कैसे पता कि जान गए? || आचार्य प्रशांत (2020)

Acharya Prashant

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कैसे पता कि जान गए? || आचार्य प्रशांत (2020)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, हम आध्यात्मिक पुस्तकें पढ़ते हैं। कैसे पता चले कि हम उनका अर्थ जान गये कि नहीं?

आचार्य प्रशांत: “जे जानत ते कहत नहिं, कहत ते जानत नाहिं।” ये बहुत विचित्र बात है। श्वेताश्वतर उपनिषद् पर अभी जो पिछला ही सत्र था, तो ऋषि यही कह रहे थे।

स्पष्ट हो जाए जब कि नहीं जानते, तो आपको पता भी नहीं चलेगा, आप जान गये। लेकिन अगर उद्देश्य है कि जानना है, तो कुछ नहीं जान पाओगे। उद्देश्य अगर ये जानना है कि नहीं जानते, तो तुम जान भी नहीं पाओगे और कुछ धीरे से, बहुत आहिस्ता से, चुपचाप, मौन से, आपको पता चल जाएगा।

कुछ ऐसा पता चल जाएगा, जिसके पता चल जाने का भी आपको पता नहीं होगा। पता तो चल गया, पर आपको पता भी नहीं है कि पता चल गया। हाँ, जो पता चल गया, वो अब आपमें खून बनकर बहेगा। तो आपके काम आने लगेगा। पर आपको पता नहीं होगा कि आपको पता है। हाँ, उसकी जब ज़रूरत होगी, तो वो आपके हाथ में आ जाएगा।

बहुत पहले, आठ-दस साल पहले, यूँही मन में उदाहरण आ गया था, तो मैंने दिया था कि जैसे एक ऐसी ख़ास जेब हो जो बिलकुल खाली रहती हो; आपका अस्तित्व एक ख़ास जेब की तरह हो जाएगा जो सदा खाली रहती है, पर जब कोई वास्तविक ज़रूरत पड़ती है और आप हाथ डालते हैं, तो ठीक उसमें उतना ही रहता है, जितना आपको चाहिए। बस उतना ही, ठीक उतना ही जितना चाहिए।

और जब तक ज़रूरत नहीं रहती, उसमें कुछ नहीं रहता। मन ऐसा हो जाता है। इसमें कुछ नहीं रहता, कोई ज्ञान नहीं। 'कुछ पता है?' ‘बिलकुल कुछ नहीं पता। हाँ, ज़िन्दगी कोई जवाब मॉंगेगी, तो जवाब आ जाएगा। कहाँ से आ गया? ये हमको नहीं पता।’

अगर ज़िन्दगी जवाब नहीं मॉंग रही थी, तो क्या जवाब था आपके पास? तब नहीं था, पहले से तैयार कोई जवाब नहीं था। स्थिति कुछ आयी, जिसमें मेरी ओर से कोई प्रतिक्रिया चाहिए थी, तो वो आ गयी। वो स्थिति नहीं आती और कोई मुझसे पूछता कि ऐसी स्थिति में क्या करना होगा, तो हम बता नहीं पाते।

मेरे लिए भी बहुत मुश्किल हो जाता है; जब कहीं पर किसी संस्था, संगठन वगैरह में कभी बुला लेंगे और कह देते हैं कि आइए और आधे घंटे बोलिए। तो क्या बोलूॅं? ‘नहीं-नहीं बोलिए।’ अब उनका कुछ ढाँचा-ढर्रा ही ऐसे रहा है कि उनके पास जो भी वक्ता आते हैं, वो बोल देते हैं आधे-एक घंटे। और मुझे इसमें समझ में ही नहीं आता कि बोलना क्या है। मैं कहता हूँ, कुछ सवाल हो तो पूछिए, तो कुछ बोलें, नहीं तो बोलने को कुछ है नहीं अपने पास। तो थोड़ी सी ऐसी बात है। समझ में आ रहा है?

कोई आपसे कहे कि कुछ बताओ; तो आप कुछ नहीं बता पाऍंगे। क्या बताएँ? ये ज्ञान का अभाव है। और इसमें वास्तविक बोध रहता है। ज्ञान क्या है? इस उदाहरण के सन्दर्भ में कह रहा हूँ, ज्ञान समझ लो ऐसी चीज़ है जो पहले से मौजूद है, थोड़ी सी बासी। बोध क्या है? एकदम ताज़ी-ताज़ी तैयार, जैसे कि आप बाग में ही रहते हो। और जब ज़रूरत हुई, भूख लगी तो? एकदम ताज़ा फल लिया और खा लिया। हाथ में क्या है? हाथ में क्या है? कुछ भी नहीं। जब भूख नहीं लगी है तो हाथ में क्या है? कुछ भी नहीं। जब भूख लगी तो हाथ में क्या है? ताज़ा फल। भूख मिट गयी तो फिर से हाथ में क्या है? कुछ भी नहीं।

मन ऐसा हो जाता है। ज़रूरत है तो हाथ में है, ज़रूरत नहीं है तो नहीं है। भरकर नहीं घूम रहे हैं जेबों में। कि जेबें भरी हुई हैं और जेब में जो कुछ भरा होगा, वो तो बासी हो ही जाएगा। समझ में आ रही है बात?

तो अभी तो हमने बाग की बात करी। बाग में फल बाहर-बाहर होते हैं। यहाँ अध्यात्म में फल अन्दर होता है; फल अन्दर होता है, लेकिन आपके हाथ खाली होते हैं, जेब खाली होती है। लेकिन ये सबकुछ फल के लिए मत करिएगा।

अगर गिनने बैठ गये, अगर ऐसे कहने लग गये, ‘नहीं वैसे तो हमारे पास कोई फल-वल नहीं है, हम बिलकुल खाली रहते हैं, फ़कीर हैं, हाथ भी खाली, जेब भी खाली।’ और एक आँख से ऐसे गिन रहे हैं, ‘कितने फल हैं, ज़रूरत पड़ने पर कितने हैं? कभी मौका आ ही गया भाई, तो पता होना चाहिए न इंश्योरेंस (बीमा) कितने का है?’ तो इधर-उधर देख रहे हैं तो एक भी फल नहीं मिलेगा।

जो गिनने लग गया, जो पहले से ही सुरक्षा की मॉंग करने लग गया, ‘ऐसे-ऐसे-ऐसे कर लूँ’, उसे कुछ नहीं मिलता। जिसने अपनेआप को राम भरोसे छोड़ दिया, उसे जब ज़रूरत पड़ती है तो राम हाज़िर हो जाते हैं। पर सिर्फ़ ज़रूरत पड़ने पर। पहले से ही कहोगे कि सुबह से ही पूछ लिया कि राम दिनभर रहोगे न आज? तो कुछ नहीं। इसीलिए बहुत अच्छा नाम है, रामभरोसे। अब किसी का होता नहीं, अब किसी का ऐसा नाम हो तो हँसेंगे लोग। पहले होता था, रामभरोसे।

प्र: अभी आपने बताया कि ज्ञान का अभाव और वास्तविक बोध। तो क्या ज्ञान से ही बोध नहीं आता? जब हम उपनिषद् की बात कर रहे हैं तो हम उपनिषद् का ज्ञान ले रहे हैं। तो उससे हमें बोध नहीं आएगा?

आचार्य: एक विशेष ज्ञान है वो। बहुत अलग ज्ञान है। उल्टा ज्ञान है। वो ऐसा ज्ञान है जो ज्ञान के विरुद्ध जाता है। वो ऐसा ज्ञान है जो ज्ञान की ख़िलाफ़त करता है। तो इसीलिए उपनिषदों का जो ज्ञान है, उसकी तुलना इधर-उधर के बाक़ी ज्ञान से नहीं की जा सकती। बाक़ी ज्ञान ऐसे हैं, जैसे कड़ाही में आकर के आलू चिपक गया। कुछ और चीज़ें चिपक गयीं। तेल चिपक गया, आटा चिपक गया। पचास चीज़ें होती हैं न जो बर्तन में चिपक सकती हैं? वो ज्ञान वैसा होता है। वो कड़ाही क्या है? मन। तो वो ज्ञान आया और चिपक गया।

और उपनिषद् है साबुन की तरह। वो साबुन भी कड़ाही में ही डाला जाता है, जैसे बाक़ी चीज़ें। आप तेल भी डालते हो कड़ाही में और साबुन भी कड़ाही में डालते ही हो न? बाहर से ही डालते हो।

साबुन का क्या काम है? ख़ुद तो नहीं ही चिपकेगा और जो पहले चिपका हुआ है, उसको भी हटा देगा। तो इसीलिए उपनिषद् कोई साधारण किताब नहीं होते हैं, वो उल्टा काम करते हैं। बाक़ी चीज़ें चिपकती हैं और ये चिपकी हुई चीज़ों को हटाते हैं।

आसक्ति को अनासक्ति बना देते हैं। लिप्तता को निर्लिप्तता बना देते हैं।

प्र: तो फिर हमें उपनिषद् के अलावा और कुछ पढ़ना ही नहीं चाहिए?

आचार्य: जो उपनिषद् में लिखा है, वो समझ में ही नहीं आएगा, अगर और कुछ नहीं पढ़ा है तो। और दूसरी बात, पढ़ने का मतलब ये थोड़े ही होता है कि काला अक्षर पढ़ रहे हैं तो ही पढ़ा। ये जो आप किसी से सुन लेते हो, क्या वो ज्ञान नहीं है? ये जो आप देख लेते हो, क्या ये ज्ञान नहीं है? तो उपनिषदों के ज्ञान की वैधता ही तभी है, जब आपने बाक़ी सब ज्ञान पहले ही इकट्ठा कर रखा हो।

ठीक वैसे, जैसे कि साफ़ कड़ाही में साबुन डालना व्यर्थ की बात होगी। कड़ाही में साबुन डालने की वैधता ही तभी है, जब उस कड़ाही ने इधर-उधर का मामला अपने में चिपका रखा हो। और चिपका हम लेंगे ही क्योंकि बच्चा जिस क्षण पैदा होता है, वो उसी क्षण से ज्ञान इकट्ठा करना शुरू कर देता है। उससे पहले से भी। उससे पहले से ही वो ज्ञान इकट्ठा कर रहा है।

जब उसमें चेतना बिलकुल अभी-अभी आयी है, तभी से वो ज्ञान इकट्ठा कर रहा है। उसके जो जींस होते हैं वो क्या हैं? उसे भी आप बोलते क्या हो? उसे आप जेनेटिक इन्फॉर्मेशन (आनुवंशिक जानकारी) ही तो बोलते हो न? डीएनए , आरएनए , ये सब क्या है? ये ज्ञान ही तो है। वो ज्ञान उसके शरीर में बैठा हुआ है। एक तरह से ज्ञान ही पैदा होता है। जेनेटिक इन्फॉर्मेशन ने ही तो ये रूप लिया है न? वरना हाथ में पाँच ही उॅंगलियाँ क्यों है, सात क्यों नहीं है? सात क्यों नहीं है? ये सब ज्ञान की बात है। शरीर को पहले ही ये ज्ञान है कि हाथ में पाँच ही उॅंगलियाँ होनी चाहिए। दो ही नाक होने चाहिए। पेट में ऑंत होनी चाहिए। ये सब ज्ञान है शरीर को। और सॉंस लेनी है। और बच्चा पैदा होकर रोता है। ये ज्ञान नहीं है? उसे किसने सिखाया रोना? बच्चा पैदा होते ही जानता है कि दूध कैसे पीना है।

उसे किसने सिखाया? ये ज्ञान कहाँ से आया? ये ज्ञान उसके शरीर में निहित है। उसके शरीर को पता है कि भीतर हवा आएगी, तो हवा को फेफड़ों में किस प्रकार से, किस प्रक्रिया से गुज़रना है। उसका शरीर जानता है कि भीतर अगर दूध आएगा या खाना आएगा तो उसको कैसे पचाना है। शरीर को ये ज्ञान है न कि कैसे पचाना है? तो ज्ञान तो आपको है ही। कोई अज्ञानी नहीं है। जो अपनेआप को अज्ञानी बोलते हैं, वो भी अज्ञानी नहीं हैं। वास्तव में अज्ञान जैसी कोई चीज़ होती ही नहीं है। अहंकार माने? ज्ञान। हम सबके पास अतिशय और अतिरिक्त और अनावश्यक ज्ञान है।

और ज्ञान मोहताज नहीं होता, कागज़ का और स्याही का। आप देख रहे हो घड़ी को, उससे ज्ञान मिल गया आपको। आपको क्या लग रहा है, बच्चा जब तक स्कूल नहीं जाता, तीन-चार साल का नहीं हुआ, तब तक वो ज्ञान नहीं इकट्ठा कर रहा? किताब तो उसने पढ़ी नहीं, अभी स्कूल गया नहीं। तो क्या उसने ज्ञान नहीं इकट्ठा किया? पता नहीं कितना ज्ञान इकट्ठा कर लिया उसने। कभी माँ को सुन रहा है, मौसी को सुन रहा है, टीवी देख रहा है, खिड़की से बाहर झाँक रहा है। ज्ञान नहीं इकट्ठा कर लिया उसने?

पल-पल जो अनुभव हो रहा है, हर अनुभव आपको ज्ञान दे जाता है। हर अनुभव आपको प्रभावित कर जाता है। इसलिए उपनिषद् चाहिए। क्योंकि व्यर्थ ज्ञान तो हम बिना जाने, बिना चाहे भी इकट्ठा कर ही रहे हैं। ठीक वैसे, जैसे ये मेज़ रखी है; कहिए, इसको गन्दा करने के लिए आपको क्या चाहिए? ये मेज़ यहाँ रखी है, इसको गन्दा करने के लिए क्या चाहिए? इसको गन्दा करने के लिए आपको बस समय चाहिए। आप कुछ मत करिए, आप इसको ऐसे ही, जैसे रखी है छोड़ दीजिए। आइएगा छः महीने बाद इसको देखिएगा। क्या रहेगी इस पर?

प्र: धूल।

आचार्य: ये ज्ञान है। आप कुछ मत करिए तो भी आपको ज्ञान तो मिल ही रहा है। वो समय की धूल है। समय के साथ आप जिन-जिन अनुभवों के साथ गुज़र रहे हैं, वो सब अनुभव आपके ऊपर जमते जा रहे हैं, उसी को ज्ञान कहते हैं।

प्र: लेकिन ये तो हम अनकॉन्शियसली (अनजाने में) कलेक्ट (इकट्ठा) कर रहे हैं।

आचार्य: अनकॉन्शियसली (अनजाने में) करते हैं। उपनिषदों को कॉन्शियसली (होश में) पढ़ना होगा। बाक़ी सारा जो हमारा ज्ञान है, वो हमें बेहोशी में मिल रहा है। हमें पता भी नहीं है, हमने कौनसी चीज़ कहाँ से सीख ली। कौनसी बात से हम किस तरह प्रभावित और संस्कारित हो गये, हमें नहीं पता है। लेकिन पता हो या न पता हो, कष्ट तो हो रहा है न उन सबसे? आपको नहीं पता, आपको कोरोना वायरस किससे लगा, बहुत कम लोगों को पता होता है कि किससे लगा। पर एक बार लग गया तो कष्ट तो हो रहा है न? तो उपनिषद् वैक्सीन हैं।

प्र: लेकिन उपनिषद् के अलावा भी बहुत सारे ऐसी चीज़ें हैं जो हम कॉन्शियसली (होश में) गेन (बढ़ा) कर रहे हैं।

आचार्य: नहीं, वो भी बेहोशी ही है। उसको आप अपनी बेहोशी में कह देते हैं कि होश है। उसको आप अपने अनकॉन्शियसनेस (बेहोशी) में कॉन्शियसनेस (होश) बोल देते हैं। जैसे कोई नशे में हो आदमी और बोले कि हम तो?

प्र: होश में हैं।

आचार्य: होश में हैं। होश तो तभी आएगा, जब ये नींबूपानी अन्दर जाएगा (उपनिषद् के श्लोकों की ओर इशारा करते हुए)। शराबी अगर दावा भी करे अपने होश का, तो वो अपने होश का इस्तेमाल सिर्फ़ अगली बोतल चुनने के लिए करेगा। कहेगा मैं बहुत होश में हूँ और अपने होश में मैं बता रहा हूँ कि मुझे फलाना ब्रांड लाकर दो। ये उसका होश है। और दावा क्या है उसका पूरा? होश का।

पागल अगर तू होश में ही होता तो ये हरकत कर रहा होता? कहता तो रहता है कि मैं कॉन्शियसली ज्ञान इकट्ठा कर रहा हूँ। पर अगर तू कॉन्शियस (होश में) होता, वाकई तू होशमंद होता, तो तूने इस तरह की ज़िन्दगी कर रखी होती? ऐसी हरकतें कर रहा होता? और ज्ञान भी ऐसा इकट्ठा कर रहा होता?

तो हम चाहे इनवॉलंटरली (अनायास) प्रभावित हो रहे हों किसी से, माने? अनैच्छिक रूप से। और चाहे हम किसी से वॉलंटरली (स्वेच्छा से), माने? स्वैच्छिक रूप से प्रभावित हो रहे हों। वो दोनों ही स्थितियाँ बेहोशी की हैं। और दोनों में ज़्यादा फ़र्क नहीं है। बल्कि जब हम कहते हैं कि हम होश में हैं, वो ज़्यादा ख़तरनाक स्थिति है। आप सो रहे हैं, कोई आकर आपके मुँह पर रंग मल गया, कीचड़ मल गया। ये कम ख़तरनाक बात है क्योंकि आपकी जब नींद खुलेगी, उठोगे तो धो लोगे। पर आप कह रहे हो, आपका दावा है कि आप होश में हो। होली है भाई! और भाँग चढ़ी हुई है। और दावा अभी भी यही है कि होश में हैं। उठाकर के दुनियाभर का तारकोल मुँह पर मल लिया।

ये ज़्यादा ख़तरनाक बात है क्योंकि अब आपने कहा है कि मैंने ख़ुद करा है, होश में करा है। अब आप कभी नहीं उसको साफ़ करोगे। किसी और ने कर दिया होता, आप सो रहे थे, आपको पता नहीं था, तो शायद आप साफ़ कर भी लेते। जब अपने होश के साथ नाम जोड़ दिया आपने इस कीचड़ का, तो अब आप इसको कभी नहीं साफ़ करोगे।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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