ग्रन्थों के साथ सत्संग हो सकता है, तर्क या बहस नहीं || आचार्य प्रशांत (2015)

Acharya Prashant

5 min
35 reads
ग्रन्थों के साथ सत्संग हो सकता है, तर्क या बहस नहीं || आचार्य प्रशांत (2015)

प्रश्न: सर, हम जब भी कोई फोटोग्राफ खींचते हैं तो वो फोटोग्राफ एक हिस्से की होगी, वो पूरे की नहीं हो सकती। एक हिस्से ही आएगा, पूरे का नहीं आ सकता। जब मुझे दिख ही एक हिस्सा रहा है तब मैं उसी चीज़ के बारे में बताऊँगा, बाकी का मुझे नहीं दिखा रहा है, उसका मुझे कुछ नहीं पता है।

वक्ता : बिलकुल। बिलकुल। इसका मतलब ये भी है कि हम जो भी संवाद करते हैं, इनको बहुत दूसरे तरीके से सुनना पड़ेगा। क्योंकि हम जितनी भी बातें कर रहे हैं उनको काटना बड़ा आसान हो जाएगा। हम बातें कर रहे हैं ‘पूर्ण’ की, और प्रयोग कर रहे हैं ‘शब्द’। तो निश्चित रूप से हम जितनी भी बातें कर रहे हैं वो क्या हैं? अधूरी हैं। और अगर कोई उसको काटने पर उतारू हो तो काट सकता है। अभी यहाँ पर एक सूक्ष्म बुद्धि का आदमी बैठा दिया जाए जिसने तय ही कर रखा हो कि कुतर्क करना है, तो वो जीत जाएगा। वो तय कर के आया है आज सब कुछ काट दूंगा, आज मैदान मार लूँगा, तो वो मैदान मार लेगा।

क्योंकि हम जो बातें कर रहे हैं, वो बातें वास्तव में पूरी हैं ही नहीं। उनमें सब में छेद है। उनमें सब में कुछ ना कुछ कमी है, या अधूरा है या विरोधाभासी है। तुम्हें काटा जा सकता है, बिलकुल काटा जा सकता है। मैंने आपको वो बात लिख कर भेजी थी, ‘*दोज़ आई लव, आई पनिश (जिनसे मैं प्रेम करता हूँ, उन्हें मैं सज़ा देता हूँ )*’, कितनी अधूरी बात है। कोई काटने पर आए तो बिलकुल काट सकता है। वो कह सकता है, “न, दोज़ आई लव, आई रिवार्ड *(नहीं, जिनसे मैं प्यार करता हूँ, उन्हें मैं सराहता हूँ)*”, और उसकी बात बिलकुल ठीक होगी। वो कहेगा आपने ये बात गलत लिखी है और वो सिद्ध कर देगा बात गलत है, वो बिलकुल सिद्ध कर देगा।

इसीलिए इनको सुनने का तरीका बिलकुल अलग होता है। इनको सुनने का तरीका होता है कि कोई तरीका लगाओ ही मत बस समर्पित हो कर के बैठ जाओ। तुमने इनमें बुद्धि का प्रयोग किया तो कुछ नहीं पाओगे। तुम तर्क को काटने निकल पड़े तो तर्क को काट लोगे लेकिन तुम्हारे हाथ कुछ नहीं लगेगा। तुम खुश हो लो कि मैंने तुम्हारे बात को काट दिया, लेकिन तुम्हारे हाथ कुछ लगेगा नहीं।

और मैं फिर से ये कह रहा हूँ कि हमें कभी ये दावा नहीं करना चाहिए कि हमारी कही कोई बात या ग्रंथों में लिखी कोई बात आख़िरी सत्य है। क्योंकि वो आख़िरी सत्य नहीं हो सकता। तो इनको आप कभी बहस का मुद्दा मत बनाइये।

इनपर सत्संग हो सकता है; इनको पिया जा सकता है; इनका रसपान किया जा सकता है; पर इनको ले कर के किसी से बहस मत करिएगा।

पहली बात तो बहस फ़िज़ूल वैसे ही है, दूसरी बात वो बहस आप हार जाएँगे।

पहली बात तो बहस फ़िज़ूल है क्योंकि बहस में प्रेम नहीं है, बहस शुरू ही हिंसा से होती है, तो वो यूँ ही व्यर्थ है। दूसरी बात, वो बहस आप जीत नहीं सकते; वो दूसरा व्यक्ति ही जीतेगा। आप हार जाओगे और फिर मुँह लटका कर मत आना कि सर आपने ये-ये बातें कही थीं, हमने कहीं तो उसमें तो इसने दस गलतियाँ निकाल दीं। गलतियाँ हैं ही, तो वो निकाल ही देगा। निश्चित रूप से इसमें बहुत सारे छेद हैं। जो भी कहा जाएगा, अक्सर, उसका धुर-विपरीत भी सही ही होगा।

‘दोज़ आई लव, आई पनिश ’;

‘दोज़ आई लव, आई रिवार्ड ’

अब कैसे समझाओगे किसी को कि पनिशमेंट ही रिवार्ड है? कहेगा कि हट जाओ अब तुम, अब तुम बहस के काबिल भी नहीं रहे।

कैसे समझाओगे?

श्रोता १ : जब आप पौधे को देखेंगे तो आप पूरा नहीं देख सकते, लेकिन पौधा जो एक परिणाम है…

वक्ता: पौधा परिणाम नहीं है। जब तुम पौधे को देखते हो तो वो जो पूरी प्रक्रिया है, अगर उसको देख सको तो पूरे को देख लोगे। पौधा तो निश्चित रूप से अधूरा है क्योंकि पौधा क्या है? पौधा तुम्हारे ज़हन में उठती हुई एक वस्तु है। पौधा कहाँ से पूरा हो गया। पौधा कुछ है ही नहीं, पौधा तो तुम्हारे मन का एक विचार है। पूरी प्रक्रिया है – पौधा, और मन, और जानना। जब इन तीनों को एक साथ देख लिया, तब पूरे को देख लिया। दिक्कत ये है कि जब इन तीनों को एक साथ देख लिया तो देखी जा रही वस्तु में और देखने वाली सत्ता में भेद कम-से-कम-से-कम-से-कम-से-कम हो जाता है।

तो तुम ये नहीं कह सकते कि यदि मैं पौधे को पूरा देख लूँ तो मैं अस्तित्व को पूरा देख लूँगा। तुम कभी पौधे को पूरा नहीं देख सकते क्योंकि पौधे का अर्थ ही है: पौधा + तुम। पौधे को पूरा देखने का अर्थ होगा कि अपने मन को भी पूरा देखो, क्योंकि पौधा है कहाँ?

श्रोता २ : मन में।

वक्ता : तब पूरी बात होगी

श्रोता २ : ऑब्जेक्ट इज़ बिकाउज़ ऑफ़ द सब्जेक्ट। (वस्तु विषय की वजह से है )

वक्ता : इसी बात को क्या बोलते हैं बार-बार कृष्णमूर्ति? ‘ऑब्ज़र्वर इज़ द ऑब्ज़र्वड’ – ऑब्ज़र्वड वस्तु को देखा और ऑब्ज़र्वर को नहीं देखा तो कुछ नहीं देखा। इसी को संतों ने अंतर्गमन कहा है, कि बाहर-बाहर क्या देखते रहते हो; “बाहर के पट बंद कर, भीतर के पट खोल”। वो वही बात है। पौधे को क्या देख रहे हो, पौधा यहाँ है यहाँ (मस्तिष्क की ओर इशारा करते हुए) , यहाँ को देखो।

~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories