चिंता ऐसी डाकिनी, काट कलेजा खाए। वैद बेचारा क्या करे, कहा तक दवा लगाए।। ~ कबीर साहब
प्रश्नकर्ता: अर्थात् तो इसमें कबीर जी कहना चाहते हैं कि चिंता एक भूत है, एक राक्षस है, गुज़रा हुआ कल है जो कलेजा को खंखोरता है अन्दर-ही-अन्दर, और इसका इलाज कुछ नहीं है। कोई भी, कितना भी, संत जितने प्रवचन दे दे, कोई वैद इलाज कर दे, गुरु अपनी बातों को कह दे, लेकिन इसका कोई इलाज नहीं है अगर चिंता को न छोड़ा जाए।
आचार्य प्रशांत: इसका मतलब ये है कि किसी भी बीमारी का इलाज वहीं हो सकता है जहाँ वो बीमारी है। चिंता मन के भीतर है, उसका इलाज कहीं बाहर नहीं हो सकता। “वैद बेचारा क्या करे, कहाँ दवा लगाए।” वैद तो शरीर ही जानता है। शरीर माने वो सारी चीज़ें जो मटेरियल हैं, जो चीज़ दिखाई पड़ती हैं, जो पकड़ में आती हैं और हम भी यही सोचते हैं।
किसी को चिंता होती है तो हमें लगता है कि ये चिंता, दूर की जा सकती है दुनिया में कोई काम करने से। कोई भी ये नहीं कहता कि मुझे चिंता है, हर कोई ये कहता है कि उसे किसी वजह से चिंता है। कोई ये कहता है उसे रूपये की चिंता है, कोई ये कहता है कि उसे प्रतिष्ठा की चिंता है, कोई कहता है उसको एग्ज़ाम की चिंता है, नौकरी की चिंता है, रिश्तेदारी की चिंता है, यही सब है न?
तो हमें लगता है कि चिंता की कोई ठोस वजह होती है। जैसे कि कोई कह रहा हो कि अभी उसको रूपये की चिंता चल रही है तो तुम्हें ख्याल ये आएगा कि यानि कि अगर इसका रूपये का इन्तज़ाम हम ठीक कर दें। इसकी चिंता?
प्रश्नकर्ता: खत्म हो जाएगी।
आचार्य प्रशांत: खत्म हो जाएगी। पर ऐसा होता देखा है क्या?
प्रश्नकर्ता: नहीं।
आचार्य प्रशांत: किसी को रूपये की चिंता है और मान लो कि उसके पाँच लाख रूपये फँसे हैं, उसके कहीं। तो उसके पाँच लाख रूपये छुड़वा दो, तो क्या उसकी चिंता खत्म हो जाती है?
प्रश्नकर्ता: नहीं।
आचार्य प्रशांत: तुरन्त उसको चिंता करने के लिए कोई दूसरा कारण, कोई दूसरी वजह, ऑब्जेक्ट मिल जाता है। मिल जाता है कि नहीं मिल जाता है? इसका मतलब तुमने व्यर्थ ही मेहनत करी। उसकी चिंता जहाँ पर थी नहीं, तुम वहाँ पर मलहम लगा रहे थे। तुम पैसे से चिंता दूर करने की कोशिश कर रहे थे। तुम सोच रहे थे चिंता ब्रीफ़ केस के अन्दर है। चिंता थी कहाँ पर?
प्रश्नकर्ता: मन में।
आचार्य प्रशांत: कबीर वही कह रहे हैं –
चिंता ऐसी डाकिनी, काट कलेजा खाए। वैद बेचारा क्या करे, कहा तक दवा लगाए।।
मन के भीतर तो वैद दवा नहीं लगा पाएगा। मन के भीतर तो दवा फिर कोई ऐसा लगा सकता है जो मन को समझता हो। वैद नहीं मन को समझता वो शरीर को समझता है वो मलहम-वलहम लगा देगा। पर ये दर्द ऐसा है जो शारीरिक नहीं है, ये दर्द मानसिक है। बात समझ रहे हो?
कभी भी ये मत समझना कि तुम्हारे पास चिंता की कोई वाजिब वजह है। हर कोई सोचता यही है कि उसके पास चिंता का कोई कारण है, चिंता का कोई कारण नहीं होता। चिंता बस होती है और जो मन चिंताग्रस्त है वो चिंता के बहाने खोज लेगा। और किसी दिन उसको चिंता नहीं हो रही होगी तो उसको ये चिंता हो जाएगी कि आज उसको चिंता क्यों नहीं हो रही है? कुछ लोगों को इसी बात पर दिक्कत हो जाती है कि सबकुछ ठीक क्यों चल रहा है। ज़रूर कुछ गड़बड़ है सबकुछ ठीक कैसे चल रहा है।
प्रश्नकर्ता: कुछ गड़बड़ होने वाला है।
आचार्य प्रशांत: कुछ गलत होने वाला है क्योंकि उनको ये चाहिए कि कहीं कुछ-न-कुछ गलत होता रहे। ताकि वो किसी पर शक कर सकें किसी की बुराई कर सकें, किसी के प्रति सतर्क रह सकें, किसी से डर सकें। इसीलिए तो हमें ये सब भूत-प्रेत बातें अच्छी लगती हैं न। मन चाहता है कि कुछ गलत होता रहे। जब कुछ गलत हो रहा होता है तो मन को उसमें बड़ा रोमांच होता है। वही हॉरर फ़िल्म जैसा। कुछ है नहीं डराने को तो तुम टिकट खरीदकर डरने जाते हो। ज़िन्दगी में कुछ नहीं है जो तुम्हें डराए तो तुम कहते हो चलो पैसा खर्च करेंगे, टिकट खरीदेंगे और डरेंगे।
तो मन ऐसा ही होता है। चिंता करने को कुछ नहीं है तो वो ज़बरदस्ती की चिंता करेगा, ढूँढ-ढूँढकर चिंता करेगा। खोजेगा कि कहीं कुछ मिल जाए जो गलत हो रहा हो। जब भी कभी ईमानदारी से देखोगे कि चिंता की वजह कोई वजह है, तो कोई वजह पाओगे नहीं। समझ रहे हो न?
जब भी कभी वो कर रहे होगे जो उस समय किया जाना चाहिए तो तुम्हारा पास चिंता के लिए समय ही नहीं होगा। कैसे चिंता कर लोगे, चिंता के लिए सोचना पड़ता है न, और सोचने के लिए दिमाग का खाली होना ज़रूरी है। जब दिमाग पूरी तरीके से कहीं और लगा हुआ है, कोई चिंता के लिए खाली बैठकर सोचेगा कैसे?
तुम यहाँ पर हो कैंप पर सुबह से लेकर शाम तक तुम्हारे पास कुछ करने के लिए अच्छा है। कभी तुम खाना बना रहे हो, कभी तुम ज़मीन गोड़ रहे हो। कभी तुम पानी भरकर ला रहे हो। कभी तुम एक्सरसाइज़ कर रहे हो। तुम हर समय कुछ अच्छा कर रहे हो। चिंता कब करोगे?
चिंता वही आदमी करता है जो वो नहीं कर रहा होता है जो उसे करना चाहिए। अब सोचो, एक चार लोगों की टीम बनी है खाना बनाने के लिए। तीन तो उसमें से खाना बना रहे हों और चौथा कह रहा हो तीन कर ही रहे हैं तो हमें करने की क्या ज़रूरत है। टू मेनी कुक्स स्पॉइल द केक ( कई सारे रसोइये केक खराब कर देते हैं।) तो ज़रा अलग हो जाते हैं। और वो वहाँ कोने में जाकर बैठ गया है और वो चिंता कर रहा है प्लेसमेंट की। उन तीन लोगों की चिंता होगी जो खाना बना रहे हैं?
प्रश्नकर्ता: नहीं।
आचार्य प्रशांत: वो चौथा वहाँ कोने में बैठकर चिंता कर रहा है पसीने-पसीने में हो गया है। इसने सब देख लिया वो बेरोज़गार है तीन साल से नौकरी नहीं लगी है। घरवाले ताने मार रहे हैं, दुनिया में तिरस्कार कर दिया है। और अब आत्महत्या की नौबत आ गयी है। जितनी देर में खाना बन रहा है उतनी देर में इसकी कहानी बहुत आगे बढ़ गयी है। और ये सब करके उसको प्लेसमेंट मिल जाएगा? कोई फ़ायदा हुआ ये कहानी आगे बढ़ा कर? जल्दी बताओ।
प्रश्नकर्ता: नहीं सर।
आचार्य प्रशांत: पर मन ये चाहता ही नहीं है कि शांतिपूर्वक जो होना चाहिए उसको करे। हमने शाम को बात करी थी कि मन का एक ही उद्देश्य होता है, क्या?
प्रश्नकर्ता: डिस्टर्बैंस (परेशान)।
आचार्य प्रशांत: मन माने डिस्टर्बैंस , मन माने शैतान का अड्डा, मन माने जिन्न की गुफ़ा, मन माने भूत का बरगद। बात समझ रहे हो?
प्रश्नकर्ता: यस सर।
आचार्य प्रशांत: मन माने उपद्रव। शांति में तो मन बौखला जाता है कि ये क्या हो गया! ये क्या हुआ! तुम देखते नहीं हो लोगों को – जैसे यहाँ शांति है, शांति रहे तो बौरा जाएँगे। वो अपने कमरे में जाएँगे और तेज़ी से वहाँ पर कोई सीडी लगा देंगे, रेडियो लगा देंगे। और उसमें व्यर्थ बकवास आ रही है बिलकुल भायें-भायें। पर वो उसमें खुश रहेंगे, बड़ी सुविधा रहेगी उनको। चुप्पी से डर जाते हैं। होता है कि नहीं होता है? हम चुप्पी से डरते हैं कि नहीं डरते हैं?
प्रश्नकर्ता: डरते हैं सर।
आचार्य प्रशांत: मौन हमें डरा देता है। शब्द चलते रहें फिर भले ही उनमें बकवास भरी हो, ठीक? मन का चलना ही व्यर्थ का झंझट है। मन जब तुम्हारा खूब चल रहा हो। तो मन के साथ मत हो जाया करो, जैसे ही मन चिंता में खूब चल रहा हो। या प्लानिंग में खूब चल रहा हो, या अपने हिसाब-किताब में खूब चल रहा हो, या डिज़ायर्स (इच्छाओं) पर खूब चल रहा हो तुरन्त समझ जाया करो कि ये काम शैतान का चल रहा है। चुड़ैल नाच रही है जैसे कि मेक उप (श्रृंगार करना) करके नाच रही है, पर नाच रही है, पर है तो चुड़ैल। अब नाच रही है चाहे जो आफ़त आये। जब भी दिमाग खूब चले तो समझ लो?
प्रश्नकर्ता: चुड़ैल नाच…
आचार्य प्रशांत: नाच रही है, कोई तो आफ़त आएगी।
प्रश्नकर्ता: दूर किया जा सकता है?
आचार्य प्रशांत: वहीं दूर करना, दूर करना जहाँ वो है, बाहर मत दूर करने लग जाना। वो वहाँ खम्भे पर नहीं नाच रही है। तो याद रखना बाहर कुछ भी करने से तुम चुड़ैल का इलाज नहीं कर पाओगे। क्योंकि चुड़ैल बाहर है ही नहीं। मन का इलाज मन में ही होगा।
हम क्या करते हैं न मन उलझन को बाहर सुलझाने निकल पड़ते हैं। कोई परेशान हो रहा है चलो पैसा कमा लें, क्या पता परेशानी दूर हो जाए। कोई परेशान होता है तो कहता है चलो दोस्त के गपशप कर लेंगे क्या पता चिंता अभी दूर हो जाए। अन्दरूनी चिंता का बाहरी इलाज करने मत निकल पड़ना। चिंता अन्दरूनी है इलाज भी अन्दरूनी ही होगा, ठीक है?