काबिल-ए-तारीफ़ मैं तुम्हें चाहता हूँ || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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काबिल-ए-तारीफ़ मैं तुम्हें चाहता हूँ || आचार्य प्रशांत (2019)

आचार्य प्रशांत: जो बातें मैं कह रहा हूँ अगर उनमें कुछ दम, कुछ फ़ौलाद समझ में आता है तो उसको अपनी ज़िंदगी में उतार लें, मेरा उद्देश्य पूरा हो जाएगा। और अगर वो फ़ौलाद आप ज़िंदगी में नहीं उतार रहे हो और बस “गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु” कर रहे हो, तो करते रहो, कुछ नहीं होना है। ये शिष्य इत्यादि बनना भी न कई बार बड़े फ़रेब की बात हो जाती है — कि हमारी ज़िम्मेदारी तो पूरी हो गई, हम क्या बन गए?

श्रोता: शिष्य।

आचार्य: आगे का कौन देखेगा? ‘अब आगे का गुरु जी ही देखेंगे न!’

गुरु जी कुछ नहीं देख सकते यार, क्या देखेंगे?

कुछ शेर लिखे थे मैंने बीस साल पहले, वो भी कल डायरी खुली तो सामने आए।

(डायरी की ओर देखकर पढ़ते हुए) मैंने लिखा था,

”मेरी तारीफ़ से गमगीन न करो मुझे काबिल-ए-तारीफ़, मैं तुम्हें चाहता हूँ।”

“मेरी तारीफ़ से गमगीन न करो मुझे, काबिल-ए-तारीफ़, मैं तुम्हें चाहता हूँ।” बार-बार बोलोगे, ‘आचार्य जी, ये, वो!’ तुम बोलोगे, ‘आचार्य जी महान हैं!’ आचार्य जी क्या हैं, वो जानते हैं कि तुम जानते हो? बोलो! मैं जानता हूँ न मैं क्या हूँ, तुम मुझे ही मेरे ही बारे में कुछ बताना चाहते हो, ‘आचार्य जी महान हैं!’ अगर तुम ये बोल सकते हो, ‘आचार्य जी महान हैं’, तो कल तुम ये भी बोल सकते हो कि आचार्य जी लफ़ंगे हैं।

अगर मैं ये मान लूँ तुम्हारे कहने से, तुम्हारे मुहँ की बात कि आचार्य जी महान हैं, तो तुम कल ये भी बोल सकते हो, ‘आचार्य जी गधे-घोड़े हैं’, मुझे वो भी मानना पड़ेगा। मैं काहे को मानूँ? और तुम्हें पता कितना है मेरे बारे में? तुम्हें अपने बारे में कितना पता है कि मेरे बारे में पता हो जाएगा?

मुझे ये सब मत बताओ कि मुझे देखकर के तुम्हें दिव्यता की अनुभूति होती है इत्यादि-इत्यादि। तुम आईने में अपनेआप को देखो, उससे तुम्हें दिव्यता की अनुभूति हो तो अच्छी बात है। मुझे देखकर जो अनुभूति होती है वो रातों-रात बदल भी सकती है। हाँ, अपनी ज़िंदगी के बारे में ईमानदार रहो तो वहाँ कुछ मिलेगा जो बिलकुल पक्का होगा, रॉक सॉलिड (पत्थर जैसा ठोस)। वो नहीं बदलेगा।

(डायरी की ओर देखकर) और लिखा था,

”मुझे बात करने से रोकते हो तुम, तुम बात कर सको यही बात चाहता हूँ।”

तो मतलब बात मेरे बारे में नहीं है, बात आपके बारे में है। आप बात कर सको न, तो कुछ बात बनी। (फिर डायरी की ओर देखकर थोड़ा मुस्कुराते हुए) और अंदाज़ तो बाँका था बीस साल पहले भी! अब ये बीस-इक्कीस साल का छोकरा है जिसने लिखा है (स्वयं के बारे में बताते हुए), “उम्र काफ़ी हो गई थोड़ा ही ज़िंदा बचा हूँ”,

”उम्र काफ़ी हो गई थोड़ा ही ज़िंदा बचा हूँ, पुण्य काफ़ी कर लिए कुछ पाप चाहता हूँ।”

(गौरवान्वित भाव के साथ डायरी का पेज पलटते हुए) और ये बात अभी भी लागू होती है, ठीक है,

”सीखा बहुत कम है तालीम है अधूरी, इस घने जंगल में आदमज़ाद चाहता हूँ।”

ये ही चाहता हूँ, इससे ज़्यादा कुछ नहीं। बार-बार बात करता हूँ न जंगल की, गोरिल्ला की — तो इस घने जंगल में आदमज़ाद चाहता हूँ! — बस ये ही है। जहाँ तक मेरी बात है मैंने सीखा वाकई बहुत कम है, वाकई तालीम अधूरी है। मुझे इस तरह का कोई मुगालता नहीं है कि मैं अवतार हूँ या जो कुछ भी, कई बार आप लोग बोल जाते हैं। न, बिलकुल भी नहीं! जंगल से निकल आओ, गोरिल्ला से आदमी बन जाओ, यही बहुत बड़ी बात है।

2016 में ऋषिकेश में पहला मिथ डिमोलिशन टूर (मिथक भंजन यात्रा) हुआ था, तो वहाँ जितने घूम रहे थे ऋषिकेश में उन सबको एन्लायटन्मेंट (प्रबोधन) चाहिए था। और सब वहाँ पहुँचते ही यही हैं, सब विदेशी! ’एन्लायटन्मेंट एन्लायटन्मेंट!’ तो मैंने पोस्टर छपवाया एक, उसमें लिखवाया, ‘फॉरगेट एन्लायटन्मेंट, बी ह्यूमन फर्स्ट’ — ”इस घने जंगल में आदमज़ाद चाहता हूँ”।

छोड़ो न एन्लायटन्मेंट, आदमी तो बन जाओ! आज भी वही बात कह रहा हूँ, गोरिल्ला से इंसान बन जाओ, बहुत है। एन्लायटन्मेंट! करोगे क्या? खयाली पुलाव!

(पुनः डायरी की ओर देखते हुए)

”तुम्हारी हसरत मैं बन न पाऊँगा, तुम्हारी हसरतें मैं आबाद चाहता हूँ।”

मुझे अपनी हसरत मत बना लो। मुझे हसरत मत बनाओ, मैं भी मिट्टी का ढेला हूँ तुम्हारी ही तरह। अपनी हसरत उसको बनाओ जो आबाद कर देगा तुमको। “तुम्हारी हसरत मैं बन न पाऊँगा, तुम्हारी हसरतें में आबाद चाहता हूँ” — मुझको अपनी हसरत बना लोगे तो बर्बाद हो जाओगे। ‘मैं’ माने ये जो व्यक्ति बैठा है यहाँ, ये जो देह बैठी है (अपनी ओर इशारा करते हुए), इसको बहुत महिमामंडित मत करो।

(फिर डायरी की तरफ़ देखते हुए) और इसमें जो पहला शेर है, वो है,

”दायरों में बाँध लो तुम ज़िंदगी मेरी, मैं बस एक दायरा अपना चाहता हूँ।”

उसी दायरे का नाम है — प्रशांत अद्वैत फाउंडेशन। मैंने कहा, पैदा हुए हैं तो हज़ार वृत्तों में तो बँधना ही पड़ेगा न। वृत्त माने ही दायरा होता है — (उँगली से गोलाकार बनाकर समझाते हुए) वृत्त, दायरा — कि वृत्तियाँ तो अब रहनी-ही-रहनी हैं, जीवन भर रहनी हैं। जो पैदा हुआ है उसको रहेगी-ही-रहेगी — जन्म लिए का दंड है, जो जन्मे सो रोए!

तो ”हज़ार दायरों में बाँध लो तुम ज़िंदगी मेरी, मैं बस एक दायरा अपना चाहता हूँ”, ये सब तो चलता ही रहेगा जो देह का और वृत्तियों का, विकारों का खेल है। उससे हटकर के कुछ अच्छा भी कर लो, बस इतनी ख्वाहिश है। तो कृपा करके ये पर्सनल ग्लोरिफिकेशन (व्यक्तिगत महिमामंडन) जैसा न करें, न किसी को करने दें। हिन्दुस्तान ने देखिए, इस बात का भी खूब खामियाज़ा भुगता है, और मत करिएगा।

एक ताकतवर ज़िंदगी जिएँ आप। ठीक है? बस इतना बहुत है। और कुछ है क्या ज़िंदगी में पाने को, बताओ न? आप कर लो बहुत बड़ी-बड़ी बातें, ये सब बड़ी बातें लेकर के एक दिन सो जाओगे। मिट्टी के हो, मिट्टी को ही जाना है, बीच में ये क्या इतना बखेड़ा और बहाना है?

शांत, सरल, आज़ाद जीवन बिताओ, बहुत है। बाकी कुछ नहीं! ठीक है?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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