पढ़े-लिखे अनपढ़ || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)

Acharya Prashant

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पढ़े-लिखे अनपढ़ || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। तो आचार्य जी, मेरा जो सवाल है वो शिक्षा से सम्बन्धित है। मैं जानना चाहती हूँ कि सच्ची शिक्षा क्या है? जैसे कि शिक्षा के प्रति हमारी विचारधारा क्या होनी चाहिए? जैसे कि हम स्कूल, कॉलेजेज, यूनिवर्सिटीज में जाते हैं तो जो जितने प्रसिद्ध इन्स्टिट्यूशन (संस्थान) में जाता है उसे सामाजिक मान्यता उतनी ज़्यादा मिलती है। यहाँ तक कि जो ऊॅंचे पद पर समाज में काम करता है उसे भी उतनी ही ज़्यादा मान्यता मिलती है। ऐसी मान्यताएँ भी समाज में बहुत प्रचलित है।

तो इन सब से होता क्या है कि जो माँ-बाप हैं उनकी इसी सोच के कारण ज़्यादा-से-ज़्यादा बड़े ट्यूशन्स-इन्स्टिट्यूशन में अपने बच्चे को डालने की उनकी कोशिश रहती है। और इन सबके बीच जो शिक्षा का मर्म है, जो अन्तिम उद्देश्य है ‘चरित्र का निर्माण करना’, वो बहुत जगह धुॅंधला होता दिखाई दे रहा है। और इस बात का अनुभव मुझे भी हुआ है।

मुझे नीट में और बारहवीं बोर्ड में विज्ञान में बहुत कम अंक आये थे तो मैंने ये सोचा कि मैं दक्षिण एशिया का जो पहला महिला विद्यापीठ है एसएनडीटी वहाँ से बीए कर लूँ। लेकिन बीए करने के बाद मुझे हर वक्त यही ताने सुनने पड़ रहे हैं कि बीए तो कर लिया, वहीं नीट का दो-तीन अटेंप्ट (प्रयास) ज़्यादा देती तो कुछ अच्छा हो जाता। आज ये बी.ए. करके क्या मिलेगा? तो क्या शिक्षा का भी कोई स्तर होता है? कि ये शिक्षा अच्छी है, ये शिक्षा नीची है।

आचार्य प्रशांत: देखिए, उपनिषद् हमें समझाते हैं, दो तरह की विद्या होनी चाहिए। एक वो जो आपको सांसारिक ज्ञान दे, और दूसरी वो जो आपको आत्मज्ञान दे। दोनों तरह की शिक्षा बहुत आवश्यक है अगर व्यक्ति को एक स्वस्थ जीवन जीना है तो।

जो हमारी शिक्षा व्यवस्था है उसमें फिर दो तरह के भूलें होती हैं। पहली तो स्पष्टतया यही है कि आत्मज्ञान के लिए उसमें कोई जगह नहीं है, एकदम नहीं है। और दूसरी ये कि बाहरी जगत के बारे में भी उसमें जो कुछ बताया जाता है वो बस व्यावसायिक और वाणिज्यिक उद्देश्यों से बताया जाता है। शिक्षा का मतलब ही ये बन गया है। मैं बाहरी शिक्षा की बात कर रहा हूँ, भीतरी शिक्षा तो दी ही नहीं जाती, उसके लिए तो ज़रा भी कोई गुंजाइश ही नहीं छोड़ी गयी है, तो वो मुद्दा तो अलग रख दिया।

जो हमको सांसारिक, मटेरियल नॉलेज (भौतिक ज्ञान) भी दिया जाता है उसका एकमात्र उद्देश्य बना दिया गया है आजीविका, करियर एंड लाइवलीहुड। उसमें भी शोध के लिए, इन्वेस्टिगेशन (जाँच पड़ताल), रिसर्च (अनुसंधान) के लिए बहुत कम जगह है। तो दोनों तरफ़ गलती हो रही है। भीतर का हमें कुछ पता नहीं होता, और बाहर हमें बस उतना ही बताया जाता है और उसी दिशा में बताया जाता है जितने में और जहाँ से रोटी आती है, बाकी चीज़ें नहीं बताई जाएँगी। और जहाँ से रोटी आती है वहाँ के बारे में भी कोई गहरा ज्ञान नहीं दिया जाएगा। उतना ही बता दिया जाएगा जितना किसी कॉरपोरेशन (संघ) में काम करने के लिए ज़रूरी है। तो नतीजा ये निकल रहा है कि जिनको हम पढ़े-लिखे लोग भी बोलते हैं वो अक्सर सर्वथा अज्ञानी होते हैं।

और जब पूरी पढ़ाई का कुल उद्देश्य ये हो गया है कि पैसा कमाना है, तो फिर सिर्फ़ पैसा कमाने की ही बात होने लग गयी है, फिर पढ़ाई की भी क्या ज़रूरत है अगर पढ़ाई के बिना ही पैसा आ जाता हो तो? और उसका नतीजा ये है कि आज विशेषकर युवाओं का एक बड़ा तबका ऐसा आ रहा है जो शिक्षा व्यवस्था में विश्वास ही नहीं रखते। और उनके पास कारण है विश्वास न रखने का। वो कहते हैं कि तीन-चार साल ग्रैजुएशन (स्नातक) इत्यादि करने के बाद भी हमें कुछ मिलने का नहीं है, और एक दो-तीन महीने का हम एक स्मार्ट कोर्स कर लेंगे, तो उससे मोटे पैसे की तनख्वाह लग जाती है। यही कारण है कि आज-कल आप बाज़ार में तमाम इस तरह के कोर्स देख रहे हैं। कोई पन्द्रह दिन का, कोई चार महीने का, कोई छः महीने का।

और जिन्होंने छः-छः साल मास्टर्स कर रखी है वो भी वैसी नौकरियाॅं नहीं पाते हैं जितना ये दो महीने के कोर्स वाले पा जाते हैं। और ये बात बिलकुल तर्क युक्त लग रही है, क्योंकि अगर शिक्षा का कुल उद्देश्य ही यही है, शिक्षा की सफलता को नापना ही ऐसे है कि पढ़ाई करने के बाद बताओ पैकेज (वेतन) कितने का मिला? तो अगर पैकेज मुझे पढ़ाई करे बिना ही मिल रहा हो तो बुराई ही क्या है?

अगर आपने उम्र के पच्चीस साल जितनी पढ़ाई की उसकी सफलता या विफलता बस इस बात से नापनी है कि पच्चीसवें साल के बाद या अट्ठाईसवें साल के बाद आपको पैसा कितना मिल रहा है? तो अगर बिना पढ़ाई करे ही पैसा मिलता हो तो बुराई क्या है? बताओ न। अन्त में तो पैसा ही कमाना है न? और आप पच्चीस साल, तीस साल पढ़ाई करोगे फिर पैसा कमाओगे। और कोई कूल डूड निकल कर आ जाता है, वो कहता है, ‘मुझे देखो, मैं बहुत कम उम्र का हूँ। मैं क्या करता हूँ, मैं इंस्टाग्राम पर रील्स बनाता हूँ। मैं अठारह साल का हूँ, मैं यू-ट्यूबर बन गया। और देखो मैं लाखों कमाता हूँ।’ और लोग कहते हैं बात बिलकुल सही है। क्योंकि महत्व तो पहले भी शिक्षा को नहीं दिया जाता था, शिक्षा से जो पैकेज मिल रहा है उसको दिया जाता था।

शिक्षा का कोई महत्व तो कभी था भी नहीं। शिक्षा को तो बस एक माध्यम बनाया गया था अन्त में पैसे बनाने का। पैसे शिक्षा के बिना बन रहे हों तो और अच्छी बात है, समय बच गया। इतने साल फ़ालतू कॉलेज नहीं जाना पड़ा। अब भी वहीं स्थिति चल रही है। नतीजा हो रहा है कि एकदम अर्ध-विक्षिप्त युवाओं की एक बड़ी भीड़ तैयार होती जा रही है। अर्ध-विक्षिप्त क्योंकि अशिक्षित, उन्हें कुछ नहीं पता। भीतर का तो पता ही नहीं है; उसकी तो हम बहुत बात करना नहीं चाहते, आत्मज्ञान की, उसको तो हमने रद्दी की टोकरी में डाल रखा है, वो तो बेकार की बात है; उन्हें बाहर का भी कुछ नहीं पता। वो दुनिया के बारे में कुछ नहीं जानते। हाँ, वो पैसा कमा लेते हैं।

आप ऐसों के पास चले जाइए जो आजकल की सनराइज इंडस्ट्रीज (उद्योग) हैं जो लाखों कमा रहे होंगे, आप उनसे दुनिया के किसी मुद्दे पर बात करना शुरू कर दीजिए उनको नहीं पता होगा, वो कुछ नहीं जानते। लेकिन उन्होंने कोई ऐसा कोर्स कर लिया है या ऐसी कोई स्किल डेवलप (कौशल विकास) कर ली है जो अभी इंडस्ट्री में डिमांड (माँग) में है। तो उसके उनको पैसे अच्छे मिल जाते हैं। आप उनसे भारत के संविधान के बारे में पूछ लीजिए, उन्हें कुछ पता नहीं। मैं अभी नहीं कह रहा हूँ कि गीता-कुरान के बारे में पूछ लीजिए। मैं कह रहा हूँ, एक बाहरी ग्रन्थ जो है जिसका आत्मज्ञान से कोई ताल्लुक ही नहीं, संविधान; आप उनसे संविधान के बारे में भी कुछ कीजिए, उन्हें पता नहीं होगा। आप उनसे कहिए प्रिएंबल (प्रस्तावना) की स्पैलिंग लिख दो, लिख नहीं पाएँगे। पैसा अच्छा कमा रहे होंगे। आप उनसे कहिए, ‘ज़रा रूसी क्रान्ति की फ्रांसीसी क्रान्ति से तुलना करके दो चार बातें बताओ।’ कुछ नहीं, उन्हें पता ही नहीं कुछ ऐसा हुआ भी था। आप कहेंगे रूसी क्रान्ति, उन्हें लगेगा कि पुतिन (रूस के राष्ट्रपति) का किसी से झगड़ा हो गया है।

बात समझ रहे हैं?

तो एकदम अशिक्षित, अनपढ़ नौजवानों की एक बड़ी फ़ौज खड़ी हुई है, और उनको यकीन पूरा है कि वो ज़िन्दगी में सही जा रहे हैं। क्यों? क्योंकि उनको तनख्वाह अच्छी आ जाती है। वो किसी बड़ी आइटी इंडस्ट्री (तकनीकी उद्योग), बड़ी आइटी कंपनी के ऑफिस (कार्यालय) से उतरते हैं, उनकी चाल में एक स्वैग रहता है। क्यों? क्योंकि उनके चैक पर जो संख्या अंकित है वो बढ़िया, मोटी है। ये अलग बात है। मैं कह रहा हूँ, भीतरी जीवन का तो उनको कुछ नहीं ही पता है, उनको दुनियादारी का भी कुछ नहीं पता। आप उनसे दुनिया के किसी मुद्दे पर बात कर लीजिए, उन्हें कुछ नहीं पता होगा। हाँ, इतना हो सकता है कि बिटकॉइन का उन्हें कुछ पता हो, उतना वो शायद जानते होंगे। क्यों? क्योंकि वहाँ पैसा है। पर जहाँ तक पैसे की भी बात है आप उनसे पूछ लीजिए कि ये रेपो रेट क्या होता है? सीआरआर क्या होता है? सेंट्रल बैंक (केन्द्रीय बैंक) कैसे काम करता है? आरबीआई और एसबीआइ का क्या सम्बन्ध है? वो नहीं बता पाएँगे। पैसे में भी बस उन्हें ये पता होगा कि कहाँ पैसा डालकर कहाँ से निकाल लो तो और रुपये आ जाएगा। ये उनकी शिक्षा का कुल निचोड़ है।

तो बहुत ही निचली चेतना पर काम करने पर मजबूर कर दिया हमने अपने युवाओं को, उन्हें गलत शिक्षा दे-देकर। गलत और अधूरी शिक्षा। फिर चूँकि आप की शिक्षा व्यवस्था एकदम सड़ी-गली है, फिर इसलिए सोशल मीडिया पर, इंस्टाग्राम पर ऐसे बहुत सारे शिकारी खड़े हो गये हैं जो कहते हैं अब हम तुमको बताऍंगे न, आओ ये वाला कोर्स कर लो तो उससे तुम्हारी नौकरी लग जाएगी। ये वाला कोर्स कर लो तुम इन्वेस्टमेंट (निवेश) सीख जाओगे। और ये जवान लोग बहुत खुश हो जाते हैं, कहते हैं हम कर लेते हैं, ये कर लेते है, वो कर लेते हैं। तो जो हमारी फॉर्मल एजुकेशन (औपचारिक शिक्षा) में गैप (अभाव) है, उसको भरने के लिए इस तरह के बहुत सारे फ्लाई-बाय-नाईट ऑपरेटर्स (ग़ैरज़िम्मेदार) आ गये हैं। वो तो सिर्फ़ इसलिए आ गये हैं क्योंकि उन्हें अवसर दिख रहा है, वो ऑपर्च्युनिस्ट्स (अवसरवादी) हैं। पर वो अवसर उन्हें दिख इसीलिए रहा है क्योंकि हमारी पूरी शिक्षा व्यवस्था किसी काम की नहीं है। एक तो शिक्षा व्यवस्था काम की नहीं है और ऊपर से सामाजिक मूल्य, जिसमें लालच-ही-लालच के लिए सबसे ज़्यादा स्थान है। और वो बात भी आत्मज्ञान के अभाव से जुड़ी हुई है।

जब शिक्षा में आत्मज्ञान की जगह ही नहीं है तो आदमी लालच के अलावा और किस चीज़ के लिए जियेगा? और अकड़ इतनी हैं इन युवाओं में कि ये कहते हैं कि अगर मुझे कुछ नहीं पता है तो मुझे वो जानने की ज़रूरत भी क्या है? मुझे क्या ज़रूरत है जानने की कि अंग्रेज़ भारत में कब आये? उन्होंने भारत के साथ क्या किया? मुझे क्यों जानना है कि मुहम्मद गोरी कौन था? कि गज़नवी ने क्या किया? मुझे क्यों जानना है? चंद्रगुप्त मौर्य का ग्रीक्स (यूनानियों) के साथ क्या सम्बन्ध था मुझे क्यों जानना है? पैसा मिलेगा ये जानकर?

तो वो ये नहीं कहते कि हम अज्ञानी हैं। वो कहते हैं वो ज्ञान किसी काम का नहीं है, मैं जानूँ ही क्यों? मुझे नहीं पता है, न मैं जानना चाहता हूँ। मुझे तो ये बताओ अभी किस स्टॉक में इन्वेस्ट कर दूँ। और ये बताने वाले बहुत सारे शिकारी खड़े हो गये हैं। यू-ट्यूब पर आज-कल ऐसे चैनलों की बाढ़ आयी हुई है, जहाँ पर बिलकुल अशिक्षित लोग भी ज्ञान दे रहे हैं फाइनेंशियल इन्वेस्टिंग (वित्तीय निवेश) का।

ये क्या है?

ये शिक्षा दी जा रही है। ये शिक्षा क्यों दी जा रही है? ये शिक्षा को लेने वाले बहुत लोग क्यों हैं? क्योंकि आपके फॉर्मल सिस्टम (औपचारिक तन्त्र) ने सही शिक्षा कभी दी नहीं, तो जो उधर से नहीं मिला उसके विकल्प के रूप में लोग अब इधर से लेना चाह रहे हैं। जैसे कि कोई गाँव हो जहाँ अच्छा अस्पताल न हो, तो वहाँ किनकी दुकानें फलने-फूलने लगती हैं? नीम-हकीम, खतरा-ए-जान। ‘यहाँ सब तरह की बीमारियों का, खास तौर पर बवासीर का शर्तिया इलाज किया जाता है। दो टाॅंके में जड़ से खत्म।’ यही यू-ट्यूब पर चल रहा है, वो बवासीर का इलाज कर रहे हैं सड़क किनारे तम्बू गाड़कर के। और ये सब क्यों हैं? सिर्फ़ इसलिए क्योंकि सरकार एक अच्छा अस्पताल नहीं बना पायी इस गाँव में।

इसी तरीके से जिन्होंने हमारा सिलेबस (पाठ्यक्रम) सेट (स्थापित) करा है वो कुछ ठीक लोग नहीं थे। वो नहीं जानते मानव स्वभाव को। और अध्यात्म को तो वो बिलकुल ही नहीं जानते थे। हमारे नीतिनिर्धारकों, जो पूरा एचआरडी मिनिस्ट्री (मानव संसाधन विकास मन्त्रालय) है। (व्यर्थता का इशारा करते हुए)

कुछ समझ में आ रही है बात?

शिक्षा ये दोनों काम करे तब वो अच्छी है। पहला, आपको भीतरी तौर पर आँखें दें, ये शिक्षा का पहला काम है। आपको भीतर से जगा दे। और शिक्षा का दूसरा काम ये है कि आपको बाहरी जगत की समझ दे। दूसरे काम का परिणाम फिर ये भी होता है कि आप कमाने खाने लायक भी हो जाते हैं। तो आप कमाने खाने लायक हो जाएँ ये शिक्षा का तीसरा उद्देश्य है। वरीयता क्रम में इसका तीसरा स्थान है। पहला स्थान किस चीज़ का? आत्मज्ञान दे शिक्षा। दूसरा स्थान, बाहरी दुनिया की पूरी मुझे जानकारी दे। और फिर तीसरा स्थान आता है इसका कि शिक्षा अगर मैं ले रहा हूँ तो मुझमें ये काबिलीयत विकसित होनी चाहिए कि मैं कमा-खा सकूँ।

हमारी शिक्षा ऐसी है जो पहले दोनों काम तो करती भी नहीं ठीक से और तीसरा काम भी आधा-अधूरा ही कर पाती है। क्योंकि पूरी फॉर्मल एजुकेशन लेकर के भी जो लोग निकलते हैं वो एंप्लॉयबल (लायक) कहाँ होते हैं? तो एक और दो तो गये काम से, ये नम्बर तीन भी ठीक से नहीं कर पाती हमारी शिक्षा। नासकॉम ने न जाने कितने सर्वे (सर्वेक्षण) करे हैं और रिपोर्ट्स प्रकाशित करी हैं कि दस प्रतिशत इंजीनियर (अभियंता) भी इस देश के एंप्लॉयबल नहीं होते। आप उन्हें नौकरी दोगे कैसे? वो कर ही नहीं सकते, उन्हें कुछ आता ही नहीं है।

तो आत्मज्ञान, उसका तो सवाल ही नहीं उठता। सांसारिक ज्ञान, वो भूल जाओ। इनमें से कई ऐसे हैं जिनको अभी बोल दो कि दुनिया के नक्शे पर अर्जेंटीना दिखा दो, पाँच मिनट दिये जा रहे हैं, वो पाँच मिनट में दिखा नहीं पाएँगे। आत्मज्ञान कुछ नहीं। सांसारिक ज्ञान कुछ नहीं। और तकनीकी ज्ञान, जिससे रोटी मिले, वो भी नहीं। एंप्लॉयबल भी नहीं हैं। तो तुम शिक्षित हो कहाँ? तुम अशिक्षित हो। फिर ये अशिक्षित व्यक्ति जाएगा किसी दुकान में, कोई दो-तीन महीने का कोर्स करेगा, फिर इसे कोई नौकरी मिल जाएगी। नौकरी मिल गयी, अच्छी बात है, पेट चलने लगा। लेकिन वो जो नम्बर एक और नम्बर दो थे उनकी जो भीषण कमी है उसको कौन पूरा करेगा?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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