प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, मेरा प्रश्न चार दिवसीय कार्य नीति पर है। एक रिपोर्ट कहती है कि कार्य-संस्कृति अधिक गतिशील होगी, लोगों के पास अब समय बहुत रहेगा। क्लब कल्चर और हेडोनिज़्म (आनन्दवाद) काफ़ी देखने को मिलता है। ऐसा मेरा मानना है कि ये और बढ़ सकता है। क्या आम व्यक्ति अपने समय का सदुपयोग कर पाएगा, इसके बारे में आपकी क्या राय है?
आचार्य प्रशांत: देखो, ये जितनी बातें हो रही हैं, ये सब उस काम के बारे में हो रही हैं जो स्ट्रेस , तनाव देता है और काम तनाव तभी देता है जब आप काम सही कारणों से न कर रहे हों। जब आप सही कारणों से काम नहीं करते तो आप दो ही चीज़ों का इंतज़ार करते हो — एक रविवार का और दूसरा सैलरी डे का। दो ही चीज़ें आप चाहते हो कि या तो तनख़्वाह बढ़ जाए या काम करने के दिन कम हो जाएँ, बहुत सारे रविवार आ जाएँ। ठीक है?
क्योंकि काम से आपको कोई लगाव तो होता नहीं, न आप उस काम की महत्ता जानते हो। होती ही नहीं उस काम में ज़्यादातर कोई महत्ता तो आप जानेंगे कैसे! तो वो काम फिर क्या होता है? वो काम बस फिर पेट चलाने का साधन होता है। पेट इससे चलता रहेगा और ज़रूरतें पूरी होती रहेंगी। कुछ इच्छाएँ, उनके लिए पैसा निकलता रहेगा।
लेकिन इंसान इन चीज़ों के लिए न पैदा हुआ है न इन्हीं के मत्थे जी सकता है कि पेट चलता रहे और जीवन की सामान्य, साधारण जो इच्छाएँ हैं वो पूरी होती रहें। तो ऐसे काम के साथ आपका दिल लग नहीं सकता। ऐसा काम मजबूरी होता है बस। मजबूरियों से कोई दिल लगा सकता है क्या?
ठीक वैसे जैसे छोटे बच्चे स्कूल जाने के नाम पर परेशान होते हैं, नखरे करते हैं, विरोध करते हैं। फिर खींच-खाॅंचकर उनको नहलाना पड़ता है, ड्रेस पहनानी पड़ती है, बस्ता बाँधकर उन्हें बस में फेंकना पड़ता है कि चलो जाओ। और वो बहुत खुश हो जाते हैं जिस दिन बारिश होती है सुबह-सुबह कि आज बहुत बढ़िया, छुट्टी हो गयी।
वैसे ही आम आदमी जब बड़ा हो जाता है, तो बिलकुल उसी ढर्रे पर चल रहा होता है जैसे वो बचपन में चल रहा था। बचपन में स्कूल जाता था वो मजबूरी के मारे और जब बड़ा हो जाता है, तो दफ़्तर जाता है या दुकान जाता है मजबूरी के मारे।
छुटपन में अगर आपको ये कह दिया जाता कि बिना पढ़े-लिखे आपको पास कर दिया जाएगा, नंबर पूरे मिल जाऍंगे या किसी को कोई नंबर नहीं मिलेंगे, सबको बस पास कर दिया जाएगा एकमुश्त, तो आप असानी से तैयार हो जाते। आप कहते, ‘ठीक है, ठीक है। फिर तो कोई दिक्क़त ही नहीं। किताब उठाने का क्या है, किताब उठाते ही इसीलिए थे कि पास हो जाऍं, अगर पास हो सकते हैं बिना किताब उठाये तो किताब नहीं उठाऍंगे।’ किताबों से कोई प्रेम तो था नहीं।
इसी तरीक़े से काम में अगर हमें ये बता दिया जाए कि पैसे मिल जाऍंगे बिना कोई काम करे, तो कितने लोग हैं जो मना करेंगे, कहिए? पूरी सैलरी मिलेगी, काम कुछ नहीं करना है, कोई मना करेगा? क्योंकि मतलब ही सैलरी से है, काम से तो है नहीं। और दुनिया का नब्बे-पचानवे, हो सकता है, निन्यानवे प्रतिशत काम ऐसा है जो करने लायक़ है भी नहीं, तो उसको करके किसी का मन क्या शान्त होगा।
तो इस वातावरण में, इस पृष्ठभूमि में समझिए कि जब वर्क वीक (कार्य सप्ताह) छः से पाँच दिन का होता है तो क्यों इतनी खुशी मचती है, फिर चार दिन का हो गया तो उत्सव मन जाता है, तीन दिन का हो जाए तो लोग आनंद के अतिरेक में सड़कों पर निकल आऍंगे, गगन गुॅंजा देंगे खुशियाँ मना-मनाकर।
समझ में आ रही है बात?
और श्रीकृष्ण कह गये हैं कि जीवन, कर्म के अतिरिक्त कुछ है ही नहीं। ये तो बड़ा घपला हो गया। वो समझा रहे हैं बार-बार, बार-बार कि अर्जुन, कर्म के अतिरिक्त जीवन कुछ नहीं है। कोई चाहकर भी कर्म से नहीं बच सकता। पूरा कर्मयोग ही यही है कि सही कर्म में आकंठ डूब जाओ। युक्त व्यक्ति को श्रीकृष्ण उच्चतम स्थान देते हैं और युक्त व्यक्ति वो है जो कर्म में इतना डूब गया है कि भविष्य को भूल गया है। वो कह रहा है, ‘कर्मफल भविष्य में चाहिए ही नहीं। काम में ही ऐसा आनंद है कि कर्मफल की क्या ज़रूरत।’ और हम बिना कर्मफल के…।
एक बड़ी सी इमारत होगी, उसमें बहुत सारी आइटी कम्पनीज़ के ऑफिसेज़ होंगे। तो अपनी कम्पनी से आप बाहर निकलते हैं, बगल वाली कम्पनी का एचआर दरवाज़े पर खड़ा है, बोलता है, ‘अंदर आना।’ वो दो हज़ार रुपये ज़्यादा थमा देता है, अगले दिन इस्तीफ़ा। क्या रिश्ता है कर्म से? बिकाऊ कर्म, भाड़े का कर्म!
तो आप कह रहे हो कि लोगों का तनाव कम हो गया है, खुशियाँ बढ़ गयी हैं। मैं कह रहा हूँ, ‘चार दिन से घटा कर तीन दिन कर दो, खुशियाँ और बढ़ जाएँगी। एकदम काम नहीं कराओ तो मैं कह रहा हूँ, प्रसन्नता का ज्वालामुखी फूट पड़ेगा, खुशियों का लावा सबकुछ बहा ले जाएगा।’
भाई, हमने तो जिनसे सीखा है, गीताकार से, वो तो हमसे कह गये हैं कि हफ़्ते में आठ दिन काम करो। लोग लगे हुए हैं कि चार दिन, तीन दिन, दो दिन करना है, हम लगे हुए हैं कि सात दिन में कैसे आठ दिन काम कर दें। तो हमें तो अब ये सब नहीं पता कि काम और कम कराओ तो लोगों को बड़ी प्रसन्नता छाती है।
बिलकुल ठीक पूछा आपने, चार दिन काम कर रहे हैं बाक़ी तीन दिन क्या कर रहे हैं। सोऍंगे और क्या करेंगे। कुछ नहीं वही सब खुशी के पुराने फॉर्मूले — बाज़ार चले जाऍंगे, कुछ खरीदेंगे, कहीं पड़े रहेंगे, सोऍंगे, गप्पबाज़ी करेंगे। जिसको अपनी हॉबी (शौक) और इंट्रेस्ट (रुचियाॅं) बोलते हैं उसमें लग जाऍंगे। और हॉबी और इंट्रेस्ट किस तरीक़े के होते हैं हमारे, हम जानते ही हैं। अपवादों को छोड़ दीजिए तो ज़्यादातर लोगों के जो इंट्रेस्ट होते हैं, वो उनके लिए और पूरी दुनिया के लिए बड़े घातक होते हैं। कम ही लोग होंगे जिनको खाली समय मिले तो चित्रकारी करेंगे या नृत्य सीखेंगे।
ज़्यादातर लोगों को आप खाली समय दे दीजिए, तो वो क्या करेंगे? कुछ ऐसा करेंगे जो आत्मघातक होता है और दुनिया के लिए घातक होता है। ख़ास तौर पर ऐसा आदमी जिसके हाथ में पैसा खूब हो, उसको आप खाली समय दे दीजिए फिर देखिए कि वो उस पैसे से कैसे पूरी दुनिया में आग लगाता है।
समझ में आ रही है बात?
आने वाला समय एक और बड़ा प्रश्न खड़ा करेगा। क्योंकि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और रोबोटिक्स ज़्यादातर जो रूटीन काम हैं उनको ऑटोमेट (स्वचालित) कर देंगे, उसमें इंसानों की ज़रूरत नहीं बचेगी। होना भी यही चाहिए। जो काम एक मशीन कर सकती है वो इंसान क्यों करें? क्योंकि वो काम निश्चित रूप से बहुत फॉर्मुलायिक है, बहुत ढर्राबद्ध है। उसमें कोई बुद्धि, कोई सृजनात्मकता लग नहीं रही न, तभी तो उसे एक मशीन भी कर सकती है।
तो जितने काम मशीन कर सकती है, वो मशीनों को चले जाऍंगे। कोड कर दीजिए, मशीन वो काम कर देगी। और कोड भी अगर एकदम साधारण तरीक़े का है, तो मज़ेदार बात ये है कि मशीन कोड भी ख़ुद ही लिख देगी। कोडिंग के लिए भी कोडर नहीं चाहिए, मशीन कोड भी लिख देगी। तो टाइम बहुत बचने वाला है। और हम ऐसे लोग हैं जिन्हें पता नहीं है कि जीवन में सार्थक कर्म, चीज़ क्या होती है।
अब इतने सारे खाली समय का करेंगे क्या? वो जो खाली समय है वो हमारे लिए प्राण घातक हो जाएगा। ज़्यादातर लोगों के लिए बहुत अच्छा है कि वो सुबह से लेकर शाम तक उनका काम उनको खपाये-पचाये रहता है। नहीं तो विकराल प्रश्न खड़ा होने वाला है। भाई, दो-चार दिन की छुट्टी ठीक होती है, छ: महीने की छुट्टी मिल जाए तो क्या हो जाता है? बड़ी समस्या हो जाती है न, क्या करें।
घर में बच्चे होंगे, बच्चों की एक दिन की छुट्टी हो, ठीक है। जब बच्चों की बीस दिन वाली छुट्टी आती है तो माएँ प्रार्थना करती हैं, ‘जल्दी स्कूल खुले।’ क्योंकि बच्चों को पता नहीं है कि क्या करना है ज़िन्दगी में, तो घर में फिर क्या करते हैं जैसे ही खाली समय मिला? उपद्रव। यही बच्चा तो बड़ा हो गया है, इसको खाली समय मिलेगा तो ये महाउपद्रव करेगा। और खाली समय मिलने वाला है। खाली समय आने वाला है और खाली समय बहुत बड़ी चुनौती की तरह आ रहा है।
कुछ ढूॅंढिए तो जिसमें सौंदर्य हो, सार्थकता हो, बड़ी कोई चुनौती की बात हो, विनाश का जवाब जहाँ सृजन से देना हो। तब फिर उस काम में आप घंटे नहीं गिनते, उस काम में आप परिणाम की ओर भी नहीं देखते। न ये देखते हो कि उस काम में श्रम कितना लग रहा है, कठिनाई कितनी आ रही है, न ये देखते हो कि उस काम से फ़ायदा और फल कितना मिलेगा। वो काम अगर नहीं है तो जीवन जीने लायक़ भी नहीं है।
मैं बिलकुल समझ नहीं पाता हूँ, क्योंकि मैं रहा हूँ तीन, सवा तीन, साढ़े तीन साल कॉरपोरेट में और दो-तीन बिलकुल अलग-अलग सेक्टर्स की रिप्यूटेड (प्रतिष्ठित) कम्पनीज़ में काम करा था, मुझे नहीं समझ में आता कि लोग एक मर्सिनरी (भृतक) की तरह ज़िन्दगी भर कैसे काम कर पाते हैं।
आपको काम में मीनिंग , अर्थवत्ता ढूॅंढनी पड़ेगी। और उसमें अगर नुक़सान होता हो, दिक्क़त आती हो तो सामना करिए। सारे मज़े एक साथ कोई नहीं लूट सकता कि काम भी उच्चतम कोटि का हो और उसके साथ सुविधा भी मिले और पैसा भी बढ़िया मिले। इतनी सारी चीज़ें एक साथ माॅंगेंगे तो पूरी नहीं होगी बात। जो चीज़ सबसे आवश्यक है उसको सबसे ऊपर माॅंगिए और उसको माॅंगने में अगर बाक़ी चीज़ों का बलिदान करना पड़े तो कर दीजिए।
हम हर समय काम कर रहे हैं न। अर्जुन को यही समझा रहे हैं वो कि अर्जुन, बेटा कौन है जो कर्म से बच सकता है, बताओ। कोई नहीं बच सकता कर्म से। आप जब ये भी कहते हो कि आप कुछ नहीं कर रहे उस वक़्त भी आप कुछ कर रहे हो, क्या? कुछ नहीं।
क्योंकि करने वाला तो उस समय भी मौजूद है, उपस्थिति तो उसकी कहीं चली नहीं गयी न, कर्ता की, कर्ता तो है ही। बस ये हो सकता है कि उस समय उसका जो कर्म है वो थोड़ा अदृश्य है, सूक्ष्म है, पता नहीं चल रहा है, पर कर्ता है तो कर्म होगा ज़रूर। कर तो आप रहे ही हो। बिना करे तो कोई एक पल नहीं रह सकता। जीवन का अर्थ ही है लगातार कर्म, तो जीने का मतलब है करना। जीना माने? करना। सही जीना माने?
प्रश्नकर्ता: सही कर्म करना।
आचार्य प्रशांत: प्रेम में जीना माने?
प्रश्नकर्ता: प्रेम में कर्म करना।
आचार्य प्रशांत: सार्थक जीना माने?
प्रश्नकर्ता: सार्थक कर्म करना।
आचार्य प्रशांत: हर चीज़ घूम-फिरकर कर्म पर आती है कि आप क्या कर रहे हो। आप ये नहीं कह सकते कि आदमी बढ़िया हूँ काम गन्दा करता हूँ। ‘आदमी बढ़िया हूँ, लेकिन मेरे काम से मेरा कोई प्रेम का रिश्ता नहीं है,’ ये सब नहीं चलेगा, ऐसे नहीं होता। आप वही हो जो आप कर रहे हो। आपकी हस्ती क्या है? आपका कर्म। एक तो एकदम आत्यंतिक जवाब है इस प्रश्न का कि कोहम्, मैं कौन हूँ। आख़िरी जवाब है मौन या आत्मा या सत्य।
लेकिन उसका जो तात्कालिक जवाब है, व्यावहारिक जवाब है, वो ये है कि मैं वो हूँ जो मैं कर रहा हूँ। ‘जो मैं कर रहा हूँ, वही मैं हूँ, और क्या हूँ!’ बाक़ी सब तो हवाई बातें हैं, किताबी। असली बात ये है कि मैं वही हूँ जो मैं कर रहा हूँ। तो आप जो कर रहे हैं उसका ताल्लुक़ सीधे-सीधे आपकी हस्ती से है। आप वही हैं जो आप कर रहे हैं और आप जो कर रहे हैं वो आपको इतना घिनौना लगता है कि आप उससे हफ़्ते में तीन-चार दिन भागना चाहते हैं, तो घिनौने काम का सीधा अर्थ हुआ, घिनौना…?
प्रश्नकर्ता: जीवन।
आचार्य प्रशांत: घिनौना जीवन। काम अच्छा होता तो आप उससे इतना भागना क्यों चाहते? काम गड़बड़ है तभी तो आप उससे भाग रहे हो न या अच्छी चीज़ से भागा जाता है? चीज़ गड़बड़ होती है तभी तो उससे भागते हो। काम अगर गड़बड़ है तभी उससे भाग रहे हो। और काम अगर गड़बड़ है तो माने ज़िन्दगी ही गड़बड़ है और ज़िन्दगी ही अगर गड़बड़ हो गयी तो फिर बचा क्या! क्या बचा?
जो आदमी अपने काम से भाग रहा हो, तो सोचो कैसी उसकी दयनीय अवस्था है। ज़िन्दगी से भाग रहा है। ज़िन्दगी में ही कुछ नहीं है उसके। काम माने वही चीज़ नहीं जो पैसा दे। पैसा तो आवश्यक है ही शरीर के भरण-पोषण के लिए। जो भी कुछ करना चाहते हो उसमें भी संसाधन लगते हैं, उसके लिए भी पैसा आवश्यक है, लेकिन काम का अन्तिम उद्देश्य पैसा नहीं हो सकता। पैसा एक माध्यम है। काम का उद्देश्य है मुक्ति।
तो श्रीकृष्ण जब कहते हैं अर्जुन से कि हर समय हर व्यक्ति कुछ-न-कुछ कर ही रहा है, तो कहते हैं, ‘लेकिन अलग-अलग लोग अलग-अलग तरीक़े के काम कर रहे हैं।’ तो वो तीन-चार तरह के कर्म गिना देते हैं। कहते हैं, ‘निषिद्ध कर्म भी करने वाले बहुत बैठे हुए हैं, अकर्म करने वाले भी बैठे हैं, विकर्म करने वाले भी बैठे हैं, पर अर्जुन तुम तो करना निष्काम कर्म।’
कुल बात समझ में आ रही है?
कर्म तो सभी कर रहे हैं, अनिवार्य है कर्म। बिना कर्म करे कोई नहीं एक पल भी रह सकता। जब तक देह है और चेतना है देह में, तब तक कर्म तो निश्चित है। तो फिर प्रश्न क्या बचता है कि कर्म की कोटि क्या है, कर्म की गुणवत्ता क्या है। और एक ही प्रकार का कर्म है जो आपकी ज़िन्दगी को सार्थक कर सकता है, उसको क्या बोलते हैं?
प्रश्नकर्ता: निष्काम कर्म।
आचार्य प्रशांत: तो अपने कर्म की गुणवत्ता पर कड़ी नज़र रखिए — ‘क्या कर रहा हूँ, किसके लिए कर रहा हूँ, जो कर रहा हूँ उससे हासिल क्या हो रहा है।’
आ रही है बात समझ में?