प्रश्न: सर, अगर मैं किसी के साथ कोई सम्बन्ध या दोस्ती रखूं, तो क्या हर बात को पूरा करने की ज़िम्मेदारी मेरी ही बनती है या उसमें दूसरे की भी कुछ सहभागिता होनी चाहिए?
वक्ता: देखो, सामने वाले को पूरा समझा जाता है, पूरा जाना जाता है| ठीक है? जब जानते हो, समझते हो कि मामला क्या है, उसके बाद तुम शर्तें नहीं रखते| यह नहीं कहते हो, ‘मैं इतना कर रहा हूँ, तुझे भी इतना करना है’| तुम अपनी ओर से पूरा करते हो क्योंकि वो पूरा करने में तुम्हें खुद ही मज़ा आ रहा है| तुम यह उसकी खातिर भी नहीं कर रहे हो| तुम इसलिए नहीं कर रहे हो कि तुम्हारा दायित्व है दोस्ती में किसी की मदद करना| तुम यह कर रहे हो क्योंकि तुम्हारी अपनी मौज है|
‘मुझे घूमना है, मैं तुझे अपने साथ ले जा रहा हूँ| मैं तुझे अपने साथ इसलिए नहीं ले जा रहा कि मेरा फर्ज़ है कि दोस्त के साथ ही जाना है| मैं तुझे अपने साथ इसलिए ले जा रहा हूँ क्योंकि तू साथ रहता है तो मज़ा दोगुना हो जाता है| मैं गिनती नहीं कर रहा हूँ कि मैं तेरे लिए क्या-क्या कर रहा हूँ, क्योंकि मैं तेरे लिए तो कुछ कर ही नहीं रहा| देने में मेरा अपना आनंद है| अगर मैं तुझे कुछ देता भी हूँ, तो उसमें मज़ा मेरा ही है’|
लेकिन ये जो देना है न, यह बेहोशी में न हो| इसलिए मैंने पहली बात यही कही थी कि समझा जाता है| ‘दिया जाता’ तो गुलामी में भी है, गुलाम भी देता है| बेगार जानते हो क्या होती है? ‘बेगार’ शब्द सुना है?
श्रोता १: हाँ, सर|
वक्ता: ‘बेगार’ का अर्थ होता है, अपना श्रम दिए जाना, और उसके बदले में एक पैसा भी नहीं मिलना! यह बेगार होती है| प्रेम में भी दिया जाता है, और बेगार में भी दिया जाता है, पर प्रेम बेगार नहीं है! दिया दोनों में जाता है और बिना कुछ मिले दिया जाता है| प्रेम में भी दिया जाता है| ‘मेरे पास दो रोटी हैं, मैं तुझे एक दे सकता हूँ, और अगर तू भूखा है तो मैं तुझे दोनों भी दे सकता हूँ| बदले में मुझे क्या मिला?’ कुछ ऐसा नहीं मिला जिसे हाथों से पकड़ा जा सके या आँखों से देखा जा सकता हो| कुछ नहीं मिला ऐसा| बेगार में भी यही होता है| ‘मैंने दिन भर तेरे लिए काम किया, पत्थर तोड़े, महनत की, मजदूरी की| बदले में मुझे क्या मिला? कुछ नहीं’!
प्रेम और समझ दो अलग-अलग चीज़ें नहीं हो सकतीं| और जहाँ प्रेम में समझ नहीं है, वो फिर अंधापन है| वो होगा कोई आकर्षण, होगी कोई मजबूरी, उसे आप प्रेम कह भी नहीं सकते! तो करो, अपनी ओर से पूरा दो| तुमने पूछा कि दोस्ती में मैं ही देता रहूँ या अपेक्षा भी करूं|
मैं कह रहा हूँ कि पूरा-पूरा देते रहो, पर होश में देते रहो! बेगार में नहीं, मजबूरी में नहीं| अपनी मुक्ति में दो, अपनी मजबूरी में नहीं! समझ रहे हो बात को? मुक्ति में देने में और मजबूरी में देने में कितना अंतर है जानते हो?
मुक्ति में देना कहलाता है, ‘समर्पण’, और मजबूरी में देना कहलाता है, ‘बंधन’| एक, एक प्रकार का सत्संग है, नज़दीकी है, अपनापन है, और दूसरा बलात्कार जैसी घटना है! जैसे मजबूर हो बस! ठीक है?
-‘संवाद’ पर आधारित| स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं|