प्रश्नकर्ता: सर, जब आपसे पहली बार मिला था तो उस समय जीवन में बहुत परेशानियाँ थीं। अनुकम्पा थी कि आपसे मिल पाया। उसी कारण उस समय बातें भी समझ आती थीं। पर मन अभी डरता है, कि जीवन ध्यान से देख तो रहा हूँ न, कहीं कुछ छूट तो नहीं रहा। इसी चिंतन में मन विचरता रहता है कि कहीं किसी जाल में दोबारा न फँस जाऊँ, कि कहीं दोबारा वही सब इकट्ठा न कर बैठूँ।
आचार्य प्रशांत: यही हो रहा है इकट्ठा। ये ख्याल, ‘कुछ इकट्ठा तो नहीं हो रहा’, ऐसे ही कहीं से नहीं आता, इसके पीछे भी कुछ होता है। आप किसी बात का संदेह करते हैं, आप को कोई शक होता है, हो सकता है ये सिद्ध हो जाए कि आप का शक बेबुनियाद था। जब शक बेबुनियाद होता है तो यही सिद्ध होता है न कि आप जो सोच रहे थे कि ‘है’, तथ्य रूप में वो ‘नहीं था’। ये तो सिद्ध हो सकता है कि आप का शक बेबुनियाद था, लेकिन ‘शक’ तो था न? शक हमेशा यही होता है कि कुछ गड़बड़ है।
कुछ और गड़बड़ हो या ना हो, शक का होना ही अपनेआप में एक गड़बड़ है।
किसी को बार-बार ये ख्याल आ रहा है कि ‘ताला वगैरह तोड़ के मेरे घर में चोर तो नहीं घुस जाएँगे!’ चोरों का घुसना गड़बड़ है, पर चोर ना भी घुसे हों, तो ये ख्याल बार-बार आना कि, ‘मेरे घर में क्या हो रहा होगा, चोर तो नहीं घुस रहे होंगे।’ इससे यही सिद्ध होता है कि कहीं कुछ न कुछ तो ठीक नहीं है। हम ध्यान से अगर देंखे तो ये ख्याल भी कि ‘कहीं कुछ हो तो नहीं जाएगा। या कि कुछ भूल-चूक, ऊँच-नीच तो नहीं हो जाएगी।’ ये ख्याल भी तो है भविष्य के बारे में ही न?
अभी मैं आपके साथ बैठा हूँ, मैं अभी ये सोचूँ कि ‘कहीं और, कभी और, कुछ गड़बड़ तो नहीं हो जाएगी?’, अगर ये विचार बार-बार आता है तो इसका अर्थ यही है कि रोज़मर्रा के जीवन में जो कर रहे हैं, उसमें गहरे नहीं उतरे हुए हैं।
आदमी जितना गहरे उतरता है, उतनी जगह कम बचती जाती है आगे-पीछे के ख्याल के लिए।
मैं फिर कह रहा हूँ, मुझे नहीं मालूम कि आपको जिन भी बातों का संदेह है, वो बातें घटित होंगी या नहीं, कि संदेह में कुछ दम है या नहीं, पर मुझे ये ज़रूर पता है कि अगर संदेह बार-बार उठ रहा है तो इसका अर्थ है कि मन केंद्र पर नहीं है, आसन में नहीं है।
अब देखिए, शक करने के लिए तो इतना कुछ है कि अगर कोई शक करने पर उतारू हो, तो शक में पूरा जीवन बिता सकता है। इतना कुछ है दुनिया में, जो दाएँ भी जा सकता है और बाएँ भी जा सकता है, ऊपर भी जा सकता और नीचे भी जा सकता है, हम बैठ कर उस पर लगातार विचार कर सकते हैं कि, ‘क्या होगा? किधर को जाएगा?’
पर क्यों करें?
क्यों करें?
कोई कारण नहीं है।
तो आगे कुछ ठीक होगा या नहीं, आपको यदि शांति मिली है तो शांति कायम रहेगी या नहीं, ये विचार बहुत महत्व के नहीं हैं। महत्व की बस एक बात है कि, फिलहाल (अभी) जीवन कैसा बीत रहा है? उसके अलावा कुछ भी ऐसा नहीं है जो सत्य के निकट ले जा सके और शांति दे सके।
जैसे यूँ ही बिना कारण के, बिना योजना के, आप अद्वैत आ गए, और आप कहते हैं कि उससे आपको कुछ फायदा हो गया, वैसे ही आगे भी जो मिलना होगा, वो बिना विचार और बिना योजना के ही मिल जाएगा।
तो बिना योजना के जो मिला है, उसको बचाने की योजना क्यों बनाते हैं?
और यह बात अद्वैत के बारे में नहीं, पूरे जीवन के बारे में लागू होती है। जीवन में जो कुछ भी कीमती है, वो आयोजित तो नहीं है। वो तो यूँ ही मिला है। मिलना यूँ ही है, बिना किसी योजना के, पर उसे बचाने की और बढ़ाने की योजनाएँ हम खूब बनाते हैं। चीज़ हमारी होती, तो हमारे किये सुरक्षित भी रह पाती और संवर्धित भी हो पाती, पर चीज़ हमारी है नहीं, तो उसकी सुरक्षा और संवर्धन हमारे हाथ में कैसे हो सकता है?
प्र: सर, पर जब जीवन में विकल्प दिखाई देते हैं तो समझ नहीं आता कि ये करूँ या वो। अगर उसमें कुछ चुनाव कर भी लिया तो इतनी शंका नहीं पैदा होती है, परन्तु, चुनाव करते समय लगता है कि यह रास्ता पकड़ा तो दूसरा छूटेगा, और दूसरा पकड़ा तो पहला।
आचार्य: जिसमें ज़्यादा पता हो कि क्या होगा, वो चुनाव मत करिए। दो रास्ते हैं, जिसके बारे में ज़्यादा जानकारी हो, उस पर मत चलिए। क्योंकि अगर ज़्यादा जानकारी है, तो रास्ता पूर्व नियोजित है। उस रास्ते पर आप या तो पहले चल चुके हैं, या कम-से-कम उसके बारे में सूचना पा चुके हैं। तो ज़्यादा पता हो, तो मत चलिए उस पर।
जहाँ कहीं कुछ अगली साँस की तरह ही नया हो, कोशिश करिए कि उसी पर चलें। और कोई तरीका नहीं है। देखिये, चुनाव जब भी सामने आएगा, दोनों ओर जाने के लिए कुछ तर्क तो ज़रूर सामने आएँगे। जिधर आप तर्क के बिना भी जा सकते हों, उधर को जाइए।
एक बात और समझिएगा, आपने कहा कि यहाँ आने से पहले मन पर बहुत सारी चीज़ों का बोझ था। वो बोझ हटा तो है, पर आशंका रहती है कि कहीं दोबारा वापस ना आ जाए। बोझ हटता ऐसे नहीं हैं कि जैसे सर से किसी ने कुछ किलो का वज़न उठा कर के अलग रख दिया हो। अगर आपके सर पर दस-किलो का वज़न है, और कोई उसे उठा करके अलग रख दे, तो भी वो वज़न रहता तो है, कहीं चला नहीं गया, अब आपके सर पर नहीं है, कहीं और है, पर अब किसी और के सर पर जा सकता है। या आप ही चाहें तो उसे दोबारा उठाकर अपने सर पर रख सकते हैं। ये स्थूल बात है। ये स्थूल वज़न के साथ घटना घट सकती है।
मानसिक वज़न ऐसे नहीं हटते।
मानसिक वज़न ऐसे हटते हैं कि आप के सर पर दस किलो का वज़न था, आपको लगातार इसका अनुभव हो रहा था, लेकिन फिर अचानक बोध हुआ आपको कि वज़न है ही नहीं, कि अनुभव झूठा था। जैसे सपना अनुभव दे जाता है, पर वह अनुभव झूठा होता है। ऐसा नहीं कि वज़न असली था और वज़न हटा दिया गया है। ‘मुझे’ लगता था कि वज़न है; कष्ट था ही नहीं, मैं फ़िज़ूल ही पीड़ा में घूमता था। तो जब मानसिक रुग्णता से मुक्ति मिलती है, तो ऐसे मिलती है कि आप जान जाते हो कि वो सब कुछ जो आपको हैरान-परेशान करता था और डराता था, वो नकली था। वो था ही नहीं। उसमें कोई जान नहीं थी। व्यर्थ था; फ़िज़ूल था। ये जाने बिना वास्तव में मानसिक बोझ से मुक्ति मिल नहीं सकती।
अगर ये जान ही लिया है कि जिससे डर रहे थे, वो सपना था, तो आप दोबारा उससे डर कैसे लोगे?
आप कोशिश करके भी क्या उसी सपने में वापस जा सकते हो? हम कई बार कोशिश कर लेते हैं, कोई बहुत रोमांचक सपना आ रहा हो, बहुत आकर्षक सपना आ रहा हो, और बीच में नींद खुल जाए, तो फ़िर से आँख बंद करते हैं कि सपना आगे बढ़े, पर सपना आगे बढ़ता नहीं। एक बार जब सच जान लिया, तो अब दोबारा सपने में जाओगे कैसे?
इसी तरीके से एक बार ‘मानसिक बोझ झूठा था’, ये जान लिया, तो अब डर कैसे सकते हो कि कहीं वो वापस न आ जाए? उसकी पुनरावृत्ति का सवाल पैदा ही नहीं होता, नहीं पैदा होता। जो हो रहा है वो कुछ इस प्रकार है कि उस सपने की जगह अब एक दूसरे सपने ने ले ली है। वो सपना यह है कि कहीं पुराना वाला भयावह सपना दोबारा न आ जाए।
समझिए, सपने से जागरण नहीं हुआ है, बस एक सपने का स्थान दूसरे ने ले लिया है। पहला सपना खौफ़नाक था, वो सपना गया, पर जागृति हुई नहीं, उसके स्थान पर दूसरा सपना आ गया। पहले सपने में आपको हिंसक पशु दिखाई दे रहे थे, वो आपकी जान लेने को उतारू थे; दूसरे सपने में वो हिंसक पशु तो नहीं है, पर ये डर है कि वो हिंसक-पशु लौट न आएँ।
ये सपना ही है, जागरण हुआ नहीं है।
तो बस इस बात को ख्याल में रखिए कि अभी भी खेल चल ही रहा है। घटनाएँ बदली हैं, खिलाड़ी बदले हैं, पात्र बदले हैं, हो सकता है खेल ही बदल गया हो, पर जो चल रहा है वो कोई नया खेल नहीं है। इतना अगर जाने रहेंगे, तो फ़िर कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। ये जानना काफ़ी हो जाता है कि अभी भी जो चल रहा है, वो खेल ही है, मैं इसको बहुत गंभीरता से नहीं ले सकता।
दिक्कत तब होती है जब सपने को सत्य मान लिया जाता है।
सपना, सपना है — इसका आभास रहे।
उसके बाद सपने अगर आ रहे हैं तो आते रहें, सपनों का काम है आना। जैसे अभी मन का काम है हमें ये दर्शाना कि संसार है, रौशनी है, हम और आप बैठे बात कर रहे हैं, उसी तरीके से, मन का काम है सपने दिखाना भी; आते रहें। पर समस्त दृश्यों के पीछे, और सारे सपनों के पीछे, ये बोध, ये सूक्ष्म अहसास बना रहे कि ‘जानता हूँ तुम को, घबराना क्या है। सपना ही है। अगला आ जाएगा फिर से, फ़िर ख़त्म हो जाएगा; फ़िर कुछ और, फ़िर कुछ और, आना-जाना उनका काम है। आप कहीं नहीं चले जायेंगे सपने के साथ। सपने में आपकी मौत भी हो सकती है; होगा कुछ नहीं।
ये बात सुनकर के हम बड़ा सुकून अनुभव करते हैं कि सपने में अगर मौत भी हो गई तो मेरा क्या जाएगा। पर ये ही जब मैं बोलता हूँ कि जाग्रति में भी अगर मौत हो गई तो तुम्हारा कुछ नहीं जाएगा, क्योंकि है वो भी एक प्रकार का सपना ही, चेतना ही की तो एक दूसरी अवस्था है। सोते में चेतना की एक अवस्था है, जगते में चेतना की दूसरी अवस्था है — पर दोनों हैं चेतना के ही खेल। जैसे सपने में मरने में तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ता, वैसे ही जाग्रति में मरने में तुम्हारा कुछ बिगड़ नहीं जाना है।
पर हम ये ख्याल भी क्यों करें?
मौसम अच्छा है, चाय रखी हुई है, सब ठीक-ठाक है। ये बातें ही कौन करे, कि सपने में मरेंगे तो क्या होगा, जाग्रति में मरेंगे तो क्या होगा।
ज़िन्दगी ठीक है, हसीन है, क्या फ़िर जरुरत है ये सारी पांडित्यपूर्ण ज्ञान चर्चा करने की?