समय और संसार क्यों? मर्यादा अनिवार्य क्यों? || आचार्य प्रशांत, श्रीमद्भगवद्गीता पर (2022)

Acharya Prashant

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समय और संसार क्यों? मर्यादा अनिवार्य क्यों? || आचार्य प्रशांत, श्रीमद्भगवद्गीता पर (2022)

प्रश्नकर्ता: कुछ दिन पहले आपने एक उदाहरण दिया था, एम एच ३७० का, कि हम जो खोज रहे हैं वो हमें कहीं मिल नहीं रहा इसलिए यूनिवर्स (ब्रह्माण्ड) इतना बड़ा है कि लगातार हम खोजते जा रहे हैं। तो स्पेस (स्थान) की तो बात उससे समझ में आ रही है। और समय भी लगातार बहाव में है कि अगला पल इसलिए है ताकि उसमें खोजते रहो।

आचार्य प्रशांत: जब मिल जाता है तब समय रुक जाता है।

प्र: तो समय का बहाव जो हमेशा आगे की तरफ़ ही होता है, कुछ इसका भी इशारा है?

आचार्य: आगे का मतलब होता है कि अभी और चाहिए। पीछे कैसे जाओगे? अनुभव अपना थोड़े ही दोहराओगे। आगे का मतलब होता है पीछे जो कुछ था, उससे कुछ मिला नहीं तो समय के रूप में अपने लिए एक क्षण, माने एक अवसर और पैदा कर रहा हूँ कि क्या पता इसमें कुछ मिल जाए। अपने-आपको पीछे पाँच क्षण दिए, उसमें बात बनी नहीं। तो अब मैं अपने लिए एक छठा क्षण पैदा कर रहा हूँ कि क्या पता इसमें बात बन जाए।

प्र: क्योंकि स्पेस में हमें पीछे जाने का मौका रहता है।

आचार्य: पीछे कहाँ जा सकते हो, बताओ?

प्र: मतलब मुझे अगर अपने फ्लैट में नहीं मिला तो मैं यहाँ पर आ गया कि शायद यहाँ पर मिल जाए। तो जब मैं दोबारा अपने फ्लैट पर जाऊँगा...

आचार्य: जब तुम दोबारा वहाँ जाओगे तब तुम वो हो ही नहीं जो तुम पहले थे, जब पहली बार खोजा था। जिसने पहली बार खोजा था, क्या उसको ये पता था कि बाहर भी नहीं मिलेगा? तो अब जब तुम दोबारा खोजने गए हो फ्लैट में तो क्या तुम वही व्यक्ति हो? वो तो कोई और है। तो पीछे कहाँ जा पाए तुम?

ये सब कुछ इसीलिए है इतना विस्तृत, इतना भूल-भुलैया जैसा क्योंकि खोज अभी बाकी है। और ये कहने से काम नहीं चलेगा कि ये जो कुछ है इतना बड़ा, विस्तार लिए हुए, इसमें नहीं है, भीतर है। ये भीतर वाली बात बहुत परिणाम नहीं देती। ये जो बाहर है, यहीं मिलेगा। बस यहाँ खोजने के लिए विवेक चाहिए, यहाँ खोजने के लिए भीतर एक अदम्य भावना चाहिए कि मैं यहाँ भोगने के लिए नहीं खोजने के लिए हूँ।

पुरानी फिल्मों में होता था न, मेले में भाई खो जाता था। होता था न? कुम्भ के मेले में भाई खो गया। अब वहाँ इतने लोग घूम रहे हैं, मेले में तरह-तरह की चीज़ें बिक रही हैं, और ये है, वो है, आकर्षण, मनोरंजन है। ज़्यादातर लोग वहाँ क्या कर रहे हैं? भोग रहे हैं। वो मेले में इधर-उधर घूम रहे हैं भोगने के लिए। एक है जिसको पता है कि कोई खो गया है। वो मेले में क्यों घूम रहा है? खोजने के लिए।

तो मिलेगा तो मेले में ही; मिलेगा तो संसार में ही। तुम्हारी नज़र भोगी की नहीं, खोजी की होनी चाहिए। इसी खोजी की नज़र रखने को कहते हैं ‘अपने भीतर खोजना’। अपने भीतर खोजने का मतलब ये नहीं है कि चुपचाप बैठ जाओगे और ऐसे आँख मूँद कर विचार करने लगोगे, तो भीतर कोई दिया वगैरह जल जाएगा। संसार है, संसार में व्यक्ति हैं, वस्तु हैं, घटनाएँ हैं, अनुभव हैं, सीखोगे तो वहीं से। लेकिन तुम्हें विवेक पूर्वक चयन करना पड़ेगा कि कौनसे व्यक्ति को निकट रखना है, कौनसी वस्तु अपनानी है, कौनसी पुस्तक पढ़नी है, घटनाओं को कैसा प्रतिसाद देना है, अपने विचारों और भावों से कैसा सम्बन्ध रखना है। इन सबका तुम्हें एक चैतन्य निर्णय करना पड़ेगा।

प्र२: आचार्य जी, आपने बताया कि झूठ पूरी तरह से झूठ होता है तो सामने पूरी तरह से आ जाता है, जैसे दुर्योधन के रूप में आ गया। तो जब राक्षस या दुर्योधन बन जाते हैं पूरी तरह से, तब तो सामने आ जाते हैं और फिर युद्ध होता है। पर जब ये हो रहा होता है, धीरे-धीरे बहुत बारीक तरीके से, तब उसमें कैसे सावधान रहें, नज़र रखें? क्योंकि बैकग्राउंड (पृष्ठभूमि) में होता है और पता भी नहीं चलता कि कब हम झूठ की तरफ़ आ जाते हैं।

आचार्य: कम-से-कम जीवन में कुछ ऐसा रहे जिसमें आप किसी तरह का कोई मिश्रण या दूषण स्वीकार ना करें। इसीलिए दुनिया भर की तमाम धार्मिक धाराओं में कुछ बातों का सख़्त अनुपालन करने को कहा जाता है और कुछ बातों की सख़्त मनाही होती है। कहते हैं इतना तो करना-ही-करना है, हर चीज़ ही मिश्रित ना हो जाए। अगर जीवन में कुछ भी ऐसा छोड़ दिया जो लगभग पूर्णतया शुद्ध है तो बात बन जाएगी।

ठीक वैसे, जैसे लाखों से घिरे हुए अर्जुन ने उन लाखों के बावजूद कृष्ण को नहीं छोड़ दिया। अर्जुन ये भी नहीं कर पाए हैं कि सिर्फ़ कृष्ण के साथ रहें और उन लाखों को छोड़ दें। सबकी अपनी विवशताएँ होती हैं व्यावहारिक जीवन की, उन लाखों के साथ तो मौजूद रहना ही है। और नहीं पता चलेगा कि उन लाखों में किस प्रकार का दूषण घुसा हुआ है, कैसे वो लाखों लोग आपको प्रभावित कर रहे हैं, किस-किस तरीके से आप संक्रमित होते जा रहे हैं।

लेकिन इतना तो कर सकते हैं न कि हज़ारों-लाखों कितने भी घेरे हों जीवन के, कैसी भी परिस्थितियाँ हों, कैसे भी संयोग बन रहे हों, उसमें एक चीज़ को भ्रष्ट ना होने दें। क्या? कृष्ण की निकटता। वो तो रहेगी-ही-रहेगी। बाकी सब का तो हम अब कुछ कर नहीं सकते, जीव पैदा हुए हैं तमाम तरीके के संयोग होते हैं, उनपर तो हमारा कोई नियंत्रण नहीं, लेकिन कुछ चीज़ों को लेकर हम बहुत पाबंद रहेंगे।

वास्तव में मर्यादा का यही वास्तविक अर्थ है, मर्यादा का असली अर्थ यही है। परिस्थिति कैसी भी हो, कुछ काम अवश्य करने हैं और परिस्थिति कैसी भी हो, कुछ काम बिलकुल नहीं करने हैं; इसी को मर्यादा कहते हैं। कुछ भी हो जाए, कृष्ण की बात नहीं टाल सकता; कितना भी मुझे लग रहा हो कि मैं ही सही हूँ, कृष्ण ने कह दिया तो कह दिया। और मुझे पता है मुझमें सौ तरह के गुण-दोष होंगे और मुझे नहीं पता मैं कहाँ पर धर्मी होता हूँ, कहाँ अधर्मी होता हूँ, लेकिन एक नियम का पालन मैं प्राणों के मूल्य पर भी करूँगा — कृष्ण से दूर नहीं जाऊँगा, कृष्ण की बात नहीं टालूँगा, कृष्ण की अवज्ञा नहीं करूँगा।

ऐसी अगर एक वस्तु भी हो जीवन में तो वो बचा ले जाती है। अर्जुन के पास कृष्ण थे, आप अपना कुछ खोज लीजिए। कोई पुस्तक हो सकती है, कोई मूल्य हो सकता है, कोई उद्देश्य हो सकता है। पर जीवन में ऐसा कुछ रखिए जिसपर किसी भी हालत में समझौता नहीं किया जा सकता। नहीं करना तो नहीं करना, माने प्राण चला जाए तो भी नहीं करना, बेशर्त।

अगर आपके जीवन में कुछ भी नहीं है बेशर्त, एकदम कुछ नहीं है बेशर्त, यदि सब कुछ हालातों पर ही निर्भर करता है, तो सोचिए आपका जीवन कितना लाचारगी का है! कितनी खतरनाक बात है ये! सब कुछ फिर आप कह रहे हैं कि परिस्थितिवश होता है आपके जीवन में। ये तो बहुत ही विवशता का जीवन हो गया न, परिस्थितियाँ जैसी हैं... एक चीज़ ऐसी रख लीजिए कि परिस्थितियाँ कैसी भी हो जाएँ, ये चीज़ अडिग रहेगी; कुछ भी हो जाए ये नहीं होगा, या कुछ भी हो जाए ये अवश्य होगा।

हाँ, इस बात को चैतन्य रूप से करना है। यही बात अगर चैतन्य रूप से नहीं की गई तो फिर बस एक रीति या रिवाज़ बन कर रह जाती है। अब जैसे कुछ भी हो जाए सुबह-सुबह गंगा में डुबकी ज़रूर मारनी है। अगर गंगा में डुबकी मारते वक़्त आपको स्मरण रह गया कि इस डुबकी का संकेत क्या है, तब तो वो डुबकी आपको जीवन भर बचाती रहेगी। और अगर वो आपके लिए बस एक खोखली प्रथा बन कर रह गई तो आप कितनी भी डुबकियाँ मारते रहें, आप डूब गए।

तो भारतीयों ने ये तो अच्छा करा कि अपनी प्रथाओं को बड़े दिल से निभाया। ऐसे भी लोग हुए हैं जिन्होंने अपने जीवन के आख़िरी दिन भी जा करके — और बड़े ठण्ड का समय है तब भी जा करके — गंगा में डुबकी मारी ज़रूर है। बोले, ‘कुछ भी हो जाए, प्राण अभी चले जाएँ लेकिन डुबकी ज़रूर मारेंगे!’ और ये बात बड़े भाव की है, बड़ा सम्मान माँगती है। लेकिन दूसरा पहलु ये भी है कि ये करके भी बहुतों को कोई लाभ हुआ नहीं। आपको पता होना चाहिए वो डुबकी किसका प्रतीक है। ये दोनों बातें हैं — प्राण भले ही चले जाएँ पर डुबकी बेशर्त है, ये चीज़ ऐसी है, ये मर्यादा ऐसी है, जिसको हम तोड़ नहीं सकते; और दूसरी बात, जो कर रहे हो उसका अर्थ भी तो पता हो, उसका संकेत भी तो स्पष्ट हो — तो ये दोनों बातें आपने अगर पकड़ लीं जीवन में, तो आप बच जाएँगे।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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