हम इस पृथ्वी पर क्यों आए हैं? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

Acharya Prashant

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हम इस पृथ्वी पर क्यों आए हैं? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

प्रश्न: हम यहाँ, इस पृथ्वी पर आए ही क्यों हैं?

वक्ता: आशीष, क्या है जो आया है इस पृथ्वी पर? कुछ अगर इस पृथ्वी पर आता है, तो उसे पहले पृथ्वी पर नहीं होना चाहिए था, तभी तो आ सकता है। मैं जानना चाहता हूँ कि – क्या है जिसको तुम कह रहे हो, कि “इस पृथ्वी पर आया है”? तुम्हारे पास ऐसा क्या है, जो यहाँ पहले नहीं था, और तुम्हारे आने से आ गया है?

तुम क्या नया लेकर आए हो यहाँ पर? जब तुम कहते हो, “मैं यहाँ आया हूँ,” तो इसका अर्थ है कि तुम पहले यहाँ नहीं थे, ठीक? मैं तभी तो कह सकता हूँ कि, “मैं यहाँ आया,” अगर मैं पहले से ही यहाँ न हूँ। चलो देखते हैं कि तुम्हारे पास ऐसा क्या है, जो पहले यहाँ नहीं था।

क्या है तुम्हारे पास? तुम्हारे पास ऐसा क्या है, जो पहले से यहाँ नहीं था? तुम अपने आप को बस ये जानते हो, ठीक है न? कि, “ख़ाल का एक झोला है, उसके भीतर जो कुछ है, वो मैं हूँ”। तुमसे पूछा जाए कि, “तुम?” तो तुम बोलोगे, “ये, इधर*(अपने* शरीर की ओर इंगित करते *हुए )**”*। और ‘इधर’ की सीमा है ये त्वचा, ये खाल, कि इसके भीतर जो कुछ है, वो ‘मैं हूँ’। इसके भीतर जो कुछ है, वो पहले से यहाँ पर था।

तुम्हारे शरीर की पहली दो कोशिकाएँ, माता-पिता से आईं? और उसके बाद, यही मिट्टी, यही फल, यही अन्न, यही धुप, और यही हवा – इनको मिलकर ‘ये’(अपने शरीर की ओर इंगित करते हुए) बन गया है। बात ठीक? क्या ये पहले से ही यहाँ नहीं था? था कि नहीं था? या किसी और जगह से आ रहा है? या किसी और ब्रह्माण्ड से यहाँ पर आया है? ये सब कुछ तो पहले से ही यहाँ पर था।

तो तुम कहाँ ‘कहीं’ से आ रहे हो? तुम तो सदा यहीं थे। कुछ है, जो कहीं और से आ रहा है? क्या कुछ भी ऐसा है, जो कहीं और से आ रहा है?

श्रोता : सर, नाम।

वक्ता : क्या नाम है तुम्हारा?

श्रोता : अमित।

वक्ता : अमित, ये शब्द है ‘अमित’, ये शताब्दियों पुराना है। तुम्हें क्या लगता है, जब तुम पैदा हुए, उस दिन ये शब्द गढ़ा गया नया? ये कि नया जीव आया है, इसके लिए एक बिल्कुल नया नाम होना चाहिए?

(हँसी)

कुछ भी तो नया नहीं है तुममें। तुम्हें ये डर पैदा कहाँ से हो गया कि हम ‘कहीं’ से आए हैं? तुम सदा से यहीं थे, और इसी में वापस मिल जाओगे। तुम कहाँ आए हो, और कहाँ जाना हैं तुम्हें? तुम अपने आप को देह ही तो जानते हो न? वो कहीं से नहीं आ रही, वो यहीं पर थी, बिल्कुल यहीं पर थी।

सामने एक सेब रखा रहता है, तब तुम कहते हो, “वो अलग है”। तुम उसी को खा लेते हो, वो शरीर बन जाता है, तब कहते हो, “वो मैं हूँ”। ये ‘मैं’ क्या पहले से ही नहीं था यहाँ पर, सेब के रूप में? तो ‘तुम’ कहाँ से आ गये?

श्रोता : सर, हम परछाईं हैं।

वक्ता : देह है, तभी तो परछाईं है?

श्रोता : नई तो है?

वक्ता : नई कहाँ है भाई? छाया का बनना तो सदा की घटना है। जहाँ कहीं भी पदार्थ है, जहाँ कहीं भी कोई वस्तु है, छाया बनेगी। ये कैसी बातें कर रहे हो? मूलतः तुम अपने आप को ये शरीर ही जानते हो, तुम शरीर के अलावा अपने आप को कुछ जानते नहीं। तो आश्वस्त रहो कि ये शरीर कहीं और से नहीं आ रहा है, हमेशा से यहीं पर था। मिट्टी से उठा है, मिट्टी में मिल जायेगा।

तुम हो कौन? मैं ये सब कह करके, तुम्हारा ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूँ एक सवाल की तरफ कि, “तुम हो कौन?” अगर तुम अपने आप को इस देह के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं मानते, तो ये देह तो पूरी तरीके से कहीं बाहर से ही आ रही है। अगर तुम अपने आप को अपना मन मानते हो, तो उस मन में भी जो कुछ है, वो बाहर से ही आया है।

तुम्हें तुम्हारा धर्म बाहरी लोगों ने दे दिया। तुमने तो नहीं चुना था? तुम्हें तुम्हारा लिंग भी अकस्मात ही मिल गया है। तुमने तो नहीं फैसला किया था कि “लड़का पैदा होऊँगा, या लड़की?” तुम्हें तुम्हारी मान्यताएँ, धारणाएँ, ये भी बाहर से ही मिल गयी हैं। तुम्हारा अपना क्या है, इस सब में?

श्रोता २: सोच।

वक्ता: सोच भी तो बाहर से आ रही है, तुम्हारी अपनी कहाँ है? तुम्हारा जितना इतिहास है, वो सब मिलकर तुम्हारी ‘सोच’ बन गया है। जितने अनुभवों से हो कर गुज़रे हो, वो सब मिल कर तुम्हारी सोच बन गए हैं। तुम्हारा अपना है क्या?

जब तुम कहते हो, “मैं कहाँ से आया हूँ?” इस ‘मैं’ का अर्थ क्या है?

अगर इस ‘मैं’ का अर्थ है – देह, तो देह कहीं से नहीं आई है, देह यहीं थी, सदा से यहीं थी। अगर इस ‘मैं’ का अर्थ है – मन , तो ये भी कहीं से नहीं आया है, ये भी सदा से यहीं था। तो सवाल ये नहीं है कि, “मैं कहाँ से आया हूँ?” सवाल ये है कि, “मैं हूँ कौन?” उसमें जाओ।

श्रोता : मेरा उद्देश्य क्या है?

वक्ता : उद्देश्य किसका? ‘मेरा’ माने किसका? मैं हूँ कौन? उद्देश्य हो, उसके लिए तुम्हारा होना आवश्यक है, ठीक? कोई होगा, तभी तो उसका उद्देश्य होगा न? “तुम हो कौन?” उस सवाल में जाओ। जब तक तुम बाहरी प्रभावों को ही अपना नाम देते रहोगे कि, “मैं यही हूँ”, तब तक जीवन में कोई गति नहीं *रहेगी*, कोई गर्मी नहीं रहेगी। तब तक तुम सिर्फ़ बाहर के गुलाम रहोगे।

तुम बैठे हो, कोई आएगा, तुम्हें हिला-डुला कर चला जायेगा। टी.वी देखोगे, मेल चेक करोगे, मोबाइल पर रहोगे, जो कुछ भी करोगे, वो सब तुम्हारे लिए सिर्फ़ एक डिस्टर्बेंस(विचलन) रहेगा, और जिसके तुम गुलाम रहोगे।

जब तक तुम्हें इस बात का पता नहीं कि ‘तुम कौन हो?’ – क्योंकि याद रखना जो बाहर से आया है, वो बाहर को चला जाना है – अगर तुम अपने-आप को सिर्फ़ वही मानते हो जो बाहर से आया है, तो फिर जीने में कोई मज़ा नहीं है, तुम डरे-डरे रहोगे, तुम्हें हमेशा ये डर लगा रहेगा कि ये सब कुछ बाहर से मिला है, सब बाहर चला जायेगा। इसीलिए मौत से इतना डरते हो, क्योंकि ये साफ़-साफ़ पता है कि ये बाहर से आया है, और वापस लौट भी जाना है।

कुछ ऐसा जान सकते हो, जो तुम्हारा अपना है? अगर ‘उसको’ जान लो, तो फिर बड़ी गर्मी आएगी, बड़ा जोश रहेगा जीने में, एक उत्साह रहेगा। क्या है, जो तुम्हारा अपना है, जो कोई तुमको दे नहीं सकता, कोई तुमसे ले नहीं सकता?

श्रोता : जो हम काम करते हैं?

वक्ता : काम करते हैं! काम तो कोई भी तुमसे करवा सकता है, और कोई भी तुम्हे करने से रोक भी सकता है।

श्रोता : नॉलेज(जानकारी)।

वक्ता : नॉलेज तो पूरी तरह से बाहरी है, बाहर से ही आता है।

श्रोता : मन।

वक्ता : मन। ‘मन’ का अर्थ है – मन में जो कुछ है, वो भी तो बाहर से ही आया है।

श्रोता : व्यक्तित्व।

वक्ता : व्यक्तित्व – पूरी तरह से बाहरी है। भारत में पैदा हुए हो तो एक तरह का व्यक्तित्व है, लड़के पैदा हुए हो तो एक तरह का व्यक्तित्व है, हिन्दू हुए हो तो एक तरह का व्यक्तित्व है।

श्रोता : चरित्र।

वक्ता : ‘चरित्र’ माने क्या? आचरण? आचरण – वो तो पूरा ही बाहरी है, बाहर वालों से आया है, और बाहर ही दिखता है।

श्रोता : सर, कुछ भी अपना नहीं है।

वक्ता : अगर कुछ भी अपना नहीं है, तो जीने से कोई लाभ नहीं। चलो कूद पड़ते हैं। *(सब* हँसते *हैं )* अभी जो कुछ भी कहा जा रहा है, वो समझ सकते हो?

श्रोतागण: जी सर।

वक्ता: ये जो ‘समझ’ है, ये तुम्हारी है। समझने की शक्ति, ये कोई बाहरी नहीं दे सकता।

श्रोता : नॉलेज।

वक्ता : न, नॉलेज नहीं। नॉलेज बाहर से आता है।

श्रोता : थिंकिंग(सोच)।

वक्ता : थिंकिंग भी नहीं। अच्छा ध्यान से समझो, सुनो। (सामने रखे कैमरे की ओर इंगित करते हुए) जो कुछ बोला जा रहा है, तुमसे ज़्यादा बेहतर तरीके से ये कैमरा रिकॉर्ड कर रहा है। ठीक? तुम तो कुछ सुन रहे हो, कुछ अनसुना कर रहे हो, कुछ देख रहे हो, कुछ अनदेखा कर रहे हो। ये कुछ नहीं छोड़ रहा, सब कुछ इसके पास जा रहा है। लेकिन फिर भी जो तुम्हें मिल रहा है, वो इसे नहीं मिल सकता। क्यों?

श्रोतागण : समझ।

वक्ता : तुम ‘समझ’ सकते हो। नॉलेज उसे भी उतना ही मिल रहा है। यही वेव्स(तरंगें) इसके पर्दों पर भी पड़ रही हैं, जो तुम्हारे कान और नाक पर पड़ रही हैं, पूरा-पूरा नॉलेज इसे मिल रहा है। पर जो तुम्हें मिल रहा है, वो इसे कभी नहीं मिल सकता। वो है जो तुम्हारा है – अपना, इंटेलिजेंस, समझ, बोध की शक्ति। वो तुम्हें कोई देता नहीं। ज्ञान तुम्हें कोई दे सकता है, समझने की शक्ति कोई नहीं दे सकता। समझ में आ रही है बात?

‘वो’(समझ) तुम्हारी अपनी है। जब ‘उसको’ तुम अपना जानते *हो,* तो जो बाहर की बेकार की चीजें *हैं ,* जो ज़िंदगी को भरे रहती *हैं,* जो बहुत समय ख़राब करती हैं, जो बहुत सारी ऊर्जा ले जाती हैं, फिर उन सब से मोह छूटता *है ,* फिर ज़िंदगी में एक गर्मी आती है, एक एक्सीलेंस(श्रेष्ठता) आती है।

फिर तुम कूड़े-कचड़े की मोह में नहीं पड़े रहते, फिर कोई भी आ कर तुम्हारा जल्दी से मालिक नहीं बन सकता, कि कोई भी आया है, “अरे क्या कर रहा है, छोड़ न, चल”।

तुम्हें पता रहेगा कि ये बाहरी है, और ये जो पढ़ना है, ये अपनी समझ से हो रहा था। “मेरी अपनी समझ ही सिर्फ़ मेरी ‘अपनी’ है। ये बाहरी है, समझ मेरी अपनी है। मैं वो करूँगा जो मेरी अपनी समझ से निकल रहा है”। और तभी ज़िंदगी जीने लायक है, अन्यथा गुलामी है, और गुलामी में कोई मज़ा नहीं है। सब जवान लोग हो, कौन गुलाम होना चाहता है? कोई नहीं। बात समझ में आ रही है?

जब अपनी समझ के आधार पर जीवन जिया जाये, तो उसमें एक ऊर्जा होती है, एक गर्मी, एक ऊष्मा होती है। फिर चेहरे ऐसे लटके-लटके नहीं रहते। फिर ज़िंदगी ऊब में नहीं बीतती, कि, “पता नहीं क्या करें? क्या न करें? क्यों आ गए हैं?”

तुम्हारे साथ ये दुविधाएँ इसलिए हैं क्योंकि कुछ भी तुम समझ के तो करते नहीं हो। तुम किसी बाहरी के कहने पर चलते रहते हो। अपनी समझ से जीवन नहीं चल रहा है। और अपनी समझ घट सके, अपनी समझ पैदा हो सके, उसके लिए आवश्यक है कि ध्यान दिया जाये, जो हो रहा है, उसमें डूबा जाये, उतरा जाये। बेहोशी का जीवन न जिया जाये।

जब ध्यान दिया जाता है, तो ये जो अपनी समझ है, ये जागृत होती है। रहती हमेशा है, पर सोयी रहती है। जब ध्यान दिया है, तो ये जागृत होती है। और जब ये जागृत होती है, तो फिर जीवन अपनी माल्कियत में बीतता है। ये बात समझ में आ रही है? और जब अपनी माल्कियत में बीतता है, तो आखें चमकती हैं, बुझी-बुझी नहीं रहतीं। फिर कंधे ऐसे झुके हुए नहीं रहते, फिर कॉलेज जाते वक़्त ये नहीं लगता की, “क्यों जा रहे हैं? पता नहीं। क्यों नहीं जा रहे हैं? वो भी पता नहीं”।

फ़िर क्लास में घुसते ही ये मन नहीं करता कि सबसे पीछे जाकर बैठ जाएँ। फिर ड्रेस पहनने में ये नहीं लगता है कि जैसे फंदा लगाया जा रहा हो। अभी तो ऐसे ही लगता है। फिर जब टाई बंधी जाती है, तो सलीके से बाँधी जाती है, ऐसे नहीं कि जैसे रुमाल लपेट लिया हो, कि लटक रही है टाई यहाँ तक। ये कौन-सी टाई होती है भाई, जो यहाँ तक लटकती है?

ये सब कुछ इसलिए हो रहा है, क्योंकि तुम्हारा कुछ भी करना, तुम्हारी अपनी समझ का परिणाम नहीं है। तुम जो कुछ भी कर रहे हो, वो बाहरी ताकतों के इशारों पर हो रहा है। और बाहरी ताकतों के इशारों पर इसीलिए हो रहा है क्योंकि तुम्हारी अपनी कोई समझ है ही नहीं। जब अपनी समझ होती, तो तुम दूसरों पर निर्भर रहते ही नहीं। फ़िर कोई तुम्हें कुछ कहता भी है, तो तुम बस इनफार्मेशन(जानकारी) बस ले लेते हो, जानकारी ले लेते हो, पर निर्णय तुम्हारा अपना होता है। जानकारी ले लेना और निर्णय ले लेना – ये दोनों अलग चीजें है। समझ रहे हो न?

जानकारी बाहर से लेने में कोई हर्ज़ नहीं, पर तुम जानकारी नहीं लेते बाहर से, तुम क्या लेते हो? तुम निर्णय ही ले लेते हो। कि, “बता दीजिये क्या करें? हम तो बेचारे हैं, हमें कुछ समझ में आता नहीं है, आप बता दीजिये करें क्या?”

और ‘आप’ में सिर्फ़ माँ-बाप या समाज ही शामिल नहीं हैं, उसमें तुम्हारे सब दोस्त-यार भी शामिल हैं, पूरी भीड़ शामिल है। हमेशा भीड़ की तरफ़ देखते रहते हो। “जो भीड़ कर रही है, वही हम भी कर लेंगे। जो दुनिया कर रही है, वैसे ही हम भी चल देंगे”।

अपना विवेक, वो तुम्हारा है। बात समझ में आ रही है? देखो, बात कहाँ से कहाँ पहुँची। तुमने पूछा था, “हम यहाँ क्यों आए हैं?” वहाँ से बात इस पर पहुँच गयी कि भाई पहले ये तो जानो कि ‘मैं हूँ कौन?’, जिसके यहाँ आने की बात कर रहे हो। और फिर जब ‘मैं हूँ कौन’ पर बात आई, तो फिर मैंने क्या कहा? कि मेरी अपनी सिर्फ़ ‘समझ’ है। और जब उस समझ के आधार पर जिया जाता है, तो जीवन बिल्कुल क्रांतिपूर्ण रहता है, मज़ेदार रहता है।

श्रोता : सर, जब बच्चा पैदा होता है, तो रोता है। तो उसके अंदर ये कैसे समझ आ जाती है कि रोने लगना है?

वक्ता : नहीं होती। आदमी में इस समझ का जो आधार है, जो सीट है, वो मष्तिष्क है, ब्रेन है। जब तक वो परिपक़्व नहीं होता, दस साल, बारह-तेरह साल की उम्र तक, तब तक तुम्हें दूसरों पर निर्भर रहना ही होगा।

श्रोता : परिपक्व जो होगा सर, वो बाहरी से ही तो होगा?

वक्ता : नहीं, ‘परिपक्व होना’, एक आधार तैयार करना है।(सामने रखी कुर्सी की ओर इंगित करते हुए) देखो, तुम इस आधार पर बैठे हो न। जिसपर तुम बैठे हो, ये आधार है तुम्हारा, पर ये आधार ‘तुम’ नहीं हो। तुम ऐसे समझ लो कि, वो आसन है। ये जो आसन है, ये समझ का आसन है, आधार है, सीट है। जब वो सीट तैयार होती है, तो इंटेलिजेंस(समझ) आकर उसपर विराज जाती है। पर उसका अर्थ ये नहीं है कि सीट ही इंटेलिजेंस(समझ) है।

वो जिसपर तुम बैठे हो, वो ‘तुम’ तो नहीं हो न? तुमसे अलग है। वो सिर्फ़ एक आधार है। उस आधार का तैयार होना ज़रूरी है, उस आधार के तैयार होने में लगते हैं बारह-चौदह साल। पर तुममें अब कोई भी बारह-चौदह साल का नहीं है। बारह-चौदह साल की उम्र तक इस बात को समझा जा सकता है कि तुम निर्भर थे। अब तो नहीं निर्भर रहना चाहिए तुम्हें।

अब न बारह के हो, न चौदह के हो, अब क्यों आश्रितों जैसा जीवन बिताते हो? अब क्यों नहीं तुम्हारी चेतना तुम्हारी ‘अपनी’ है? अब क्यों नहीं तुम्हारी समझ तुम्हारी ‘अपनी’ है?

~ संवाद पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं ।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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