कितने तरह के प्रेम?

Acharya Prashant

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कितने तरह के प्रेम?
स्नेह, प्रेम, श्रद्धा, भक्ति समझाने के तरीके हैं। मन का मतलब होता है गति। या तो वो किसी दिशा में बढ़ता है, क्योंकि जो उसके सामने है वो उसे आकर्षक लग रहा है, या वो किसी दिशा से भागता है, क्योंकि जो उसके सामने है उससे उसे भय या विकर्षण हो रहा है। गति के यही दो कारण होते हैं — या तो राग या द्वेष, या तो आकर्षण या विकर्षण। तो विषय के आधार पर समझाने के लिए भेद किया जा सकता है, उसी प्रकार का एक भेद आपके द्वारा पढ़े गए साहित्य में उल्लिखित है। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। आचार्य जी, ओशो ने बताया है कि जो प्रीति तीन तलों पर करते हैं — एक तो अपने छोटे से, जिसको स्नेह कहते हैं, एक अपने समतल पर प्रेम, और अपने से बड़े गुरु के साथ श्रद्धा और भक्ति को उन्होंने उससे भी ऊपर बताया हुआ है। तो प्रश्न ये है कि ये तीनों तल करने होते हैं, साइमल्टेनियस (सह-घटनात्मक), एक के बाद एक होता है? और एक जगह पर वो कहते हैं कि भक्ति छलाँग है, तो फिर इन तीनों को पार किया जा सकता है। ये क्या है, इसे समझना है?

आचार्य प्रशांत: स्नेह, प्रेम, श्रद्धा, भक्ति समझाने के तरीके हैं। मन का मतलब होता है गति। या तो वो किसी दिशा में बढ़ता है, क्योंकि जो उसके सामने है वो उसे आकर्षक लग रहा है, या वो किसी दिशा से भागता है, क्योंकि जो उसके सामने है उससे उसे भय या विकर्षण हो रहा है। गति के यही दो कारण होते हैं — या तो राग या द्वेष, या तो आकर्षण या विकर्षण। तो विषय के आधार पर समझाने के लिए भेद किया जा सकता है, उसी प्रकार का एक भेद आपके द्वारा पढ़े गए साहित्य में उल्लिखित है।

आपने कहा, ‘जिसके प्रति तुम्हें आकर्षण है, यदि वह तुमसे आयु में छोटा है, तो कह दो ‘स्नेह’; जिसके प्रति तुम्हें आकर्षण है, यदि वह आयु में समतुल्य है, तो कह दो ‘प्रेम’; और यदि तुम्हें लगे कि तुमसे ऊँचा इत्यादि कोई वृद्ध, बुज़ुर्ग अथवा गुरु है, तो कह दो ‘श्रद्धा’। और फिर वही आकर्षण अगर भगवत्ता के प्रति हो जाए, तो कह दो ‘भक्ति'। ये कोई मौलिक विभाजन नहीं है, समझाने की बात है, इसमें कुछ नहीं।

जिस तरीके से यहाँ पर प्रेम के चार तल कर दिए गए हैं, आप वैसे ही भय के भी फिर चार तल कर सकते हो, बाँटने के आधार बहुत मिल जाएँगे। मन तो यूँही तमाम तरह के विभाजनों में, बँटवारों में, भेदों में यकीन रखता है, तो बाँटने के आधार बहुत मिल जाएँगे, खोजने लग गए तो। यहाँ पर बाँटने का आधार किसको बनाया गया है?

प्रश्नकर्ता: स्नेह को।

आचार्य प्रशांत: आयु को। और भी किसी आधार पर बाँट लो, बाँटना बड़ी बात नहीं है; बड़ी बात है तमाम तरह की गतियों, तमाम विभिन्नताओं में एकत्व देखना, उनमें साझा क्या है ये देखना। क्या उन्हें पृथक करता है ये तो बात स्पष्ट ही है। आज भोजन में भिंडी बनी हो, आलू बने हो, तुम भिंडी की ओर बढ़ो तो कह दो ये ‘भ’ प्रेम है, तुम आलू की ओर बढ़ो, तुम कह दो ये ‘अ’ प्रेम है, तुम बैंगन की ओर बढ़ो, तुम कह दो ये ‘ब’ प्रेम है, तो तुमने बाँटने का एक और आधार तैयार कर लिया न।

बाँटने के तो कितने भी आधार हो सकते हैं, मन दुनियाभर के विषयों की ओर लालायित रहता है और उन विषयों को बहुत आधारों पर वर्गीकृत किया जा सकता है, बाँटा जा सकता है, ये कोई बड़ी बात नहीं है। तुम ये देखो कि क्या है जो साझा है, क्या है जो अलग-अलग में भी एक है, वो महत्वपूर्ण है। तुम बच्चे की ओर आकर्षित होते हो, चाहे बड़े की ओर आकर्षित होते हो, पूछो अपने आप से कि मन किधर को भी चलता क्यों है। चाहे बच्चे की ओर चले, चाहे बड़े की ओर चले, चाहे शराब की ओर चले, चाहे भगवान की ओर चले, मन चाहता क्या है वो सूत्र खोजो। ये न कहो कि मन की दो प्रकार की चालें हैं — एक शराब की ओर और एक प्रसाद की ओर, इस बात में बहुत उपयोगिता नहीं है। समझना चाहते हो मन को, तो ये समझो कि मन मैख़ाने की ओर या देवालय की ओर क्यों बढ़ता है, चाहिए क्या उसको, समझ रहे हैं? क्या चाहिए?

पचास चीज़ें चाहिए ये तो स्पष्ट ही है। तुम्हारी जो टु डू लिस्ट (कार्य सूची) है, कामों की जो फेहरिस्त है उसमें कितनी चीज़ें अंकित हैं?

प्रश्नकर्ता: पचास।

आचार्य प्रशांत: पचास; और पचास माने? एक, दो, तीन, चार, पाँच, छ:, पचास विभाजन, पचास नाम माने पचास भेद, है न? तो भेद तो है ही है। तुम कहते हो, आज दिनभर में ये सबकुछ निपटाना है — इसको निपटाना है, इसको निपटाना है, इसको निपटाना है, तो भेद है ये तो हमें पता ही है। उन भेदों को संग्रहित करके एक साझा नाम देने से, उन भेदों के अलग-अलग वर्ग बना देने से कोई बहुत लाभ नहीं होगा। तुम तो ये पूछो कि सारे भेदों के बीच अभेद क्या है? सारे भेदों के बीच ऐसा क्या है जो अखंड है, अटूट है, अभेद है? क्या चाह रहे हैं हम? जो हम चाह रहे हैं, वो हमें भिन्न-भिन्न दिशाओं में दौड़ा रहा है, इन भिन्न-भिन्न दिशाओं में अभिन्न क्या है वो खोजो।

जीवन अगर माला है, तो उस पर न जाने क्या-क्या पिरोया हुआ है, पत्थर भी, फूल भी, मोती भी, माणिक भी, सब कुछ अलग-अलग। माला का हर मनका अलग है दूसरे मनके से, तुम तो ये खोजो कि वो साझा धागा कौन-सा है जो समस्त मनकों के नीचे है, सबको जोड़ रहा है लेकिन दिखाई नहीं देता। एकत्व तलाशो, बुनियाद तलाशो। घर में कमरे अलग-अलग हैं, बुनियाद एक है। आसमान में बादल अलग-अलग हैं, आकाश एक है। अब जो इनको चाहिए वही हमको चाहिए, विभाजन करना तो बहुत आसान है, कह देंगे, ‘ये तो कीड़े हैं, इन्हें घास चाहिए होगी। नहीं, कुछ और चाहिए होगा। और हम तो मानव हैं, तो हमें ज्ञान चाहिए।’

मज़ा तो तब आए जब हम कहें कि भाई, जिस तलाश में तू भटक रहा है, वैसे ही हमारी भी है। जो प्यास तेरी है, वैसे ही हमारी भी है। तुम्हें क्या लग रहा है, आप मेरे पास आए हो? ये मेरे पास आया है, अलग-अलग कारण से आए हो। वो सब ऊपर-ऊपर अलग हैं कारण, भीतरी कारण एक है। सबको तृप्ति चाहिए, सबको सोना है, सबको शांत होना है, इसे भी शांत होना है, आपको भी, मुझे भी, सबको, पर सब अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार, अपने-अपने मन, बुद्धि और संस्कारों के अनुसार तृप्ति के अलग-अलग ठिकाने ढूँढ लेते हैं, तृप्ति के अलग-अलग माध्यम ढूँढ लेते हैं। चीज़ एक ही चाहिए, तलाश अलग-अलग है।

कोई घूम रहा होगा प्रचंड ज्ञानी, कह रहा होगा, ‘ज्ञान बहुत हो गया, अब बस परमात्मा की तलाश है।’ उसमें और इसमें (एक कीड़े को इंगित करते हुए) कोई अंतर है? तुम नादान होगे अगर तुम कहोगे कि ये कोई सत्संग सुनने थोड़े ही आया है! वो भी यहाँ ठीक इसीलिए आया है जिस लिए तुम आए हो। सतही बात देखोगे तो कहोगे, ‘ये कीड़ा है, हम जीव हैं, इंसान हैं।’ वो सारा भेद सतही है, भीतर-भीतर एक मन है प्यासा सबका, और एक ही रस चाहिए सबको, उसी से सबकी प्यास बुझेगी।

प्रश्नकर्ता: आपने श्रद्धा और भक्ति की बात की, तो गुरु को कैसे जान सकते हैं? गुरु को कैसे पा सकते हैं, श्रद्धा से या भक्ति से?

आचार्य प्रशांत: दोनों में भेद क्या है, भेद तो बताओ! तुम कह रहे हो कि ऐसे पाएँ कि वैसे पाएँ, तो तुमने दो रास्तों में कोई अंतर देखा होगा, तभी पूछ रहे हो कि दोनों रास्तों में श्रेयस्कर कौन-सा है।

प्रश्नकर्ता: श्रद्धा, विश्वास और भक्ति, जब हम उनके लिए कुछ कर्म करते हैं।

आचार्य प्रशांत: कुछ नहीं है, कोई भेद नहीं है, शब्द जाल में मत उलझा करो। मेरा दो-तिहाई काम तो यही रहता है कि जो इधर-उधर पचास शब्द पकड़ लिए जाते हैं — सुबह देखा नहीं था प्रेमयोग? अरे! कोई अंतर नहीं है भाई, क्या है? हमारा खेल निरंतर का है और तुम ले आते हो अंतर-ही-अंतर! श्रद्धा और भक्ति अलग कबसे हो गए, देखने की दिशा अलग होती है। उधर से देखो तो श्रद्धा, इधर से देखो तो भक्ति, वस्तु तो एक ही है न। तुम नहीं पाओगे गुरु को, न श्रद्धा से, न भक्ति से, गुरु को मौका दें कि तुम्हें पा लें। समझे बात को? ये ऐसी सी बात है कि कोई पूछे कि परमात्मा कैसे पकड़ा जाता है, मछली पकड़ने के जाल से या रस्सी इत्यादि से! उसे रस्सी फेंक कर पकड़ें, फ़ंदा डालकर, या मछली का जाल बिछा दें तो वो पकड़ में आएगा?

न ऐसे आएगा, न वैसे आएगा, तुम तो यही प्रार्थना करो कि जब वो तुम्हें पकड़े तो तुम बहुत शोर न मचाओ, हाथ-पाँव न फेंको, छटपटाओ नहीं। क्योंकि वो बड़ा सम्मान करता है तुम्हारा, ज़्यादा छटपटाओगे तो छोड़ देगा। वो कहेगा, ‘भाई, जब तेरी मर्ज़ी ही नहीं, तो बलात् थोड़े ही तेरा आलिंगन करूँगा।’ प्रेम में मनुहार चल सकती है, रूठना-मनाना चल सकता है, थोड़ा धकियाना भी चल सकता है, पर ज़बरदस्ती तो नहीं चलती न। ये मत पूछो कि हम गुरु को कैसे पाएँ, जब गुरु तुम्हें पा ले, तब छिटककर भाग मत जाना इतना बहुत है!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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