प्रश्न: हम चर्चा क्यों करते हैं? हम विचार क्यों करते हैं? समझ की प्रक्रिया क्या है? उन लोगों का क्या जिनके पास सवाल नहीं हैं?
वक्ता: भक्त का ही चित्त है जो इस स्थिति में आ सकता है जहाँ शब्दों की ज़रुरत न पड़े और शब्दों से अंतर न पड़े। बिना शब्दों के ही संवाद हो जाए। इसके लिए तो बड़ा गहरा जुड़ाव चाहिए। अर्जुन है, और कृष्ण हैं और वहाँ शब्दों की आवश्यकता है। अष्टवक्र हैं और जनक हैं, वहाँ भी शब्दों कि ज़रुरत है।
शास्त्रों में एक ही उल्लेख मिलता है। दक्षिण-मूर्ति शिव की एक कथा है, जिसमें कथा कहती है कि दक्षिण-मूर्ति शिव ने वट-वृक्ष के नीचे ऋषियों को मौन में दीक्षा दी थी। कहा कुछ नहीं गया था और सब संप्रेषित हो गया था। कुछ इस तरीके के उदाहरण बुद्ध के जीवन से भी मिलते हैं जहाँ उन्होंने कुछ बोला नहीं और बिना शब्दों के ही संवाद हो गया। महावीर भी कम बोलते थे। पर अधिकतर को तो बोलना ही पड़ा है। बिना शब्दों के काम चला नहीं।
मन जैसा है हमारा वहाँ परम मौन में स्थापित हो जाना मन के लिए सहजता से संभव नहीं हो पाता है। वो उपकरण मांगता है। शब्द वह उपकरण है। आप कह रहे हैं कि चर्चा की ज़रूरत क्या है। अगर मैं वक्ता को पूरे ध्यान से, एकनिष्ठ होकर सुन रहा हूँ, तो बिना चर्चा के ये सब समझ में आ जाएगा। हाँ, बात बिल्कुल ठीक है। पर शर्त बहुत बड़ी है। बात बिल्कुल ठीक है पर उसके पीछे शर्त बहुत बड़ी है। पूरे ध्यान से, और एकनिष्ठ होकर। इसलिए मैंने कहा कि ये तो परम भक्ति में ही हो सकता है जहाँ कुछ ना कहा जा रहा हो और सब समझ में भी आ रहा हो। नहीं तो चर्चा अपने आप में आवश्यक है। महत्वपूर्ण उपकरण है। आप प्रयोग कर के देख सकते हैं।
आप ज़्यादा ध्यान में कब होते हो? यह अपने आप से पूछें क्योंकि मामला महत्वपूर्ण है। हम ज़्यादा गहरे ध्यान में कब होते हैं? तब जब हम चर्चा में उतर जाते हैं, या तब जब मात्र कोई बोल रहा है और आप सुन रहे हैं? और मैं व्यर्थ-चर्चा की बात नहीं कर रहा हूँ। मैं सत्य-चर्चा की बात कर रहा हूँ। पूछिये अपने आप से। आज ही एक विडियो चल रहा था और कृष्णमूर्ति बोल रहे थे, तब कितनी बार मन इधर-उधर भागा? यही कृष्णमूर्ति आप से संवाद कर रहे होते तो मन को भागने का कोई उपाय नहीं था। उसे सुनना पड़ेगा। उसे बात करनी पड़ेगी। नहीं तो बड़ा आसान है कि उधर कुछ चल रहा है और इधर मन में कुछ और चल रहा है।
एक चर्चा में एक छात्र ने यही सवाल किया है कि आप हमारे कॉलेज में कई साल से आते हैं संवाद लेने के लिये, मेरे पास आपसे पूछने के लिए कोई सवाल नहीं होता। उसने सवाल यही पूछा है कि मेरे पास पूछने के लिए कुछ होता ही नहीं है। ना पूछना दो स्थितियों में होता है: पूर्ण संग्लग्नता में, अनन्यता में या फ़िर उदासीनता में।
श्रोता १: अनन्यता मतलब ?
वक्ता: एक हो जाना, अन्य कुछ नहीं रहा। अब कुछ पूछने का भाव ही नहीं रहा। तो ये बात बिल्कुल ठीक है कि अनन्यता में नहीं पूछा जाता। और जैसा मैंने कहा कि शर्त बड़ी है, कि अनन्यता हो, एकनिष्ठ हो जाएं। अनन्यता कहाँ हमें सुलभ है? जो दूसरी संभावना है वही ज़्यादा बड़ी है। वह यह है कि पूछने के लिए कुछ होना तो चाहिए, पूछने के लिए जुड़ना तो पड़ेगा। आप कह सकते हैं कि हम जुड़े हैं। हम जुड़े पर सवाल हमारे मन में तब भी नहीं आ रहा। इसका अर्थ है कि जुड़ने के फलस्वरुप मन को ये इशारा मिल गया है कि खतरा है। मन जुड़ गया है और जान गया है कि सवाल पूछा तो कहीं खतरा ना हो। सवाल पूछना या ना पूछना बड़े कीमत का नहीं है। पर यदि प्रश्न उठ रहा हो तो उसको दबायें भी नहीं क्योंकि अभी वक्ता से आपका चित्त एक तो हुआ नहीं। ये तो निश्चित सी बात है कि शब्दों को सुन कर आपका चित्त एक तो हुआ नहीं, तो आपके मन के भीतर एक प्रतिरोध उठना चाहिए। आपके प्रश्न उस प्रतिरोध को व्यक़्त करें। उन्हें व्यक़्त करना चाहिए अन्यथा वह प्रतिरोध अहंकार का कवच बन जाएगा।
‘शब्द आ रहे हैं और उन शब्दों से मेरे भीतर एक प्रतिरोध उठता है, पर मैं उस प्रतिरोध को व्यक्त भी नहीं करूँगा’। क्यों? ‘खतरा है, जानता हूँ कि व्यक्त करूँगा तो वह टूट के रहेगा’। प्रतिरोध भी रखो और उसको व्यक्त भी मत करो क्योंकि खतरा है। मन ही मन अपना कवच बनाए रखो। ‘तुम कह रहे हो पर हम सुन कहाँ रहे हैं। मजबूरी है सो आकर बैठ गए’। भाव इतना खुला हो कोई ज़रूरी नहीं है। भाव शब्दों में हो कोई ज़रूरी नहीं है। पर मन के तरीके यही हैं, दिशा यही है। कितनी दूर तक जा रहा है वह अलग बात है।
निश्चित सी बात है आप पास आएंगे। आएंगे, चाहे वक्ता हो या गुरु हो। आप आएंगे पर आपके पीछे ऐसा बहुत कुछ है जो निश्चित रूप से यह पास आना पसंद नहीं करेगा। हम अपने आप को भुलावे में ना रखें। उस को ये अच्छा नहीं लगेगा कि मैं पास आ रहा हूँ। उस को व्यक्त होने दें क्योंकि व्यक्त हो कर ही घुलेगा।
श्रोता २: समर्पित तो हो सकते हैं?
वक्ता: देखिये माया को इतने हल्के में मत लीजिये। भाव समर्पण का हो सकता है और वही भाव माया का उपकरण बन जाएगा। आप समझ रहे हैं ना? वही भाव अहंकार का कवच बन जायेगा, ढाल। उस दिन मैं टी.वी. में कुछ विज्ञापन दिखा रहा था। आँखें कुछ ऐसी हो गई हैं कि पढ़ लेती हैं कि कहाँ क्या चल रहा है। तो मैंने देखा एक सज्जन को और पूछा कि क्या चल रहा है। तो उन्होंने बड़ी ईमानदारी का जवाब दिया। कहा कि आप विज्ञापन दिखा रहे हैं तो आप एक ही बात कहेंगे कि देखो ये कैसे तुम्हें ललचा रहा है। वो बोला कि मुझे पहले से ही पता है कि आप क्या बोलेंगे। अब ये बड़ी खरतनाक बात हो गई है। ‘मुझे पता है कि आप क्या बोलेंगे’। ये समर्पण ही तो है ना।
वह कह रहा है कि आप कह रहे हैं तो ठीक ही कह रहे होंगे। ये बड़ी मनोरंजक बात हो गई है। हम में से बहुतों के साथ होगी। ‘उलझने से क्या फायदा?’ और आप देख नहीं पा रहे हैं कि ना उलझकर आप सिर्फ एक का भला कर रहे हैं, अपनी नादानी का। आप का ना उलझना ऐसा ही है कि जैसे लकड़ी कहे कि आग से क्या उलझना। ‘मैं बड़ी अहिंसक लकड़ी हूँ। मैं आग से नहीं उलझती’। अरे ये कोई अहिंसा नहीं है।
इस पर कबीर का दोहा है,
बिरहिनि ओदी लाकड़ी, सकुचे और धुँधुआय ।
छुटि पड़ौं या बिरह से, जो सिगरी जरि जाय ॥
जलना तो तुझे है पर तू जलना नहीं चाहती इसलिए तू सकुचाती है और धुँधुआती है, यानि धुआं निकालती है। कबीर कहते हैं कि तू पूरी जल जा, तुझे मुक्ति मिल जायेगी। तू क्यों ये दूरी बना कर बैठती है। तू जा आग में, सारा पानी उड़ जायेगा और तू पूरी जल जायेगी। आप कोई भाव नहीं रखिये, न समर्पण का, न प्रतिरोध का। बस ईमानदारी रखिये। आये हैं तो पूरी तरह यहीं के हैं। ठीक है ना? आये हैं तो बस इस मौके में हैं। सोच के मत बैठिये। समपर्ण क्या है? मन का विचार ही है। किसी में कुछ नहीं रखा है। आये हैं तो बस यहीं के है और न्याय करेंगे मौके के साथ। जुड़ेंगे, बात करेंगे और कभी चुप भी रह लेंगे। आज मौज है, सुनेंगे। पर जब बोल उठ रहा हो उसके रास्ते में भी खड़े नहीं होंगे। ये नहीं करना है कि बात-बात में टांग लगानी है और ये भी नहीं करना है कि चुप्पी की गांठ बांध लेनी है।
जो चर्चा न करता हो वह तो अहंकार को जन्म दे ही रहा है क्योंकि इस बहस में उसके सारे विचार जल जायेंगे। आप बहस करोगे, आपके पूर्वाग्रह सामने आएंगे, आपके विचार सामने आएंगे। अगर वक्ता थोड़ा भी ध्यानमग्न है तो वह दिखा देगा कि कोई दम नहीं है। इसलिए आप बहस करोगे ही नहीं। ये कोई पूर्व-नियोजित नहीं है, ये अहंकार की चाल है। सारे मुद्दों पर बात कर लेंगे पर काम की बातों पर नहीं।
मैं यहाँ सामने बैठता हूँ। बहुत सारे लोग हैं जो जीवन में मुझसे बहुत दिनों से जुड़े हुए हैं। मैं उनसे कह रहा हूँ कि उन्होंने मुझसे नून-तेल की बहुत बात की होगी, पर क्या उन्होंने कभी मुझसे पूछा है कि ध्यान क्या है? ये तो पूछ लिया, ‘खाना खा लिया, नमक दूँ? एक रोटी और ले लो’। कभी ये पूछा कि प्रेम किसे कहते हैं? ये नहीं पूछोगे आप। मैं फिर आप से कह रहा हूँ कि आप ये कोई योजना बना कर नहीं कर रहे। यह आपके अहंकार की चाल है।
घंटों बैठे रहो, कोई ऐसा सवाल नहीं पूछना जिसमें सार है। दुनिया भर कि इधर-उधर की बातें करेगे पर काम की नहीं। इसकी निन्दा, उसकी जलन, दुनिया भर की बातें। कभी-भी आकर यह मत पूछना कि ये पढ़ा है, ज़रा इसका अर्थ समझा देना। तुम कभी ये नहीं कहोगे कि आपका यह वीडियो सुन रहा था, ये जवाब ठीक नहीं लगा। मैं कैसे मानूं कि वैसे तो तुम बात-बात पर बहस करते हो, तुम्हें उन वीडिओ में ऐसा कुछ नहीं मिला जिसमें तुम्हें आपत्ति हो। अवश्य मिला होगा, पर तुम पूछोगे नहीं। तुम चाहे यह कह दो कि ये मेरा समपर्ण है, ये मेरा आदर है। ये समर्पण नहीं फूहड़पन है।
-संवाद पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।