आचार्य प्रशांत: मैंने तो यहाँ तक देखा है कि लोग कहते हैं कि सारी धार्मिकता बस एक वाक्य में यही है किसी को चोट मत पहुँचाओ। अरे! शायर बिलकुल आसमान पर खड़े होकर के घोषणा करते हैं कि ये हटाओ सारे धर्म-मज़हब, असली बात बस एक है, किसी को तकलीफ़ मत देना, तुम्हारी वजह से किसी की आँख से आँसू नहीं छलकना चाहिए।
और हमें तो ये पता है कि जब गुरूजन आये हैं, सन्त आये हैं, कोई श्रीकृष्ण, कोई क्राइस्ट आये हैं तो उनकी बात तो बहुतों को बुरी लगी है। पर शायद ये शायर और बुद्धिजीवी कृष्णों से कुछ आगे की बात कह रहे होंगे कि सारी धार्मिकता बस यही है कि किसी की आँख से आँसू न आ जाए। मीरा तो उम्रभर रोई थीं। कौन जाने, कौन पढ़े किसी मीरा, किसी कबीर, किसी फ़रीद के बारे में? जो ख़ूब रोये। ये मूल्य बड़ी जड़ पकड़ता जा रहा है कि ठेस मत पहुँचाओ किसी को, कुछ ऐसा मत कह दो जो किसी को बुरा लगता हो। लोग आते हैं कहते हैं, ‘देखो, तुम्हारी बात हमें बुरी लग रही हैं, आय एम नॉट एंजॉयिंग दिस’। ’डू हेल विद योर एंजॉयमेन्ट’ (मेरी बला से तुम्हारा मज़ा)। हम तुम तक सच ला रहे हैं, मनोरंजन थोड़े ही ला रहे हैं कि तुम एंजॉय करोगे उसे।
कोई चित्रकार एक चित्र खींचता है, कोई फ़िल्मकार एक फ़िल्म बनाता है; लोग कहते हैं, ‘नहीं साहब, फ़िल्म हटा दो, चित्र जला दो, क़िताब जला दो, इसमें जो लिखा है वो हमें ठेस पहुँचा रहा है।’ अरे ठेस पहुँचती है तो पहुँचे! सौ बार मैंने कहा है कि अहंकार को ही ठेस पहुँचती है। किसी को ठेस पहुँच रही है उस चीज़ का नाम ही अहंकार है, और किसको ठेस लगती है? आत्मा को तो ठेस लगती नहीं।
इस मूल्य को बिलकुल त्याग दें कि जो बात सुनने में बुरी लगती हो वो हमसे कोई कहे नहीं और जिस काम से हमें ठेस लगती हो वो काम कोई करे नहीं। क्योंकि अगर आप अपनेआप को हर उस चीज़ से बचाए रखेंगे जो आपको ठेस देती है तो फिर पिंजरा टूटेगा कैसे? कोई चोट नहीं करेगा तो आपकी जेल की सलाख़ें टूटेंगी कैसे?
रूमी ने बड़ी शानदार बात कही थी, उन्होंने कहा कि अगर ज़रा-से रगड़ने से तुम इतने परेशान हो जाओगे तो चमकोगे कैसे। हमने तो अभी तुम्हें ज़रा-सा रगड़ा और तुम हैरान हो गये, तो चमकोगे कैसे? और ज़रा-से घाव से इतने परेशान हो जाओगे कि तुममें कहीं किसी तरह का कोई छिद्र न होने पाये, तो तुममें प्रकाश कैसे प्रवेश करेगा?
ये बात हम अपने ऊपर रखते हैं इसीलिए फिर ये बात हम दूसरों पर भी रखते हैं, हम कहते हैं कि हमें कोई आहत न करे और फिर हम इसीलिए डरते हैं दूसरों को आहत करने से। जिसको अब अपने आहत होने से कोई डर नहीं रहा, जिसको अब सुरक्षित रहने का कोई आग्रह नहीं रहा वो ख़तरनाक हो जाता है क्योंकि अब वो दूसरों की भी सुरक्षा की परवाह नहीं करता। वो कहता है, ‘न हमें इस बात से कोई प्रयोजन है कि हमें चोट न पहुँचे, न हम इस बात का अब ख़याल करेंगे कि तु्म्हें चोट न पहुँचे।’ तो लोगों ने मिल-जुलकर के आपसी एक नियम बना लिया कि अगर तुम ऐसे हो गये कि तुम्हें चोट नहीं पहुँची तो फिर तुम हमें भी चोट पहुँचाओगे, तो ऐसा करते हैं जितने बच्चे हैं सबको एक मूल्य बिलकुल बाल-घुट्टी के साथ चटा दो और वो मूल्य ये है, ’डोन्ट बी रूड’ (अशिष्टता नहीं करनी चाहिए), ‘डोन्ट हर्ट’ (किसी को ठेस मत पहुँचाओ)। ‘न मैं तुम्हारा नक़लीपन उजागर करूँगा, न तुम मेरा करना।’
‘शर्मा जी, आप तो क्या बात है! माशल्लाह एकदम लाजवाब लग रहें हैं!’ ‘अरे त्रिपाठी जी, आपसे ज़्यादा थोड़े ही।’ (श्रोतागण हँसते हैं)
‘तुम मेरी पीठ खुजाओ, मैं तुम्हारी पीठ खुजाऊँगा।’ शर्मा जी सुभानल्लाह, त्रिपाठी जी माशल्लाह! ‘और यही अभी मैं खुलकर के बोल दूँ ये कैसा लग रहा है तो मेरी आफ़त हो जानी है क्योंकि मैंने इसको बोला नहीं, कि वो भी फिर पलटकर बोलेगा। तो मैं काहे को इसको कुछ बोलूँ।’
तो इसीलिए तुम भी डरती हो, उसकी पोल तुमने खोली नहीं कि ख़तरा खड़ा हो जाएगा वो फिर तुम्हारी भी कलई खोलेगा। ‘चिनॉय सेठ, जिनके घर शीशे के होते हैं वो दूसरों के घर पर पत्थर नहीं फेंकते’। और यहाँ तो सभी के घर शीशे के हैं! तो बहुत आवश्यक है कि हर बच्चे को ये मूल्य बताया जाए कि पत्थर नहीं फेंकना। किसी के घर पर एक मारा नहीं कि सबसे पहले तुम्हारा चकनाचूर होगा।