी भीड़, तो उन्हें कौतुहल हुआ — क्या बात है। तो वहाँ जाकर देखते हैं तो वहाँ पर दो लोग आपस में बहस कर रहे थे और बहस का नाम था शास्त्रार्थ। मैं बहस क्यों कह रहा हूँ? क्योंकि वो जो बात कर रहे थे या विवाद कर रहे थे वो तो बारह शताब्दी पहले होकर के निपटाया जा चुका था। वो क्या बातचीत कर रहे थे? उनमें से एक था अद्वैतवादी और एक था द्वैतवादी और दोनों बैठ गये थे आमने-सामने और एक-दूसरे को तर्क पर तर्क दिये जा रहे थे। मैंने कहा, ‘ये बहस तो बारह शताब्दी पहले ही निपट चुकी है।’ बारह शताब्दी पहले किसमें-किसमें निपटी थी?
श्रोता: शंकराचार्य और मंडन मिश्र।
आचार्य: शंकराचार्य और मंडन मिश्र, और? स्त्रियों की उपेक्षा मत किया करो।
श्रोता: मंडन मिश्र की पत्नी।
आचार्य: हाँ, उनकी पत्नी का कुछ नाम भी होगा या बस ‘मंडन मिश्र की पत्नी’ यही उनकी पहचान है?
श्रोता: उभय भारती।
आचार्य: हाँ, तो ये भाई, भारती देवी का भी उसमें बड़ा सक्रिय और बड़ा रोचक योगदान था जो शास्त्रार्थ हुआ था। ठीक है? (श्रोताओं को सत्र से सम्बन्धित गृहकार्य देते हुए) आपमें से जिन लोगों ने नहीं पढ़ा है उस बारे में, आप उसको पूरा पढ़ेंगे, ये पहली आज की आपकी एक्टिविटी हो गयी है।
तो विनोबा ने कहा कि ये शास्त्रार्थ है नहीं, ये बस वाद-विवाद है। क्यों? क्योंकि एक ऐसे मुद्दे पर उलझ रहे हैं जिस पर निर्णायक बात इतने पहले हो चुकी है भाई, वो बात खत्म हो चुकी है, निर्णय हो चुका है, आखिरी बात कही जा चुकी है, पूर्ण विराम लग चुका है। अब तुम आगे क्या बात कर लोगे? लेकिन बस तुमको यूँही थोड़ा वाक्-विलास करना है। वाक् विलास क्या होता है? इसको (जिह्वा की ओर इशारा करते हुए) मज़े दिलाना, वाणी को, जिहवा को वाक् को विलास दिलाना, वाक् विलास, बस यूँही ही बोलने के लिए। उसी को साधारण भाषा में बकवाद भी कहते हैं। बकवाद — बिना बात के आपने बोला।
तो उनमें दोनों में बात चली और जैसा कि पटकथा में बहुत पहले से लिखा हुआ है, द्वैतवादी हार गया। ये द्वैतवादी बारह शताब्दी से हार रहे हैं लेकिन बार-बार खड़े होकर के शास्त्रार्थ के लिए पुकारते ज़रूर हैं। कुछ होगा अनुपम आनन्द हारने में बार-बार अद्वैतवादियों के हाथों।
तो वहाँ जितने लोग खड़े हुए थे, उन सबने एक स्वर से घोषणा करी कि द्वैतवादी हार गया। क्या घोषणा करी? द्वैतवादी हार गया। कोई नयी बात नहीं, पहले ही ये परिणाम सबको पता ही था कि द्वैतवादी हारेगा ही। द्वैतवादी को भी इसमें कुछ नया नहीं लगा। उसने भी जम्हाई ली, बोला, ‘हाँ ठीक है। आज का यही कार्यक्रम था पहले बहस करनी थी फिर हारना था तो काम आज का पूरा हुआ, चलो कहीं जाकर के खाते-पीते हैं, सोते हैं।’
विनोबा युवा थे अभी। अभी ‘आचार्य विनोबा ‘वो कहलाते भी नहीं थे, बस वो विनोबा भावे थे। तो अचानक से एक युवा स्वर बोलता है, बाकी सब वहाँ पंडित लोग जमा थे। उनके बीच में ये बीस-बाईस साल का युवा बोल पड़ता है, बोलता है, ‘अद्वैतवादी हारा है।’ बोलता है, ‘गलत निर्णय कर रहे हो, अद्वैतवादी हारा है।’
अब सब भौचक्क! ‘ये क्या बात! अद्वैतवादी कैसे हार गया?’ तो कुछ तो जो थोड़े प्रौढ पंडित थे, उन्होंने उपेक्षा ही करी बोले, ‘हट, काशी वालों को तू ज्ञान देने आया है, कहाँ से आया है?’ कुछ को थोड़ा मामला रोचक लगा तो उन्होंने कहा, ‘आप बताइए, क्या बात है, कैसे कह रहे हैं?’
वो बोले, ‘जिस क्षण कोई अद्वैतवादी किसी द्वैतवादी से शास्त्रार्थ स्वीकार कर लेता है, उसी क्षण अद्वैतवादी हार जाता है।’ बोले, ‘जिस पल किसी अद्वैत के ज्ञानी ने द्वैतवादी से बहस करना, उलझना मंज़ूर कर लिया, उसकी हार हो गयी।’ बोले, ‘इन दो आयामों में इतनी दूरी है, इन दो बातों में इतना फ़ासला है कि जो ऊँची बात है अद्वैत की अगर वो द्वैत से आकर उलझ भी गयी तो हार गयी। उलझने के बाद द्वैत को हरा दिया, नकार दिया, गलत साबित कर दिया, खंडन कर दिया, कोई फ़र्क नहीं पड़ता। हारकर भी द्वैत जीत गया’।
बोले, ‘आज के इस तथाकथित शास्त्रार्थ में द्वैतवादी ही जीता है। उसकी सफलता इसमें है कि उसने अद्वैतवादी को विवश कर दिया शास्त्रार्थ करने के लिए। अद्वैत इतनी ऊँची चीज़ है कि तुम बहस करने भी कैसे आ गये द्वैत वाले से, इस पर हँस देते, मुस्कुरा देते, छोड़ देते, बच्चा है। तुमने इससे बहस कैसे कर ली? अब तुमने बहस कर ली, तुम हार गये।’
तो वहाँ जो कई लोग थे, उनमें भी कुछ युवा थे उन्होंने कहा, ‘आप गुरु बनिए हमारे, हम ‘आचार्य’ बोलेंगे आपको।’ वो बोले, ‘मैं तो अभी लड़का हूँ, मैं खुद ही अपनी राह खोज रहा हूँ, मुझे जाने दो। पर अद्वैत के विषय में इतना समझता हूँ कि द्वैत से न उसकी कोई तुलना है, न उसे कोई उलझना है।’ तो आगे बढ़ गये।
आज जो बात हमसे कह रहे हैं कबीर साहब, हम गत माह समझ चुके हैं कि वो हमें किस तल पर मानकर कह रहे हैं, किस तल पर मानकर कह रहे हैं? वो कह रहे हैं, ‘‘गुरु दीन्हा माल खजाना, राखो जुगत लगाई।’’ वो क्या मानकर आपको आज कुछ सीख दे रहे हैं?
श्रोता: साधक।
आचार्य: किस तल का साधक? मैंने इसपर चर्चा करी थी। मैं गोवा से जब बात कर रहा था। आपको क्या मानकर दे रहे हैं? कई तल के शिष्य होते हैं, यहाँ पर आपको किस तल का शिष्य माना गया है? जिसे मिल गया है। जिसे मिल गया है — ‘‘गुरु दीन्हा माल खजाना।’’ पर क्या उच्चतम तल का माना गया है? उच्चतम तल का नहीं माना गया है, क्योंकि मिला तो है, पर अभी छीन सकता है। तो ये जो बात है सारी उनके लिए है ही नहीं जिन्हें अभी आज तक कुछ मिला ही नहीं, ये भजन उनके काम का नहीं हैं। वैसे अगर लोग हों तो सो जाइए जाकर के, अपना स्क्रीन वगैरह बन्द करिए। क्यों हो ऐसे? महीनों से यहाँ पर हो, उसके बाद भी ऐसे क्यों हो अभी कि ये कहना पड़े कि अभी कुछ?
श्रोता: मिला नहीं।
आचार्य: हाँ, मिला ही नहीं। तो किसी कायदे के अन्तर्गत सन्त सरिता में आपके सामने ये पंक्तियाँ आरम्भ के कई दिनों कई महीनों बाद आयी हैं। बहुत कुछ जब आपको मिल गया, तब आपको फिर ये बात कही गयी है कि गुरु दीन्हा माल खजाना। अगर मैं पहले ही सत्र में आपको ये भजन दे देता तो वो बात बड़ी विचित्र, बड़ी विसंगत हो जाती न। यहाँ पर कहा जाता, ‘‘गुरु दीन्हा माल खजाना’’ आप क्या बोलते? बोलते, ‘क्या दिया है? आज पहला सत्र है, क्या दिया है? आज अभी शुरुआत हुई है, दिया क्या है?’ पर अब तक बहुत कुछ मिला है, तो अब जब बहुत कुछ मिल जाता है तो बात बस ये नहीं रहती कि और पाओ, और पाओ, और पाओ। और पाना तो जीवनभर चलेगा ही क्योंकि सत्य की यात्रा अनन्त है।
जब तक आपकी साँस है, आपको फिसलने का भी खतरा है और आपको आगे की यात्रा भी अनवरत् करते रहनी है। इस बात को हमने बहुत ज़ोर देकर बार-बार कहा कि कभी भी अपनेआप को पहुँचा हुआ नहीं मान लेना है। तो आगे तो चलो बढ़ते रहेंगे, वो एक बात है। लेकिन अभी कुछ हाथ में आ भी गया है, जो हाथ में आ गया है, उसकी रक्षा बहुत ज़रूरी है, उसकी रक्षा बहुत ज़रूरी है।
दो हों, गौर से समझिएगा, एक — जिसको मिला और उसने गँवा दिया, एक — जिसको मिला ही नहीं। इन दोनों में अब आगे बढ़ने की सम्भावना उसकी कहीं ज़्यादा है जिसको कभी कुछ मिला ही नहीं। बहुत स्थूल उदाहरण देकर कह रहा हूँ, एक — जिसको पाँच रुपया मिला था और वो पाँच रुपया अपनी बेहोशी में कहीं फूँक आया या भूल आया। तो उसके पास कितना हो गया? शून्य। और एक जिसको कभी कुछ मिला नहीं तो उसके पास भी कितना है?
श्रोता: शून्य।
आचार्य: तो है तो दोनों के पास शून्य पर दोनों में बेहतर हालत उसकी है जिसको कभी कुछ मिला ही नहीं, उसकी सम्भावना ज़्यादा है। जिनको मिला पर सम्भाल नहीं पाये, जिनको मिला पर मिले हुए की कद्र नहीं करी, उनको अस्तित्व माफ़ नहीं करता। जिनको मिला ही नहीं, उनके प्रति जैसे सहानुभूति थोड़ी रखी जाती है। इस बेचारे को तो अभी तक मिला ही नहीं, उचित अवसर की कमी रह गयी होगी, कोई बात होगी, संयोग नहीं बना, अनुकम्पा नहीं बनी, कुछ हो गयी बात, इसको चलो ठीक है। लेकिन जिसको दिया गया और पा-पाकर भी जिसने खूब गँवाया, उसको ज़रा मुश्किल से माफ़ी मिलती है।
तो ये जो आज का पूरा भजन है, उनके लिए है जिन्हें कुछ मिला है, ठीक है और हम इस पर चर्चा पीछे कर चुके हैं।
‘‘गुरु दीन्हा माल खजाना, राखो जुगत लगाई।’’
ठीक है?
कैसे उस माल खजाने को बचाकर रखना है? आगे उसकी बातें हैं और किस हद तक बचाकर रखना है? उसके लिए कहा था —
‘‘पाव रती घटने नहिं पावे, दिन दिन होत सवाई।’’
लायक शिष्य बनकर दिखाना है। लायक शिष्य वही नहीं होता जिसको जितना मिला था, वो उतना ही बस उसको बचाये रखे। गुरु के लिए शिष्य पुत्रवत् माना गया है। गुरु को जो धर्म, जो गुरुधर्म, कर्तव्य बताया जाता है, उसमें ये रहता है कि अगर अपना पुत्र हो जो शिष्य न हो। अक्सर तो ये होता है कि जो जो गुरु होता था अगर उसका अपना शारीरिक पुत्र होता था, तो वो अपने पुत्र को अपना शिष्य भी बना लेता था पर हमेशा ऐसा नहीं होता था। नालायक पुत्र भी निकल जाते थे जो शिष्य नहीं बनते थे या कई बार गुरु ही कहता था कि तुम कहीं और चले जाओ, मैं तुम्हें नहीं सम्भाल पाऊँगा।
तो गुरु को धर्म ये बताया जाता था कि अगर तुम्हारे सामने शिष्य हो और तुम्हारे सामने तुम्हारी अपनी औलाद, शरीर का पुत्र हो तो तुम्हें पुत्र मानना है अपने शिष्य को। तुम गुरु हो, तुम्हारा पहला पुत्र तुम्हारा शिष्य है। तुम्हारा अपना पुत्र भी बाद में आता है। जो शिष्य है तुम्हारा, ये तुम्हारी सन्तान है और सन्तान को जब कुछ विरासत में मिलता है तो अगर ज़रा ढंग की सन्तान है, कुछ लायक है तो वो क्या करती है?
आपके पिताजी, आपके नाना जी, दादा जी, कुछ आपके लिए अगर सौ रुपया छोड़कर गये थे तो आप लायक कब कहलाते हो? उन्होंने आपको सौ छोड़ा और आपने भी फिर आगे सौ ही छोड़ दिया? क्या करना होता है? और बढ़ाया, जितना मिला था उसको बढ़ाया। तो वही बात यहाँ है, ‘‘दिन दिन होत सवाई।’’
तो उन्होंने सीधे-सीधे गणित में ये भी बता दिया है कि रेट ऑफ़ इंटरेस्ट क्या होना चाहिए, किस रेट से बढ़ाना है? प्रतिवर्ष वाली दर नहीं बतायी, प्रतिमाह वाली दर भी नहीं बतायी है, प्रतिदिन की दर बतायी है। प्रतिदिन कितने प्रतिशत का इज़ाफा चाहिए भाई? पच्चीस प्रतिशत।
ये रेट कैसा लग रहा है? पच्चीस प्रतिशत प्रतिदिन की वृद्धि होनी चाहिए। गुरु से जो मिला है अगर आपमें योग्यता है, आप अगर इस लायक हो कि आपको मिले सचमुच, गुरु ने गलती नहीं कर दी है अयोग्य को ज्ञान देकर के, तो जो आपको मिला है, वो कह रहे, ‘‘दिन दिन होत सवाई।’’ प्रतिदिन पच्चीस प्रतिशत से बढ़ाकर के दिखाओ। नहीं बढ़ा पा रहे हो तो तुम बेकार ही हो, तुमको यूँही कुछ मिल गया, किसी लायक नहीं हो।
समझ में आ रही है बात?
तो इतनी कड़ी शर्त रखी है। इतनी कड़ी शर्त है कि जो तुमको माल खजाना, ‘‘गुरु दीन्हा माल खजाना’’ गुरु से मिला है, घटने की तो कोई बात ही नहीं। ‘‘पाव रती घटने नहीं पावे’’ ये तो भूल जाओ कि तुम उसे घटा सकते हो, घटा सकते हो तो पता नहीं तुम कितने अधम और नारकीय जन्तु हो। तो उसकी तो चर्चा भी नहीं है कि कितना घट सकता है, नहीं घट सकता है। थोड़ा-बहुत घट गया, ‘नहीं, उन्होंने समझाया तो पूरा था पर पिछले सत्र का था, तो आगे आते-आते भूल गये’, ये सबकुछ नहीं। बोले, ‘घटने की तो कोई बात ही नहीं।’
शिष्य की अर्हता, शिष्य का शिष्यत्व इस बात से तो तय होता ही नहीं कि पीछे जो मिला, वो बचाकर रखा कि नहीं रखा। वो तो एक बहुत छोटी शर्त है, बहुत छोटी शर्त है। जो उस शर्त को भी पूरा न कर पाये तो वो तो ऐसा हो गया कि छठी क्लास में आ गये और नाम लिखना नहीं आता अभी अपना। तो उस शर्त की तो हम बात भी नहीं करेंगे कि तुमने जो गुरु ने दिया था, वो बचाकर के रखा कि नहीं। शर्त बहुत कड़ी है, शर्त क्या कह रही है? ‘‘दिन दिन होत सवाई।’’
तो दिन-दिन सवा गुना कैसे होता है, आगे उसके कुछ सूत्र हैं। आज उसी की बात हो रही है। समझ ही गये होंगे कि आचार्य विनोबा की जो हमने कहानी कही, उसका भी इन सूत्रों से कुछ सम्बन्ध है।
क्षमा शील की माला पहनो, ज्ञान वस्त्र लगाई। दया की टोपी सिर पर दे के और अधिक बन आई।।
‘‘क्षमा शील की माला पहनो और ज्ञान वस्त्र लगाई।’’ क्षमा का अर्थ समझना पड़ेगा, क्षमा की उपयोगिता। शील, दया, ये सब क्षमा से ही सम्बन्धित शब्द हैं, इनको थोड़ा देखना पड़ेगा। क्षमा ज्ञानी के लिए बहुत ज़रूरी है। जिसको माल-खजाना मिल गया है, वो अब उस तल पर उतरकर नहीं उलझ सकता, जिस तल पर ज्ञान के भिखारी बैठे हैं। अब नहीं सम्भव है।
क्षमा का मतलब समझो। उसको कुछ मिला ही नहीं है, तुम उससे छीन क्या लेना चाहते हो? ये है क्षमा। भूलिएगा नहीं, ये सारी बात आज के भजन में किससे करी जा रही है? जिसको कुछ मिला है। उससे पूछा जा रहा है, वो जो बैठा है न नीचे, जैसे आचार्य विनोबा की कहानी में वो द्वैतवादी, बोले, ‘उसको तो कुछ मिला ही नहीं है। तुम एक बात बताओ, तुम कह रहे हो — बदला लेना है या हिंसा करनी है।’ क्षमा का विपरीत यही होता है न, वैमनस्य, प्रतिघात, प्रतिहिंसा ये सब। कटुता, शत्रुता यही सब क्षमा के विरुद्ध आते हैं।
‘तुम उससे क्या छीनोगे? तुम उसका क्या नुकसान करोगे जब उसको कुछ मिला ही नहीं है? उसके पास कुछ वैसे ही नहीं है बेचारे के पास!’ ये क्षमा का अर्थ है। इसका अर्थ जानिएगा, इसका अर्थ है कि ज्ञान के बिना क्षमा नहीं हो सकती। ज्ञान के बिना जो क्षमा करी जाती है, वो बस एक नैतिक ओढ़नी होती है। समाज ने आपके ऊपर एक नैतिक ओढ़नी डाल दी है, क्या? कि दया अच्छी बात है, दया अच्छी बात है, दया करो।
क्षमा बड़ी तार्किक बात है, क्षमा नैतिक बात नहीं है। ज़्यादातर लोगों के लिए होती नैतिक ही है। पर क्षमा के पीछे एक ठोस तर्क है, वो ठोस तर्क कहता है, ‘वो जो सामने बैठा है, बताओ उसके पास है क्या? है क्या कि तुम्हें उससे छीनना है या तोड़ना है? तो मैं क्षमा करता हूँ।’ और इसीलिए क्षमा जैसे मैंने कहा तार्किक बात है तो क्षमा की ही तार्किक परिणति है करुणा। जब उसके पास कुछ नहीं है तो मैं क्या कहूँगा? ‘दे दो न।’ ठीक उसी तर्क से, जिस तर्क से मैं कह रहा हूँ — मुझे इससे न लेना, न तोड़ना, न छीनना, उसी तर्क को आगे बढ़ाकर मैं क्या कहूँगा? इसको कुछ दे ही दो। क्योंकि मेरा ज्ञान मुझे बता रहा है कि इसके पास कुछ नहीं है।
इसीलिए क्षमा और ज्ञान जब भी चलेंगे, साथ-साथ चलेंगे। जिसके पास ज्ञान नहीं है, उसकी क्षमा से बचिएगा। क्षमा से बचिएगा। पता नहीं वो क्षमा के नाम पर क्या कर रहा है, पता नहीं वो एक तरफ़ से क्षमा कर रहा है और दूसरे तरफ़ से छुरी पैनी कर रहा है अपनी, क्योंकि आप क्षमा कर ही नहीं सकते ज्ञान के बिना।
नहीं समझ में आ रहा?
समझते हैं। ज्ञान की हम जब भी बात करें तो ज्ञान को हमें क्या समझना है? आत्मज्ञान। ठीक है? ज्ञानी हों, ऋषि हों, विद्वान हों, सन्त हों, साधु हों, वो ज्ञान जब भी बोलें तो ज्ञान का क्या मतलब है? शेयर मार्केट में अभी क्या चल रहा है, राजनीति के गलियारों में सरकार अभी किसकी, ये सब? ये नहीं न। तो ज्ञान का क्या मतलब होता है? आत्मज्ञान।
वास्तविक क्षमा, आत्मज्ञान से ही उद्भूत हो सकती है, समझो। आत्मज्ञान आपको बताता है कि आपके भीतर जो बैठा है चोट खाने वाला, वो नकली है। आत्मज्ञान आपको किसके बारे में बताता है? आत्मज्ञान माने किसके बारे में जानना? अरे! कुछ माल खजाना मिला है या बस ऐसे ही चल रही है गाड़ी। आत्मज्ञान में किसके बारे में जानते हैं?
श्रोता: अहम्।
आचार्य: अहम् के बारे में जानना ही आत्मज्ञान है, ठीक है। तो आत्मा के बारे में जो ज्ञान होता है, उसको क्या बोलते हैं? जल्दी से बताओ कौन हुनरमन्द है। जो आत्मा का ज्ञान होता है, वो क्या कहलाता है? हाँ, हाँ, बताओ।
आत्मा का ज्ञान घोर अज्ञान कहलाता है। आत्मा का कोई ज्ञान हो नहीं सकता। कोई मिले, कहे, ‘मुझे आत्मा का ज्ञान है’, तो अगर मूड अच्छा हो तो अपने ही पेट में गुदगुदी करके हँस लेना और नहीं तो जान बचाकर के सिर पर पाँव रखकर के वहाँ से भग लेना। ये आदमी खतरनाक है जो कह रहा है, उसे आत्मा का ज्ञान है। आत्मा का कोई ज्ञान नहीं होता। जिसको नहीं जाना जा सके, उसको ही कहते हैं आत्मा।
आत्मज्ञान माने अहंकार का ज्ञान। अहंकार और अहंकार का जो पूरा मोहल्ला है, अहंकार के मोहल्ले को क्या बोलते हैं जहाँ अहंकार रहता है?
श्रोता: मन।
आचार्य: मन, बहुत बढ़िया। उस मोहल्ले में कौन-कौन रहता है अहंकार के मोहल्ले में? केन्द्र में तो अहंकार रहता है। जैसे पुराने आपने राजस्थान वगैरह में दुर्ग देखे होंगे, वहाँ बीचों-बीच कौन रहता था? राजा। और बाहर-बाहर-बाहर-बाहर दुर्ग के अन्दर कौन रहता था? सब नागरिक लोग और जितने राजा के सेवक, सिपाही, अन्य लोग जिनसे राजा का कुछ सम्बन्ध हो, वो सब।
तो आत्मज्ञान माने अहंकार का ज्ञान और अहंकार का ज्ञान करोगे तो पता क्या चलेगा? अहंकार का ज्ञान करोगे तो क्या पता चलेगा?
श्रोता: अहंकार किस-किससे जुड़ा हुआ है।
आचार्य: हाँ, अहंकार किस-किससे जुड़ा हुआ है, ये पता चलेगा और क्या पता चलेगा? कि जिससे जुड़ा हुआ है, उसके अलावा अहंकार की कोई अपनी सत्ता है ही नहीं, है ही नहीं, वो कुछ नहीं है। शरीर हार्डवेयर देता है और अनुभव सॉफ़्टवेयर देता है, बस खत्म। इसके अलावा अहंकार कुछ नहीं है। अपना क्या है उसके पास? उसके पास अपना कुछ भी नहीं है।
अच्छा, शरीर से जो अहंकार को हार्डवेयर मिलता है अभी हमने कहा, पहले एक ‘टेबुला रासा’ का सिद्धान्त चलता था। वो कहता था कि भीतर कुछ नहीं होता है, जब गर्भ से शिशु पैदा होता है तो पूरा खाली होता है। फिर हमने अतीत में किसी पाश्चात्य दार्शनिक की अभी बात करी है गये दिनों। जिन्होंने पश्चिम में पहली बार ये बात सामने रखी कि खाली-वाली कुछ नहीं, आप जो पूरा जगत देख रहे हो, उसके कारण में आपकी फ़िज़िकल कंडीशनिंग (शारीरिक संस्कार) बैठी हुई है, वो हमने किसकी बात करी है?
श्रोता: इमैनुअल कान्ट।
आचार्य: तो उस बात को आप लोग आज फिर से दोहराकर लिखेंगे नहीं तो सब भूल-भाल जाएँगे, ठीक है। अहंकार को देखो तो पता चलेगा कि वो है नहीं, वो स्वयं ही बोलता है कि मैं हूँ। पर वो कभी नहीं बोल पाता कि मात्र मैं हूँ। वो कभी नहीं बोल पाता कि मैं ‘मैं’ हूँ। वो हमेशा क्या बोलता है? मैं गोरा हूँ, मैं काला हूँ, मैं होश में हूँ, मैं बेहोश हूँ। कभी अहंकार को बोलते सुना है मैं ‘मैं’ हूँ? आपने कभी बोला मैं ‘मैं’ हूँ? बड़ा अजीब सा लगेगा।
छोटी-मोटी चीज़ के लिए नहीं कि खाने-पीने के लिए, पैसे के लिए, साँस के लिए ही आप दूसरों पर आश्रित हों, हम अपनी हस्ती के लिए ही किसी पर आश्रित हैं। हम बोल ही नहीं सकते मैं ‘मैं’ हूँ। जब तक किसी और का नाम लेकर के न आयें, हमारी पहचान का वक्तव्य पूरा क्या शुरू भी नहीं होता, बस वो ‘मैं’ पर अटक जाएगा। ‘मैं’ के आगे कुछ रखना पड़ेगा न और जो कुछ भी आप रखोगे वो आप नहीं हो। तो फिर ‘मैं’ है ही क्या, ‘मैं’ कुछ नहीं है।
अहंकार जिसको बोलते हैं, वो ऐसा ही है जैसे कोहरे में पेड़ को देखकर के सोचो भूत है, प्रतीत होता है, है नहीं। प्रतीत होता है, है नहीं। तो आत्मज्ञान का मतलब होता है, उसको जान लेना जिसको दुनिया से सब अनुभव होते हैं, वही है न अहंकार, वही सारे अनुभव लेता है।
क्षमा किसी को करो इसके लिए पहले चोट लगनी चाहिए। ये जो चोट नाम की चीज़ है, इसका अनुभव भी किसको होता है? अहंकार को होता है। तो चोट तभी है जब अहंकार?
श्रोता: है।
आचार्य: क्योंकि चोट का अनुभव भी किसको होना है?
श्रोता: अहंकार को।
आचार्य: अहंकार नहीं है तो चोट लग सकती है? अहम् नहीं था तो चोट लग सकती है क्या? यही तो बोलते हो, ‘मैं चोटिल हूँ, मुझे फ़लानी बात बुरी लग गयी, मैं आहत हूँ, ऐसा हो गया।’ ‘मैं’ नहीं तो चोट नहीं। सारी जो चोट है, वो किसको लगती है? अहम् को ही लगती है। और आत्मज्ञान में क्या जान लेते हो? कि अहम् ऐसा ही है, ऐसा ही है बस।
व्यावहारिक तौर पर ‘मैं’ कहा जा सकता है, पारमार्थिक तौर पर ‘मैं’ बिलकुल महत्वहीन, मूल्यहीन बल्कि अस्तित्वहीन बात है। व्यवहार में ठीक है, व्यवहार में तो बोलोगे ही, ‘हाँ, मैं आ रहा हूँ’, ‘मैं जा रहा हूँ’, ‘मैंने खाना खा लिया’, ‘मेरा नाम अरुण मुखर्जी है।’ ये सब व्यवहार में हम बोलते रहते हैं। चलो व्यवहार में चल जाता है। पर अस्तित्वगत रूप से ‘मैं’ कुछ नहीं है, जब ‘मैं’ नहीं तो फिर चोट भी किसी को नहीं, जब चोट नहीं तो क्षमा का क्या सवाल है। चोट नहीं तो क्षमा का कोई सवाल ?
श्रोता: नहीं है।
आचार्य: तो चोट और क्षमा में जो हम बड़ा मुश्किल रिश्ता पाते हैं, उस मुश्किल का कारण अहंकार है और चोट लगी है तो बदला लेना है, इसमें जो हमको बड़ा अनिवार्य रिश्ता दिखता है, वो रिश्ता भी अहंकार का है। चोट किसको लगी? अहंकार को, बदला कौन लेगा?
श्रोता: अहंकार।
आचार्य: तो चोट और बदले के बीच में कौन बैठा है?
श्रोता: अहंकार।
आचार्य: चोट किसको लगी?
श्रोता: अहंकार को।
आचार्य: बदला कौन लेगा?
श्रोता: अहंकार।
आचार्य: चोट और बदले के बीच में कौन बैठा है?
श्रोता: अहंकार।
आचार्य: आत्मज्ञान का तीर आया गोली बुलेट पटाक्, उसने अहंकार को साफ़ कर दिया। ‘तूने मेरा पानी गिरा दिया’, ‘तूने मेरा’?
श्रोता: ‘पानी गिरा दिया।’
आचार्य: ‘मैं तेरी चाय गिरा दूँगा।’ ‘तूने मेरा पानी गिरा दिया, मैं तेरी चाय गिरा दूँगा। इन दोनों के बीच में रिश्ता किसका है? रिश्ता किसका है? ये क्या है जो बीच में बैठा है? अहंकार। अब आत्मज्ञान क्या करेगा? आओ बेटा, बेटा आप आइए, बेटा आप यहाँ बैठिए, बेटा आप चलिए, डैडी की गोद में चलिए, डैडी माने आत्मा आपको वहाँ विश्राम मिलेगा। आप छोडिए न, आप यहाँ कहाँ उलझे हुए हैं, आइए सो जाइए।
तो अहंकार कहा गया अब? सोने। अब इन दोनों का रिश्ता क्या हुआ? अब ये गिर भी जाए तो ये गिरेगा?
श्रोता: नहीं।
आचार्य: तो ज्ञान के बिना क्षमा सम्भव नहीं है और इसीलिए हम लोगों को क्षमा करना इतना मुश्किल पड़ता है, क्योंकि क्या नहीं है? ज्ञान नहीं है। ज्ञान के बिना क्षमा करने की कोशिश करोगे तो उसको क्षमा नहीं, दमन बोलते हैं, लिखो। जब ज्ञान के बिना क्षमा करने की कोशिश करी जाती है तो उसमें दमन होता है। दमन की दो निशानियाँ लिख लो अच्छे से — कोशिश, कोफ़्त और करारी हार। तीन बता दीं, बोनस है एक।
दमन से जब क्षमा करी जाती है, जब अपनेआप को बोलते हो, ‘नहीं, हाऊ कैन आइ बी रेवेंजफुल, मैं तो अच्छा बच्चा हूँ, मैं बदला कैसे ले सकता हूँ।’ तो उसमें सबसे पहले आपको क्या करनी पड़ती है? कोशिश, अपनेआप नहीं होती वो क्षमा, उसमें प्रयास करना पड़ता है, एफ़र्टफुल है वो। और जब आप प्रयास करते हो तो ये (अहम्) क्या करता है? ये कुलबुलाता है, कोफ़्त होती है, कूढ़ता है ये। और कितनी भी आप कोशिश कर लो, ये मानेगा नहीं क्योंकि ये जो दोनों के बीच में पुल है, ये तो अभी साबुत है।
आप कितनी भी कोशिश कर लो जो यहाँ हुआ है, वो इस पुल के माध्यम से यहाँ पहुँचेगा ही। ‘तूने मेरा पानी गिराया, मैं तेरी चाय गिराऊँगा’ क्योंकि दोनों के बीच में पुल है, ये पुल। पुल क्या है? चोट भी लगती है अहंकार को और बदला भी लेता है। और दोनों ही काम बेहोशी में होते हैं, दोनों ही काम स्वचालित हैं, यन्त्रवत हैं।
आपने कभी फ़ैसला किया है आपको चोट लगे? बताओ, आप फ़ैसला करते हो मुझे चोट लगे? ऐसा होता है कि आप ऐसे-ऐसे अपना ठुमकते हुए जाते हो, हिलते-डुलते और कहते हो, ‘हे बडी! आज चोट खाने का मूड है, कुछ बहुत गन्दा बोलना प्लीज़? अच्छा एक मिनट रुक जाओ, मैं ज़रा चोट खाने के लिए तैयार हो जाऊँ।’ और यहाँ पर अपना बटन-वटन खोल लिये, हाँ ताकि अच्छे से, ‘हाँ, अब मैंने अपना सारा लाव-लश्कर कवच उतार दिया है। बडी, बहुत एकदम सड़ा हुआ न एकदम गन्दा बोल, एकदम चुभता हुआ बोल, मुझे चोट खानी है।’ और उसने बोला तब तक आपने ठीक से बटन खोले नहीं थे तो चोट लगी नहीं।
बोले, ‘ओ बडी! अभी लगी नहीं, मैं तैयार नहीं था तो चोट नहीं लगी।’
ऐसे-ऐसे लगती है चोट आपकी सहमति से? आपकी रज़ा से लगती है या ऐसा होता है कि उसने बोला और लग गयी? ‘लग गो।’ और कई बार तो जिसने बोला उसको भी पता नहीं था कि आपको लग गयी। सौ में से पचानवे बार जिसकी बात आपको लग गयी, उसको भी पता नहीं है कि उसकी बात आपको लग गयी। आप सड़े बैठे हैं, वो मौज मार रहा है और किस्मत अगर उसकी अच्छी हो तो वो जब तक आप सड़े हों तब तक आपसे सम्पर्क में ही न आये। आप सड़ भी लोगे, फिर सड़कर के थोड़ा ठीक हो जाओगे, उसको पता भी नहीं लगेगा, वो अपनी मौज में है। ये होता है न। हुआ है कि नहीं हुआ है?
तो चोट खाना एक स्वचालित रासायनिक प्रक्रिया होती है। आप चोट खाने का निर्णय नहीं करते और ये कितनी बेबसी की बात है। एक आदमी दिखा दो जो कहता हो, ‘मैंने आज जान-बूझकर चोट खायी।’ जान-बूझकर खायी थी तो चोट न भी खाकर दिखा। यहाँ तो पक्का है कि तुझसे ऐसी दो-चार चुभती हुई गरमा-गर्म बातें बोली जाएँगी तो खट् से चोट लग ही जानी है। है कि नहीं है?
आप पहले से ही जानते हो, अग्रिम आपको सूचना होती है कि अगर मैंने फ़लाना शब्द बोल दिया तो ये जो सामने वाला है ये बिदकेगा-ही-बिदकेगा, जानते हो कि नहीं। कितनों के साथ हुआ है कि वो शब्द आया है ज़बान पर आया है, आया है और उतनी; कभी देखा है गाड़ी में ज़ोर से ब्रेक मारते हो तो कैसी आवाज़ आती है? कैसी आवाज़ आती है? केंएएएए…(गाड़ी रुकने की आवाज़ निकालते हुए)।
कई लोग ऐसे होते हैं जिनके साथ जब बात करो तो आपको बार-बार ऐसे ही ब्रेक मारना पड़ता है। बस वो शब्द ज़बान से निकलने ही वाला होता है और आप जान जाते हो कि ये बोला नहीं कि उधर चोट लगेगी-ही-लगेगी। जबकि वो शब्द है, वो बहुत साधारण हो सकता है। बहुत सीधी-सहज सी बात जो आप बोलने वाले थे पर अनुभव आपको बता चुका है कि ये बोला नहीं कि इसको लगेगी। कैसे पता आपको? क्योंकि पिछली बार वही शब्द बोला था और लगा था और चूँकि ये काम पूरा यन्त्रवत है इसीलिए अपनेआप को दोहराता है।
होश की चीज़ में दोहराव नहीं होता। जो कुछ यन्त्रवत् होता है, उसमें आपको पता होता है, यही पहले हुआ था, यही आज भी होगा। ये शब्द मैंने पहले बोल दिया था, ये उछल गया था। यही शब्द आज बोलूँगा, ये फिर बिलकुल उसी तरह से उछलेगा जैसे कोई खिलौना हो स्प्रिंग वाला।
मजबूरी की बात है न कितनी? और जो आपके आसपास हों, उनके लिए कितने सिरदर्द की बात है, कितने सिरदर्द की बात है? आपको लेना एक न देना दो, आप यूँही साधारण रूप से कुछ कह रहे हो या कुछ कर रहे हो और आपको पता भी नहीं है कि बगल वाला आहत हुआ जा रहा है, आग बबूला हुआ जा रहा है। और अगर वो बस खुद ही आहत हो रहा होता तो कोई दिक्कत भी नहीं थी। अब वो आहत हुआ है तो बदला लेगा। और जब आप से बदला लिया जाएगा तो आपको पता भी नहीं लगेगा कि किस बात का लिया और तब आपसे कहा जाएगा, क्या?
‘ठीक है, याद करो। अगर नहीं पता लग रहा कि किस बात का बदला लिया जा रहा है तो याद करो और इसी बात का बदला लिया जा रहा है कि तुम्हें याद भी नहीं है कि तुमने हमें चोट पहुँचायी थी।’
किस-किसके साथ हुआ है? किस-किसके साथ लगभग हर हफ़्ते होता है?
चोट बड़ी बेबसी की बात है, कितनी बेबसी की बात है। नहीं खानी है चोट। सबसे बड़ी गुलामी है न? ज़माना जब देखो तब आकर के चोटिल कर जाता है। हम नहीं खाएँगे चोट, कुछ हो जाए हमें बुरा नहीं लगेगा, हम बुरा लगने वाले को पहचान गये हैं, यही आत्मज्ञान है। हमें बुरा क्या लगेगा, बुरा लगेगा हम पूरी प्रक्रिया को देख लेंगे।
आचार्य नागार्जुन यही बोलते हैं न बार-बार। क्या देखना है? प्रक्रिया, क्योंकि तुम क्या हो? प्रक्रिया मात्र हो। तो जब चोट लगे न तो पूरी प्रक्रिया को देख लेना, इसको एक युक्ति की तरह ले लो क्योंकि यहाँ पर कबीर साहब भी यही बोल रहे हैं न, ‘‘राखो जुगत लगाई।’’ जुगत माने युक्ति। तो ये युक्ति की तरह है। जो लोग चोट खाने से बचना चाहते हों, उनके लिए यही एक तरीका है, पूरी प्रक्रिया को दोबारा देख लो जैसे रिवाइंड किया जाता है। ‘क्या हुआ था, अच्छा उसने ये करा या उसने ये कहा और फिर बात आकर के मुझे लगी और जब लगी तो मेरे भीतर से इस-इस तरीके की प्रतिक्रिया उठी।’
जितना ज़्यादा देखोगे कि ये पूरी चीज़ एक तयशुदा प्रक्रिया मात्र है, उतना ज़्यादा चोट आपको बेगानी बात लगेगी। आपको लगेगा ये सब कुछ किसी और के साथ हुआ है, मेरे साथ नहीं हुआ है और जितना वो चीज़ आपसे बेगानी, परायी होती जाएगी, उतना आप चोट से आज़ाद होते जाओगे। आप लोग चोट से आज़ाद होना चाहते हो या नहीं? चोटिल रहना कैसा लगता है?
सोचो, आप अभी बैठे हुए हो और यहाँ पीठ में खूब दर्द हो रहा है जैसे किसी ने पाँच-सात मुक्के मार दिये हों, कैसा लगेगा? अच्छा लगता है क्या? नाक पर किसी ने घूँसा जड़ दिया हो, अच्छा लगता है क्या? आप यहाँ बैठकर सुनना चाह रहे हो और नाक क्या कर रही है? दर्द कर रही है बेकार में। आप बैठे हुए हो सुनने के लिए, आप कुछ लिखना चाहते हो सिर्फ़ लिखने के लिए भी आपने थोड़ा सा ऐसे अपनेआप को हिलाया और कमर क्या बोली? आह! चोट ऐसी चीज़ होती है। चोट आपको सहज जीवन नहीं जीने देती। चोट आपका ध्यान खींच लेती है। ध्यान किस पर जाना चाहिए? सत्य पर, आत्मा पर। जो कुछ भी महत्वपूर्ण है, उस पर और चोट आपका ध्यान किधर को खींच लेती है?
श्रोता: दर्द पर।
आचार्य: मोज़ा फटा हो अभी ठंड लगने लग जाए। अँगूठे में मोज़ा फटा हुआ है तो अँगूठा बाहर निकला हुआ है। अँगूठा, दो कौड़ी का अँगूठा, वही अँगूठा जिस पर जब देखो तब नाखून निकल आता है और उसको फिर काटना पड़ता है। आपसे पूछकर के बढ़ता है नाखून? वैसे ही अँगूठा लेकिन अब फटे मोज़े में से वो अँगूठा बाहर निकला हुआ और लग रही है ठंड और आप ध्यान देना चाहते हो सन्त वाणी पर और ध्यान जा किस पर रहा है? उस अँगूठे पर। चोट ऐसी चीज़ है। सोचो। अमृत वचन एक तरफ़, वो टेढ़ा अँगूठा एक तरफ़, ये चोट है।
चोट आप पर राज़ करने लगती है। चोट आपकी मालकिन बन जाती है। जो भी करना है, चोट नहीं खानी है।
जैसे अभी आचार्य विनोबा की युवावस्था का हमने एक अभी उल्लेख कहा, वैसे ही मैं जब कॉलेज के दिनों में था और ’फाउंटेनहेड’ पढ़ी थी मैंने तो उसमें डोमिनिक का जो चरित्र है, वो वो रोर्क से पूछती है एक जगह पर कि अब इतने बरस हो गये और जो कठिन-से-कठिन परीक्षाएँ थीं, इम्तिहान थे हमने झेल लिये। यहाँ तक कि मैंने किसी और से विवाह भी कर लिया और विवाह करके फिर उसको छोड़ भी दिया और तुमने भी ज़िन्दगी के न जाने कितने बरस किस-किस तरह के संघर्षों में बिता दिये। क्या अब हम एक साथ रह सकते हैं?’
रोर्क जवाब देता है, ‘नहीं, नहीं।’
क्यों? क्योंकि उस प्रश्न से कुछ दिन पहले रोर्क को अदालत घसीटकर के कटघरे में खड़ा कर दिया गया होता है। वो रोर्क पर इल्ज़ाम लगाते हैं कि ये एक अराज़क तत्व है क्योंकि उसने एक इमारत ढहा दी होती है, उसकी कहानी है पूरी एक। तो उसको ले जाते हैं और कोर्ट में खड़ा कर देते हैं और उससे तमाम तरीके के स्तरहीन और बदतमीज़ी के सवाल पूछे जाते हैं। और उस वक्त रोर्क ने देखा होता है तो डोमिनिक की आँखों में उसे हर्ट दिखायी दी होती है, हर्ट माने चोट।
तो डोमिनिक फिर पूछती है कि हम साथ रह सकते हैं।
रोर्क बोलता है, ‘नो, नॉट टिल यू कंटिन्यू टू बी हर्ट लाइक यू वर हर्ट इन दैट कोर्ट रूम (नहीं, जब तक तुम चोटिल होती रहोगी जैसे कि उस समय कोर्ट रूम में हुईं थी, तब तक नहीं)।’
जिसको अभी चोट लग सकती है, वो अभी ऊँचाई का अधिकारी नहीं हुआ। जिसको अभी चोट लग सकती है, वो अभी समाज का ही गुलाम है। जो अभी दुनिया की कही बात से प्रभावित हो जाता है या बुरा मान लेता है, किसी ऊँचे काम में उसको साथ लेना खतरा हो जाएगा। क्योंकि ऊँचा काम हमेशा एक एकान्त माँगता है, निरपेक्षता माँगता है और जिसको चोट लग सकती है, वो तो जल्दी-जल्दी सम्बन्ध बनाता है न। चोट क्या है? एक रिश्ता है, तुम्हारा मुझसे कुछ रिश्ता हो गया। और ऊँचा काम माँगता है कि निचाइयों से रिश्ता तोड़ दो। चोट खाने का भी मतलब यही है कि निचाइयों से अभी रिश्ता खाने की वृत्ति आपकी गयी नहीं है, आप बहुत जल्दी नीचे वालों से रिश्ता बना लेते हो चोट खा-खाकर के।
तो रोर्क ने कहा, ‘नहीं, नॉट टिल यू रीमेन हर्ट एज़ यू वर इन दैट कोर्ट रूम (नहीं, जब तक तुम चोटिल होती रहोगी जैसे कि उस समय कोर्ट रूम में हुईं थी, तब तक नहीं)।’
डोमिनिक के चेहरे पर दर्द देखा था रोर्क ने क्योंकि वो जानती थी रोर्क का स्तर, रॉर्क का वजूद, रोर्क की हैसियत और वो ये भी जानती थी कि समाज रोर्क के साथ बड़ा अन्याय कर रहा है। वो जिस स्तर का अधिकारी है और जिस सम्मान का अधिकारी है, वो उसको समाज से नहीं मिल रहा है और सम्मान तो छोड़ दो, अब इन लोगों ने ले जाकर के उसको जेल में डाल दिया है और आज यहाँ कटघरे में खड़ा कर रखा है। तो उसके चेहरे पर विषाद था, चोट थी कि ये इसके साथ क्यों किया जा रहा है, गलत है और रोर्क का चेहरा कैसा था? शान्त, अस्पर्शित।
रोर्क ने देख लिया इसको चोट लगती है। नहीं, जिसको चोट लगती है वो फँसेगा, जिसको चोट लगती है वो फँसेगा। जिसको चोट लगती है वो प्रतिक्रिया करेगा और चोट ही एक अन्धी प्रतिक्रिया होती है और बदला भी बराबर की अन्धी प्रतिक्रिया होता है। ठीक वैसे जैसे चोट आपको आपसे पूछकर नहीं लगती, वैसे ही चोट के उपरान्त जो आपकी प्रतिक्रिया होती है, वो भी आप कहाँ होश में करते हो।
आचार्य प्रशांत: कभी देखा क्रोध में क्या-क्या नहीं कर देते हम? आपको ही उसकी रिकॉर्डिंग दिखाई जाए तो आप कहोगे, ‘ये मैंने करा है क्या?’ ईमानदारी की बात ये है कि आपने नहीं करा है, वो आपसे हो गया है। जिसने करा है, आपको उसका ज्ञान ही नहीं। उसी को तो अहम् बोलते हैं। वो छुपा हुआ है। जिन प्रक्रियाओं ने करा है, उन प्रक्रियाओं का आपने कभी अवलोकन करा ही नहीं। तो इसीलिए वो प्रक्रियाएँ आपसे बिलकुल; और फिर जब वो सब आपके सामने आए रिकॉर्डिंग की तरह, तो आपको बड़ा अजीब लगेगा, ये इंसान मैं ही हूँ परदे पर? वो आप ही हो। आप ही हो और आप नहीं भी हो। क्योंकि हम कितने होते हैं? दो होते हैं। हम दो होते हैं।
बात समझ में आ रही है बात?
अब समझ में आ रहा है कि आचार्य विनोबा क्यों बोले कि अद्वैतवादी अगर उलझना स्वीकार कर ले द्वैतवादी से, तो उसी क्षण वो हार गया। शास्त्रार्थ की ज़रूरत भी नहीं है। समझ में आयी बात? सम्बन्ध सिर्फ़ अपने ही तल पर बनाया जा सकता है। एक गिरे हुए व्यक्ति से अगर आपने चोट और बदले का भी, और हार और जीत का भी सम्बन्ध बना लिया, तो आप उसके तल पर गिर गये भले ही आप उसके तल पर गिरे हो उसको पददलित करने के लिए। कह रहे हो, ‘मैं इसको कुचलने के लिए आया हूँ इसके तल पर।‘ पर आये तो उसके तल पर न।
अब ये कहने से नहीं होगा कि मैं इसके तल पर आया और मैंने उसको हरा दिया। आप उसके तल पर आये, आपने उसको कुचल दिया। ठीक बात। लेकिन उससे ज़्यादा बड़ी बात ये है कि आपको उसके तल पर गिरना पड़ा, आप हार गये। जब आप पर आक्रमण करा जा रहा हो, तो आपकी सबसे बड़ी जीत ये है; मैं उनकी बात कर रहा हूँ जिन्हें माल, खजाना मिल चुका है। जिनको नहीं मिला, उनके लिए आज की कोई बात नहीं है।
जिनको माल, खजाना मिल चुका है, जो ऊपर के तल पर हैं, उनकी सबसे बड़ी जीत इसमें है, उनके ऊपर सबसे बड़ा कर्त्तव्य ये है कि “पाव रती घटने नहीं पावे।“ जो मिला है, उसको पकड़कर के रखना। अपना तल छोड़ना नहीं। क्योंकि गुरु से मिला ही क्या है? वो तल चेतना का। गुरु और कौनसा माल खजाना देगा आपको? “गुरु दीन्हा माल, खजाना।“ गुरु ने क्या दिया है आपको सोना दिया है? प्लैटिनम दिया है? और क्या दे देगा गुरु? गुरु आपको चेतना का ऊँचा तल ही तो देता है और बदला लेने के लिए या चोट खाकर के या कुछ और करके किसी भी कारण से मजबूर होकर आपने वो चेतना का तल ही छोड़ दिया, आप नीचे गिर आये, तो गुरु ने आपको जो कुछ भी दिया था, आप उससे हाथ धो बैठे न? बात समझ में आ रही है ये? क्षमा क्या है, समझे? क्षमा क्या है? जब चोट ही न लगे तो उसको क्षमा बोलते हैं। क्षमा इसमें नहीं है कि चोट लगी थी, माफ़ कर दिया। आपको अगर चोट लग गयी है, तो आगे अब जो होगा, वो होगा। क्यों? क्योंकि एक अन्धापन है जिसमें आपको चोट लगी और आगे का काम भी वही अन्धापन करेगा। एक बेहोशी है जिसमें आपने चोट खायी है। क्योंकि चोट सिर्फ़ बेहोशी ही खाती है और जो बेहोशी चोट खाएगी, वो बेहोशी फिर चोट खाने के बाद बदला भी लेगी। तो आप ये नहीं कह सकते कि चोट तो लगी है, पर बदला नहीं लूँगा। भाई, जिस प्रक्रिया से चोट लगी है, ठीक उसी प्रक्रिया से अब बदला भी स्वमेव घटित होगा, तुम बदला लोगे नहीं। जैसे तुमने चोट खायी नहीं, जैसे तुमने चोट अनजाने में खायी वैसे ही बदला भी तुम अनजाने में ले लोगे। ये नहीं सम्भव है कि चोट खायी पर बदला नहीं लिया। ये एक अस्तित्वगत विषमता है, ये बेमेल है, ये असम्भव है, ये नहीं हो सकता। “हर्ट बट नॉट रिवेंजफुल।“ (चोटिल हैं, पर बदला नहीं लेना है।) इम्पॉसिबल। इम्पॉसिबल (असम्भव) है। हाँ, ये होगा कि आपका जो रिवेंज है, जो आपका बदला है, वो कॉन्शियस नहीं होगा ठीक वैसे जैसे आपकी हर्ट कॉन्शियस नहीं थी। तो आप रिवेंज तो लोगे, पर कैसे लोगे? अनकॉन्शियसली लोगे। और ये काम करते हैं सारे नैतिक लोग, मोरल लोग। वो बदला भी लेते हैं, तो बेहोशी में लेते हैं। और जब बदला बेहोशी में होता है, तो उनके पास स्वयं को ये कहने का अवसर आ जाता है कि मैंने तो बदला लिया ही नहीं। मैं तो अच्छा आदमी हूँ। मैं बदला-वदला थोड़े ही लेता हूँ! तुमने बदला लिया है। और तुम्हारा बदला ज़्यादा घातक है। क्योंकि तुम्हारा बदला बिलकुल बेहोशी में लिया गया है। अनकॉन्शियस बदला है, अचेतन बदला है तुम्हारा। अचेतन बदला है। ये वो बदला है जो नैतिक सम्बन्धों में लिया जाता है। चाहे वो माँ-बाप और सन्तान का सम्बन्ध हो, चाहे वो पति-पत्नी का सम्बन्ध हो। विशेषकर पति-पत्नी और प्रेमी-प्रेमिका आदि के सम्बन्ध में ये बदला खूब रहता है। क्योंकि वहाँ आप खुलेआम तो बदला ले नहीं सकते। आप अपनी पत्नी को डंडा लेकर मारने जाओ, ये बात आपकी नैतिकता ही गवारा न करे। बड़ा अजीब लगेगा कि डंडा लेकर थूर रहे हैं, किसको? अपनी पत्नी को। तो आम आदमी ऐसा करेगा नहीं। कुछ विरले ऐसा भी कर जाते हैं! सब तरह के जीव-जन्तु होते हैं दुनिया में। पर आम आदमी कम-से-कम डंडा नहीं चलाएगा अपने पति या पत्नी पर। न माँ-बाप ये करेंगे कि गोली मार दें सन्तान को, न सन्तान ये करेगी कि मूसल लेकर के माँ-बाप को धुन रही है। लेकिन चोट तो हम खाते हैं न? ईमानदारी से बताइएगा सबसे ज़्यादा चोट आपको कौन देता है? दूर वाले लोग या अपने लोग? आप शायद समझ नहीं रहे हैं कि आपने अभी जो वक्तव्य दिया जब आपने जो सूत्र लिखा है, उसके साथ उसको जोड़ दें, तो क्या मिलेगा? आपने समझा — ‘चोट खायी पर बदला नहीं लूँगा, ये असम्भव है।’ और आपने अभी-अभी कहते हो कि सबसे ज़्यादा चोट आपको अपने देते हैं। तो इसका मतलब क्या है? आप लगातार अपनों से बदला लेते रहते हैं? लगातार। बस वो बदला कभी भी प्रत्यक्ष, प्रकट नहीं होता। वो एक छुपा बदला होता है। वो एक अचेतन बदला होता है। पर बदला तो हम लेंगे। क्योंकि चोट तो हमने खायी है, चोट तो हमने खायी है। उधर चौराहे पर वो नत्थू पनवाड़ी है, उससे कितनी चोट खायी है तुमने? कुछ नहीं। और जिन-जिन से चोट खायी एक बार उनका नाम स्मरण करो। वो कौन हैं? सब, जिनसे कोई रिश्ता होगा आपका। ठीक? रिश्ता न हो, तो चोट देकर कैसे जाए? बड़ा मुश्किल है। और चोट खाओ, बदला न लो, ये हो नहीं सकता। तो पूरा जीवन हमारा एक तरह से कह सकते हैं कि बदले की अनवरत प्रक्रिया होता है। चोट खाओ, बदला लो। चोट खाओ, बदला लो। चोट खाओ, बदला लो। ‘डूड, क्या किया आज दिनभर?’ ‘चोट खायी, बदला लिया। चोट खायी, बदला लिया।’ चोट खायी, बदला लिया। अच्छी डांस स्टेप है न। एक कन्धे से दिखाओ, क्या खायी? चोट। और दूसरे कन्धे से क्या दिखाना है? बदला। सब लोग खड़े हो और कन्धे हिलाओ ऐसे-ऐसे। पूरा जन्म काहे में गँवाया? चोट खायी, बदला लिया। चोट खायी, बदला लिया। और दोनों ही काम बिना हमसे पूछे हुए। चोट भी हमसे पूछकर हमको नहीं लगी और बदला भी हमने कोई सोच-समझकर बहुत होश में, बहुत बोध में नहीं लिया। बदला तो आग की तरह होता है। आग कहाँ देखती है कि किसको जला रही है। भभककर आती है जो मिला, उसको लील जाती है। समझ में आ रही है बात? और बदला ऐसे ही नहीं लिया जाता कि थप्पड़ मार दिया। चार साल से नौकरी की तैयारी कर रहा है झुन्नू। क्यों कर रहा है? क्योंकि ताऊ ने एक बार झुन्नू के बाप को गँवार बोल दिया था। ताऊ उधर ही कहीं जिले में लग गया है क्लर्क और झुन्नू के पिता जी ऐसे ही किसान, बहुत पढ़े-लिखे नहीं। और ताऊ क्या है? क्लर्क। तो ताऊ ने एक बार क्या बोला झुन्नू के बाप को? गँवार। वो दिन है और आज का दिन है। झुन्नू कह रहा है,’मैं कलेक्टर बनकर दिखाऊँगा।‘
ये क्या चल रहा है? झुन्नू को ये बात याद भी नहीं है। आप झुन्नू से पूछो, ‘तुझे कलेक्टर क्यों बनना है?’ बोलेगा, ‘राष्ट्र निर्माण के लिए।‘ झुन्नू से पूछो, ‘कलेक्टर क्यों बनना है?’ बोलेगा, ‘राष्ट्र निर्माण करना है।‘ (श्रोतागण हँसते हैं) और बहुत बड़ी-बड़ी बातें करेगा। बोलेगा, ‘महाराणा प्रताप से जो प्रक्रिया शुरू हुई थी और रानी लक्ष्मीबाई से होते हुए भगत सिंह तक पहुँची, उसका कर्णधार मैं हूँ।‘ बात कुल इतनी सी है कि झुन्नू जब छोटा था, तो उसने देखा था ताऊ को अपने बाप को ज़लील करते हुए। क्या बोला था? गँवार। और उस दिन से झुन्नू के मन में बैठ गया था। किसी ने बोल भी दिया होगा। अचेत लड़का है। ये सारी इनकी अकड़ बस इस बात कि है कि इनके पास क्लर्की है। झुन्नू ने कहा, ‘तुम्हारे पास क्लर्की है, मैं कलेक्टरी लाकर दिखाऊँगा’, ये बदला है। और झुन्नू को अगर कलेक्टरी मिल गयी, तो अगला काम क्या करेगा झुन्नू? हो ही नहीं सकता कि वो ताऊ को कभी-न-कभी जता न दे। क्योंकि सारा काम ही किसलिए किया गया था? बदले के लिए।
हमारा पूरा जीवन प्रतिक्रिया मात्र है। हम कुछ नहीं कर रहे होते, हम बस विगत घटनाओं को प्रतिक्रिया दे रहे होते हैं। जो बीत गया, उसको अतीत बोलते हैं। और जो प्रतिक्रिया है, उसको हम भविष्य बोलते हैं। ये कितनी मनहूस बात है। हम भविष्य में कुछ नहीं कर रहे होते बस अतीत को एक प्रतिक्रिया दे रहे होते हैं। आपका कोई ख़्वाब, आपकी कोई कामना, कल्पना ऐसी है जिसमें अतीत की चोट न शामिल हो? चुनौती है। अपनी एक कामना बता दीजिए जिसमें अतीत के ज़ख्म न बिलबिला रहे हों। जिसके पास ज़ख्म नहीं है, उसके पास कामना क्या करेगी? कामना किससे पैदा होती है हमेशा? अहम् की अपूर्णता से। उस अपूर्णता को तो ज़ख्म बोलते हैं। जिसके पास जख्मों का अनुभव नहीं है, वो आगे के सपने संजोएगा क्यों? तो गड़बड़ हो गयी न। हमारे सपन सलोने। वो सलोने हैं सपने या फफोले हैं? तवे पर बैठ गये थे, गरम था, उसमें से निकले फफोले। और फफोले किसी को दिखाई नहीं देते क्योंकि ऐसी जगह हैं जो आमतौर पर सार्वजनिक नहीं होती। अरे! मैं दिल की बात कर रहा हूँ, आपने क्या समझा? तो वहाँ के फफोले बने सपन-सलोने। कितनी अजीब बात है! किश्तों पर गाड़ी आयी और ऐसी किश्तों पर आयी कि झुन्नूलाल की समायित न हो! झुन्नूलाल की बर्दाश्त से, सामर्थ्य से बाहर की चीज़, अनअफोर्डेबल। क्यों आयी? बड़ा बुरा लगता था, पड़ोस में गाड़ी थी, किसी मेक की गाड़ी मान लो और उसका एक्स ई मॉडल। झुन्नूलाल को उतनी तो बड़ी गाड़ी की ज़रूरत भी नहीं। झुन्नूलाल का छोटा सा परिवार। झुन्नू, धनिया और लिटिल झुन्नू। तो तीन लोगों के लिए; वो बगल में इनोवा थी, वो उन्होंने भी ख़रीदी। वो भी उनका कौनसा मॉडल? एक्स ई। इन्होंने कौनसा ख़रीदा? एक्सेल। अब किश्त देते-देते मरे जा रहे हैं और इनको पता भी नहीं है कि इन्होंने ये गाड़ी क्यों चुनी है। वो गाड़ी नहीं है, वो ज़ख्म हैं। वैसा ज़ख्म है जिसको आपने स्थायी कर लिया, अपने दरवाज़े पर बाँध लिया। वो आपकी ज़रूरत से आयी हुई एक चीज़ नहीं है। वो आपके घाव से बहता हुआ पस है। उसका होना रोज़-रोज़ यही प्रमाणित करेगा कि घाव अभी है। और घाव अभी गहरा है और हरा है, पस दे रहा है घाव। सब जीवन के निर्णय बस यही। क्या? प्रतिक्रिया। चोट लगी थी, प्रतिक्रिया। चोट लगी थी, प्रतिक्रिया। ग़ौर से देखिएगा कि ज़िन्दगी तबाह कैसे हुआ करती है। क्षमा, शील, दया ये तो ज्ञान पर अवलम्बित हैं। और जब आत्मज्ञान नहीं होता, तब न क्षमा होती है, न शील होता है, न दया होती है, बस ज़िन्दगी की तबाही होती है। बड़े भाई के घर में रिश्ता हुआ है किसी बड़े सरकारी अफ़सर से। छोटे भाई ने कहा, ‘हम पीछे कैसे रह सकते हैं? इतने बड़े सरकारी अफ़सर से वहाँ रिश्ता हुआ है। वो बार-बार बताया करते हैं कि साहब हमारे यहाँ तो कमिश्नर से रिश्ता है। कमिश्नर से रिश्ता है।’ छोटा भाई है, ये भी जाकर के कमिश्नर को पकड़ लाया। बोले — इनकी बिटिया थी — बोले, ‘कमिश्नर हमारा होगा समधी।‘ और जो कमिश्नर की औलाद है, वो कैसी है? मस्त। जैसी आमतौर पर निकलती है उच्च पदासीन लोगों की औलादें। मस्त औलाद, एनिमल बिलकुल। और उसको अपनी बिटिया बाँध दी और फ़क्र से घूमें, क्या बोलकर कि देखो, ‘मेरा समधी कमिश्नर है।‘ और समधी कमिश्नर क्यों ज़रूरी था? क्योंकि किसी और का समधी कमिश्नर है। अब इसको अपनी बिटिया बाँध दी। अब उस बिटिया के साथ रोज़ वही हो रहा है एनिमल वाला काम। चोट से चोट ही निकलती है। बदला चोट का विपरीत नहीं होता, बदला चोट का विस्तार होता है। समझ में आ रही है बात? जो नीचे के तल पर बैठा है, उससे सिर्फ़ एक रिश्ता बनाना है — करूणा। उससे और कोई रिश्ता नहीं हो सकता। उससे बदले का रिश्ता भी नहीं हो सकता। प्रेम तो छोड़ दो, उससे कटुता का रिश्ता भी नहीं हो सकता। उससे कोई रिश्ता नहीं हो सकता। यही ज्ञान का शील है, यही ज्ञान की मर्यादा है। अरे! जब रिश्ता बनाने वाले को ही हमने झूठा जान लिया, तो अब रिश्ता कैसे बना लेंगे? यही ज्ञान की मर्यादा है। और ज्ञान की मर्यादा भंग होती है तब भी जब आप आकर्षित होते हैं और तब और ज़्यादा जब आप आहत होते है। कोई बड़ा अच्छा, बड़ा ऊँचा लग गया, आप आकर्षित हो गये। ये तो ज्ञान की मर्यादा आपने तोड़ी। लेकिन ज्ञानी होने के नाते आपको दिख गया कि अरे, कोई बहुत गिरा हुआ है। ज्ञानियों को ये खूब दिखने लगता है न, सब गिरे हुए हैं। थोड़ा सा ज्ञान मिल जाए, पूरी दुनिया कैसी लगती है? गिरी हुई। और पूरी दुनिया गिरी हुई है और गिरी हुई होने के बाद भी हमसे सम्मान से नहीं बात करती। नीचे की चीज़ है दुनिया लेकिन हमसे बात कैसे करती है? जैसे पता नहीं कितना दम हो। तो हम क्या हो गये? आहत। आहत होना भी है रिश्ता बनाना। उससे रिश्ता नहीं बनाना है। ये बड़े सम्मान की बात है कोई आपको आहत कर जाए तो। कितना बड़ा आपने उसको पद, कितना सम्मान दे दिया। आहत होना है, तो किसी उससे हो जो आपसे ऊँचा हो थोड़ा। नीचे वाले से आहत होकर तो आपने नीचे वाले को ऊँचा बना दिया। अब नीचे वाला तो ऊँचा उठेगा नहीं, तो मतलब क्या हुआ है? आप नीचे गिर गये हो।
ये बात अच्छे से समझिएगा। जिसको आपने हक़ दे दिया आपको आहत करने का, उसको आपने बड़ा सम्मान, बड़ा रुतबा दे दिया। आपको चोट पहुँचा पाए, आपको आहत कर पाए, ये हक़ ज़िन्दगी में बहुत गिने-चुनों को ही दीजिएगा। हर लप्पूझन्ना, झुन्नूलाल की बात का बुरा नहीं मानते। बुरा अगर लगे भी, तो किसकी बात का? जो कम-से-कम अपने तल का हो या अपने तल से ऊपर का हो। अपने से नीचे वालों की बात का बुरा नहीं, उनसे सिर्फ़ कौनसा रिश्ता हो सकता है? करुणा का।
और करुणा हमने कहा किसके साथ-साथ चलती है? क्षमा के साथ। क्षमा कहती है, ‘मुझे चोट नहीं लगी। क्षमा कहती है मुझे चोट ही नहीं लगी। तो मैं बदला काहे का लूँ?’ करुणा क्या कहती है? ‘पर ये चोट पहुँचाने की कोशिश कर रहा है, ये बहुत चोटिल है।‘ क्योंकि जिसको चोट लगी होती है, वही दूसरे को आहत करने की कोशिश करता है। क्षमा क्या बोलती है? ‘मुझे चोट नहीं लगी।’ करूणा क्या बोलती है? ‘इसको बहुत चोट लगी हुई है, तभी तो ये सबको चोट देना चाहता है। जिसके पास जो होता है, वही तो बाँटेगा।’ क्षमा बोलती है, ‘मुझे चोट नहीं लगी।‘ करुणा बोलती है, ‘इसको बहुत चोट लगी हुई है। चलो, इसको कुछ थोड़ा उपचार, राहत, सहायता दे देते हैं।‘
जो अपने से नीचे के तल पर है, उससे सिर्फ़ एक रिश्ता हो सकता है। क्या? करुणा। और करुणा तो बहुत दूर की बात है। करुणा को वही साध पाते हैं जिनमें पहले क्षमा होती है। और क्षमा नहीं आ सकती बिना आत्मज्ञान के। आत्मज्ञान आप में उदित हो रहा है, ये लक्षण आएँगे आपके सामने। पहली बात-चोट लगनी कम हो जाएगी तो क्षमा शब्द इर्रेलेवेंट और अप्रासंगिक हो जाएगा। कोई आपसे पूछेगा, ‘क्या तुमने उसको माफ़ कर दिया?’ आप थोड़ा सा अचरज में कहोगे, ‘पर चोट किसको लगी थी?’ कोई आपसे आकर पूछेगा, ‘अरे, फ़लाना तुम्हारा इतना कुछ नुक़सान करके गया, तुमने उसे माफ़ कर दिया?’ आप क्या जवाब दोगे? पर चोट किसको लगी थी? और जब चोट ही नहीं लगी, तो माफ़ करने का क्या सवाल?
और वही क्षमा जब अगला क़दम बढ़ाती है तो क्या बन जाती है? करुणा। कहते हैं, ‘हाँ, हमें तो नहीं लगती। हमें तो लगती ही नहीं, पर ये सबको लगाने के फेर में रहता है। इसका मतलब इसको बहुत लगी हुई है।‘ इसको बहुत लगी हुई है, तो उसको पकड़ते हैं। ‘इधर आ पट्ठे। क्या इधर-उधर तू लगाता रहता है।’ वो सोचेगा कि आपको भी लग गयी। आप बदला लेने आये हो या वो सोचेगा कि उसको जीत मिल गयी। कोई आपको आहत कर दे आप बदला लेने जाओ न, सबसे पहले वो मुस्कुराता है। क्योंकि आप बदला लेने आये हुए हो, किस बात का प्रमाण है? आपको चोट लग गयी है। लगी ही नहीं।
और जो आपको चोटिल करना चाहता हो उसके लिए इससे ज़्यादा दर्दनाक बात नहीं होती, फ्रस्ट्रेट करने वाली बात नहीं होती कि वो आप पर वार करे जा रहा है और आपको चोट लग ही नहीं रही। लग ही नहीं रही। जैसे कोई छोटा बच्चा मुक्के बरसाता हो। आप बैठे हुए हो, आपकी मालिश हो रही है। आपको और जहाँ मालिश करवानी है, वो हिस्सा उसकी ओर करे दे रहे हो। ‘मार-मार, हाँ, और मार।’ कुछ समझ में आ रही है बात ये?
गिरना मत। पा लिया है, तो गँवाना मत। ये बात थोड़ी स्थूल है। उससे थोड़ी सूक्ष्म बात है कि उठ गये हो, तो अब गिरना मत। उठ गये हो, तो गिरना नहीं। अपनी जगह को पकड़कर रखो। पाँव जमाकर। हिला सकते हो, तो हिला लो।
ये ज्ञानियों और जो साधारण धार्मिक लोग होते हैं, उनसे थोड़ी ठिठोली भी करी है। बोल रहे हैं, ‘जो टोपी पहनते हो, तो दया की टोपी लगाओ न। बोले, ‘तुम जो टोपी लगाते हो, इससे तुम्हें क्या मिला?’ शायद जो मुस्लिम बन्धु रहे होंगे काशी के, उनको तंज कसा होगा कि टोपी तो पहनकर घूम रहे हो, पर दया तुम्हारे मन में ज़रा भी नहीं है। तो बोले, ‘अरे, दया की टोपी पहनो भाई, दया की टोपी। दया की टोपी नहीं पहने हो, तो धर्म से अभी तुम्हारा कोई वास्ता नहीं दूर-दूर तक।‘ जहाँ दया, तहाँ धर्म है। बोल रहे हैं, ‘दया तुम्हारे है नहीं और टोपी पहने घूमते रहते हो।‘
ऐसे ही सब जो हिन्दू लोग घूम रहे होंगे, कोई पीताम्बर धारण करे है, कोई श्वेत वस्त्र पहने है, तो उनको क्या बोला है? अरे, ज्ञान का वस्त्र पहनो, ज्ञान का। नहीं तो तुम जो भी कपड़ा पहने हो, ये तो तुम्हारे इतने सारे जो कपड़े हैं उनके ऊपर एक और कपड़ा हो गया। पंचकोश बताते हैं न उपनिषद् हमारे। तो पाँच तो तुमने कपड़े वैसे ही पहन रखे थे अपने ऊपर। और एक-दो कपड़ा और ऊपर डाल लिया। तो और ये कपड़ा डालने से क्या होगा? अब बहुत तुमने अज्ञान के कपड़े डाल लिये। इन कपड़ों को हटाने के लिए कौनसा कपड़ा डालो? ज्ञान का।
तो वो हल्का सा वहाँ आपको विनोद या व्यंग्य दिखाई देता है कबीर साहब का। “क्षमा शील की माला पहनो।“ ये किनको बोला? ये जो मालाधारी घूमते रहते हैं, माला फेरो, माला फेरो। ये सब तब से चल रहा है न? तो उनके पास गये, बोले, ‘क्या कर रहे हो?’ ‘माला फेर रहे हैं, जप रहे हैं।’ तो उनको क्या बोला? ‘इस माला से कुछ नहीं होगा।’
बोले, ‘ये जो तुम माला फेरते रहते हो मनके हाथ में लेकर, इससे कुछ नहीं होगा। असली माला फेरो।‘ असली कौनसी माला? क्षमाशील की माला। कपड़ा कौनसा पहनो? अगर ज्ञान नहीं है, तो फ़र्क नहीं पड़ता धर्म के नाम पर तुमने कौनसा कपड़ा पहन लिया, तुम धार्मिक नहीं हो गये। वस्त्र तुम्हारी धार्मिकता का प्रतीक भी नहीं हो सकते, प्रमाण तो दूर की बात है। सूचक तक नहीं है।
अरे, धार्मिक आदमी अपने कपड़ो से थोड़े ही जाना जाएगा कि ऐसे कपड़े पहने हैं और ऐसे अभी बहुत घूम रहे हैं। वो सोचते हैं हमने ऐसे कपड़े पहन लिये, इससे पता चलता है कि हम धार्मिक हैं। ऐसों को बहुत पहले बोल गये है सन्तजन। ज्ञान का वस्त्र है? ज्ञान का वस्त्र नहीं है, तो जो भी तुम पहने हो कि नहीं पहने हो; कुछ होते हैं जो बहुत पहन लेते हैं धर्म के नाम पर और कुछ होते हैं सबकुछ उतार देते हैं धर्म के नाम पर। और जो भी तुमने कर दिया, कपड़ों के साथ किया। उससे कुछ नहीं मिल जाएगा तुम्हें। कपड़े क्या होते हैं? कुछ नहीं, कपास। उससे क्या पा जाओगे?
वैसे टोपीधारी को बोले, ‘टोपी, टोपी, टोपी पहनकर घूम रहे। टोपी से क्या मिलेगा तुम्हें? दया है? दया? दया नहीं है, तो धर्म नहीं है फिर। टोपी से क्या हो जाएगा तुम्हारा?’ माला वाले बैठे होंगे। आप चित्रित करिएगा वहाँ घाट पर जा रहे हैं। वहाँ माला वाले बैठे हुए हैं। और एक कतार में बहुत सारे बैठ गये हैं और वो अपना उनका दिन का लक्ष्य होता है कई बार — इतनी दफ़े फेरनी है, ये करना है और फ़लाना मन्त्र है। ये मन्त्र है, मूल मन्त्र है, बीज मन्त्र है। कोई अजपा जप कर रहा होता है। बहुत चीज़ें चलती हैं। और उनको देख रहे हैं।
उन्होंने तो दिनभर कोई माला फेरी नहीं थी। उन्होंने दिनभर कौन सी माला चलायी थी? क्या? ताना-बाना, यही उनकी माला थी। ताना-बाना माने? अरे, जुलाहे थे, तो अपना ताना-बाना कर रहे हैं। उनको कहाँ फ़ुर्सत है कि अपना काम करते थे भाई। ये सब करने की उनको फ़ुर्सत नहीं थी। तो दिनभर अपना कपड़ा तैयार किया और कपड़ा तैयार करते-करते उनका सत्संग चल ही रहा है। उसी सत्संग का जो फल है, वो आज हमारे सामने मौजूद है। अलग से बैठकर के वो कभी नहीं लिखते थे। वो अलग से क्या, कभी भी नहीं लिखते थे। जितने हमारे सामने साक्ष्य हैं, वे सब यही बताते हैं कि ये तो उन्होंने बोला है; और साथ के जो लोग थे, उन्होंने लिखा है। थोड़ा-बहुत हो सकता है ख़ुद भी लिख दिया हो, हमें नहीं मालूम। और वो बात बहुत महत्व की नहीं, कितना बोला, कितना लिखा है। जो भी है सब उन्हीं से आया, इतना पर्याप्त है। चाहे लिखित में आया हो और चाहे मौखिक। हमें क्या करना है उससे?
तो अपना काम करते दिनभर। शाम को गये थे अपना हाट में बेचा होगा। उससे अपना कुछ रुपया-पैसा, उससे कुछ खाने-पीने की चीज़ ख़रीदी होगी। और अब लौट रहे होंगे, तो देखा कि संध्या समय क्या है? ये सब माला वाले बैठे हुए हैं। तो ऐसे देख रहे उनको। सोचो, चित्रित करो। ये तो ग़ज़ब हो गया! क्षमा, शील की माला चाहिए। ये वरना जो तुम माला लिये हो, इससे कुछ नहीं होगा। “कर का मनका छाड़ी दे।“ कर माने हाथ। बोल रहे हैं, ‘हाथ में ये जो तुम माला लिये हो न, छोड़ो इस माला को, हाथ वाली माला को। “मन का मनका फेर।” जो मन की माला फेर सके।’
क्योंकि सारी बात तो भीतरी है भाई। बाहर तुम कपड़ा पहनकर, टोपी पहनकर, कि माला पहनकर, कि अँगूठी पहनकर और सत्तर काम करके, बाहर ये सब कर-कुराकर क्या पा लोगे? तुम्हारी बीमारी कहाँ है? भीतर। भीतर है बीमारी और कार्यक्रम चला सारा कहाँ चला रखा है? बाहर। अरे पागल!
जैसे राबिया वाली कहानी कि सुई कहाँ खोई थी? घर के अन्दर और ढूँढ कहाँ रही थी? बाहर, इधर-उधर। और वृद्धा हो गयी थी। अब कहानी है, हमें नहीं मालूम हुआ कि नहीं हुआ। पर बड़ी प्यारी कहानी है और बड़ा बोध है इसमें। तो लोगों को अचम्भा, बोले, ‘क्या हुआ, दादी? दिखाई तो तुमको देता नहीं और सूरज डूब रहा है। क्या झुक-झुककर ढ़ूँढे जा रही हो?’
कुछ खोया हुआ नहीं था। सच के लोग न, बड़े मज़ाकिया हो जाते हैं, विनोदप्रिय। उनके लिए पूरी ज़िन्दगी क्या है? मज़ाक। तो सबके साथ मज़ाक करते हैं। ये प्रैंक (मज़ाक) है उनका। ये राबिया का प्रैंक था। तो और जितना वो झुकती न होंगी, जितना कूबड़ न होता होगा, उससे ज़्यादा झुक-झुककर और थोड़ा कराहती हुईं, ‘अरे, सुई नहीं मिल रही है।‘ अब उस समय के छोटे-छोटे गाँव, कस्बे। तो पूरा गाँव उन्होंने इकट्ठा कर लिया बोल-बोलकर, ‘अरे, सुई नहीं मिल रही है।‘ लोग आ गये, उनकी इज़्ज़त रही होगी, जैसी थीं।
‘क्या दादी, क्या खोज रही हो?’ ‘अरे, सुई खो गयी। सुई नहीं मिल रही है।’ ‘दादी, तुम कर क्या रही थी सुई से पहली बात तो? दिखाई तुमको देता नहीं।’ ‘अरे, अब तुम दादी से बदत्तमीज़ी करोगे? सुई खोजो।’ पूरा गाँव मिलकर क्या खोज रहा है? सुई। आधा घंटा हो गया। जितनी वो जगह थी, वहाँ उसमें धूल भी पूरी छान ली, सुई निकली नहीं, तो एक भले आदमी को ख़याल आता है। वो बोलता है, ‘दादी, सुई खोयी कहाँ थी?’ दादी बोली, ‘वो तो अन्दर को गिरी थी।‘ बोले, ‘दादी, तो हम सबको यहाँ क्यों लगा रखा है?’ ‘क्योंकि रोशनी तो यहाँ है। दिन ढल रहा है न। अन्दर तो अन्धेरा हो गया है। रोशनी बाहर है, तो हम यहाँ खोजेंगे न?’ ‘पर दादी, जो चीज़ जहाँ खोयी होती है, वही मिलेगी न?’ ‘नहीं बेटा, जो चीज़ जहाँ देखना सम्भव होता है, वहाँ मिलेगी।’ ‘दादी, सुई मिली क्या?’ ‘बेटा, तुम्हें ख़ुदा मिला क्या? तुम भी तो वहाँ ही देख रहे हो न जहाँ तुम्हारी आँखें दिखाती हैं। माने कहाँ देख रहे हो? बाहर की दुनिया में। तो मैं भी अपनी सुई वहाँ खोज रही हूँ जहाँ मेरी आँखें कुछ रोशनी पाती हैं। रोशनी कहाँ है? बाहर। तो मैं सुई बाहर खोज रही हूँ। अगर मुझे सुई नहीं मिल सकती, तुमको ख़ुदा कहाँ से मिलेगा?’
और पूरा गाँव भौंचक्का! बोले, ‘दादी, ये खेल गयी।‘ पहले परेशान किया, घंटा-भर सुई खोजवायी और फिर साबित कर दिया कि हम सब झुन्नूलाल हैं। समझ में आ रही बात ये?
तो गड़बड़ हमारी सारी कहाँ है? भीतर और हम कार्यक्रम सारा कहाँ चला रहे हैं? बाहर। तो ऐसों को लेकर के कबीर साहब ने खूब मज़े लिये हैं, तरह- तरह से मज़े लिये हैं। क्योंकि वो करते ही यही थे, मज़े लेते थे। तो ये कर सकते हो, जो अपने से नीचे का तल का हो, उससे विनोदपूर्ण मज़ा लो।
लेकिन जब वो ज्ञानी मज़ा लेता है न, तो उस मज़े में ज्ञान होता है। उस मज़े में ज्ञान होता है। वो इतनी बातें बोल जाते थे; तुम्हें क्या लगता है, उनसे लोगों ने घात नहीं करना चाहा? उन पर जीवन-भर आक्रमण हुए। आप अगर पढ़ेंगे उनकी जीवनी तो; अब इतनी बातें आप बोलोगे और कट्टरवाद के गढ़ — काशी में बैठकर के, तो आपको बक़्श देंगे क्या? तो उन पर हमेशा आक्रमण होते ही रहते तरह-तरह के। कुछ उसमें अतिशयोक्तियाँ भी हैं। कहते हैं कि सिकंदर लोदी ने उनको बँधवाकर के हाथी से कुचलवाना चाहा। कोई कहता है कि तान्त्रिकों को बड़ा बुरा लग गया था कि उनका जो भी तन्त्र-मन्त्र और ये सब था जादू-टोना, उसको सन्त कबीर बोल गये थे कि ये बेकार की बात है, तो तान्त्रिकों ने उनको मारने के लिए षड़यन्त्र करे।
वो सब हम जानते नहीं। वो इतिहास की बातें नहीं हैं, वो सब किंवदन्ती है। तो ये जिनको वो विनोद में ही सीख देते रहते थे, वो लोग उनपर आक्रमण करते रहते थे। ये रिश्ता देखो कैसा है? तुम मुझ पर आक्रमण करो, मैं तब भी तुम्हें समझाऊँगा। बदला लेने नहीं आ जाऊँगा। मुझे एक साखी, एक भजन बता दीजिए जिसमें आपको चोट की दुर्गंध आती हो? वो तो बल्कि संसार के लिए रोते हैं। वही संसार जो उनको चोट-पर-चोट दिया जा रहा है, वो उसी संसार के लिए रोते हैं। “जागे और रोये।“
वो ये थोड़े ही कह रहे हैं कि आज उन्होंने मेरे साथ इतना दुर्व्यवहार करा, जा तेरा नाश हो, संसार। तू जल मरे। ऐसा कभी सुना उन्हें कहते हुए? लेकिन उन्होंने सिखाना नहीं छोड़ा। अपने तरीक़े से सिखाते थे। उनके तरीक़े में ये भी शामिल था कि थोडा सा कोच दिया। जैसे यहाँ भी कोच ही रहे हैं। यहाँ तो थोड़ा कम कोच रहे हैं, कहीं-कहीं तो बहुत ज़ोर का कोच देते हैं।
“बार-बार के मूँड़ते, भेड़ न बैकुंठ जाए।“ जो वहाँ पर मुँड़े हुए हैं, उनको सोचो कैसा लगा होगा? और मुँह पर बोलते थे सीधे। तो जब बोलते थे, तो उन पर वार भी होते होंगे। वार हो कि कुछ हो, हमें चोट लगती नहीं। और अगर हमने तुम पर थोड़ा ताना भी मारा है, तो करुणा में मारा है।
कबीर साहब को लो, तो वो तो कोचते ही रहते हैं। कह सकते हो डाँट लगाते ही रहते हैं। ये भी कह सकते हो मीठी झिड़की। कोई ये भी कह सकता है कि छड़ी लिये हुए है जैसे घर का दादा और उस छड़ी से अपना थोड़ा-थोड़ा मारते रहते हैं। पर वो सब वो कोई क्रोध में नहीं कर रहे, वो किसमें कर रहे हैं? करुणा में कर रहे हैं कि आप सीख सको। ये रिश्ता ठीक है ऊँचे और नीचे के बीच का।
कौनसा रिश्ता ठीक नहीं है? जैसे छोटे से बच्चे को कहा कि हाँ, ठीक है, आ जा। चल मार मुझे। छोटा बच्चा भी उभरता हुआ चैंपियन-बॉक्सर। उसने घुमाकर के एक अपर कट दे दिया। और झुन्नूलाल तैयार ही नहीं थे, तो अब बच्चे को पीट रहे हैं। ये कितना गरिमाहीन है न? एक बच्चे को पीट रहे हो। क्यों? बच्चे ने मार दिया, चोट लग गयी। ये रिश्ता होता है ज्ञानी और अज्ञानी के बीच में। अज्ञानी बच्चा है वो कुछ भी कर ले, हमें चोट लगती नहीं है। और अगर हमें चोट लग गयी, तो बच्चे का कुछ नहीं गया पर हम अपने स्थान से गिर गये। हमें नहीं गिरना है, हमें चोट नहीं लगती।
और इसका मतलब ये भी नहीं है कि हमें कोई रिश्ता नहीं बनाना है। रिश्ता ज़रूर बनेगा लेकिन उस रिश्ते में हम अपनी जगह नहीं छोड़ देंगे। अपनी जगह नहीं छोड़ते। रिश्ता तो बनाएँगे पर अपनी जगह पर रहकर के। वजह है, अपनी जगह छोड़कर अगर हमने तुमसे रिश्ता बना भी लिया, तो वो रिश्ता तुम्हारे लिए भी व्यर्थ हो गया भाई। हम तुम्हारे लिए भी तभी तक काम के हैं, जब तक हम अपनी ऊँचाइयों पर बैठे हैं। अगर मैं तुम्हारे ही तल पर गिर गया, तो मैं तुम्हारी क्या मदद करूँगा?
तो रिश्ता ज़रूर बनाऊँगा पर नीचे गिरकर नहीं। रिश्ता बनाने में अगर कभी झिड़की देनी पड़ी, झिड़की भी दे दूँगा। कभी थोड़ी चुटकी काटनी पड़ी, चुटकी भी। अब चुटकी काटी है, डंडा नहीं मार दिया है। चुटकी काटनी पड़ी, चुटकी भी काट लूँगा। थोड़ा तंज, थोड़ा ताना, थोड़ा व्यंग्य, थोड़ा विनोद, ये सब चलता है। प्रतिहिंसा, प्रतिक्रिया, प्रतिघात ये नहीं चलते। ये नहीं करेंगे।
अपनी ओर से हम तुम्हें थोड़ा डाँट-डपट दें, ये तो देखने को मिल सकता है। पर ये देखने को कभी नहीं मिलेगा कि तुमने कुछ करा और उससे आहत होकर के हमने प्रतिक्रिया दे दी, ये हम कभी नहीं करेंगे। अपनी ओर से हो सकता है हम कुछ बोल दें फिर से कि ले ये। अभी ये भजन था, आगे अगला भजन आया। वो भजन भी थोड़ा सा चुटकी मार गया। वो तो हो सकता है। पर ये नहीं होगा कि तुमने हमको कटु वचन बोल दिये या हमारा कुछ नुक़सान करने की चेष्टा कर ली और उसके कारण हम बिलकुल उग्र हो गये और हम तुम पर आग उगलने लगे। वो तुम्हें देखने को नहीं मिलेगा। प्रतिक्रिया जो करता था, उसको हमने आत्मज्ञान से शान्त कर दिया है। समझ में आ रही है बात?
ये अपने और जगत के रिश्ते के सूत्र हैं। और जीवन यही है — अपना और जगत का रिश्ता। जो इस सूत्र को समझ गया, वो सही ज़िन्दगी समझ गया।
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