किसी को 'प्रबुद्ध मर्मदर्शी' क्यों कहते हैं? || आचार्य प्रशांत (2016)

Acharya Prashant

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किसी को 'प्रबुद्ध मर्मदर्शी' क्यों कहते हैं? || आचार्य प्रशांत (2016)

प्रश्न: सर, ये ‘प्रबुद्ध मर्मदर्शी’ क्या होता है?

वक्ता: ‘प्रबुद्ध मर्मदर्शी’ वो होता है जिसके बारे में पढ़ के आप आकर्षित हो जाएँ और यहाँ आ जाएँ।

उसके बिना आप आते कहाँ हो। (व्यंग करते हुए ) कम लोग थे, थोड़ा उसको बढ़ाना पड़ेगा, ‘सर्वोच्च प्रबुद्ध मर्मदर्शी’ होना चाहिए।

श्रोता १: फ़िर शायद नहीं आएँगे लोग।

वक्ता: अरे, देखिएगा! सब मन एक सामान हैं। आप होते यहाँ पर यदि ना होता ये केंद्र? आप होते यहाँ पर यदि ना होता ये सारा आयोजन? आप होते यहाँ पर? मैं तो वर्षों से बोल रहा हूँ। जैसे आप हैं, वैसे ही बाकी सब हैं। थोड़ा-सा ताम-झाम करा है तो थोड़ी भीड़ तुरंत इकट्ठा हो गई है। ज़रा सा ताम-झाम और बढ़ाएंगे तो देखिएगा, मेले लगेंगे। सब एक से हैं, सारे मन एक से हैं । चिंता मत करिए।

ये मन है हमारा, मन। कोई यदि बीमार हो गया और उसकी बीमारी यह है कि वो बिना लालच के कुछ करता नहीं। उसे डॉक्टर के पास ले जाना है तो कैसे लेजा पाओगे? वो सिर्फ़ एक ही तरीके से कुछ भी करता है—लालच दो।

श्रोता २: उसको पड़ा रहने देंगे, नहीं लेकर जाएँगे डॉक्टर के पास।

वक्ता: वो आप हैं। मैं नहीं पड़ा रहने देना चाहता। आप ख़ुद पुकार रहें है कि ‘बचाओ’। अभी आपके लिए ये कहना बहुत आसान है कि उसे पड़ा रहने देंगे। वो जो उसे है, वो आप हैं। वो सम्पूर्ण मानवता है। उसको ऐसे नहीं छोड़ा जा सकता। कैसे ले कर जाओगे उसे डॉक्टर के पास? लालच से। बीमारी को ही विधि बनाना पड़ेगा ।

श्रोता ३: राम के समय में सब लोगों ने उन्हें भगवान नहीं माना है। कृष्ण के समय में भी सब लोगों ने उन्हें भगवान नहीं माना है। बुद्ध के समय में भी कुछ ही लोग आकर्षित हुए होंगे। तो मैं यह जानना चाहता हूँ कि आप कौन हैं।

वक्ता: मैं कौन हूँ? मैं वो हूँ जिसे कुछ याद नहीं रहता।

अभी हमने बात करी कि हम वही-वही भूलें दोबारा दोहरातें हैं, दोहरातें है न? अगर कोई अपनी पुरानी भूलें ही दोहरा रहा हो तो इससे यही प्रमाणित होता है कि उसे कुछ याद नहीं रहता। कोई नई भूलें तो हम नहीं करते, पुरानी भूलें ही दोहरा रहे हैं। कुछ याद नहीं रहता पुराना। जिसे कुछ पुराना ना याद रहता हो वो क्यों बात कर रहा है राम की, कृष्ण की, बुद्ध की। अभी आप जी रहे हो, सामने संसार है, उसको देखो न। अभी का पता नहीं , इधर-उधर से दृष्टान्त ला रहे हो, वाकई कोई लाभ है इसका?

श्रोता ३: मैं यह जानना चाहता हूँ कि मैं आपके सामने बैठा हूँ, आप कौन हैं?

वक्ता: तुम्हें कैसे पता चलेगा? जानने वाला कौन है? कौन जानेगा?

श्रोता ३: मैं जानूंगा। खुद को जानूंगा, तभी पता लगेगा।

वक्ता: उत्सुकता की दिशा मत रखो ऐसे। पर यह तुम्हें कुछ मज़ेदार नहीं लगा।

तुम पूछो: मैं कौन?

मैं बोलूं कि: क्या फ़ाएदा।

तुम जानो तुम कौन। तो तुम कहोगे कि सवाल बचा गए, कुछ उत्तर नहीं दिया। उत्सुकता शांत नहीं हुई। तो फ़िर पर्चे छपतें हैं, लो फिर देखो हम कौन। अब पिक्चर अभी बाकी है। इसके बाद भी हम बहुत कुछ हैं।

तुम्हें सरल से संतोष कहाँ होता है। मैं तुमसे बोलूं कि मैं वही हूँ जो तुम्हें दिख रहा हूँ, तुम्हें संतोष कहाँ होता है। तुम्हें जटिलता चाहिए; तुम्हें जो प्रत्यक्ष ही है वो दिखता कहाँ है। तुम्हे तो स्वप्न चाहिए।

जो तुम हो, वो मैं हूँ।

इतनी सी बात से तुम्हें आश्वस्ति होती ही कहाँ है! तुम्हें तो गाथा चाहिए। और जब मैं तुम्हें कह रहा हूँ तो आशय व्यक्ति से नहीं है, पूरी मानवता, सबके मन से है। हम ऐसे ही हैं।

जब तक दो-चार चमत्कार न हों, बड़ी-बड़ी बातें न हों, पराभौतिक जादू न हो, तब तक तुम मानते कहाँ हो कि बात सुनने लायक है। किसी दिन हवा में हाथ चलाऊं और खरगोश प्रकट कर दूँ तो मेला लग जाएगा, और बिना हवा में हाथ चलाए जो-जो निकाल रखा है वो तुम्हें दिखाई नहीं देता।

~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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