प्रश्नकर्ता: सर, ध्यान में एक चीज़ होती है मेरे साथ कि जब लगता है सब छूट गया तब दृष्टा को छोड़ता हूँ तो निद्रा पकड़ती है, बेहोशी छाने लगती है। दृष्टा को रखूँ या दृष्टा को जानें दूँ? या साक्षित्व तो पता नहीं क्या है। कृपया प्रकाश डालें।
आचार्य प्रशांत: ना बात दृष्टा को रखने की है, ना बात साक्षी को रखने की है; इन सब के पीछे जो तुम बैठे हो, दृष्टा, साक्षी, ये तो तुम्हारे हाथ के खिलौने हैं। खिलौने बदल भी लोगे तो क्या फ़र्क़ पड़ेगा, खेलने वाले तो तुम ही हुए। आज दृष्टा कह रहे हो, साक्षी कह रहे हो, कल तुम कोई विधि, कोई और यंत्र ले आओगे फिर उसकी बात करोगे, क्या फ़र्क़ पड़ता है। तुम ही लेकर आए हो, तुम ही छोड़ भी सकते हो।
अपने किए की सीमा जानना, बस ये है। अभी जब तुम सवाल कर रहे हो, तुम्हारे सवाल में बड़ी अकड़ है। पूछ तो ज़रूर ये रहे हो कि क्या करूँ, जैसे नहीं पता, लेकिन भावना ये है कि तुम्हारे करे कुछ हो जाएगा। भावना ये है कि ना सोऊँ तो शायद कुछ हो जाए; दृष्टा को पकड़ लूँ तो शायद कुछ हो जाए; साक्षी को पा लूँ तो शायद कुछ हो जाए। भावना लगातार यही है कि, "मेरे करे होगा।"
तुम्हें जो करना है करो। मन के हज़ार रंग, तुम्हें जिस रंग से खेलना है खेलो! पर ये बात छोड़ दो कि कोई भी रंग सत्य का रंग है। तुम्हें जिस दिशा जाना है जाओ। तंत्र, मंत्र, यंत्र – तुम्हें जो इस्तेमाल करना है करो, और नहीं करना तो मत करो। बस ये मान्यता छोड़ दो कि तुम्हारे कुछ करने से, या ना करने से कुछ आना-जाना है। ना तुम्हारे करने से कुछ होना है, ना तुम्हारे ना करने से कुछ होना है।
तुम्हारा दुःख भी बार-बार इसी बात को वैधता देता है कि कुछ होना चाहिए था जो हुआ नहीं। जान लो साफ़-साफ़ कि कुछ नहीं है जिसकी ज़िम्मेदारी है होना; कुछ नहीं है जो विशेषतया प्राप्य है तुम्हारे लिए।
ना सत्य की ज़िम्मेदारी है किसी विशेष रूप में आना तुम्हारे समक्ष, और ना तुम्हारी ज़िम्मेदारी है सत्य को प्राप्त करना। कुछ भी होने के लिए जब शेष बचा ही नहीं है तो कौन सी ज़िम्मेदारी किसकी? ज़िम्मेदारी का प्रश्न तो तब उठता है जब अभी कुछ अपूर्ति हो। कुछ करने को बचा हो, तब कहोगे न, "मेरी ज़िम्मेदारी है उसे कर डालना"? कुछ होने को बचा नहीं है, तुम्हारी कुछ करने की ज़िम्मेदारी नहीं है, अतः तुम क्यों दुखी हो रहे हो कि तुम अपने प्रति, अपने कर्तव्य का निर्वाह नहीं कर पा रहे?
तुम्हारा कोई कर्तव्य है नहीं! जो जैसा है, जहाँ जो चल रहा है, चलने दो। और जब मैं कह रहा हूँ ‘चलने दो’ तो उसमें ये भी शामिल है कि तुम्हारे मन में यदि उठे लहर कि जाएँगे और खेतों में खेल आएँगे, तो उसे भी होने दो। और उठे ये लहर कि आज दुकान पर बैठ कर के पूरे दिन बिक्री बढ़ाएँगे, तो उसे भी होने दो। बस जब बिक्री ना बढ़े तो ये जान लेना कि अस्तित्व की कोई ज़िम्मेदारी नहीं थी बिक्री बढ़ाने की। और ना तुम्हारी ज़िम्मेदारी थी अपने प्रति कि आज तो बिक्री बढ़ानी ही थी। बढ़ गयी तो ठीक है, नहीं बढ़ी तो भी ठीक है, क्योंकि बिक्री बढ़ने से पहले ही बिक्री पूरी थी।
अधिक-से-अधिक जो मुनाफ़ा तुम्हें हो सकता था तुम उसके ऊपर बैठे ही हुए हो, अब और बिक्री बढ़ा कर क्या कर लोगे? हाँ मुनाफा जब इतना हो जाता है तो उसके बाद ज़रा खेलने का मन करता है। देखा है न जिनके पास बड़ी विपुल राशियाँ आ जाती हैं वो फिर सिक्के उछालते हैं। तो जियो ऐसे कि सिक्के उछाल रहे हो। जियो ऐसे कि सिक्के उछाल रहे हो, अपने को बाँटे-बाँटे जियो।
और ये सब छोड़ो — साक्षी, ध्यान, दृष्टा, ये किन चक्करों में फँस रहे हो! कोई फँसा हुआ है कि शेयर बाज़ार, चार नयी इमारत और बनवा लें, एक किला और फ़तेह कर लें। कोई फँसा हुआ है कि बस अब साढ़े-तीन हो गए हैं अब चौथा मिल जाए तो तुरिया हो जाएगा। कोई कह रहा बस अब सविकल्प लग गयी है, एक धक्का और दो तो निर्विकल्प भी लग ही जाएगी। क्या झंझटों में फँस रहे हो, ये सब धक्के-बाज़ी छोड़ो!
चारों तरफ़ प्रकृति का फैलाव है, संसार का फैलाव है, देह है, मस्त जियो। देह से बाहर कोई समाधि नहीं होती, आत्मा नहीं जाती समाधि में, देह ही जाती है, मन ही जाता है; देह, मन एक हैं। या आत्मा घुसेगी समाधि में? ना हों शास्त्र तो क्या नहीं होगी समाधि? ना हों पूज्य गुरु-जन तो क्या नहीं होगी समाधि?
जो तुम्हारी सहज अवस्था है उसको सहज ही रखो; उसको इतना दुष्कर मत बना दो। जो दुष्कर है, वो दुष्प्राप्य भी हो जाएगा। जो करने में कठिन, वो पाने में तो महा-कठिन हो जाएगा। और तुम सारे काम ही वही बोलते हो जो करने में बहुत कठिन हों — साक्षी! यहाँ 'आक्छी' तो ठीक से हो नहीं पाता! देख रहे हो न कितने लोग हैं जो बेताब हैं छींकने के लिए; कोई इधर से छुपा रहा है, कोई उधर से छुपा रहा है। यहाँ 'आक्छी' वाले तो ठीक से हैं नहीं और तुम साक्षी की बात कर रहे हो!
जब छींक आए तो छींको, यही साक्षित्व है। छींक को रोको मत कि नाक दबा रहे हैं और गला दबा रहे हैं; यही है साक्षित्व। शरीर छींकना चाहता है, फेफड़े उद्धत हो रहे हैं, उन्हें छींकने दो, तुम क्यों बीच में घुसे जाते हो? यही साक्षित्व है — ग़ैर हस्तक्षेप! हमें कोई लेना-देना नहीं, शरीर का काम है, ठीक है। हम यूँ ही मस्त हैं।
ये पूरी प्रकृति सहज समाधिस्थ है। यहाँ किसी को समाधि की तलाश नहीं है। तुम उससे पिंड छुड़ाओ जो समाधि माँग रहा है। समाधि की इच्छा से पीछा छुड़ा लेना ही समाधि है।
कोई यहाँ नहीं जो समाधि माँग रहा हो। हम भाँति-भाँति तरीकों से समाधि माँगते हैं – खाने में समाधि मिल जाए, सोने में समाधि मिल जाए, बैंक में समाधि मिल जाए, दफ़्तर में मिल जाए, बिस्तर में मिल जाए, प्रेम में मिल जाए, प्रोन्नति में मिल जाए, कहीं तो मिल जाए समाधि! और जब कहीं ना मिले तो आध्यात्मिकता में मिल जाए। जिस दिन ये सब माँगे छोड़ दीं उसी क्षण समाधि है।
तीन तरह के लोग होते हैं — पहले, जो ब्रह्म को अनेक-अनेक नामों से बुलाते हैं, माँगते हैं। कोई बोलता है ब्रह्म को साड़ी, कोई बोलता है दुकान, कोई बोलता है बेटा-बेटी, कोई बोलता है प्रतिष्ठा, कोई बोलता है प्रेम चाहिए। ये सब चाहिए! कोई बोलता है ज्ञान, कोई बोलता है विविध तरह के सुखदायी अनुभव। ये सब लोग ब्रह्म ही माँग रहे हैं पर बिखरे हुए नामों से।
फिर एक दूसरा होता है जो कहता है, "ना, वो सारे नाम छलावा हैं, उन सारे नामों से ही मुक्त होना है। अब ना साड़ी चाहिए, ना बीवी चाहिए, ना नौकरी चाहिए, ना गाड़ी चाहिए, ना दुनिया चाहिए, ना देश चाहिए, ना ज्ञान चाहिए, ना अनुभव चाहिए, हमें तो ब्रह्म चाहिए!” अब ये सारे नामों का परित्याग करके, एक नाम पकड़ता है ब्रह्म। इसकी सारी इच्छाएँ गयीं, एक इच्छा बची — ब्रह्म-इच्छा।
फिर एक तीसरा होता है जिसे ब्रह्म भी नहीं चाहिए, वो ब्रह्म होता है! समझ रहे हो बात को? निन्यानवे प्रतिशत लोगों को दुनिया चाहिए, उनके लिए दुनिया ब्रह्म है। एक प्रतिशत को ब्रह्म चाहिए। और फिर है ब्रह्म, जिसे कुछ नहीं चाहिए, जिसे ब्रह्म भी नहीं चाहिए।