सौ बार टूटने दो दिल को || आचार्य प्रशांत, बातचीत (2021)

Acharya Prashant

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सौ बार टूटने दो दिल को || आचार्य प्रशांत, बातचीत (2021)

(आचार्य जी और कुछ स्वयंसेवी एक रेस्तराँ में बैठे हुए हैं, तभी एक स्वयंसेवी रेस्तराँ के छत के ढाॅंचे को लेकर बातचीत करते हैं।)

प्रश्नकर्ता: मैंने जो देखा यहाँ पर कि ये जो स्ट्रक्चर (ढाँचा) है जो इसको डेकोरेट (सजाना) किया गया है, तो इसको बनाने में जो मेहनत लगी होगी और जो इसको यहाँ पर एक ब्यूटी (सुन्दरता) भी दे रहा है, तो ऐसे ही लाइफ़ (जीवन) में अगर कुछ ऊँचा या कुछ ऊँची क्वालिटी (गुणवत्ता) लाइफ़ में लानी हो, तो उसमें भी उतनी ही मेहनत लगती है, तभी उतनी फिर ब्यूटी भी देती है।

जैसे अगर कोई इंस्ट्रूमेंट (यन्त्र) ही सीखना हो, म्यूज़िकल इंस्ट्रूमेंट (संगीत यन्त्र) या कोई स्पोर्ट्स (खेल) हो, किसी भी फ़ील्ड में।

आचार्य प्रशांत: देखो, दो तरह की ब्यूटीज़ (सुन्दरताएँ) होती हैं।

बहुत अच्छे से समझना, ठीक है?

दो तरह की ब्यूटीज़ होती हैं। एक होती है, प्राकृतिक सुन्दरता। प्रकृति में सुन्दरता है, बतख में, पहाड़ में, नदी में, कंकड़ में भी है, शेर में, खरगोश में, तभी हमको अच्छे भी लगते हैं। दूसरी तरह की सुन्दरता होती है जो आदमी ने बनायी है, माने कि चेतना ने बनायी है। आदमी द्वारा बनाना माने चेतना द्वारा बनाना न? प्रकृति में जो सुन्दरता होती है उसके पीछे कोई चेतना वगैरह नहीं है। खरगोश, खरगोश जैसा पैदा होता है उसको खरगोश बनना नहीं पड़ता कि मैं ऐसे ही पैदा हुआ हूँ, सामान्य, नॉर्मल में लेकिन मैं अब एक क्यूट (प्यारा) खरगोश बनकर दिखाऊँगा‌। उसे ऐसा नहीं करना, अगर वो सुन्दर है तो सुन्दर है। ये प्राकृतिक सुन्दरता है।

ये सुन्दर इसलिए है क्योंकि इसमें चेतना की अभी शुरुआत ही नहीं हुई इसीलिए चेतना गन्दी नहीं हुई। क्या इस गिलास का पानी गन्दा हो सकता है? (एक खाली गिलास को उठाकर पूछते हुए) क्या इस गिलास का पानी गन्दा हो सकता है? इसका पानी गन्दा हो सकता है?

श्रोता: नहीं हो सकता है।

आचार्य: नहीं हो सकता है। क्यों नहीं हो सकता?

श्रोता: क्योंकि इसमें पानी है ही नहीं।

आचार्य: क्योंकि इसमें पानी है ही नहीं। ये प्राकृतिक सुन्दरता है। इसमें कोई गन्दगी नहीं है क्योंकि इसमें गन्दगी होने की सम्भावना ही नहीं है या ये कह दो ताक़त ही नहीं है, कैपेसिटी ही नहीं है।

तो प्रकृति इसीलिए सुन्दर है क्योंकि वो चेतना-शून्य है। अगर चेतना-शून्य है तो एक तरह से वो निर्मल चेतना की भी हो गयी। किसी चीज़ के गन्दा होने के लिए पहले उस चीज़ को होना तो चाहिए न? प्रकृति में चेतना है ही नहीं, कॉन्शियसनेस। तो इसीलिए प्रकृति सुन्दर है।

समझ रहे हो?

आदमी ऐसा है (एक पानी से भरी गिलास को दिखाते हुए)। यहाँ दोनों सम्भावनाएँ हैं, क्या? इस गिलास में जो पानी है वो साफ़ भी हो सकता है और गन्दा भी हो सकता है।

तो आदमी जब कुछ निर्मित करता है, वो सिर्फ़ तब सुन्दर होता है जब वो साफ़ चेतना से किया गया हो। प्रकृति कुछ भी निर्मित करेगी वो सुन्दर होगा, बाय डिफॉल्ट (पहले से मौजूद व्यवस्था या सुविधा) क्योंकि उसके भ्रष्ट होने की, या मिश्रित होने की, या प्रदूषित होने की कोई सम्भावना है ही नहीं, होगी कैसे? आदमी की चेतना के प्रदूषित होने की पूरी सम्भावना है। ये पानी ऐसे रखा भी हुआ है, ये तो भी प्रदूषित होता जा रहा है। बताओ कैसे? इसकी जो सतह है वो ऑक्सीजन, नाइट्रोज़न, सब एब्ज़ॉर्ब (अवशोषित) कर रही है। कार्बन डाइ ऑक्साइड एब्ज़ॉर्ब कर रही है। ये सारी गैसेज़ पानी में थोड़ी-थोड़ी सॉल्यूबल (घुलनशील) होती हैं। तो आप इस पानी को बस ऐसे छोड़ दो, ये एचटूओ प्लस समथिंग (पानी के अलावा कुछ और) होता जा रहा है लगातार-लगातार, प्लस (और) इसमें डस्ट पार्टिकल्स (धूल के कण) भी गिर ही रहे होंगे, प्लस ये जो, ये इसका गिलास है उसके भी कुछ मॉलिक्यूल्स (अणु) धीरे-धीरे टूटकर के सिलिका के इसमें; मतलब बात ये है कि चेतना आयी नहीं कि उसकी गन्दगी शुरू हो जाती है। पानी आया नहीं कि उसकी गन्दगी शुरू जाती है।

हंड्रेड परसेंट प्योर (सौ प्रतिशत शुद्ध) पानी मिलना बहुत मुश्किल है। नाइन्टी-नाइन प्वॉइंट नाइन-नाइन-नाइन (निन्यानवे दशमलव नौ-नौ-नौ) तक जा सकते हो, हंड्रेड परसेंट प्योर मिलना बहुत मुश्किल है। जिस कंटेनर (पात्र) में रखोगे वही उसको पॉल्यूट (प्रदूषित) कर देगा क्योंकि ऐसा कोई कंटेनर मिलना भी बहुत मुश्किल है जो पानी से एकदम ही रिएक्ट (प्रतिक्रिया) न करे या कि जिसका सब्स्टेंस (पदार्थ) ऐसा हो कि वो पानी में अपने मॉलिक्यूल्स एकदम ही न छोड़े। ज़रूरी थोड़ी है कि रिएक्शन (प्रतिक्रिया) हो, मिक्सचर (मिश्रण) भी तो हो सकता है?

तो ये दो अलग-अलग तरह की सुन्दरताएँ हैं, हमारी ज़िन्दगी में दोनों होनी चाहिए। हमारी ज़िन्दगी में जो कुछ प्राकृतिक है वो अनकरप्टेड (साफ़) होना चाहिए और जो कुछ चैतन्य है, वो अनइन्हिबिटेड (मिलावट-रहित) होना चाहिए, माने उसमें कुछ मिला न हो या अनपॉल्यूटेड (स्वच्छ) होना चाहिए।

ऐसे कह लो! हमारी ज़िन्दगी में जो कुछ प्राकृतिक है उसमें कुछ मिलाओ मत। और वो हमारी ज़िन्दगी क्या, पूरी पृथ्वी में। तो जंगल हैं, तो जंगल ही रहें, उसको फिर कुछ और बदलो मत! और आदमी क्या बनाएगा? आदमी बिल्डिंग्स (इमारतें) बनाएगा, आदमी कार बनाएगा, आदमी मेज़ बनाएगा, आदमी स्पेसशिप्स (अन्तरिक्षयान) बनाएगा। इनको हमें किससे बनाना है? (प्रकृति से) ये सुन्दर हों, उसमें सौन्दर्य हो, ब्यूटिफुल (सुन्दर) हों, इसके लिए क्या ज़रूरी है? ये किस चीज़ से बने हों?

श्रोता: साफ़ चेतना से।

आचार्य: हाइयेस्ट (उच्चतम), साफ़ माने हाइयेस्ट , हाइयेस्ट कॉन्शियसनेस (उच्चतम चेतना)। साफ़ चेतना ऐसे ही है जैसे हंड्रेड परसेंट प्योर वाटर। (सौ प्रतिशत शुद्ध पानी) हंड्रेड परसेंट माने हाइयेस्ट।

तो आदमी के निर्माण में सुन्दरता सिर्फ़ तभी होगी जब वो हाइयेस्ट लेवल ऑफ़ कॉन्शियसनेस (चेतना के उच्चतम स्तर) से बना हो। नहीं तो आदमी का निर्माण गन्दा होगा-ही-होगा। और वही गन्दगी हमें लगती है इसीलिए हम फिर शहरों से पहाड़ों की ओर भागते हैं, शहरों से जंगलों की ओर भागते हैं। क्योंकि शहर हमें कैसे लगते हैं? गन्दे। हमने निर्मित की हैं चीज़ें लेकिन उनका क्या करा? हमने पॉलिथीन निर्मित कर दिया, हमने डब्बा निर्मित कर दिया, हमने भद्दे मकान बना दिये, हमने गन्दी कारें बना दीं। कार गन्दी से मतलब ये नहीं कि वो साफ़ नहीं हुई, इसका मतलब ये है पॉल्यूशन (प्रदूषण) मारती है। तुमने उसमें इतनी कॉन्शियसनेस लगायी ही नहीं कि सिर्फ़ इसको चलाना नहीं है इसके एमिशन्स (उत्सर्जन) भी तो देखने हैं।

बात समझ रहे हो?

सो हाऊ टू डिफ़ाइन ब्यूटी? (सुन्दरता को कैसे परिभाषित करें)? ब्यूटी इज़ आइदर (सुन्दरता या तो) प्राकृतिक, जिसको आप नैचुरल बोलते हो। और ब्यूटी व्हेन इट इज़ इन द कॉन्टेक्स्ट ऑफ़ मैनमेड स्टफ़ इज़ एक्ट्स डन इन द हाइयेस्ट पॉसिबल कॉन्शियसनेस।

समझ में आ रही है बात?

ये सुंदरताएँ हैं। अब समझ जाओ कि किसी को सुन्दर कब बोलना है। छोटे बच्चों को सुन्दर बोलो, उसका एक अर्थ होगा। उसका क्या अर्थ होगा?

श्रोता: प्राकृतिक है।

आचार्य: कि अभी ये पूरी तरह प्राकृतिक है, करप्ट (भ्रष्ट) हुआ नहीं है ज़्यादा, तो उसको सुन्दर बोल सकते हो। लेकिन जिस अर्थ में आप छोटे बच्चे को सुन्दर बोलते हो, उसी अर्थ में कभी जवान आदमी को सुन्दर मत बोल देना। क्योंकि जवान आदमी के पास अब ये आ गयी है, क्या? चेतना। वो सुन्दर कहलाने का हक़दार सिर्फ़ तब है जब उसकी चेतना?

श्रोता: ऊँची हो।

आचार्य: तो सुन्दर शब्द का इस्तेमाल दो अलग-अलग कॉन्टेक्स्ट (सन्दर्भ) में बिलकुल दो अलग-अलग तरीक़े से किया जाएगा, एकदम दो अलग-अलग तरीक़े से।

एक ज़बरदस्त पहाड़ है, उस पर एक आदमी बैठा हुआ है। एक पहाड़ है, उस पर एक आदमी बैठा है। आप पहाड़ को कब सुन्दर बोलोगे? जब वो अनटच्ड (अछूता) हो, उसको कुछ भी अभी तक करप्ट (दूषित) न किया गया हो, माने कुछ काटा-पीटा न गया हो, ये सब। और उसी पहाड़ पर जो आदमी बैठा है उसे कब सुन्दर बोलोगे? जब उसकी चेतना हाइयेस्ट हो।

तो जिस पैमाने का, स्टैंडर्ड का इस्तेमाल करके आप पहाड़ को सुन्दर बोलते हो, उसी पैमाने का इस्तेमाल करके पहाड़ी को सुन्दर नहीं बोल सकते। पहाड़ी माने वो जो व्यक्ति बैठा है। पहाड़ को सुन्दर बोलने के लिए एक क्राइटिरिया (मानदंड) है लेकिन उस पहाड़ी व्यक्ति को सुन्दर बोलने के लिए बिलकुल दूसरा क्राइटिरिया लगेगा। लेकिन अगर ये हो गया कि जैसा पहाड़ है वैसा ही पहाड़ी है, तो सिर्फ़ पहाड़ सुन्दर है, पहाड़ी नहीं। जो पहाड़ी बैठा है अगर उसकी भी चेतना पहाड़ जैसी ही है, कितनी? बहुत कम, शून्य! तो आप उसको सुन्दर नहीं बोल सकते।

बात समझ में आ रही है?

तो जो जड़ पदार्थ हैं उन पर एक मापदंड, एक स्टैंडर्ड लगेगा। जो चैतन्य हैं उन पर दूसरा लगेगा। दोनों को एक ही तरीक़े से सुन्दर नहीं बोला जा सकता।

समझ में आ रही है बात?

तो आप जवान लोग हैं; सुन्दर, ब्यूटिफुल , अट्रैक्टिव (आकर्षक), सेक्सी (कामुक) इन शब्दों का इस्तेमाल करते हैं आप, बहुत सोच-समझकर किया करिए। एक जवान इंसान, चाहे वो आदमी हो, औरत हो वो सुन्दर कहलाने का अधिकारी सिर्फ़ तब है जब उसकी चेतना ऐसे (माथे पर उँगली रखकर समझाते हुए) लगातार रॉकेट की तरह ऊपर ही जाती हो, साफ़ बिलकुल। इनोसेंस (मासूमियत) पर भी बिलकुल यही बात लागू होती है। छोटा बच्चा इनोसेंट (मासूम) कब है? जब उसे अभी सोसाइटी (समाज) ने कुछ पढ़ाया ही नहीं, उसका गिलास क्या है?

श्रोता: खाली है।

आचार्य: गिलास माने छोटे बच्चे का मन। एकदम खाली है! तो छोटा बच्चा इनोसेंट हो गया। लेकिन जिस अर्थ में आप छोटे बच्चे को इनोसेंट बोल देते हो, उसी अर्थ में बड़े आदमी को इनोसेंट नहीं बोल सकते। बड़ा आदमी इनोसेंट कब कहलाएगा? बड़ा आदमी माने ग्रोनअप , वयस्क आदमी। कब कहलाएगा इनोसेंट ? जब उसका गिलास साफ़ है।

तो हमें कौनसी इनोसेंस चाहिए? छोटे बच्चे वाली या बड़े वाली? छोटे बच्चे वाली तो हो ही नहीं सकती क्योंकि हमारा गिलास तो गया है? भर। हम चाहें भी तो ये खाली तो कर नहीं सकते। खाली नहीं कर सकते पर साफ़ कर सकते हैं और यही जीवन का उद्देश्य है। ठीक है? इसको साफ़ कर देना।

इसको एकदम साफ़ कर देना, ऐसे ही हो जाएगा बिलकुल। (कॉंच की गिलास में भरे पानी की ओर इशारा) साफ़ करोगे तो क्या होता है? आर-पार दिखेगा।

समझ में आ रही है बात?

तो इस शब्द के इस्तेमाल में सावधानी रखनी है। बल्कि दोनों शब्दों में, कौनसे दो शब्द? इनोसेंट और ब्यूटीफुल। मासूम, नादान, निर्मल, निर्दोष, इनोसेंट और ब्यूटीफुल माने सुन्दर।

समझ में आ रही है बात?

प्र२: अभी आपने एग्ज़ाम्पल (उदाहरण) दिया है गिलास का और गिलास के अन्दर पानी का। तो इंसान जब पैदा होता है तो उस गिलास के अन्दर जो पानी है, उसकी जो गन्दगी है उसकी ख़ुद की अर्जित करी हुई तो है नहीं, उसको कहीं-न-कहीं ये गन्दा…

आचार्य: असल में इंसान टेंडेंसी (वृत्ति) के साथ पैदा होता है। ये पैदा होता है (एक खाली गिलास को लेकर समझाते हुए) और इसमें क्या टेंडेंसी है, क्या एक्युमुलेट (जमा करना) करने की? पानी। और पानी आएगा, तो निस्सन्देह क्या होगा?

श्रोता: गन्दा होगा।

आचार्य: तो इसी को कहते हैं कि अहम् वृत्ति जन्म लेती है, यही है वो, ये वृत्ति है। (खाली गिलास की ओर इशारा) इसमें कुछ है नहीं, या है भी तो बहुत कम है। इसका अपना मास (द्रव्यमान) है कुछ? इसमें बहुत कुछ नहीं है, लेकिन इसमें टेंडेंसी है, ये इस तरीक़े से है कि आगे चलकर ये इकट्ठा करेगी। ये बच्चा है छोटा (खाली गिलास को दिखाते हुए), ये जन्म लेता है और अब इसको संस्कार दिये जाने हैं क्योंकि ये एक्युमुलेट तो करेगा-ही-करेगा। इसे अब एक्युमुलेशन (जमाव) को करना-ही-करना है। ये आपको देखना है कि वो जो एक्युमुलेशन है, वो जो एक्युमुलेशन है वो साफ़ हो और अगर वो गन्दा हो गया है तो आप उसकी सफ़ाई फिर करें!

और ये भी (खाली गिलास को दिखाते हुए) अलग-अलग तरीक़े के पैदा होते हैं, कोई प्लास्टिक का पैदा होता है, कोई काँच का, कोई लोहे का, कोई मिट्टी का। तो सबकी एक्युमुलेट करने की जो टेंडेंसी है वो भी अलग-अलग प्रकार की होती है और उसी को क्या बोलते हैं? गुण। कि किसी के गुण किसी तरीक़े के हैं, किसी के गुण किसी तरीक़े के हैं। माने जिसके गुण जैसे हैं वो उस तरीक़े का मामला अपने भीतर इकट्ठा करेगा। पर ये पक्का है कि तुम कैसा भी इकट्ठा करो, उसे अपने तरीक़े से होना तो गन्दा ही है। गन्दा होने के तरीक़े अलग-अलग होंगे लेकिन गन्दे तो होंगे।

प्र२: पर अक्सर होता ऐसा है कि इंसान उस गन्दगी को कुछ दूसरे नाम देना शुरू कर देता है।

आचार्य: हाँ, नाम दूसरे दे देता है।

प्र२: तो सफ़ाई की फिर वो ज़िम्मेदारी भी नहीं लेता है।

आचार्य: नहीं, ज़िम्मेदारी कुछ नहीं है। इसीलिए तो बार-बार मैं बोला करता हूँ कि स्पिरिचुअलिटी (अध्यात्म), ईमानदारी के अलावा कुछ नहीं है। और अगर आपमें ईमानदारी नहीं है 'क' को 'क' और 'ख' को 'ख' बोलने की, तो कोई आध्यात्मिक बात, प्रवचन, सूत्र, विधि, ये कोई काम-वाम नहीं आने वाली। पहले पता तो हो न, पता तो होता है माने पहले आप स्वीकार तो करें न कि मामला गन्दा है!

गन्दा है ही नहीं, उल्टे आपको उस पर नाज़ है कि ये तो मेरा मामला है पिंक-पिंक। वो पिंक कैसे हो गया? पानी पिंक होता है? तो अगर वो पिंक है जो आपको खूबसूरत लग रहा है, तो उसका पिंक होना भी क्या है? गन्दगी है। पर अब उसकी जो पिंकिशनेस है आप उस पर गुमान करते हैं, क्यों?

क्योंकि जो दूसरी गिलास है कोई, वो भूरी है। और वो जो भूरी गिलास है उसको पिंकी गिलास कैसी लगती है?

श्रोता: अच्छी लगती है।

आचार्य: तो पिंकी गिलास को अपना पिंकपना क्या लगती है अपनी?

श्रोता: ख़ासियत।

आचार्य: ख़ासियत, स्ट्रेंथ , श्रेष्ठता, विशिष्टता। तो जो चीज़ आपको अपनी ख़ासियत लगती हो, जो चीज़ आपको अपनी श्रेष्ठता लगती हो, जो चीज़ आपको अपना एसेट (सम्पत्ति) लगता हो, आप उसे कभी गन्दगी काहे को मानोगे? और जो गन्दगी नहीं मानोगे तो साफ़ नहीं करोगे! हमारी समस्या ही यही है कि हमारे जीवन में जितनी गन्दगियाँ हैं उनको हमने अपना क्या मान रखा है? एसेट।

‘ये तो भाई मेरी खूबी है! या इस चीज़ से मुझे कुछ लाभ होने वाला है तो ये मेरा एसेट है या कुछ है’, तो इसलिए फिर हम उसे हटाते नहीं।

ईमानदारी चाहिए ये जानने के लिए, जिस चीज़ को तुम अपना एसेट बोल रहे हो, ग़ौर से देखो तुम्हें उससे कितना नुक़सान हो रहा है रोज़-रोज़! ये ईमानदारी है। ये मिसिंग लिंक (सम्पर्क टूट गया) होता है। सारे प्रवचनों, सारे सूत्रों, सारी किताबों और जीवन के रूपान्तरण, ट्रांसफ़ाॅर्मेशन के बीच में मिसिंग लिंक होता है।

नहीं समझे?

ये है दुनिया भर का सारा बोध साहित्य, ये! (आचार्य जी एक हाथ से एक मोबाइल फोन उठाकर बताते हुए)। और ये है (आचार्य जी दूसरे हाथ में दूसरा मोबाइल उठाकर समझाते हुए) ट्रांसफ़ाॅर्मेशन या शुद्धिकरण। इन दोनों के बीच में इसकी (दोनों मोबाइलों के बीच में जोड़ने के लिए एक मार्कर रखते हुए) कमी रह जाती है। ये क्या है? ईमानदारी मीटर। इसको मुँह में नहीं, छाती में डालना होता है। और यहाँ पर फिर रीडिंग आती है कि तुम कितने ईमानदार हो।

वो मीटर मिसिंग लिंक है, वहाँ बीच में लग गया, तो सूत्रों से ट्रांसफ़ाॅर्मेशन तक की यात्रा हो जाएगी, नहीं तो आप सूत्र पढ़ते रह जाओगे, ट्रांसफ़ाॅर्मेशन कभी नहीं होगा। ज़्यादातर लोगों के साथ यही होता है। इसको करने के लिए कलेजा चाहिए, डेरिंग (साहसी) आदमी का काम है। नहीं तो आप!

मैं इसीलिए बार-बार बोला करता हूँ, ये हाॅलो सेल्फ़ रिस्पेक्ट (खोखला आत्मसम्मान) है या कॉनट्राइव्ड कॉन्फ़िडेंस (काल्पनिक आत्मविश्वास) है। आत्मविश्वास से भरपूर लोग, आत्मसम्मान या स्वाभिमान से भरपूर लोग, इनके लिए बड़ा मुश्किल है बेहतरी या ट्रांसफ़ाॅर्मेशन। क्योंकि ये बार-बार क्या बोल रहे हैं? ‘आइ एम गुड (मैं अच्छा हूँ), आइ एम ऑलरेडी गुड’ (मैं पहले से ही अच्छा हूँ)। तुम (आचार्य जी हँसते हुए) ऑलरेडी गुड हो तो काहे को कोई प्रगति होगी?

नींद आ रही है? (एक श्रोता से पूछते हुए)

श्रोता: हाँ।

प्र२: पर ये, इंसान के साथ ऐसा क्या होता है कि उसे अपनेआप को पानी जैसा ट्रांसपेरेंट (पारदर्शी) कहने से ज़्यादा कुछ पिंक हो जाए, कुछ भूरा हो जाए वो कहना ज़्यादा अच्छा लगता है?

आचार्य: क्योंकि दूसरा गन्दा है और गन्दे को गन्दा पसन्द आता है। ये नेटवर्किंग इफ़ेक्ट (नेटवर्क प्रभाव) है। इसके पास (एक पानी की गिलास को सम्बोधित करते हुए) अपनी कोई आँख नहीं है। ये दूसरे से पूछता है, ‘मैं साफ़ हूँ या गन्दा हूँ?’ और भूरा जो हो गया है, उसको ऐसा पारदर्शी पानी क्यों पसन्द आएगा? उसे तो कोई-न-कोई रंगीन पानी ही पसन्द आएगा न? तो भूरेलाल को, पिंकी देवी पसन्द आती है। तो वो जितनी पिंक होती जाती है वो बोलता है, माई गर्ल इज़ सो पिंक! वो और इतरा-इतराकर और ज़्यादा गुलाबी होती जाती है। जितनी गुलाबी होती है तो बोलता है, ओ माय गुलाबो! (अरे मेरी गुलाबो)। वो काहे को कभी अब पारदर्शी होगी?

आ रही है बात समझ में?

और अगर कोई मिल गया, ये कौन है? पिंकी! (एक गिलास को रखकर बताते हुए)। ये कौन है? भूरेलाल! (दूसरी गिलास को रखते हुए) और इनको मिल गओ ये (तीसरी गिलास हाथ में लेकर बताते हुए)। तो ये दोनों (पिंकी और भूरेलाल) मिलकर के इसका बाजा बजा देंगे। ये (तीसरी गिलास) इनको समझाएगा कि भाई तुम भी गन्दे हो, तुम भी गन्दे हो! ये दोनों इसके ऊपर हँसेंगे भी और इनसिक्योर (असुरक्षित) भी अनुभव करेंगे।

क्योंकि इसका (तीसरी गिलास) होना भर ही प्रमाण है इस बात का कि जैसे ये जी रहा है और जैसे ये जी रहा है, वो ग़लत है और उसके अलावा भी विकल्प है। ‘ग़लत’ छोटी बात है, इनके पास आर्ग्युमेंट (तर्क) ये है कि हम जैसे जी रहे हैं उसका कोई विकल्प तो होता ही नहीं!

और अगर एक भी एक्सेप्शन (अपवाद) मिल गया, अपवाद! तो इन्होंने जो तर्क दे रखा है अपने गन्दे होने के पक्ष में वो तर्क ग़लत साबित हो गया न? आप एक प्रिंसिपल (सिद्धान्त) लेकर चल रहे हो, उस प्रिंसिपल का अगर एक भी एक्सेप्शन मिल गया, तो वो प्रिंसिपल कोलैप्स (टूट जाता) कर जाता है। तो इसीलिए साफ़ आदमी को न गुलाबो पसन्द करती है, न भूरा।

अब इसका चैलेंज (चुनौती) क्या है लाइफ़ में? इसे इनको साफ़ होने के लिए प्रेरित करना है और अपनी सफ़ाई को बचाकर रखना है।

“बहुत कठिन है डगर पनघट की।”

और इनका (गुलाबो और भूरा) चैलेंज क्या है लाइफ़ में? ‘हम जैसे हैं वैसे ही रहेंगे और तुझे भी गन्दा कर देंगे!’ अब देखते हैं जीतता कौन है। गुलशन (एक स्वयंसेवी) जिसे जिताएगा, वही जीतेगा। कौन जीतेगा? गुलशन जिसे जिताएगा।

श्रोता: उनकी पूरी फ़ाइट (लड़ाई) होती है कि वो… (भरे गिलास का पानी खाली गिलास में डालते हुए)

आचार्य: बस-बस-बस, यही-यही-यही-यही-यही-यही!

आ रही है बात समझ में?

सो लो तुम! (एक श्रोता को बोलते हुए)

ये (गुलाबो और भूरा वाली गिलासों की तरफ़ इशारा करते हुए) कितने हैं?

श्रोतागण: बहुत सारे, सब यही हैं।

आचार्य: ये? (आचार्य जी हँसते हुए तीसरी गिलास को उठाते हुए) बहुत कम! देखो कि लड़ाई कितनी अनीक्वल (असमान) है।

प्र२: पर मेरे ख़याल से उन रंगीन गिलासों के लिए ये भी बस एक रंग है।

आचार्य: कौन?

प्र२: ये तीसरा वाला (गुरु) भी?

आचार्य: वो ऐसे बोलते हैं, ‘तुमको ये रंग पसन्द है, हमको ये रंग पसन्द है! तुम क्या चढ़ रहे हो जी हमारे ऊपर? फ़ालतू की बात!’

आज एक वीडियो पब्लिश (प्रकाशित) हुआ है, जिसमें मैंने कहा है कि प्रीतिलता वद्देदार इक्कीस की थीं तो जान पर खेलती थीं, गोलियों से खेल गयीं, जान ही दे दी। और तुम इक्कीस के हो, तुम पबजी (एक मोबाईल खेल का नाम) खेलते हो। उसमें ये कॉमेंट (टिप्पणी) ही आया है कि उनको क्रान्ति करना पसन्द था, उन्होंने क्रान्ति करी और हमें पबजी खेलना पसन्द है हम पबजी खेल रहे हैं! आप हमें जज (ऑंकना) क्यों कर रहे हो? इसका क्या जवाब दोगे?

प्र२: ये जो चीज़ है कि बेरंग होना और रंगीन होने के बीच में एक डायमेंशनल डिफ़रेंस (आयमगत अन्तर) है। ये कैसे किसी को बहुत क्लियरली (स्पष्टतया) मतलब समझाया भी जा सकता है?

आचार्य: कोई तरीक़ा नहीं है, लगे रहना पड़ता है, ये तो प्यार की बात है। कोई तरीक़ा होता तो हम सब पर ही आज़मा देते एकदम खट-खट-खट अप्लाई (लागू) करो। इसमें तरीक़ा नहीं है तो इसीलिए फिर इसमें प्यार की टेस्टिंग (जाँच) होती है, कितना है। ले-देकर बात तो सारी प्रेम पर आती है। 'कलेजा कितना बड़ा है?'

दूसरा मानेगा नहीं तुम्हें चोट दिये बिना। और जैसे ही उसने तुम्हें चोट दी, वैसे ही तुम्हारे पास अब एक ऑपर्चुनिटी (अवसर) आती है, क्या? वो चोट देकर के सोच रहा है कि अब तुम पलटकर या तो चोट दोगे या भाग जाओगे। दो ही बातें होती हैं, तुम किसी को मारो तो या तो वो पलटकर तुम्हें मारता है या फिर?

श्रोता: भाग जाता है।

आचार्य: तो वो फिर एक मौक़ा होता है ये प्रदर्शित, डिमांस्ट्रेट करने का कि साहब हम अलग हैं। वो जो डायमेंशनल डिफरेंस है, वो है! तुम जो हो, हम तुमसे अलग हैं इसीलिए तुमसे बार-बार बोल रहे हैं कि साफ़ हो जाओ! देखो, जो रंगीन लोग हैं वो जब एक-दूसरे को चोट देते हैं तो लड़-मरते हैं। अब तुमने मुझे चोट दी, मैं बिलबिला गया, मैं गिर गया लेकिन न तो भागा हूँ, न तुम्हें पलटकर चोट दे रहा हूँ। और ऐसा नहीं कि मैं चोट प्रूफ़ (प्रतिरोधी) हूँ। बहुत ज़ोर की लगी है, बहुत ज़ोर की लगी है।

चोट मुझे भी उतनी ही लगती है जितनी तुम्हें लगती है। अन्तर बस ये है कि तुम्हें लगती है तो तुम पलटकर मारते हो, मुझे लगी है तो भी मैं खड़ा हूँ, अपनी बात पर क़ायम हूँ, अपने प्यार पर क़ायम हूँ, पलटकर मार नहीं रहा बल्कि समझा ही रहा हूँ।

यही तरीक़ा है डेमोंस्ट्रेट करने का, शायद यही मेथड (तरीक़ा) भी है कि तुम्हें चोट खानी पड़ेगी। तो फिर इस बेचारे के पास रास्ता एक ही है। पूछो, क्या? पिटो! तो पिटना इसका दुर्भाग्य नहीं है, पिटना इसका मेथड है। ये जो पिटता है न दिन-रात, जो ये कष्ट झेलता है, एक नज़र से देखो तो वो इसका दुर्भाग्य है। मिसफॉर्चून कि ये अच्छा करना चाहता है फिर भी इसकी पिटाई हो रही है। और दूसरी ओर से देखो तो वो इसकी चालाकी है। क्योंकि पिटकर ही ये सिद्ध कर सकता है कि ज़िन्दगी का कोई और आयाम भी सम्भव है। तो इसीलिए जो भी लोग हुए हैं, जिन्होंने कुछ दुनिया को समझाना चाहा है, ऊँचाई देनी चाही है, वो पिटे खूब हैं।

जीसस ने तो एक रात पहले ही अपने पिटने की तैयारी करी थी। जानते हो न? पूरा सब बता रखा था कि मैं पिटूॅंगा; लास्ट सफ़र (आख़िरी पीड़ा) कि भैया कल पिटाई होगी, जब पिटाई होगी तो ऐसा-ऐसा होगा, ये लो ये वाइन (शराब) पियो, ये खून है मेरा और मेरे साथ बैठकर ब्रेड खाओ, शरीर है मेरा।

तुम बहुत लूज़ (ढीले) तरीक़े से ये भी सकते हो कि ये बड़ी चालाकी की बात है कि ये (तीसरा गिलास) पिटता है। हालाँकि वो चालाकी ऐसी है जिसमें ये खूब मार खाता है, कई बार जान भी गँवाता है। तो उसको अब तुम चलाकी बोलना चाहते हो तो बोलो, नहीं तो वो एक तरह का मेथड ही है। प्यार है और मेथड है। सो लव इज़ द वे (इसीलिए प्रेम ही रास्ता है), क्या? लव इज़ द वे , लव इज़ द मेथड (प्रेम ही तरीक़ा है), लव इज़ द मेथड। देयर इज़ नो अदर मेथड (यहाँ कोई और तरीक़ा नहीं है)। लव दैट डज़ नॉट डिमांड्स रिसिप्रोसिटी (ऐसा प्रेम जो पारस्परिकता नहीं माँगता), लव दैट डज़ नॉट इवन ऑफ़र रिसिप्रोसिटी (ऐसा प्रेम जो पारस्परिकता आमन्त्रण भी नहीं करता)। क्योंकि अगर रिसिप्रोसिटी डिमांड करेगा तो कहेगा, ‘मैंने तुमको कुछ अच्छा दिया तुम भी मुझे अच्छा दो!’ अच्छा वो दे ही नहीं सकते और रिसिप्रोसिटी अगर ये ऑफ़र करेगा तो क्या करना पड़ेगा इसको? कि वो लोग इसको अगर पीट रहे हैं तो ये भी पलटकर पीटे, रिसिप्रोकल (परस्पर)। तो न तो ये रिसिप्रोसिटी ऑफ़र करता है, न डिमांड (मॉंग) करता है।

समझ में आ रही है बात?

आप लोग काउंसलिंग (परामर्श) करते हैं, आपको फोन आते हैं। बहुत बड़ा दिल चाहिए, नहीं तो बार-बार टूटेगा।

“आप जो काम कर रहे हैं वो एकदम दिल तोड़ने वाला काम है। और दिल एकदम ही अगर ज़बरदस्त नहीं है तो बहुत टूटेगा। मैं नहीं कह रहा हूँ कि टूटे न तो इसलिए पत्थर कर लो, मैं कह रहा हूँ टूटे न इसलिए आकाश कर लो!”

पत्थर कितना भी मज़बूत हो आप जानेंगे ही नहीं ठीक से ।

प्र२: अच्छा, इसमें एक चीज़ और दिख रही है कि शायद ये (गुरु) बार-बार लड़ाई भी इसलिए करता है कि जिससे जो कुछ इसके अन्दर है वो थोड़ा बहुत इधर-उधर भी छलक जाए। और वो इस आकांक्षा में है कि एक दिन वो इतना डायल्यूट (पतला) हो जाएगा इनका रंग, इतना डायल्यूट हो जाएगा कि फिर वो शायद बचेगा ही नहीं?

आचार्य: इसको (तीसरी गिलास, गुरु) तो बहुत ही टाँग अड़ाऊ होना पड़ेगा न? क्योंकि इन लोगों ने तो अपना एक सेटल्ड सिस्टम (स्थायी व्यवस्था) बना लिया है, जो स्टेडी स्टेट इक्विलिबिरियम (स्थिर अवस्था संतुलन) में चल रहा है। इनको अपने सिस्टम में कोई बदलाव करना ही नहीं है। वो स्टेडी स्टेट पर चल रहा है। और इसको दिख रहा है कि तुम्हारा जो सिस्टम है वो गड़बड़ है। तो फिर ये बार-बार जाकर क्या करता है? उनके सिस्टम को परेशान करेगा, पोक करेगा, कोंचेगा। और वो लोग बोलेंगे, 'ह्वाइ मस्ट यू मेडल इन् आर अफेयर्स?' ('आपको हमारे मामले में हस्तक्षेप क्यों करना है?') और उसका काम ही है मेडलिंग (हस्तक्षेप)। स्टेयर (घूरते हुए) हू आर यू? व्हाट्स योर लोकस स्टैन्डर्डाइ? ह्वाइ डू यू इंटरफेयर इन् अवर पर्सनल डोमेन (आप कौन हैं? आपका स्तर क्या है? आप क्यों हमारे व्यक्तिगत मामलों हस्तक्षेप करते हैं)?

प्र३: और जैसे ये सेटअप (स्थापित करना) होता है; मैंने ख़ुद फ़ाइव स्टार होटल (पाँच सितारा विश्रामालय) में काम किया है पहले, एक्ज़ैक्टली (बिलकुल) इसी तरह के। तो पहले भी ये चीज़ देखता था कि यहाँ पर जो भी चीज़ होती है जिसको सुन्दर… जैसे आपने पूरी परिभाषा दी सुन्दरता की, वो बिलकुल सुन्दर एक्चुअली (वास्तव में) है नहीं, कुरूप है। ये हम जिस पर बैठे हैं, ये एक्चुअली जिस ज़मीन पर पेड़ थे उसकी लाश पर बैठे हैं, हम खा रहे हैं। और उसको इतना ग्लोरिफ़ाई (महिमामंडन) करके हम ये देखते हैं। और ये जैसे कि छोटी-छोटी बॉटल्स (बोतलें) रखी हैं, यहाँ पर पानी के पीछे। तो इसमें गन्दा पानी भरा हुआ है, इसमें अपनी एक्चुअल (वास्तविक) सुन्दरता तो कुछ है नहीं। लेकिन कहाँ से वो सुन्दरता मेरी आँखों में वो बैठी हुई है कि वो सुन्दर जानती है उसको कि वो सुन्दर है वो चीज़। तो ये एक मेरे लिए क्वेश्चन मार्क (प्रश्नवाचक चिन्ह) है कि वो क्या है।

आचार्य: पूरा गेम (खेल) ये है कि आप एक फॉल्टिंग डिज़ाइन के हो और फिर भी आपको गेम जीतकर आना है। जैसे समझ लो कि कोई बैटिंग (बल्लेबाज़ी) करने उतरा है और उसके बल्ले में छेद है, फिर भी उसे मैच जिताना है या जीतना है। या कोई मोटर बाइकिंग में है और उसकी बाइक में ही कुछ फंडामेंटल (मौलिक) गड़बड़ है फिर भी उसे रेस (दौड़) जीतनी है। ये ह्यूमन लाइफ़ (मानव का जीवन) है, ये ह्यूमन कंडीशन (मानव की स्थिति) है। आपके टूल्स (औज़ार) गड़बड़ हैं, आपका दिमाग पॉल्यूटेड (प्रदूषित) है, लेकिन फिर भी आपको किसी तरीक़े से अपनी नैया पार लगानी है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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