मन ने जो पकड़ा सब अधूरा, मन कहाँ जान पाएगा पूरा || आचार्य प्रशांत (2015)

Acharya Prashant

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मन ने जो पकड़ा सब अधूरा, मन कहाँ जान पाएगा पूरा || आचार्य प्रशांत (2015)

प्रश्न : आपने कहा कि आध्यात्मिकता की भाषा भक्ति विधायक भाषा नहीं है, पर पूर्णता की बात करते हैं उपनिषद। यह दोनों बातें समझ नहीं आयीं।

वक्ता : पूर्णता में यह थोड़ी ही कहते हैं कि ‘पूर्ण’ क्या? ‘पूर्ण’ क्या? सुना नहीं है क्या? यह बर्तन पूरा खाली है। पूरा भरा होता तो कुछ कहा जाता कि किस चीज़ से भरा है। उपनिषद यह तो ज़रूर कहते हैं कि वह पूर्ण है। पर कभी यह भी कहते हैं कि ‘क्या है’ और ‘कौन है’? ‘पूर्ण’ भर तो कहा। पूर्ण तो विशेषण है। पूर्ण तो विशेषण भर है, पूर्ण कोई वस्तु तो नहीं होती।

आप बोलते हैं, पूरा काला, पूरा सफ़ेद। पूर्ण कोई वस्तु होती है? कभी आपने किसी को भेजा है कि बाज़ार जाओ और पूरा ले आओ? आपको बताना पड़ेगा न कि पूरा ‘क्या’? उपनिषद कहते हैं कि पूरा ‘क्या’? तो विधायक नहीं हो रहे हैं। बस यह कह रहे हैं कि बीच में नहीं रुकना- पूरा। अंश नहीं, पूरा। अंश नहीं। क्योंकि अंश होते हैं वस्तुओं के। वस्तुओं के अंश होते हैं। और अंश हो गए, तो वस्तु हो गए। आधे-अधूरे हो गए तो वस्तु हो गए। वस्तुओं के ही तो आधे-अधूरे अंश होते हैं।

उपनिषद कह रहे हैं कि इतना पूरा कि पूरे में से पूरा, तब भी पूरा। पर पूरा क्या? यह ध्यान ही नहीं दिया। यह तो कभी बताते ही नहीं।

बड़ा अच्छा लगा, पढ़ लिया – पुर्नामिदः पूर्णमिदं

यह नहीं देखा कि बताने वाले ने सब कुछ बताकर भी कुछ बताया नहीं। इतना ही बोल दिया है, क्या? यह भी पूरा है। वह भी पूरा है। पर पूरा है क्या? यह कहीं नहीं कहा। यह कहा ही नहीं जा सकता। उदाहरण दे दिए हैं। पर उदाहरण इंगित वस्तु तो नहीं होते न। या उदाहरण ही वस्तु होते हैं? उदाहरण तो नहीं होते। तुम जिसका उदाहरण दे रहे हो, वो चीज़ तो नहीं हो गया न। तुम किसी से कहते हो कि तुम्हारी आँखें झील जैसी हैं, तो मोटर बोटा लेकर थोड़ी ही घुस जाओगे।

पूरा क्या?

अहम् ब्रहम। इदम् ब्रहम।

पर यह तो बताते ही नहीं कि ‘ब्रहम’ क्या? यह नहीं बताएँगे। कोई नहीं बताएगा। यह बताना तो गड़बड़ हो जायेगी। पर आपको लगता यही है कि बता दिया। उन्होंने कुछ नहीं बताया है। उन्होंने गोल-गोल घुमाया है। वो आख़िरी यात्रा ख़ुद ही करनी पड़ती है। कोई गुरु नहीं करा सकता। वो आख़िरी यात्रा तुम्हारी अपनी सहमती की होती है। जब तुम्हारी सहमति है नहीं, तो कोई कैसे करा देगा? वो कुछ इधर-उधर की बातें बोल देगा। आख़िरी यात्रा के लिए तुम्हें छोड़ दिया जाता है।

ऋषि तुम्हें छोड़ देता है। कहता है ‘पूरा’ क्या? यह खुद पता करके आओ। और वो तुम तभी पता करोगे, जब तुम उस पता होने को अपने प्राणों से ज़्यादा महत्व दोगे। अभी उतना महत्व दिया नहीं, तो पता नहीं करोगे। हाँ, अपने-आप को यह भ्रम दोगे कि मुझे तो पहले ही पता है।

ध्यान से सुनना।

कोई उपनिषद तुम्हें कुछ नहीं बताता। उपनिषदों में कोई ज्ञान है ही नहीं जो तुम्हें दिया जा सके।

अगर उपनिषदों से तुम्हें ज्ञान मिल रहा है, तो कूड़ा-कचरा मिल रहा है।

उपनिषद तो खुद कहते हैं-

“हमें पढ़कर, हमें विसर्जित कर दो। हममें कुछ है नहीं।”

कहते हैं-

“ऐसे छोड़ दो जैसे काक-विष्ठा छोड़ी जाती है; कौए का मल। ऐसे छोड़ दो हमको। हममें कुछ नहीं है। हमें पढ़कर जैसे अपने भ्रम दूर करते हो, वैसे ही फिर भ्रमों के साथ-साथ हमें भी दूर कर देना। हममें कुछ नहीं है।”

क्योंकि वो कुछ देते ही नहीं तुमको।

जो असली है, वो तुम्हें दिया ही नहीं जा सकता। वो तो तुम्हें अपनी मर्जी से, अपनी निष्ठा से, अपनी सहमति और श्रद्धा से खुद ही पाना होता है।

कभी यह मत सोच लेना कि कोई ऋषि, कि कोई गुरु, तुमसे बहुत सारी बातें बोल रहा है, तो उससे तुम्हें कुछ मिल गया। उससे तुम्हें सिर्फ शब्द मिलते हैं। एक प्रकार का मनोरंजन मिलता है। क्योंकि जो मिलता है, मन को ही मिलता है, मन बहल जाता है। तो इसलिए कह रहा हूँ- मनोरंजन। मन बहल जाता है। बहला हुआ मन ज़रा आसानी से सद्-वस्तु की ओर जा सकता है। और सद्-वस्तु जो है, सत्य, वो कोई वस्तु नहीं होती।

गुरु इतना ही कर सकता है कि मन को ज़रा बहला दे। अब उसके बाद छलांग तो तुम्हें ही लगानी है। वो तुम्हें आकर्षित कर सकता है। एक प्रकार का प्रलोभन दे सकता है। पर छलांग तो तुम्हें ही लगानी है।

पूर्णता बताने की बात नहीं है, पाने की बात है।

आओगे तो तुम्हीं न। कोई पानी पी-पीकर तो तुम्हारी प्यास नहीं बुझा सकता। और कोई पानी के गीत गा-गाकर भी तुम्हारी प्यास नहीं बुझा सकता। उसके पीने से तुम्हारी प्यास नहीं बुझेगी। और उसके गाने से भी तुम्हारी प्यास नहीं बुझेगी।

हाँ, इतना हो सकता है कि वो बार-बार तुमको पानी की याद दिलाये। तो तुममें ज़रा संवेदनशीलता जाग्रत हो जाए। तुम्हें भी याद आ जाये कि तुम कितने प्यासे हो। इतना हो सकता है। पर पीना तो तुम्हें ही पड़ेगा। तुम्हारी मर्ज़ी नहीं है पीने की, तुम्हारी सहमति नहीं है, तो इंतज़ार होगा फ़िर।

श्रोता १ : आपने बोला कि यह जो आख़िरी रास्ता है, वो आपको ख़ुद तय करना होता है। आपकी सहमति से होता है। तो यह सहमति यदि अहंकार देता है, तो वो फ़िर बहुत बड़ा हो गया।

वक्ता : हाँ, अहंकार ही देता है। बहुत बड़ा तो है ही न। वो अनुमति, अहंकार किसको देता है? स्वयं को ही तो देता है। या परमात्मा को देता है? अहंकार किसको अनुमति देता है?

श्रोता १ : स्वयं को देता है।

वक्ता : अहंकार किसको देता है अनुमति?

श्रोता : अहंकार को।

वक्ता : और तुमने कहा कि अहंकार बहुत बड़ा हो गया। अपने लिए अहंकार क्या होता है?

सभी श्रोता : बहुत बड़ा।

वक्ता : बहुत बड़ा तो होता ही है। अहंकार के लिया क्या बड़ा होता है, अहंकार या परमात्मा?

सभी श्रोता: अहंकार।

वक्ता : ठीक है। वो तो होता ही है न। अहंकार अपनी अनुमति मानेगा या परमात्मा की मानेगा? तुम अपनी मर्ज़ी पर चलोगे या मेरी मर्ज़ी पर। तो जब ‘तुम्हारी’ मर्ज़ी होगी, तभी तो मानोगे। मेरी मर्ज़ी से थोड़ी ही मानोगे। अहंकार तो अपनी ही मर्ज़ी पर चलेगा न। तभी तो अहंकार है; दुर्बुद्धि, पगला। वो अपनी ही तो मर्ज़ी पर तो चलेगा और किसकी मर्ज़ी पर चलेगा।

श्रोता : फ़िर चॉइसलैसनैस (निर्विकल्पता) क्या है?

वक्ता : चॉइसलैसनैस (निर्विकल्पता) अहंकार की होती है। किसकी होती है? जो अहंकार के बाद आता है न। वहाँ पर आती है निर्विकल्पता। या अहंकार में लगा दोगी चॉइसलैसनैस (निर्विकल्पता)? तो किसकी बात कर रहे हैं यह भूल क्यों जाती हो।

~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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