कैसे जानूँ अपनी राह? || आचार्य प्रशांत, आइ.आइ.टी कानपुर के साथ (2020)

Acharya Prashant

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कैसे जानूँ अपनी राह? || आचार्य प्रशांत, आइ.आइ.टी कानपुर के साथ (2020)

“मदिरालय जाने को घर से चलता है पीने वाला, ‘किस पथ से जाऊँ’ असमंजस में है वह भोला-भाला; अलग-अलग पथ बतलाते सब पर मैं यह बतलाता हूँ... ‘राह पकड़ तू एक चला चल', पा जाएगा मधुशाला।“

~ हरिवंशराय बच्चन (मधुशाला)

प्रश्नकर्ता: “मदिरालय जाने को घर से चलता है पीने वाला, ‘किस पथ से जाऊँ’ असमंजस में है वह भोला-भाला; अलग-अलग पथ बतलाते सब पर मैं यह बतलाता हूँ, ‘राह पकड़ तू एक चला चल’, पा जाएगा मधुशाला।“ “कैसे जानूँ मेरी राह क्या है?” साफ़, संक्षिप्त प्रश्न है, “कैसे जानूँ मेरी राह क्या है?”

आचार्य प्रशांत: राह का निर्धारण आपकी वर्तमान स्थिति कर देती है। आपकी जिज्ञासा राह पूछने में बाद में होनी चाहिए, सबसे पहले आपकी जिज्ञासा होनी चाहिए कि आपकी ‘स्थिति’ क्या है। लेकिन मैं जैसे ही ये कहूँगा, आप कहेंगे कि “राह अज्ञात है तभी तो हम उसे जानना चाहते हैं, उसको जानने में रुचि है हमारी, क्योंकि अज्ञात चीज़ को जानना बड़ा अच्छा लगता है। और अभी जो हमारी वर्तमान स्थिति है वो तो हमारी ही स्थिति है न, तो हमें ज्ञात है, वो हम क्या जानें! हमें पूरा भरोसा है कि हम अपनी स्थिति से परिचित हैं।“ नहीं, यहीं पर तो धोखा है न! हम सोचते हैं हमें हमारी स्थिति पता है और आगे की राह नहीं पता है। हम कहते हैं, “हमारी जो अभी स्थिति है वो हमें पता है, और आगे की राह हमें नहीं पता है।“ तो हमें जब किसी से प्रश्न भी पूछना होता है तो हम किस बारे में पूछते हैं? आगे की राह के बारे में। हो गई न भूल! आपको अगर अपनी स्थिति पता ही होती तो आगे की राह आपको स्वयमेव पता चल जाती। राह नहीं पता चल रही, उसकी वजह ये है कि आपको अपनी स्थिति नहीं पता है, अपनी हालत नहीं पता है।

अपनी हालत को गौर से देखिए, हालत में ही राह के सारे इशारे छुपे हुए हैं। प्यासे हैं अगर आप, तो पानी की तरफ़ जाना है आपको; भूखे हैं अगर आप, तो भोजन की तरफ़ जाना है आपको; साधक हैं अगर आप, तो साध्य की ओर जाना है आपको; अज्ञानी हैं अगर आप, तो ज्ञान की तरफ़ जाना है आपको; अंधेरे में हैं अगर आप, तो प्रकाश की ओर जाना है आपको। किधर को जाना है, उसका फ़ैसला तो आपका वर्तमान दुःख करेगा न! स्थिति बराबर दुःख, वर्तमान स्थिति बराबर वर्तमान दुःख।

आप कहेंगे, “ऐसा थोड़े ही होता है, सब स्थितियों में दुःख थोड़े ही होता है!“ बिल्कुल होता है! अगर स्थिति में दुःख निहित नहीं है तो फिर कहीं को जाना ही क्यों है, फिर तो जहाँ हैं वहीं आनंद है। कहीं जाने की बात ही तब है न जब आप अभी जहाँ है वहाँ दुःख हो? और आदमी की हस्ती ऐसी है, आदमी का अस्तित्व ऐसा है कि वो जिस स्थिति में होता है वो स्थिति ही उसका दुःख होती है; क्योंकि स्थिति बाहर की चीज़ है, जो दुखी है वो भीतर बैठा है, वो हर स्थिति में दुखी है, दुःख ही उसकी स्थिति है। बात समझ में आ रही है?

आपका वर्तमान दुःख क्या है? आपका बंधन क्या है? कौन-सी समस्या, कौन-सा तनाव, कौन-सी उलझन है जो मन पर पड़ी हुई है? क्या है जो नहीं समझ पा रहे? — ये सीधे-सीधे देखिए। ये सीधे-सीधे देखना मुश्किल होगा, कारण है उसका, दुःख चेतना को अस्वीकार होता है। क्यों अस्वीकार होता है? क्योंकि अहंकार अगर मान लेगा कि वो वास्तव में दुःख में है, तो उसे अपनी भूल स्वीकारनी पड़ेगी न! तो इसीलिए जब हम पर दुःख बहुत छा जाता है; छोटा-मोटा दुःख तो हम स्वीकार कर लेते हैं, जो गहरा, अस्तित्व-गत दुःख होता है हमारा, हम उसको स्वीकार ही नहीं करते; हम उसका दमन कर देते हैं, हम उसको दफ़न कर देते हैं। तो इसलिए हमें अपने दुःख का कुछ पता ही नहीं होता। जब दुःख का नहीं पता तो अपनी स्थिति का नहीं पता, जब स्थिति का नहीं पता तो आगे की राह नहीं पता, तो फिर हम पूछते हैं, “आगे की राह बताइए।“

आगे की राह तब पता चलेगी जब आपको अपना अंदरूनी-से-अंदरूनी, गहरे-से-गहरा दुःख पता चलेगा। और वो पता तो है ही, क्योंकि किसका दुःख है? आपका अपना। आपका अपना दुःख है और आपको उसकी अनुभूति भी हो ही रही है, इसका प्रमाण ये है कि आप उसकी अनुभूति करना नहीं चाहते, आपने उसको दबा रखा है। अगर वो दुःख छोटा-मोटा होता तो आप उसे दबाते क्यों? वो दुःख घोर है, घनघोर है; वो दुःख आपको विवश कर रहा है अपनी ओर देखने के लिए, तो आप उसकी ओर बड़े संकल्प के साथ पीठ कर के खड़े हो जाते हैं। जब मैं आपकी बात कर रहा हूँ, तो अभिषेक, मेरा आशय आपसे ही नहीं है, मैं संपूर्ण मानवता की बात कर रहा हूँ, मैं हम सबकी बात कर रहा हूँ। उस तल पर, अस्तित्व-गत दुःख के तल पर हम सब एक ही हैं, तो बात सबकी है।

लेकिन जब तक आप स्वीकारेंगे नहीं कि भीतर गहरी पीड़ा बैठी हुई है, तब तक आपको आगे की कोई राह नहीं मिलेगी क्योंकि मिलनी चाहिए ही नहीं; जब भीतर तकलीफ़ ही नहीं है तो आगे की राह आपको चाहिए क्यों? भीतर की पीड़ा स्वीकारने के लिए आपको अपने अब तक के जीवन की असफलता स्वीकारनी पड़ेगी, क्योंकि अब तक का जीवन अगर सफल हुआ होता तो पीड़ा क्यों होती आज? और अब तक की असफलता स्वीकारना नागवार है अहंकार को, क्योंकि उसी ने तो जीवन जिया, उसी ने तो सब निर्णय लिए, वही तो सब उपलब्धियों का स्वामी है, वही तो सब करतूतों का कर्ता है। वो कैसे मान ले कि आज तक जो करा था वो ठीक नहीं था, वो कैसे मान ले कि एक निहायत ही असफल जीवन रहा है जिसमें कि उपलब्धि के नाम पर सिर्फ दुःख है हाथ में, या कि सुख भी हैं, पर वो सब सुख छोटे-मोटे और क्षण-भंगुर हैं; बड़े-से-बड़ा और शाश्वत-से-शाश्वत क्या है? दुःख।

जैसे दुःख की एक बड़ी चट्टान हो जिस पर सुख की छोटी-मोटी काई कभी-कभार जम आती हो जब बारिश होती है, ऐसा तो हमारा मानसिक जीवन होता है। बड़ी चट्टान, उसका क्या नाम? दुःख। और उस पर कभी-कभी संयोगवश, परिस्थितिवश बारिश हो जाती है तो उस पर छोटी-मोटी काई जम आती है। जब काई जम आती है तो हम बड़ा उत्सव मनाते हैं, कहते हैं, “देखो मैं कितना सुखी हूँ!” दिखाई नहीं देता कि वो जो छोटा-मोटा सुख है, वो दुःख की चट्टान पर ही तो उगा है; उस दुःख का आपको सामना करना पड़ेगा।

और आपने ये जो पंक्तियाँ यहाँ उद्धृत करीं हैं, इन पंक्तियों को काव्य तक ही रहने दें, इन पंक्तियों का अध्यात्म में बहुत कम महत्व है। कि मदिरालय जाने को चलता है पीने वाला, वो पूछता है, “किस राह से जाऊँ,” और कवि ने कहा कि “राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला।” ये बात लोकप्रिय हो सकती है, सत्य नहीं है। वास्तव में जिस संदर्भ में बात कही जा रही है वो ये है कि “तुम किसी भी एक पथ का अनुसरण कर लो, तुम उसी आखिरी मंज़िल तक पहुँच जाओगे। तुम शैव हो, तुम वैष्णव हो, हिंदू हो, मुसलमान हो, तुम ईसाई हो— तुम कुछ हो, यहूदी हो, तुम आस्तिक हो, तुम नास्तिक हो— तुम कोई एक पथ पकड़ कर चल दो, और तुम उसी सत्य तक, उसी मंज़िल तक, उसी परमात्मा, उसी ईश्वर तक पहुँच जाओगे।“ वो बात यहाँ कही जा रही है। ये बात काव्य के तल तक चल जाती है, अध्यात्म में नहीं चलती है।

ऐसा नहीं होता है कि कोई भी राह तुम एक पकड़ कर चल दो तो मंज़िल तक पहुँच जाओगे; ऐसा नहीं होता है। सब अलग हैं और सबको बहुत विवेक के साथ और बहुत हौसले के साथ अपनी अकेली राह देखनी पड़ती है। वो जो पुराने राजपथ हैं, परंपरा से सम्मानित, उन पर भीड़ बहुत चल रही है पर उन पर चल कर के कोई मधुशाला मिलनी नहीं है। ये जो मधुशाला है, जिस पर आपको वास्तविक मधु मिलेगा— मधु अमृत को भी कहते हैं— जहाँ पर आप अमृतत्व को प्राप्त हो जाएँगे, वो तो आपको अपनी व्यक्तिगत लड़ाई लड़ कर ही नज़र आएगी। और वो व्यक्तिगत लड़ाई अपने ही खिलाफ़ लड़नी है; अपनी ही धारणा के खिलाफ़, अपनी ही अहंता के खिलाफ़ वो लड़ाई आप लड़ेंगे, आपको राह भी साफ़ नज़र आएगी। ठीक है?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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