प्रश्नकर्ता: सर, घर पर रहना कोई बुरी बात नहीं हुई न?
आचार्य प्रशांत: बेटा, बात अच्छे-बुरे की नहीं है। बात इसकी है कि तुम किसलिए हो? वो काम अगर घर पर बैठ कर हो रहा है, तो कर लो।
प्र: सर, व्हाट्स द वे (रास्ता क्या है)?
आचार्य: तुमको यहाँ पर क्लास अटेंड करनी है, घर पर बैठना बुरा काम तो है नहीं, घर जाओ। यहाँ क्यों बैठे हो? अच्छे-बुरे की बात नहीं है न, बात इसकी है कि तुम किसलिए हो? तुम अभी किसलिए हो? तुम डॉक्टर बनने के लिए हो। तो घर पर क्यों बैठोगे? ठीक वैसे, जैसे इस संस्थान में होने का तुम्हारा एक उद्देश्य है, उसी तरह से इस पृथ्वी पर होने का तुम्हारा एक उद्देश्य है।
अब ये तो सबको पता चल जाता है कि अगर कैंपस में हो तो यहाँ होने के कारण कुछ कर्तव्य हैं। लेकिन ये शिक्षा हमको कभी दी नहीं जाती कि अगर तुम इस पृथ्वी पर हो तो वहाँ भी होने के कारण तुम पर कुछ कर्तव्य हैं। तो फिर हम कहते है, ‘हम घर बैठे हैं तो बुरा क्या है?’ अभी भी घर जाकर बैठ जाओ, बुरा क्या है? यहाँ पर क्यों हैं हम फिर?
भई, घर पर तुम कुछ ऐसा कर रहे हो जो तुम्हारे जीवन को सौंदर्य देगा, तुमको मुक्ति देगा, तो बेशक घर पर बैठो। बात घर पर बैठने या ना बैठने की नहीं है। पर तुम घर पर बैठ कर क्या करते हो, ये मुझसे ज़्यादा तुमको पता है।
जो लोग घर पर बैठे होते हैं – और मैं अपवादों की बात नहीं कर रहा, हज़ार में से पाँच अपवाद मिल जाएँगे – हज़ार में से नौ-सौ-पिच्चानवे जो घर पर बैठे हैं वो क्या कर रहे हैं? बोलो क्या कर रहे हैं?
देखते नहीं हो कि घर पर बैठा-बैठा कर हमने अपनी महिलाओं की चेतना का स्तर कैसा कर दिया है!
सिर्फ़ उन विज्ञापनों को देख लो जो टी.वी पर महिलाओं को लक्ष्य करके बनाए जाते हैं। उन विज्ञापनों में ही ये धारणा निहित रहती है कि हम जिससे बात कर रहे हैं उसका आइक्यू (बुद्धिमत्ता) ४० का है, इससे ऊपर नहीं। हमने महिलाओं को बिलकुल अविवेकी और जड़ बना दिया घर पर बैठा करके। हमने कह दिया, ‘यहीं रहो, पराँठें बनाओ।’ और पराँठें भी अब नहीं बनातीं बहुत सारी तो। क्योंकि जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था विकसित हो रही है, वैसे-वैसे पराँठें बनाने के लिए कोई और लगी होती है।
तो घर पर बैठ कर तुम कर क्या रहे हो? भई घर पर बैठ करके तुम कोई बहुत ऊँचा काम कर रहे हो तो मैं तुम्हारे समर्थन में हूँ। पर ईमानदारी से आप स्वयं ही बता दीजिए, मैं आप पर कोई बात थोपना नहीं चाहता, आप स्वयं ही बता दीजिए कि अधिकांश लोग जो घर पर बैठे हैं वो घर पर बैठकर क्या कर रहे हैं? आप घर पर बैठकर एँट्रेंस एग्ज़ैम (प्रवेश परीक्षा) की तैयारी कर रहे हो, मैं आपके साथ हूँ। पर आप घर बैठकर दिनभर क्या कर रहे हो? मुझे बताओ।
प्र: सर, पर किसी को तो रोटी बनानी...
आचार्य: किसी को झाड़ू भी लगाना पड़ेगा। हाँ, किसी को झाड़ू भी लगाना पड़ेगा। आप डॉक्टर क्यों बन रहे हो? किसी को तो वार्ड-बॉय भी बनना पड़ेगा।
प्र: फ़ॉर श्योर (जी बिलकुल)।
आचार्य: तो आप वही बनते न, आप यहाँ क्यों हो फिर? भई देखिए, आपका लक्ष्य है जीवन में ऊँचे-से-ऊँचा काम करना। जो नीचे है, उसकी भी गति ऊपर को होनी चाहिए। ये कौनसा तर्क है कि मैं घर पर इसलिए हूँ कि मुझे कपड़े धोने है? उसके लिए वॉशिंग मशीन है न, उसको भी छोड़ दो फिर, हाथ से धोओ। सारी टेक्नोलॉजी (तकनीकी) इसीलिए होती है ताकि आपको खाली समय मिल सके वो करने के लिए जो करना ज़्यादा ज़रूरी है। जो उच्चत्तर कोटि का काम है, आप वो कर सको। आप इसीलिए पैदा हुए हैं और टेक्नोलॉजी भी इसीलिए होती है। तो ये क्या तर्क है कि मुझे घर पर बैठकर रोटी बनानी है? मैं भी इस वक़्त पर अगर रोटियाँ बना रहा होता तो आपसे बात कौन करता? अभी मेरे सामने लाकर सैंडविच और समोसे रख दिए, वो किसी और ने बनाए हैं इसीलिए मैं आपसे बात कर पा रहा हूँ। वो सैंडविच-समोसे मैं बनाने लग जाऊँ तो अभी आपको यही (सन्देश) आता कि मैं वहाँ बैठ करके समोसे तल रहा हूँ। फिर आपसे बात करने कौन आता? और फिर मैं तर्क क्या देता? – (व्यंग करते हुए) ‘किसी को तो समोसे बनाने हैं न, तो मैं बना रहा था।‘
बिलकुल सही बात है कि किसी को तो काम करना है, लेकिन आप कम-से-कम ये कोशिश करिए कि आप ऊँचे-से-ऊँचा काम कर सकें। ये कोई तर्क है कि ‘मेरा ज़िंदगी में एक ही काम है और एक ही उद्देश्य है – झाड़ू मारना। मैं तो चीज़ें साफ़ रखता हूँ घर की, यह मेरा उद्देश्य है’? क्या करना है? वो टेबल पर थोड़ी-सी धूल पड़ी हुई है, उसको साफ़ कर रहे हैं, बाथरूम साफ़ कर रहे हैं – ये आपको अगर वाकई लगता हो कि बहुत उच्चकोटि के काम हैं, तो फिर मुझे कुछ नहीं कहना है, आप यही करते रहिए। मेरी फिर बात वहाँ समाप्त होती है।
'बच्चों की परवरिश', इसके बारे में आपने कहा; एक बात बताइए, आप अपने बच्चों की परवरिश के लिए उनको किसी स्कूल में डालते हैं तो क्या देख-समझ कर डालते हैं? आप उन्हें एक प्ले-स्कूल में भी डालते हो, मान लो बहुत छोटा है अभी, तीन साल का भी नहीं है, तो आप किन बातों का ख्याल रखते हैं? उन्हें ऐसे ही तो कहीं भी नहीं डाल देते न? किन्हीं बातों का ख्याल रखते हैं न? ये ख्याल रखते हैं कि जो व्यक्ति इनको पढ़ाएगा या पढ़ाएगी, उसका अपना स्तर क्या है? यही देखते हैं न?
आप यहाँ, एम्स में आए हैं, तो एक तरह से आप भी अपनी परवरिश कराने आए हैं। बहुत सारे और मेडिकल कॉलेज (चिकित्सा महाविद्यालय) हैं, आप वहाँ भी जा सकते थे; आप वहाँ क्यों नहीं गए? आप यहाँ इसीलिए आए हैं क्योंकि यहाँ जो आपको पढ़ाएगा, उसका अपना एक ऊँचा स्तर है। इसलिए आपने ये जगह चुनी है, ठीक?
तो अगर माँ को बच्चे की परवरिश करनी है तो सबसे पहले माँ को क्या ख्याल रखना होगा? कि माँ का अपना स्तर ऊँचा हो। और माँ को दुनिया-जहान का कुछ पता नहीं, माँ वही कर रही है, जैसा अभी कहा, कि किसी-न-किसी को तो रोटी बनानी ही है। तो माँ क्या परवरिश करेगी बच्चे की? और सब माँओं को लगता है कि हम बहुत अच्छी परवरिश कर रहे हैं, और बच्चे वैसे निकलते हैं जैसे निकल रहे हैं।
यह बड़ी अजीब बात है। हर माँ-बाप को यह लगता है कि हम तो ज़बरदस्त परवरिश कर रहे हैं, और हर माँ-बाप का यही कहना है कि बड़ी बर्बाद है ये पीढ़ी। अगर आप इतनी अच्छी परवरिश कर रहे हो तो पीढ़ी बर्बाद कैसे हो गई?
आपको दिख नहीं रहा कि आपने ही बर्बाद करी है पीढ़ी? और पीढ़ी इसीलिए बर्बाद है क्योंकि जो अपने-आप को 'प्रथम गुरु' कहते हैं माँ–बाप, उनकी जो धारणाएँ हैं वो बहुत साधारण स्तर की हैं।
बच्चे पर माँ का बड़ा प्रभाव पड़ता है। यदि माँ का व्यक्तित्व ही कुंठित है, अगर माँ में ही बहुत रौशनी नहीं है तो बच्चे की अच्छी परवरिश कैसे हो पाएगी!
बच्चे की अच्छी परवरिश करने के लिए उसे २४ घंटे माँ का साथ नहीं चाहिए। वो कहते हैं न, कि अगर माँ बाहर चली गई तो बच्चे को कौन देखेगा? देखेगा मतलब क्या होता है? बच्चा ज़्यादा खुश होता है जब आप बाहर चले जाते हैं। वो चाहता ही नहीं कि आप उसको देखो। उसकी तकलीफ़ ही यही है कि आप उसको बहुत ज़्यादा देख रहे हो। और जब आप देख रहे हो तो आप क्या कर रहे हो उसके साथ? आप जब बच्चे के साथ हो, आपके जितने पूर्वाग्रह हैं, आप बच्चे पर लाद रहे हो। आपके जितने उल्टे–पुल्टे और उल्झे हुए ख़्यालात हैं, आप बच्चे पर डाले दे रहे हो। ये बच्चे की भलाई हो रही है माँ के द्वारा या बाप के द्वारा? बोलिए तो, बताइए तो!
अगर माँ-बाप इतनी ही अच्छी परवरिश दे रहे होते तो यह समाज वैसा क्यों होता जैसा है? मुझे बताइए। लेकिन माँ–बाप में गुमान रहता है, ‘हम तो बिलकुल ठीक हैं, हमें अपना तो उद्धार करना ही नहीं है। हमें तो बच्चे की परवरिश करनी है।’ आप कर कैसे लेंगे बच्चे की परवरिश जबतक आप ख़ुद ठीक नहीं हुए अभी? लेकिन ये मानना कि अभी हम ख़ुद ठीक नहीं हैं, अहंकार को बहुत चोट देता है। तो हम कहते हैं, ‘हम ठीक हैं, बच्चे को ठीक करना है, ये गड़बड़ है।’
आप ठीक हैं, वो गड़बड़ है? वो गड़बड़ हुआ कैसे? अगर आप ठीक ही होते इतने तो वो गड़बड़ हो कैसे जाता? ‘नहीं, वो पड़ोस वाले ख़राब हैं, उन्होंने इसको गड़बड़ कर दिया।’ एक सुलझी हुई माँ ही अपने बच्चे को ऊँचाइयों तक ले जा सकती है। और मज़ेदार बात ये होती है कि व्यक्ति जब सुलझ जाता है तो उसको ये भी दिख जाता है कि बच्चे ही पैदा करना जीवन का उद्देश्य नहीं है। और बड़े दुर्भाग्य की बात ये है कि जो लोग जितने उल्झे होते हैं उनको उतना ज़्यादा लगता है कि वो पैदा ही हुए हैं खानदान बढ़ाने के लिए। तो वहाँ मामला फँस जाता है।
मैं घर के काम के प्रति कोई द्वेष नहीं रखता, ठीक है? घर का काम मैं स्वयं भी खूब करता हूँ। विशेषकर जब लॉकडाउन लगा था तब तो पूरा बड़ा-सा बोधस्थल है हमारा, वहाँ तो कोई बाहर वाला आता भी नहीं था। जो लोग थे वही लगकर करते थे और मैं बराबर का हाथ बँटाता था। सबकुछ करा हुआ है, लेकिन मुझे यह भी पता है कि जीवन में कौनसे काम का कौनसा स्थान है। और ये बात आपको भी पता है, आप नहीं मानना चाहें तो अलग बात है।
अगर सारे काम एक बराबर होते तो 'प्रगति' माने क्या होता है फिर? बोलिए। हाँ, ये अलग बात है कि जिस समय पर आपको जो काम करने को मिल रहा है, आप उसे ही पूरी निष्ठा से करें। यह बात अपनी जगह ठीक है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि सारे काम एक बराबर होते हैं। आप क्रिकेट के मैदान पर बारहवें खिलाड़ी हो तो अभी आप यही कर सकते हो कि ड्रिन्क्स (पेय) ले करके जाओ पूरी निष्ठा से, या कि जो बैट्समैन (बल्लेबाज़) खेल रहा है, उसने कहा कि ‘बल्ला मेरा ठीक नहीं है’, तो आप एक बल्ला लेकर चले जाओ। या कोई स्थिति ऐसी आ सकती है जिसमें कोई खिलाड़ी ज़ीरो पर आउट हो गया है और वो 'रनर' बन जाए – 'रनर' जानते हैं न? कि बल्लेबाज़ चोटिल हो गए हैं। पहले रनर ज़्यादा बनते थे, अब तो शायद रनर बनाने पर भी पाबंदी लग गई है। लेकिन क्या आपने क्रिकेट रनर बनने के लिए सीखा था? ये तो बस एक संयोग की बात है कि इस क्षण में मुझे ड्रिन्क्स ले जाने हैं तो मैं ड्रिन्क्स ही अच्छे से ले जाऊँगा। इस क्षण में अगर मुझे रनर बनना है तो मैं रनर ही अच्छे से बन जाऊँगा। लेकिन आपको यह भी ख्याल रखना है कि आपका काम है बल्लेबाज़ी करना। आप रनर बनने के लिए नहीं हो। और अगर आप रनर बने हुए हो तो मन में थोड़ी-सी टीस भी होनी चाहिए कि ‘यहाँ पर अटक नहीं जाना है, इससे आगे बढ़ना है। मुझे बीच में आकर बल्लेबाज़ी करनी है, मैं कब तक दौड़-दौड़ कर लोगों को चाय ही पिलाता रहूँगा?’