प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, पिछले काफ़ी समय से मैं किसी व्यक्ति को विशेष महत्व नहीं दे पाती हूँ, अब कोई अनजान व्यक्ति हो या रिश्तेदार, सबको एक समान देखती हूँ, और इसी कारण मेरे रिश्ते ख़राब हो रहे हैं। क्या करूँ? कृपया मदद कीजिए।
आचार्य प्रशांत: पहली बात तो ये है कि इसमें रिश्ते ख़राब नहीं हो रहे, इसमें रिश्ते अपनी स्वस्थ स्थिति पर वापस आ रहे हैं। जिस रिश्ते में आपने किसी को विशेष बना दिया उस रिश्ते में उस विशेष व्यक्ति के लिए भी नुक़सान ही है। आपने ज्यों ही किसी को अपने लिए बहुत ख़ास बना लिया त्यों ही आप उस ख़ास आदमी का बहुत नुक़सान कर देते हैं।
दूसरी बात आप ये तो गिन रही हैं कि कुछ लोग शिकायत करते हैं। क्या वो भी शिकायत करते हैं, जिनसे आपका कभी कोई रिश्ता नहीं था पर अब बनने लगा है? आम आदमी का तो पाँच लोगों से रिश्ता होता है छठे से हो ही नहीं सकता। आपका अगर पचास से रिश्ता होने लगा है तो आप सिर्फ़ उन पाँच की क्यों बात कर रही हैं जो शिकायत कर रहे हैं? जो पैंतालीस आपके जीवन में नए आए हैं, क्या वो भी शिकायत कर रहे हैं? वो तो शिकायत नहीं करेंगे, वो तो यही कहेंगे की हमसे तो कोई रिश्ता बनता ही नहीं, और बन गया ये तो बड़े अनुग्रह की बात है, ये तो बड़े आनंद की बात है।
और तीसरी बात ये है, कि जब आप स्वयं ही कह रही हैं कि आपके लिए कोई विशेष रहा नहीं तो फिर उन निर्विशेष लोगों की बातें आपको कष्ट क्यों दे रही हैं?
प्र: आचार्य जी, कष्ट नहीं पर हम ऐसा चाहते हैं कि हमारे आस पास सब ठीक रहें, सब खुश रहें। पर जब देखतें हैं कि अपने सामने जो हैं उन्हें शिकायत है जीवन से, आपसे, तब हम चाहते हैं मदद करना। अपने सामने किसी का पैर कटा हो तो हम चाहते हैं न कि कुछ लगा दें। और कोई आ कर हमसे ही शिकायत कर रहा हो कि, 'तुमने हमारा एक्सीडेंट किया है', 'तुम्हारी वजह से हमारा पैर कटा है' तब फिर मन ऐसा होता है कि जाओ बोलो, 'नहीं, पैर ये ठीक है।‘
आचार्य: पर मन ऐसा क्यों होता है? थोड़ा इसमें गहरे तो जाइए। अहंकार को चोट लगी, अपमान अनुभव हुआ इसलिए?
प्र: क्योंकि कई बार आप जिन लोगों के लिए प्यार रखते हो, जिनसे मेरा ज़्यादा गहन प्यार था अतीत में...
आचार्य: अब नहीं है न, अब तो सब बराबर हैं।
प्र: थोड़ा कम अनुभव होता है।
आचार्य: मतलब अभी भी कुछ लोग विशेष हैं?
प्र: जी, पहले लगता था ज़्यादा गहरा है, अब धीरे-धीरे तीव्रता कम हो गई है।
आचार्य: अगर वो तीव्रता कम हो गई है, तो लोगों की शिकायत से आपको जो चोट लगती है उसकी तीव्रता भी बहुत कम हो गई होगी न? समझिए, जो जितना ख़ास होता है उसकी शिकायत उतना ख़ास दर्द देती है। जो अब ख़ास रहा ही नहीं उसकी शिकायत से अब दर्द भी नहीं होगा। तो इस दर्द को भी ख़ासियत देना, अहमियत देना छोड़िये।
आपको अभी अगर परवाह करनी है तो बस इस बात की, कि, 'अगर मैं किसी का भला करना चाहती हूँ तो कैसे करूँ?' जिसका भला करो कई बार उसके मन में गिले-शिकवे आ जाते हैं, उनकी परवाह नहीं करते।
एक छोटे बच्चे को डॉक्टर के पास ले जाइए, वो छटपटा के भागता है। कई छोटे बच्चों के लिए तो डॉक्टर, या क्लिनिक, या दवा, या इंजेक्शन, सुई, ये शब्द ही ख़ौफ़नाक होते हैं। माँओं को जब उन्हें डराना होता है तो बोलती हैं सुई, और इतना सुनते ही वो सो जाता है बिलकुल।
भला करने के लिए भला किया जाता है, ये नहीं देखा जाता कि जिसका आप भला कर रहे हैं कहीं वो हमारे बारे में बुरा तो नहीं सोचेगा। आप किसी जानवर कि भलाई करिए, सड़क पर कोई कुत्ता पड़ा हो, उसकी टाँग में चोट आ गई हो, और आप उसकी टाँग साफ़ करें, उसे मरहम लगाएँ, उसके पहले बहुत ज़रूरी होता है कि उसके मुँह को बाँध दें। क्योंकि पक्का है कि जब आप उसके ज़ख्म की सफाई करेंगी, तो उसको दर्द होगा, और दर्द होते ही वो क्या करेगा? वो आप ही को काटेगा।
तो पहली बात तो इस बात के प्रति सावधानी रखें कि वो आपको काटने न पाए। और दूसरी बात वो आपके प्रति अनुग्रह नहीं व्यक्त कर रहा, वो आपको पंजे मार रहा है, वो शिकायत कर रहा है , आप पर भौंक रहा है, आपको काटने को तत्पर है, इस बात से आपका दिल नहीं दुखना चाहिए। जिनका दिल दुखता हो वो सहायता करें ही न, क्योंकि जो भी सहायता करने निकलेगा, दुनिया उसका दिल तो तोड़ेगी ही। तो छोटे दिल वालों, कमज़ोर दिल वालों के लिए सहायता का व्यापार है ही नहीं। सहायता का धंधा बहुत बड़े दिल वालों के लिए है। जिनके दिल ऐसे हों (हाथ फैला कर इशारा करते हैं), जो ये सोचते हों कि सहायता करेंगे, और बदले में धन्यवाद मिलेगा, सब आकर कृतज्ञता ज्ञापित करेंगे, वो सहायता कर ही नहीं पाएँगे।
वास्तविक सहायता में तो झूठ टूटता है, सच उद्घाटित होता है। और जिसकी आप सहायता कर रहे हैं उसे सहायता की ज़रुरत ही इसीलिए है क्योंकि वो झूठ में ही जी रहा था, झूठ के साथ ही तादात्म्य था। जब झूठ पर चोट पड़ेगी तो वो बिलबिलाएगा, तो वो आपको धन्यवाद थोड़े ही देगा, गाली ही देगा। धन्यवाद देगा पर बहुत बाद में, धन्यवाद देगा हो सकता है आपके जाने के बाद। न आप उसके धन्यवाद की प्रार्थी हो सकती हैं न प्रतीक्षा कर सकती हैं। कई बार तो धन्यवाद आने में शताब्दियाँ लग जाती हैं।
आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक, कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक।
एक उम्र लगती है समझ पाने में कि सहायता करने वाले को कौन सी चीज़ प्रेरित कर रही थी, उसे कौन सा दैवीय दर्द उठा था। लेकिन जब तक वो चीज़ असर करेगी तब तक पता नहीं हम जीएँगे भी या जा चुकेंगे। तो छोड़िये न, आप अपना काम करिये, उन्हें उनका काम करने दीजिए। आप कुत्ते को मरहम पट्टी कर रही हैं, और कुत्ता आपको (हाथ हिलाते हुए) पंजे मार रहा है। ये कुत्ते का काम है, आप अपने काम करिये। और कुत्ते के कुत्तेपन से आगे भी कुछ है, कुत्ता भी एक बिंदु के बाद ये समझ जाता है कि इन्होंने भलाई की है मेरे साथ। फिर वही आएगा, गले मिलेगा, पूँछ फहराएगा और लोटेगा फिर आपके आगे। और तब आप चाहें तो पूछ सकती हैं कि, "बच्चू आज तो बहुत प्यार आ रहा है और उस दिन तो हमें तुमने काट ही लिया था!" दुनिया का ऐसा ही है।
कबीर क्या कहते हैं? कि ये जग जो है ये काली कुतिया है, 'या जग काली कूतरी', इसको तो जो ही छेड़ने जाएगा, उसी को काट खाएगी। एक दूसरी जगह पर कहते हैं कि, सच्चे को ये दुनिया मारने चलती है और झूठे को पछियाती है, झूठे का पीछा करती है, झूठे की अनुयायी बन जाती है । इसका मतलब ये थोड़े ही है कि सच बोलने वाला, सच बोलना छोड़ देता है या झूठ बोलना शुरू कर देता है, उसे तो अपना काम करना है। और उसके काम के साथ ये आकांशा नहीं जुड़ी हुई है कि, लोग हमे धन्यवाद देंगे , कि हमारे अनुयायी बन जाएँगे। कोई धन्यवाद दे दे तो भली बात, न दे तो भी भली बात।
है इसी में प्यार की आबरू, वो जफ़ा करें मैं वफ़ा करूँ।
यही तो प्यार की आबरू है, तुम बेवफाई करे जाओ हम तब भी वफ़ा करेंगे। वफ़ा देख कर वफ़ा की तो तुमने क्या किया? व्यापार किया, सौदा किया। मज़ा तो तब है जब बेवफाई का सिला भी वफ़ा से दिया जाए।
आज का सत्र आप सबने ओशो को समर्पित किया है, सुन्दर बात है। ऑरेगॉन से जब लौटे, कम्यून की भौतिक तबाही के बाद, तो किसी ने प्रश्न किया उनसे बोले, “आपने जिन लोगों पर, विशेषकर जिन स्त्रियों पर इतना भरोसा किया उन्हीं ने आपको धोखा दिया। कैसा लग रहा है आपको?” ओशो का सरल संक्षिप्त उत्तर था वूंडेड बट नॉट हर्ट (घाव तो लगा है दर्द नहीं हो रहा)। इंकार नहीं करते, कि घाव तो लगा है, इतनी मेहनत और इतने प्रेम से कम्यून बसाया था, तबाह हो गया, लेकिन मर्म स्थल पर चोट नहीं लगी है। ज़ख्म बाहर है अन्तःस्थल में नहीं है।
आगे बोलते हैं कि, “स्त्रियों के ऊपर पुरुषों ने ही इतने दिनों तक जो अत्याचार किये, उसके कारण स्त्रियों को कहीं-न-कहीं तो अपना ज़हर उलटना था, उन्होंने मेरे ही ऊपर उलट दिया।”
लोगों ने उनपर आक्षेप लगाया बोले, “आपने अपने इतने बड़े तंत्र की व्यवस्था सब स्त्रियों के हाथों में दे दी, आपको लगता है आपने ठीक किया? आपको लगता है स्त्रियाँ इतनी ज़िम्मेदारी लेने के काबिल होती हैं?”
कम्यून के ज़िम्मेदारी के ज्यादातर पदों पर स्त्रियाँ थीं। तो ओशो से ये सवाल किया गया, कहा गया कि , “आपने जो निर्णय लिया था कि ऊपर से लेकर नीचे की व्यवस्था में आपने स्त्रियों को ही महत्व दिया, तो आपको नहीं लगता कि आपका निर्णय ग़लत साबित हुआ?”
ओशो बोले, “नहीं बिलकुल भी नहीं” है इसी में प्यार की आबरू। उन्होंने बिलकुल भी दोष नहीं दिया सामने वाले को, हालाँकि ये माना है मुझे चोट लगी है, आई एम वूंडेड , लेकिन फिर भी ये नहीं कहा, “उन्होंने चोट दी है तो वो पापी हैं वो ग़लत हैं, वो अधर्मी हैं ।”
उन्होंने कहा, “नहीं देखो आज तक आदमी के इतिहास में स्त्रियों के ऊपर इतने अत्याचार हुए, उनका इतना दमन हुआ, कि अचानक से अगर उनको आज़ादी या ज़िम्मेदारी दे दोगे, तो कुछ ऊँच-नींच हो सकती है। और वो ऊँच-नींच हो गई , मैं इसका दोष स्त्रियों को नहीं देता।”
जो प्रेम के भाव से अर्पित करता है वो शिकायत करना छोड़ देता है, शिकायत करना भूल जाता है। उनके जीवन भर की ऊर्जा का परिणाम था कम्यून और ध्वस्त हो गया, और तब भी वो शिकायत नहीं कर रहे। कम-से-कम अपने साथ की स्त्रियों के प्रति तो नहीं कर रहे, अमेरिका की सरकार को जो बोला सो बोला।