प्रश्नकर्ता: प्रणाम सर, जीवन में दुख क्यों है?
आचार्य प्रशांत: कुछ और विस्तार से पूछना चाहते हो या यही है?
प्र: यही है सर।
आचार्य: दुख माने क्या होता है? दुख किसको कहते हैं? कैसे पता आप दुखी हैं?
प्रतिभागी: जो इछाएँ हैं, वो पूरी नहीं होती हैं तो दुख होता है।
आचार्य: वो तो कारण है। आपको पता कैसे होता है कि आप दुखी हो?
प्रतिभागी: सुख का अभाव, अच्छा नहीं महसूस होता।
आचार्य: हाँ, बस! अस्वस्थ होने का एक अनुभव दुख कहलाता है। आप कब कहते हो, ‘मैं दुखी हूँ?’ ‘मैं दुखी हूँ’ ये कब कहते हो? भीतर से एक भाव उठता है जो असंगत होता है, विषम होता है, आउट ऑफ प्लेस (जगह से बाहर) होता है न? जो चीज़ नहीं होनी चाहिए वो मौजूद है। जैसे कोई चीज़ यहाँ (गले की ओर इशारा करते हैं) फँस गई हो, वहाँ होनी नहीं चाहिए; पर है। तो इसको हम क्या बोलते हैं? दुख। किसी ऐसी चीज़ की मौजूदगी जो नहीं होनी चाहिए। ठीक है?
तो अब दुख क्यों है? यही है दुख कि जो अनावश्यक है, जब वो होता है तो उसको दुख बोलते हैं। जिसके होने से कोई लाभ नहीं पर फिर भी है, वो दुख है। नहीं होना चाहिए पर पकड़ रखा है, वही दुख है। आपको जिज्ञासा हो रही है, आप कह रहे हैं, ‘इसको आप उलटे तरीक़े से क्यों नहीं बोल रहे कि जो होना चाहिए वो अनुपस्थित है इसलिए दुख है? इस प्रश्न पर भी मनीषियों ने विचार करा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि दुख किसी अनुपस्थिती का नाम हो?
मैंने शुरू करते ही क्या कहा? 'दुख एक अनावश्यक उपस्थिति है। जैसे गले में कुछ फँस गया हो, नहीं होना चाहिए; पर है।'
सोचने वालों ने इस प्रश्न पर भी विचार किया, ऐसा तो नहीं कि कुछ होना चाहिए और वो नहीं मिल रहा, इसलिए दुख है? क्योंकि पहली बात यही आती है दिमाग में। एक आम आदमी है, उससे पूछो, ‘दुख क्यों है?’ तो दस में से सात-आठ बार उत्तर यही देगा कि ‘फ़लानी चीज़ चाहिए थी, मिली नहीं।' तो वो कहेगा कि दुख एक अनुपस्थिति है। ‘दुख है किसी चीज़ का न मिलना, अनुपस्थित होना।‘
जिन्होंने इस मुद्दे को बहुत गहराई से खंगाला, उन्होंने कहा, ‘नहीं, असली बात तो ये है कि कुछ भी जो मिल गया है, कभी-न-कभी किसी-न-किसी रूप में खुलकर, छुपकर दुख ही बनता है।‘ तो दुख तो एक अनावश्यक उपस्थिति ही है। फिर उन्होंने इसी चीज़ को और आगे खींचा और वो बोले, 'जो कुछ भी है वो दुख बनेगा-ही-बनेगा।' तो ऋषि जब ये बोल रहे थे, तो जो बगल में बैठ थे ऋषि, उन्होंने कहा, ‘जो कुछ भी है, माने किसके लिए है ये तो बताया ही नहीं तुमने?’ वेदान्त में ऐसे ही बातचीत होती है।
बोले, ‘जो कुछ भी है वही दुख बनेगा पर किसके लिए?
बोले, ‘अरे! जीव के लिए ही होता है जो कुछ होता है उसके जीवन में।’ उसके जीवन में क्या-क्या होता है? विचार होते हैं, आदर्श होते हैं, रुपया-पैसा, घर, धन-दौलत, परिवार, प्रतिष्ठा, ये सब चीजें होतीं हैं सबके पास। अतीत, स्मृतियाँ, ये सब होता है।
तो बोले, 'अच्छा! जीव के लिए ये सब चीजें होती हैं?’
बोले, ‘हाँ! जीव के लिए जो कुछ है, वही दुख है।’
बोले, ‘किस अर्थ में जो कुछ है वही दुख है?’
बोले, ‘अपूर्णता के अर्थ में।’
"जीव अपनेआप को अपूर्ण मानकर अपने जीवन में जो कुछ रखे हुए है वही दुख है।"
तो जीवन में किसी चीज़ का होना भर दुख नहीं है, जीवन में अगर कोई चीज़ इसलिए है कि उसके न होने से आप अधूरे हो जाएँगे, वही चीज़ दुख है। तो क्या चीज़ दुख है? नहीं, नहीं, नहीं! आपके भीतर की वो अपूर्णता दुख है, जिसने उस चीज़ को जकड़ रखा है। ‘मैं अपनेआप को मानता हूँ आधा-अधूरा छोटू-सा, कमज़ोर-सा, बेसहारा, तो मैं कभी यह, कभी वो चीज़ ज़िंदगी में भरता ही रहता हूँ। ठीक? जो चीजें मैंने स्वयं सक्रिय रूप से नहीं भरी, संयोग से भी आ गईं, मैं उनको भी पकड़ लेता हूँ; क्योंकि मैं कौन हूँ? छोटू, आधा-अधूरा, बेसहारा! मैंने पकड़ लिया।’
आप जिन भी चीज़ों को पकड़ रहे हैं, वो चीज़ें प्रकृति के वशीभूत हैं। और प्रकृति में तमाम तरह के संयोग चलते हैं। वास्तव में प्रकृति कार्य-कारण का इतना विशाल तंत्र है कि हम कभी नहीं पता कर सकते कि जो भी हो रहा है, क्यों हो रहा है? उदहारण देता हूँ, आप बाहर निकलेंगे, हवा चल रही होगी। हवा पूरे तरीक़े से एक भौतिक चीज़ है। एयर मॉलिक्यूल्स हैं, ठीक? जो कुछ भी भौतिक है, प्रयोग करके उसके कारण का पता लगाया जा सकता है, ठीक? लेकिन आज तक कोई विधि नहीं विकसित हुई, जो बिलकुल ठीक-ठीक बात दे कि किसी जगह पर कितने बजे, कितनी गति से, किस दिशा में हवा चलेगी।
क्या बताया नहीं जा सकता? बताया जा सकता है। पर उसके लिए लगभग इनफाइनाट डेटा चाहिए। इन्फाइनाट डेटा अगर उपलब्ध हो तो ये बिलकुल बताया जा सकता है। आज से ही नहीं, आने वाले हज़ार सालों में भी किस जगह पर, किस समय, किस दिशा में, कितनी गति से हवा चलेगी, सब बताया जा सकता है।
ब्रह्मांड पूरी तरह से नियतात्मक हो सकता है, अगर आपके पास इन्फाइनाइट डेटा हो, पर वो होता नहीं। इसको ही हम फिर कह देते हैं संयोग या रैन्डम्नस। तो आपको कभी पता नहीं चल सकता कि आपके जीवन में वो आया तो क्यों आया। बस ऐसे ही आया। पर आप बने हुए थे अधूरे, आपने उसको धर लिया। ‘बेटा तू आ गया न, बस यही तेरी ग़लती है, अब मैं तुझे पकड़ लूँगा।’ जैसे किसी डॉक्टर का क्लिनिक चलता न हो, तो संयोग से वहाँ कोई मरीज़ आ जाए, वो चढ़ के बैठ जाता है उसके ऊपर। जाने ही नहीं देता। समझ में आ रही है बात यह?
हम पकड़े रहते हैं, और जब पकड़ते हैं तो सारा ध्यान केंद्रित हो जाता है पकड़ी हुई चीज़ पर। कोई आदमी अपने को लेकर नहीं रो रहा, हर आदमी रो रहा है किसी चीज़ को लेकर के। जो वो बोलता भी है कि ‘अरे! मुझे नहीं मिला’, तो वहाँ कोई विषय होता है। ‘मुझे फ़लानी चीज़ नहीं मिली, मुझे घर नहीं मिला।’ ध्यान सारा है उस विषय पर जिसको लेकर दुखी हो, तो ध्यान एकदम नहीं जाने पाता उस पर जो दुखी है।
जो दुखी है वो अपना दुख स्वयं है। कोई नहीं है जिसके दुख का कारण कोई बाहरी विषय हो, कोई दूसरा हो। आपकी हस्ती ही आपके दुख का कारण है। आपका होना ही आपका दुख है। अहंकार अपना दुख आप है।
और उसी आन्तरिक दुख की अभिव्यक्ति होती है उन सब चीजों में जो आपके जीवन में अनावश्यक मौजूद हैं। होना नहीं चाहिए पर मौजूद हैं, छोड़ते डर लगता है। लगता है कि वैसे ही भीतर इतना खोखलापन है, ये चीज़ छोड़ दी तो कहीं भीतरी रिक्तता और न बढ़ जाए। ये दुख है।
"दुखी ही दुख है! जो बीमार है, वही बीमारी है! बीमारी कहीं बाहर से नहीं लग गई, दुख कहीं बाहर से नहीं लग गया। आप हैं तो दुख है।"
सुबह जैसे ही नींद खुलती है तो दुख शुरु हो जाता है। सो रहे थे तो दुख कहाँ था? ऐसा कौन है जो सोते समय भी दुखी रहता है, हाथ उठाए? सोते समय दुखी नहीं थे, नींद खुली नहीं कि दुख शुरू हो गया। नींद खुली, कुछ हुआ क्या कि दुख शुरू हो गया? कुछ हुआ? कुछ छिन गया? उठे तो पता चला कि कपड़े जले हुए हैं? उठे तो पता चला कि चूहा नाक कुतर गया है? ऐसा कुछ हुआ? ऐसा तो कुछ हुआ नहीं। पर यहाँ जीतने बैठे होंगे सब सहमत होंगे कि जैसे ही सुबह जगते हैं, एक प्रकार का तनाव तुरंत शुरू हो जाता है।
उस तनाव का कोई कारण नहीं होता, कोई विषय नहीं होता, पर तनाव शुरू हो जाता है। ग़ौर किया है? विषयहीन तनाव, कारणहीन तनाव, रीज़नलेस टेंशन शुरू होता है कि नहीं? फिर आपको सोचना पड़ता है कि आज की ताज़ा गड़बड़ क्या है? खोजना पड़ता है कि आज क्या ग़लत हुआ है? क्योंकि दुख को जस्टीफाइ (न्यायोचित ठहराना) भी तो करना है। नहीं तो मूर्ख जैसे लगेंगे कि हुआ कुछ नहीं है लेकिन दुखी घूम रहे हैं। किसी को क्या बताएँगे! तो आज का ताज़ा कारण, आज का ताज़ा कारण, आज का ताज़ा कारण! कहीं से तो कारण खोज के लाओ, नहीं तो कोई पूछेगा, ‘ये मुँह लटकाए काहे घूम रहे हो?' तो क्या बोलेंगे? बड़ा अजीब लगेगा कि वजह तो कुछ नहीं है, बस हम बेवकूफ़ हैं। ऐसे तो नहीं बोलते! तो सुबह उठना ही दुख है।
माने चेतना की जाग्रत अवस्था जिसमें स्मृतियाँ हैं और विचार हैं, यही दुख है। उस अवस्था में दुख है, माने क्या? उस अवस्था के केंद्र में दुख है। उस अवस्था के केंद्र में क्या चीज़ बैठी हुई है? हमारी अपूर्णता। हमारा स्वयं को लेकर के बड़ा ग़लत विचार है। आप अपनेआप को जो भी मानते हैं, वही चीज़ ग़लत है।
निसर्गदत्त महाराज से कोई मिलने गया, बहुत बातचीत हो गई, फिर बोलते हैं, “बालक, एक ही चीज़ तुमको बोल सकता हूँ, तुम अपनेआप को जो समझते हो न, तुम वो हो नहीं।” पता नहीं इतने में उसको कितना समझ में आया होगा क्योंकि बहुत समझते नहीं थे वो। उनका अलग चलता था, बोल दिया तो बोल दिया, तुम्हें समझना है तो समझो, नहीं तो भागो यहाँ से। बोले, 'तुम वो हो ही नहीं जो तुम बने बैठे हो। बस!'
और जो तुम बने बैठे हो उसके कारण तुम्हें सो चीजें पकड़नी पड़ती हैं। जो चीजें तुमने पकड़ी हैं, वो तुम्हारे नियंत्रण में नहीं हैं, वो संयोगों का परिणाम हैं। वो छिन जाती हैं, जैसे लहरें उठकर लुप्त हो जाती हैं। जैसे हवा अभी चली, फिर थम जाती है। अब अगर हवा से कुछ उम्मीद न हो अपेक्षा न हो, तो ये बात बड़े शांत और सुखद अनुभव कि हो सकती है न, कि जैसे गर्मी की साँझ हो, आप बैठे हुए हैं, थोड़ी देर को चलती है हवा, फिर नहीं चलती है। है न? फिर आप कहते हैं, ‘अच्छा'। फिर थोड़ी देर में फिर चली फिर नहीं चली। लेकिन यही अगर आपकी हवा से उम्मीद बन जाए कि इसका तो मेरा सात जनम का रिश्ता है, मेरी हवा सिर्फ़ मेरी है। तो आपको बड़ी तक़लीफ़ होगी जितनी बार वो नहीं चलेगी। आप कहोगे, ‘अब कहाँ चले गई है? बैगरत कहाँ गई है मुँह मारने? अभी तो यहाँ थी, अभी कहाँ विलुप्त हो गई?’
ये दो स्थितियाँ कितनी अलग हैं, एक चीज़ जो आनन्द का स्रोत हो सकती थी, उसको हम अपने लिए दुख बना लेते हैं। आत्मस्थ आदमी के लिए किसी चीज़ का होना भी आनन्द है, उस चीज़ का न होना भी आनन्द है। कभी गर्मियों में जाकर के छत पर लेटें हैं? आप में से कितने लोग हैं, जो कभी खुली छत पर सोये हैं? तो गरमियाँ चल रही हैं, मान लीजिए जून का महीना है, मॉनसून आने वाले हैं या आ चुके हैं तो बादल छाए रहते हैं, ठीक? और फिर चाँद क्या करता है? क्या करता है? कभी छुपता है कभी प्रकट होता है। कभी आधा सा दिखता है, जैसे कोई बच्चा लुका-छिपी खेल रहा हो और दीवार के पीछे से ऐसे मुँह निकालकर, देखा है बच्चे को ऐसे करते? उनके साथ खेलो और उनको न ढूँढो बहुत देर तक, तो भी उनको खुजली हो जाती है। फिर वो अपनेआप निकल करके आते हैं, कहते हैं, ‘मुझे पकड़ो, मुझे पकड़ो!’ तो चाँद भी जैसे वैसा ही कर रहा हो। कभी-कभी बादल के पीछे पूरा छुप जाता है, बस उसकी परिधि दिखाई देती है (हाथ से गोल आकार बनाते हैं।) ऐसे। फिर वो बादल एकदम चमक उठता है। ऐसे कोने में देखा है सिल्वर लाइनिंग आ जाती है? अब चाँद का दिखना भी सुख है और चाँद का न दिखना भी सुख है। उसका होना और छुपना दोनों सुख हैं। क्योंकि सौभाग्यवश अभी तक आपने चाँद से कोई व्यक्तिगत रिश्ता नहीं बनाया है। न आपने उससे कोई व्यक्तिगत उम्मीदें पाली हैं, न कसमें खा ली हैं। ‘ये देख चाँद, तेरी चाँदनी मेरी है अब। ओ मेरी चाँदनी!' और वो हो जाए तो फिर देखिए दिल कैसे टूटेगा, एक रात में डेढ़ सौ बार टूटेगा। जितनी बार वो छुपेगा आप कहेंगे, ‘हो गई बेवफ़ाई!’ ये दुख है!
पूरे रहो न अपनेआप में! फिर पूरी प्रकृति आपको एक निरपेक्ष सुख देती है, उसको आनन्द कहते हैं।
आनन्द क्या है? निर्वैयक्तिक सुख! सुख है जिसके साथ आपकी कोई आशा नहीं जुड़ी हुई है। ऐसा सुख जो आपके व्यक्तित्व को पूरा नहीं कर रहा, आप पहले से ही पूरे हो।
‘मैं पूरा हूँ! मैं पूरा हूँ! और वो रहा चाँद!’ जीवन को अगर वैसे ही देख लिया जैसे तट पर खड़े होकर के सागर कि लहरों को देखते हो, कोई समस्या नहीं है। ज़िंदगी से उम्मीदें बाँध ली, पछताओगे। उम्मीदें तभी बाँधते हो जब स्वयं को लेकर अज्ञान में रहते हो।
तो दुख का क्या कारण हो गया—आत्म-अज्ञान। आत्मज्ञान का अभाव ही दुख है।
हम नहीं जानते हम कौन हैं? तो हम पूरी सृष्टि को अपने लिए दुख बना लेते हैं। कोई आया आपसे हँसकर के चार बातें करके चला गया। ये बात तो हल्के-फुल्के सुख की होनी चाहिए थी, सहज सुख। उलटे आप रोना शुरू कर देते हो उसके जाने पर, आप कहते हो, ‘टिका क्यों नहीं?‘ होता है कि नहीं होता? जो चीज़ जितनी अच्छी होती है उसको लेकर उतना रोते हो। या तो ये कहकर कि टिकी क्यों नहीं, या ये कहकर कि टिकी तो हुई है पर आगे न छिन जाए।
हम पूरे, तो जगत सुख सागर है। हम अधूरे, तो आपके हाथ में अमृत भी आ जाए तो आपको दुख ही देगा।
क्या उम्मीदें यहाँ से रखनी हैं? मिलनी तो अंत में इस शरीर को मौत ही है न, उसकी उम्मीद रखते हो? तो रख लो कितनी भी उम्मीदें, अंत में एक ही चीज़ पूरी होनी है, क्या? मौत! उम्मीदें नहीं पूरी होतीं, सिर्फ़ ज़िंदगी पूरी हो जाती है। तो उम्मीदें रख के क्या पाओगे? तो जानने वालों ने ये भी कह दिया है कि मुक्ति का अर्थ ऐसे भी कर सकते हो– “उम्मीदों से मुक्ति।“
जीवन-मुक्त कौन है? जो आशा-मुक्त हो गया। 'निराश' शब्द समाज में बुरा माना जाता है। अध्यात्म में 'निराश' शब्द बहुत ऊँचा शब्द है। जो आशा से मुक्त है, वो जीवन-मुक्त है।
'कैसा खेल है! चल रहा है, हम देख रहे हैं। जब तक है बड़े सुख कि बात है, जब नहीं है तब भी क्या चला गया?' और बाहरी कलाबाज़ी से दुख नहीं जाएगा। भूलिएगा नहीं, दुखी ही दुख है। जो दुखी है, वो अपना दुख स्वयं है। तो बाहरी परिवर्तनों से आपका दुख मिट नहीं जाएगा। आपको दुख मिटाना है तो अपनेआप को मिटाना होगा। आप चाहें कि दुनिया में कुछ फेर-बदल कर दें, जिन विषयों से आपका सम्बन्ध है उनको आगे-पीछे कर दें, कुछ पुरानी चीज़ छोड़कर के नई चीज़ ले आयें, ये सब कर दें, दीवारों में नये रंग का पेन्ट (रंग-रोगन) करा दें, इससे दुख चला जाएगा!
दुख जाएगा जब आप जाएँगे, और आपका जाना आपके लिए बड़ी खुशख़बरी की बात होती है। डरिए मत! हमारा जाना माने हमारी बेहोशी का जाना। जब आपकी बेहोशी जाती है, तो आप प्रकट होते हैं फिर पहली बार, उसको जन्म कहते हैं!
आपका जाना माने ये नहीं कि आपकी हस्ती विलुप्त हो जाएगी। आपका जाना माने आपकी बेहोशी का जाना। आप बेहोश जब नहीं रहेंगे तब तो आप पैदा होंगे न। तब तो आप हुए, तब आपका अस्तित्व आया! नहीं तो हम जैसे हैं, हम होते कहाँ हैं? कुछ नहीं! बिना हुए ही मर जाते हैं। कहे, “छोरा पैदा हुआ नहीं, पैदा नहीं हुआ, अस्सी साल बाद मर गया।' मरा कौन? जो पैदा ही नहीं हुआ था! डबल ट्रैजडी (दूनी त्रासदी) पहली बात पैदा नहीं हुआ, दूसरी बात मर भी गया। और उसमें इतना और जोड़ लो कि अस्सी साल तक दुख और भोगता रहा। ‘पैदा नहीं हुआ पर दुख कैसे भोगे?’ यही तो चमत्कार है, इसी को तो माया बोलते हैं। पैदा हुआ नहीं, दुख पूरे भोगे!
बाहर की दिशा मत तलाशिए, दुख से मुक्ति बाहर कहीं नहीं मिलेगी। आप जो बने हुए हैं न, उसको ठीक कर लीजिए; दुख मिटेगा।