सच को छोड़ो, पहले झूठ को तो पहचानो || आचार्य प्रशांत (2021)

Acharya Prashant

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सच को छोड़ो, पहले झूठ को तो पहचानो || आचार्य प्रशांत (2021)

आचार्य प्रशांत: सब बन्धनों के मूल में क्या है? न जानना। बाक़ी सब बातें हटाइए। सौ कारण इधर-उधर के छोड़िए, कि अरे नहीं! उस दिन क्या हुआ था कि ट्रेन लेट (देर) हो गयी थी, इसलिए गड़बड़ हो गयी। नहीं जानते। लेकिन किसको नहीं जानते, यहाँ पेंच है। यहाँ तो कह दिया, “अनादि-अनन्त, विश्व-सृजेता, अनेक रूपों वाले और विश्व को अपनी सत्ता से आवृत करने वाले को जानकर मुक्ति मिलती है”, तो ऐसा लगता है कि बन्धन मिलता होगा उस ‘अनादि-अनन्त’ को ही न जान करके। नहीं, यहाँ पर थोड़ा सा समझना है।

बन्धन मिलता है माया को न जानकर के। जो अनादि-अनन्त है, वो अज्ञेय भी है, उसको जाना नहीं जा सकता। तो आपका अपराध ये नहीं है कि आपने अनादि-अनन्त को नहीं जाना। अपराध ये है कि आपने उसको नहीं जाना जिसको जाना जा सकता था। अज्ञेय को नहीं जाना, ये कैसे अपराध हो सकता है? जो अज्ञेय है, उसका अगर आपको ज्ञान नहीं तो ये कौनसा अपराध है? ये तो अपराध है ही नहीं।

वो बोलते हैं न ‘अरे! ब्रह्म को नहीं जाना इसीलिए बच्चा तुम तकलीफ़ में हो।’ बच्चा तकलीफ़ में ब्रह्म को न जानने के कारण नहीं है, बच्चा तकलीफ़ में माया को न जानने के कारण है। उसी के विरुद्ध सावधान रहना है, “महा ठगिनी हम जानी।” भीतर है, बाहर है, वही है। समझ में आ रही है बात? उसी को जानना है। जो उसको जान गया, वो मुक्त हो गया।

और मुक्ति हमें थोड़ी सी रसहीन चीज़ लगती है न, कि मुक्ति ऐसा लगता है जैसे कहीं बैठकर के बड़े मज़े कर रहे थे और उसने कहा कि वी आर क्लोज़्ड नाउ (दुकान बन्द है) या वी आर क्लोज़िंग नाउ (अब हम बन्द कर रहे हैं)। मुक्ति? 'नहीं-नहीं! अभी थोड़ी देर और, वन लास्ट ऑर्डर (एक आख़िरी आदेश)'।

माया को जो जान लेता है, वो माया से मुक्त भर नहीं होता, वो मायापति हो जाता है। कबीर साहब कहते हैं, 'माया मेरी रसोई बनाती है। तुम्हें ठगती है, तुम्हारे लिए पिशाची है, और मेरे घर में मेरा खाना बनाती है।' यही आनन्द है जीने का। वो सबकुछ जो तुम्हें ठग सकता था, तुम उसको समझ लो। उसको समझ गये तो वो तुम्हारा ग़ुलाम हो जाएगा। अब आएगा मज़ा! पर मज़े करने मत लग जाइएगा बिना समझे। बहुत मार पड़ती है।

समझ रहे हैं बात को?

मुक्ति और आनन्द साथ-साथ चलते हैं। मुक्ति में ही आनन्द है। मुक्ति का मतलब ये नहीं होता कि कोई बहुत क़ीमती चीज़ थी, वो छूट गयी। मुक्ति का मतलब होता है कि वो जो क़ीमती चीज़ थी, वो अब आपके उपयोग की हो गयी। वो क़ीमती चीज़ बनी हुई थी आपकी बेड़ी और अब वो बन गयी है आपका उपकरण।

तो मुक्ति का मतलब ये नहीं होता कि घर पर पतिदेव परेशान करते हैं या देवीजी परेशान करती हैं तो उनको छोड़ देना है। मुक्ति का मतलब होता है कि कुछ ऐसा साधना है कि जो परेशान करता था वही आनन्दित करना शुरू कर दे। ये हुई बात!

जब तक माया को कुक (रसोइया) नहीं रखा, तब तक कौनसा अध्यात्म? और खाना पहले उसी को चखा दीजिएगा। ये हुआ जीने का मज़ा! वो सबकुछ जो हमें चुभता था, परेशान करता था, हमारे ऊपर छाया रहता था, आज वो हमारे इशारों पर नाचता है। पर हमें उसे नचाने की कोई इच्छा ही नहीं। पर नाचता हमारे इशारों पर है। इशारे हम कुछ करते ही नहीं, इसीलिए तो हमारे इशारों पर नाचता है।

बात वो नहीं है जो आप समझ रहे हैं, थोड़ा आगे की है। जब कुछ नहीं चाहिए होता, तो सब मिल जाता है। वो आपको फँसाये ही इसीलिए हुए है क्योंकि उससे आपको बहुत कुछ चाहिए। आप सबकुछ पा लीजिए बिना उसके उपयोग के और फिर वो आतुर हो जाएगा आपको अपना सबकुछ देने के लिए। पूर्ण को और, और, और, और मिलता ही जाता है, जबकि उसे और की ज़रूरत ही नहीं। और अपूर्ण ज़रूरत का रोना रोता रहता है, कुछ मिलता नहीं, वो अपूर्ण ही रहा आता है।

सम्बन्धों में समझ रहे हैं? कुछ चाहिए ही मत, कुछ माँगिए ही मत। कुछ नहीं मिल रहा है तो भी हम पूरे हैं। हमारी आन्तरिक पूर्णता पर कोई फ़र्क नहीं पड़ रहा। फिर और मिलेगा। और क्या बात होती है फिर, जब पूर्ण से पूर्ण मिलता है!

क्या कहा है साहब ने, "पूरे से पूरा मिले, तब पूरा संग्राम।" "सूरे से सूरा मिले, तब पूरा संग्राम।"

सूरा के मैदान में, कायर का क्या काम। सूरा से सूरा मिले, तब पूरा संग्राम।।

~ कबीर साहब

अपूर्ण से अपूर्ण मिलता है तो बस भद्दा शोर पैदा होता है। तो ठीक वैसे जैसे निर्गुण के गुण गाना ज़रूरी है, वैसे ही पूरे का ही पूरे से मिलन होना ज़रूरी है। अधूरे से अधूरे को भरने की कोशिश मत करिएगा।

और समझिए इसे, अपूर्णता ख़ुद को क़ायम रखने के लिए अपूर्णता को ही खोजती है। न सिर्फ़ खोजती है, बल्कि और अपूर्णता को जन्म देती है। न सिर्फ़ जन्म देती है, बल्कि और अपूर्णता को सुरक्षित रखती है। एक अपूर्ण व्यक्ति दूसरे को अपूर्ण ही देखना चाहता है, अपनी अपूर्णता की सुरक्षा की ख़ातिर। और पूर्णता, पूर्णता को जन्म देती है। पूर्णता, पूर्णता को जन्म देती है तभी तो पूर्णता, पूर्णता से फिर मिलती है।

पूर्णता, पूर्णता को जन्म काहे को देती है? यूँही, आनन्द है। और वो आनन्द और बढ़ जाता है जब जिस पूर्णता को पूर्णता ने जन्म दिया, वो पूर्णता, पूर्णता से मिलती है। नहीं समझ में आ रहा? अजीब लग रहा है? कुल मतलब ये है कि सुधर जाओ! (सभी हँसते हैं)

जो कर रहे हो वैसे नहीं होगा। न हुआ है, न होता है, न होगा। "झूठी आस फँसानी।" "अमृत छोड़-छोड़ विषै को धावे, झूठी आस फँसानी।" ग़लत जगह आशा फँसा कर बैठे हो, ऐसे नहीं होता।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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