झूठ के दाग || आचार्य प्रशांत, युवाओ के संग (2012)

Acharya Prashant

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झूठ के दाग || आचार्य प्रशांत, युवाओ के संग (2012)

आचार्य प्रशांत : क्या नाम है?

श्रोता : सर, राकेश।

वक्ता : राकेश, ये सवाल पूछना ज़रूरी था क्या? तुम्हारे लिए था ज़रूरी? तुमनेंं, तुम्हारे बगल में जो बैठा है, उससे अनुमति ली क्या सवाल पूछने के लिए? जो उधर बैठा है, उससे अनुमति ली? मेरे हाथ में माइक है, मुझसे अनुमति ली? किसी से नहीं ली ना।

तुम्हारे मन में बात उठी, और तुम स्पष्ट हो कि जीवन में ये एक ज़रूरी सवाल है, तो तुमने पूछा। या कि बहुत तुमने सोच विचार किया था? तुम योजना बना कर के बैठे थे, कि ये सवाल पूछोगे? नहीं ना?

तुम्हें क्या यह पता था कि इस सत्र में, इस बिंदु पर आकर के मैं कहूँगा कि अब आप लोग बोलिये? किसी को भी पता था क्या? तो निश्चित रूप से उसने योजना तो नहीं बना रखी है। न उसने योजना बनाई, न अनुमति ली। उसे बोलना था, तो उसने बोला। जीवन ठीक ऐसे ही है। जिसे नहीं बोलना, वो अनुमति नहीं लेगा, वो योजना नहीं बनाएगा। और वो तयारी भी नहीं करेगा। ये जो तीनो हैं, उनमें किसी से उसका वास्ता नहीं रहेगा।

प्रिपरेशन , न प्लानिंग , न परमिशन । सच तो है। उसकी क्या तैयारी करनी। झूठ की ही तैयारी होती है। और इसने तैयारी करी होती तो शायद ये पूछ न पाता। ये सच्चा सवाल है, इसको ये पूछ न पाता। बात आ रही है समझ में कुछ – कुछ?

दुनिया की कोई ताक़त तुमसे वो नहीं करवा सकती जिस बारे में तुम्हें स्पष्टता है। तुम चाय पी रहे हो, उसमें तुम्हें दिख गया कि मक्खी है, तो क्या तुम मुझसे पूछोगे कि सर, चाय में मक्खी हो तो मक्खी फेंकना ज़रूरी है क्या? क्या पूछोगे मुझसे? नहीं पूछोगे ना? तुम उसे फेंक दोगे, क्योंकि तुम्हें पता है कि ये मक्खी है।

बात, न झूठ की, न सच की। बात ये है, कि क्या मुझे पता है? अगर मैं जान रहा हूँ, कि वो झूठ कहाँ से आ रहा है, तो मैं खुद ही उसे नहीं बोलूँगा। य कोई आदर्शों की बात नहीं है। ये कोई वो भी बात नहीं है कि बचपन में सिखाया गया था तो तोडूँ कैसे कि सदा सच बोलो। ये सब ऐसी कोई बात नहीं है। मैं तुमसे कह रहा हूँ कि जो तुम्हें झूठ बोलने पर विवश करे, उसने तुमको ग़ुलाम बना लिया। क्या तुम ग़ुलाम बनना पसंद करते हो?

पर ये तुम्हें समझ में आए तो ना। हम तो राह चलते से भी झूठ बोल देते हैं। ज़बरदस्ती बोल देते हैं। और हम समझ भी नहीं पाते कि इस झूठ बोलने में हम कितने छोटे हो गए। ये एक भ्रम है और दूसरा भ्रम हमें ये होता है कि झूठ बोल दिया तो बात आयी गयी हो गयी। कोई बात आयी गयी नहीं हो गयी। जिस मन ने झूठ बोला वो मन अब तुम्हारे साथ रहेगा। तुम्हारा मन चोर का मन हो जाएगा, झूठे का मन हो जाएगा। और उस मन के साथ तुम्हें ही रहना है। तुम्हें ही ज़िंदगी बितानी है, उस मन के साथ। तुममें से कितने लोग एक झूठे मन के साथ ज़िंदगी बिताना चाहते हो? हर झूठ मन पर एक दाग छोड़ के जाता है। उसी समय, फल उसी समय मिल जाता है।

तुम में से कितने लोग, ऐसे मन के साथ जीना चाहते हो? जिस पे धब्बे ही धब्बे लगे हों – गंदा, बदबूदार। कपड़े में बदबू आ रही हो तो कहोगे, “बदल दो, बदल दो।” और मन से बदबू आ रही हो तो?

अब ये बात राकेश, पढ़ाने की नहीं है, ये बात समझने की है। कि मैं समझ जाऊँ कि झूठ क्या है। क्या मैं ये समझता हूँ कि झूठ क्या है? क्या मैं समझता हूँ, सच में समझता हूँ? हम तो सच भी बोलते हैं तो दबाव में बोलते हैं, क्योंकि अगर झूठ पकड़ा गया तो बदनामी हो जाएगी। ठीक है ना? अकसर जो हमारा सच होता है, किसलिए होता है? तुमको अगर पता चल जाए कि तुम्हारी अंक-सूची सत्यापित नहीं होने वाली तो तुममें से कोई ऐसा नहीं है जो पिच्यानवे प्रतिशत से नीचे लिखे अपने सी वी में। तो अगर वहाँ लिख भी देते हो, कि मेरे पास तो ये गरीबी के बासठ परसेंट हैं बस; तो वो इसलिए लिख देते हो कि तुम्हें डर है कि अगर झूठ लिखा तो कहीं पकड़ा ना जाए आगे। तुम्हारा सच, सच जैसा नहीं है, वो भी झूठ है। क्योंकि उसमें कोई समझ नहीं है। ना सच, ना झूठ, समझ समझ।

नासमझी में जो सच भी बोला जाए, वो बहुत बड़ा झूठ है। नहीं आ रही बात समझ में?

बिना समझे, सिर्फ डर के कारण या लोभ के कारण, या आदत के कारण, या परम्परा के कारण, अगर तुम सच भी बोल रहे हो तो उसमें सच जैसा क्या है? क्या है सच जैसा? तो समझो, बात को समझो। एक बार समझ गए, तो फिर तुम जो भी बोलोगे वो ठीक होगा। चाहे वो सच हो कि झूठ हो कि क्या हो ,सच झूठ की परवाह किसको है? बात को समझना ज़रूरी है। नहीं आ रही बात समझ में? या तुमने ये सोचा था, कि मैं बता दूंगा कि नहीं, झूठा-झूठा गंदा, या झूठा-झूठा कड़वा और सच्चा-सच्चा मीठा। ऐसा कुछ नहीं है। तुम्हारे पास सिर्फ तुम्हारी एक चीज़ है, तुम्हारा ध्यान, तुम्हारी समझ।

बात को अगर समझते हो, तो अपने आप जो करोगे, जो कहोगे, वो ठीक ही होगा। तुम्हें परवाह करने की ज़रुरत ही नहीं है कि मैं सच बोल रहा हूँ, कि झूठ बोल रहा हूँ। और भले ही वो कोई संस्था हो, या घर हो, या चौराहा हो, फर्क नहीं पड़ता । क्या तुम समझ रहे हो?

श्रोतागण : जी, सर|

वक्ता : क्या मुझे कुछ और मुस्कुराते हुए चेहरे दिखेंगे? वैसे ही मुस्कुराओगे जैसे अभी मुस्कुरा रहे हो? सब मुस्कुरा रहे हैं।

(छात्र हँसते हैं)

थोड़ा बेहतर लगा। पर कुछ ही लोगों से, बाकी तो कह रहे हैं, पता नहीं क्या? इधर डराते हैं, फिर कहते हैं मुस्कुराओ। क्या हम कुछ और जवाब देखेंगे जो आदत से नहीं, समझ से आ रहे हैं? कुछ आएँगे ऐसे उत्तर? वो उत्तर देखो, थोड़ा सा तुमको आश्चर्यचकित कर सकते हैं। क्योंकि वो नए होंगे, तुमने वो बातें पहले कभी कही नहीं होंगी। क्योंकि तुम्हें पहले कभी किसी ने बताया ही नहीं कि ये बातें भी कही जा सकती हैं। समझ से जो निकलेगा वो एक बार को तुमको थोड़ा सा चक्कर में डाल सकता है कि क्या ये बात बोलने लायक है? कोई नियम कायदा नहीं है। कोई प्रक्रिया नहीं है, कोई नियम नहीं है। हर बात की जा सकती है। बस तुम्हें पता होना चाहिए कि तुम कह क्या रहे हो। साफ़ साफ़ पता होना चाहिए। फिर जो भी कहोगे, ठीक ही होगा। परवाह ही मत करो कि किस नियमावली में क्या लिखा हुआ है।

बिलकुल परवाह करने की ज़रुरत नहीं है। आ रही है बात समझ में?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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