प्रश्नकर्ता: आचार्य जी नमस्ते। मेरा प्रश्न ये है कि हमारा किसी काम में मन न लगना या हम किसी कार्य की शुरुआत करते हैं तो उस कार्य को दो या तीन दिन से अधिक नहीं कर पाते। इस स्थिति में हम क्या कर सकते हैं?
आचार्य प्रशांत: बेटा, किसी भी काम में तो मन लगना भी नहीं चाहिए न।
प्र: जी सर।
आचार्य: किसी भी, किसी भी माने कुछ भी, यादृच्छिक,रैंडम (बिना सोचे समझे), किसी भी काम में क्यों मन लगे?
प्र: नहीं सर, जिस काम को करना चाहते हैं।
आचार्य: जिस काम को करना चाहते हो, उसको समझा है क्या कि उस काम की चाहत कहाँ से उठ रही है? हम नहीं जानते न कि हमें क्या काम करना है। हमारे द्वारा चुने गए सारे हमारे लक्ष्य ऐसे ही होते हैं कि चार लोग एक तरफ़ को जा रहे थे, तो हमने कहा कि हम भी उधर को चल पड़ेंगे। तो उसको अपना लक्ष्य बना लिया। कोई तारीख़ आ गयी, मान लो परीक्षा के निकट की तारीख़ आ गयी है। या कुछ और हो गया है। एक जनवरी आ गया है या पंद्रह अगस्त आ गया है। तो हमने उससे सम्बन्धित कुछ लक्ष्य बना लिया। है न?
हमारे अपने नहीं होते लक्ष्य, हमारे लक्ष्य बहुत बाहरी होते हैं। वो स्थितिवश होते हैं। उन्हें परिस्थितियों ने पैदा करा होता है। तो परिस्थितियों से हमारे लक्ष्य आ जाते हैं और परिस्थितियाँ चार दिन में बदल जाती हैं। तो अब पुराना लक्ष्य कैसे तुम्हें सुहाता रहेगा? जो तुम्हें लक्ष्य मिला था, वो लक्ष्य तुम्हें एक परिस्थिति ने दिया था।
उदाहरण के लिए, एक जनवरी को तुमने बोला कि आज से मैं रोज़ सुबह पाँच बजे उठा करूँगा और दौड़ लगाया करूँगा। ठीक? ये लक्ष्य एक जनवरी का था। भई, एक जनवरी को सब संकल्प बनाते हैं, रेसोलुशन बनाते हैं, तुमने भी बना लिया। एक जनवरी गयी बीत, आज है दस जनवरी और ठण्ड चल ही रही है। काहे को उठोगे पाँच बजे और दौड़ लगाओगे? वो लक्ष्य एक जनवरी का था, एक जनवरी बीत गयी। वो लक्ष्य तुम्हारे हृदय से नहीं उठा था, तुम्हारे बोध से नहीं उठा था। वो लक्ष्य एक बाहरी घटना से सम्बन्धित था।
बाहरी जो कुछ भी है वो बदलेगा और तुम्हें कभी तृप्ति नहीं दे पाएगा। थाली के बैंगन की तरह फिर इंसान अपना इधर-उधर डोलता रहता है। किसी लक्ष्य को अगर अपनी ज़िंदगी बनाना चाहते हो, तो वो लक्ष्य बिलकुल तुम्हारे केंद्र से सम्बन्धित होना चाहिए। नहीं तो उस पर बहुत आगे तक नहीं चल पाओगे। चार दिन चल लोगे, फिर ऊब जाओगे। ऊर्जा की कमी हो जाएगी। मन इधर-उधर भटकने लगेगा। ये समझ में आ रही है बात?
हमारे लक्ष्य पहली बात तो बाहरी होते हैं और दूसरी बात, जिस चीज़ की हमको सचमुच तलाश है, उससे सम्बन्धित होते ही नहीं हैं। पूरी दुनिया भाग रही है नमक की दुकान की ओर, तुमने कभी पता ही नहीं करा कि तुम्हें सचमुच ज़रूरत शक्कर की है। पहली बात तो, नमक की ओर तुम बहुत समय तक भाग नहीं पाओगे। दूसरी बात, वो नमक तुमको मिल भी गया तो उससे तुम्हारा जी भरेगा नहीं।
तुम ऐसा करते हो क्या कि दवाई की दुकान पर गये हो और उसको बोलो कि ये सामने वाले भैया ने अभी-अभी जो-जो भी दवाइयाँ ली हैं वो हमको भी दे देना। तुम खड़े हो और तुमसे आगे कोई सज्जन खड़े हुए हैं और उन सज्जन ने सात-आठ तरीक़े की दवाइयाँ ख़रीदीं। अब तुम्हारा नंबर आया काउंटर पर। तो ऐसा कहते हो क्या कि इन्होंने जो-जो दवाइयाँ ली थीं वही सब हमको भी दे दीजिएगा? पर ज़िंदगी तो हम ऐसे ही जीते हैं। जो-जो दवाइयाँ हमसे आगे वालों ने ली होती हैं, वही-वही दवाइयाँ हम भी लेना शुरू कर देते हैं।
अब बताओ क्या होगा? वो दवाइयाँ पहली बात तो तुम्हारी जेब खाली करेंगी। दूसरी बात, तुम्हारे काम नहीं आएँगी। तीसरी बात, पता नहीं कौनसा तुमको नुक़सान कर जाएँ। जब ये सब होने लगेगा तो उन दवाइयों को तुम छोड़ने लगोगे। जब छोड़ने लगोगे, तो तुममें ग्लानि आएगी। तुम कहोगे, 'अरे देखो मुझे, मैं तो दवाइयाँ ले नहीं पाता बहुत दिन तक, मेरा मन भटक जाता है।' अरे मन भटक रहा है तो सही हो रहा है न। मन ऐसी चीज़ से भटक रहा है जो उसके उपयोग की ही नहीं है।
समस्या तब होती जब आपने कुछ ऐसा तय कर लिया होता जो सचमुच आपके काम का है और तब भी मन भटकता। तब अगर मन भटकता तो हम कहते 'ये बात ठीक नहीं है।' पर आम तौर पर जो लक्ष्य आपने तय करा होता है वो लक्ष्य आपके लिए ठीक होता ही नहीं है। जब ठीक नहीं होता, तो मन तो भटकेगा न। और मन भटक रहा है तो अच्छा है कि मन भटक रहा है। मन को सही लक्ष्य दो। मन किसी बहुत सुन्दर लक्ष्य की तलाश में है। मन को कोई बहुत ऊँची, बड़ी प्यारी चीज़ चाहिए। हम उसको दे देते हैं छोटे-मोटे, गंदे से, शोर मचाने वाले झुनझुने। मन को वो चाहिए नहीं है।
प्र: जी। सर, अपने लक्ष्य को कैसे पहचान सकते है?
आचार्य: वो स्वयं को पहचान कर पता चलता है। लक्ष्य को पहचानना है तो ये देखना पड़ेगा कि लक्ष्य किसका है। लक्ष्य तुम्हारा है न?
प्र: जी।
आचार्य: लक्ष्य तुम्हारा है। लक्ष्य यदि आपका है तो आपको पता होना चाहिए कि आपमें कौनसी चीज़ की कमी है। आप एक चिकित्सक के पास भी जाते हो कुछ बोलने कि सिर में दर्द होता रहता है या कोई और समस्या, पीठ में, पेट में दर्द होता रहता है। वो भी सबसे पहले ये कहता है कि जाओ और प्रयोग-परीक्षण करा करके अपने हाल की रिपोर्ट लेकर आओ। ठीक?
पहले पता तो चले तुम कौन हो, तुम्हारे भीतर क्या चल रहा है। तब हम तुम्हारे लिए दवा निश्चित करेंगे। डॉक्टर भी यही कहता है न? या डॉक्टर ऐसे ही आप बैठते हो सामने, आप कुछ बोलते हो, वो कुछ लिख देता है। ऐसा तो नहीं होता। डॉक्टर भी पहले कहता है ये टैस्ट्स कराकर आओ।
टैस्ट कराने का मतलब होता है ख़ुद को जानना कि मेरे भीतर किस चीज़ की कमी है। ये जाना जाता है टैस्ट में। अब टैस्ट ने बता दिया कि तुम्हारे भीतर फ़लाने विटामिन की कमी है, विटामिन डी की कमी है, इसीलिए दर्द होता रहता था हड्डी में। तो अब डॉक्टर आपको दवा लिख कर दे देंगे कि भई विटामिन डी ले लीजिए, कैल्शियम ले लीजिए, ये ले लीजिए, वो ले लीजिए। आ रही है बात समझ में?
क्या आपने ये जानने की कोशिश करी है कि आपके भीतर किस चीज़ की कमी है। और अगर आप नहीं जानते इस बात को तो फिर किसी भी दवाई के पीछे भागने में कौनसी समझदारी है? पता ही नहीं है कमी किस चीज़ की है। कमी है विटामिन डी की और ले रहे हो दूसरे विटामिन और पता नहीं क्या-क्या। नुक़सान और करवा लोगे। और जो जेब खाली होगी सो अलग।
जेब से क्या आशय है? जीवन। ग़लत लक्ष्यों के पीछे भागने में पूरा जीवन ही बर्बाद कर देते हैं न हम। उसी को जेब कह रहा हूँ कि जेब खाली हो जाती है। तो देखो, पूछो अपनेआप से 'मैं सचमुच चाहता क्या हूँ? मेरा खेल क्या है भीतरी?' और ये सवाल ऐसा नहीं है कि अभी एक घंटे पूछोगे और उत्तर मिल जाएगा। ये सवाल अपनेआप से लगातार पूछा जाता है। ये जो भीतर बैठा है जो 'मैं' बोलता है। जो भी मेरा नाम, मैं 'अ' हूँ। ये 'अ' कौन है, इसकी इच्छा क्या है, इसे पहुँचना कहाँ है, कहाँ से आया है, कहाँ को जाना चाहता है? और इन प्रश्नों से फिर एकदम मौलिक उत्तर मिलते हैं, ताज़े और खरे। साफ़-साफ़ पता चलता है, ज़िंदगी में क्या करना है। जीवन में क्या करना है इसका नहीं पता चलेगा अगर नहीं पता कि जीव कौन है।
प्र: जी। सर, जैसे हमारे लक्ष्य पता भी हैं फिर भी हम उस लक्ष्य को पाने की कोशिश करते हैं तो फिर कुछ समय पश्चात् हम उससे अलग होने लगते हैं।
आचार्य: नहीं, लक्ष्य कहाँ पता है अभी। लक्ष्य आपको पता नहीं है। लक्ष्य आपने बस यूँही अपना लिया है। यही तो कह रहा हूँ। लक्ष्य को पता करिए। जिसको आप बोलते हो कि आपका लक्ष्य है वो किस हद तक आपका लक्ष्य है, ये पता करिए। और अगर वही लक्ष्य आपको पकड़ना भी है तो पूछिए कि ये लक्ष्य मेरे लिए आवश्यक क्यों है? जब जान जाएँगे कि उस लक्ष्य में क्या विशेषता है, क्या उसका महत्व है तो फिर उसकी तरफ़ बढ़ने में अड़चन कम आएगी।
प्र: थैंक यू सर।