एक पक्षी खाता रहा, दूसरा देखता ही रहा? || आचार्य प्रशांत, श्वेताश्वतर उपनिषद् पर (2020)

Acharya Prashant

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प्रसंग:

  • संसार रूपी वृक्ष क्या हैं?
  • उस पर विराजते दो पक्षी क्या हैं?
  • एक पक्षी खाता रहा, दूसरा देखता ही रहा का अर्थ क्या है?
  • मौत से सब घबराते क्यों हैं?
  • मृत्यु का भय क्यों सताता है?

श्लोक:

अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां बह्वीः प्रजा: सृजमानां सरूपाः । अजो ह्येको जुषमाणोऽनुशेते जहात्येनां भुक्तभोगामजोऽन्यः ॥ 5 ॥

अपने अनुरूप बहुत सी प्रजाओं को उत्पन्न करने वाली लाल, सफेद, काली, अनादि प्रकृति को एक जीव स्वीकार करता है और दूसरा उसका त्याग कर देता है।

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिपस्वजाते। तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्योऽभिचाकशीति।।6।।

सदा साथ रहकर मैत्री से रहने वाले दो पक्षी हैं एक ही वृक्ष पर। एक तो उस वृक्ष के फलों को स्वाद से खाता है और दूसरा बस देखता है।

समाने वृक्षे पुरुषो निमग्नोऽनीशया शोचति मुह्यमानः। जुष्टं यदा पश्यत्यन्यमीशमस्य महिमानमिति वीतशोकः।।7।।

उस एक ही वृक्ष पर रहने वाला जीव राग, द्वेष, आसक्ति आदि में डूबकर मोहित हुआ दीनतापूर्वक शोक करता है। जब वह अनेकों साधनों द्वारा सेवित ईश्वर की सत्ता का साक्षात्कार करता है तो शोक से मुक्त हो जाता है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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