गिरना शुभ क्योंकि चोट बुलावा है ॥ आचार्य प्रशांत, श्री अष्टावक्र पर (2014)

Acharya Prashant

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गिरना शुभ क्योंकि चोट बुलावा है ॥ आचार्य प्रशांत, श्री अष्टावक्र पर (2014)

*सर्वभूतेषु चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।*मुनेर्जानत आश्चर्यं ममत्वमनुवर्तते॥

– अष्टावक्र गीता(३.५)

वक्ता: जब उस योगी ने जान ही लिया है कि वही समस्त भूतों में निवास करता है और समस्त भूत उसमें हैं, तब ये बड़े आश्चर्य की बात है कि अभी भी उसमें ममत्व बचा है। जिस मुनि ने यह जान ही लिया है कि वही समस्त भूतों में है, पूरे संसार में है और पूरा संसार उसमें है, उसके भीतर भी मम की भावना बची रहे, ये घोर आश्चर्य है।

सवाल ये है: ‘आपने कहा एक बार है कि सत्य के मार्ग पर चलना भी कल्याण है और गिरना भी कल्याण है। और आपने ये भी कहा है कि जो जितना ऊंचाई से गिरता है, उसको उतनी चोट लगती है। अष्टावक्र उसी गिरने पर आश्चर्य व्यक्त कर रहे हैं। ये क्या है?

मुनि के लिए मम की भावना एक प्रकार का गिरना ही है, एक प्रकार का भ्रष्ट होना ही है, कि जिस मुनि ने समस्त भूतों में अपने को, और अपने को समस्त भूतो में विद्यमान देख लिया है, उसके भीतर अभी ममता, अहंता शेष हो, ये उसके लिए गिरने समान ही है। और हमने कहा है कि जो जितनी ऊंचाई से गिरता है, वो उतनी ही चोट खाता है। फिर हमने कहा कि गिरना भी शुभ है, और अब अष्टावक्र कह रहे हैं कि आश्चर्य है कि ये हो कैसे जाता है कि इतनी ऊंचाई पर पहुँच कर भी कोई गिर जाता है? तो इन बातों को समझना है।

चोट खाना, जगने की प्रक्रिया का हिस्सा है। चोट खाना यही इंगित करता है कि जिन तरीकों से जी रहे हो, जिन धारणाओं पर जीवन आधारित है, वो अनुचित हैं, वो सम्यक नहीं हैं। चोट इतना ही सिद्ध करती है कि कुछ है तुम्हारे भीतर जो अस्तित्व के विपरीत था, जो समष्टि से सामंजस्य में नहीं था, इसी कारण उलझ गया, इसी कारण घर्षण हुआ, चोट लगी। बात समझ रहे हो?

गिरना शुभ है यदि गिरना सही अर्थों में समझा जा सके। गिरना शुभ है यदि ये जाना जा सके कि चोट लगना एक बुलावे जैसा है। जैसे तुम्हें याद दिलाया जा रहा हो कि ये ठीक नहीं है, कुछ और है जो ठीक है, कि तुम्हारे रास्ते गलत हैं। तुम्हें कहीं और जाना है, भूल कर रहे हो, कहीं और चले जा रहे हो। याद है एक बार हमने इस विषय पर बात की थी, जिसको हमने शीर्षक दिया था, ‘पीड़ा पैगाम परम का’? वो पूरी यही बात थी।

श्रोता १: श्रीभगवद्गीतामें भी कहा गया है, इससे अलग है, ‘यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति’।

अर्थात, ‘जो मुझको (अपने-आपको) सर्वत्र देखता है तथा जो सबको मुझमें (अपने-आप ही में) अवस्थित देखता है, न तो उसके अस्तित्व मैं नष्ट होने देता हूँ और न ही वह मुझे (अपनी निज आत्मा/ परमात्मा को) नष्ट होने देता है।

वक्ता: नहीं, अभी जो मूल मुद्दा है वो ‘देखने’ का नहीं है, अभी मूल मुद्दा ‘गिरने’ का है कि ‘गिर क्यों जाते हैं?’ जो इतना देखे हुए है, वो गिर क्यों जाता है? तो अगर आप गीता से उधृत कर रहे हैं, तो आपको कृष्ण का वो वचन लेना होगा जहाँ पर वो योगभ्रष्ट की बात करते हैं। और जहाँ पर वो कहते हैं की जो योगभ्रष्ट है आज, वो भी कल आएगा मेरी तरफ ही। ठीक है आज गिरे हो, पर गिर-गिर कर भी तुम आओगे मेरी ही तरफ।

‘गिरने’ की तुम्हारी क्या परिभाषा है? तुम कब कहते हो, ‘गिरा’? जब चोट लगी तब गिरा। तुम गिर ही इसीलिए रहे हो, तुम्हें चोट ही इसीलिए लग रही है, ताकि मैं तुम्हें बता सकूँ कि मेरी तरफ आने वाला रास्ता कौन-सा है। जैसे की किसी कमरे से बाहर निकलने के पहेलीनुमा सौ रास्ते हों, और तुम्हारे लिए एक-एक करके सारे रास्ते बंद होते रहें, तो अन्ततोगत्वा तुम कहाँ पहुँच जाओगे?

श्रोतागण: सही रास्ते पर।

वक्ता: बात समझ रहे हो ना? हाँ, बिल्कुल ही बुद्धि भ्रष्ट हो तुम्हारी, तो तुम ये कर सकते हो कि तुम बंद दरवाज़ों पर भी सिर फोड़ लो। तुम्हें पता है की ये दरवाज़ा मेरे लिए है नहीं, तुम्हें पता है की ये गलती मैं पहले कर चुका हूँ, पर फिर भी तुम उसे सौ दफे दोहराते रहो, ये तुम कर सकते हो। लेकिन अगर बुद्धि शुद्ध है, अगर वास्तव में संकल्पित हो कि मुक्त होना ही है, तो हर बंद होता दरवाज़ा तुम्हारे लिए अच्छी खबर है। बात को समझना। अगर वास्तव में संकल्पित हो की सही राह पर ही चलना है, तो हर बंद होता दरवाज़ा तुम्हारे लिए अच्छी खबर है, क्योंकि हर बंद होते दरवाज़े के साथ भटकने का एक दरवाज़ा और बंद हो गया। एक और ऐसी राह अब बंद हुई जिस पर भटक सकते थे। अच्छी खबर है, बढ़िया बात। बढ़िया बात! एक दुश्मन और कम हुआ।

तो इस कारण ये कहा है कि भटकना शुभ है। फिर सवाल आगे बढ़ता है कि ये क्यों कहा था कि जो जितनी ऊंचाई से गिरता है, उसे उतनी ही चोट लगती है? जो जितनी ऊंचाई से गिरा है, उसको उतनी ही चोट इसलिए लगेगी ताकि उसकी यात्रा अधूरी ना रह जाए। बात को समझो। तुम जितना आगे बढ़े थे, उतना ज़रूरी था तुम्हारे लिए की आगे बढ़ते ही जाओ, मंज़िल करीब है। आगे बढ़कर अगर फिसलोगे तो तुम्हें और गहरी सज़ा मिलेगी, ताकि पूरी ही तरह उठ जाओ। छोटी-मोटी सज़ा अब तुम्हारे ऊपर काम नहीं करेगी। आप बात समझ रहे हैं ना?

जिसने अभी यात्रा शुरू ही नहीं की, या जिसने अभी पहले कुछ कदम ही लिए हैं, वो गिरे तो उसको हल्की चोट लगे, यही उचित है। ठीक? क्योंकि उसका बिगड़ भी क्या जाएगा, उसने ना अभी साधना की है, ना उसका कोई संकल्प है आगे बढ़ने का। वो तो यूँ ही एक-दो कदम टहल रहा था, उस टहलने में वो गिर भी गया तो उसे क्या चोट लगनी? उसका कोई विशेष नुकसान नहीं।

एक आम, साधारण संसारी है, गृहस्थ। ठीक है? उसे आना है, यहाँ बैठ कर बात करनी है। उसने अभी आना शुरू किया है, महीने भर पहले। वो नहीं आता, दो हफ़्ते नहीं आता, उसको मामूली सज़ा दी जानी चाहिए। अरे अभी तो उसने इसमें कोई नियोजन ही नहीं किया है। समझ रहे हो बात को? उसकी यात्रा शुरू-शुरू हो रही है। उसके अनुसार तो अभी उसके सारे अर्थ उसके संसार में बैठे हैं। उसके लिए अभी सच क्या है? उसका पूरा संसार। तो यहाँ पर अगर उसका कुछ नफ़ा-नुकसान हो भी गया, तो कितना होगा? ज़्यादा नहीं। वो कहेगा असली चीज़ क्या है? बाहर है।

वो कहेगा, ‘मेरी हज़ारों-लाखों की दौलत बाहर है, यहाँ तो मैं दस-बीस रूपए के लिए आता था, दस रूपए मिल भी गए तो क्या मिला? और दस रूपए खो भी गए तो क्या खोया?’ बात समझ रहे हो ना? तो उसकी सज़ा मामूली है। उसकी सज़ा कैसी है? मामूली है। एक दूसरे व्यक्ति को लीजिये, जिसने लंबी साधना की है, लंबी तपस्या की है। जो सालों से सब-कुछ त्याग कर, यहीं पड़ा हुआ है, अंगद की तरह पाँव जमा लिए हैं कि छोडूंगा नहीं, छोडूंगा नहीं। ये अपने उन कथाकथित लाखों-करोड़ों को छोड़ कर यहाँ पड़ा हुआ है। अब अगर ये यहाँ भी असफल रहता है, तो इसकी सज़ा कितनी है? इसकी सज़ा तो मृत्यु-तुल्य कष्ट दे इसे, इतनी सज़ा इसे मिलनी ही चाहिए, यही सज़ा शुभ है इसके लिए। बात को समझ रहे हो ना?

तूने वो तो छोड़ ही दिया पगले, तूने वो तो छोड़ ही दिया, और तू यहाँ भी असफल रहता है, तो तू कहाँ का रहा त्रिशंकु? तुझे छोड़ना था तो तू दो महीने में छोड़ कर भाग जाता। सालों के तप के बाद अब अगर तू फ़िसलता है तो तुझे बड़ी गहरी सज़ा देगा अस्तित्व, तू कहीं का नहीं रहेगा, ना जी सकेगा, ना मर सकेगा, कहीं का नहीं रहेगा।

‘ना भागे ना लड़ सके’, वही वाली स्थिति रहेगी तेरी, ‘मन ही मन पछताए’। तू मत फिसलना। नौसिखियों को, अनाड़ियों को फिसलने का हक़ है अभी, उन्हें फिसलने दो। जो चोटी के करीब-करीब पास पहुँच रहा हो, वो ना फिसले, वो ना फिसले। बात समझ रहे हो? हालांकि फिसलने पर उन्हें भी जो सज़ा मिल रही है, वो शुभ है उनके लिए। क्योंकि उनको इतनी जो सज़ा मिलेगी, वो उनको याद दिलाएगी की उन्होंने कितना गहरा अपराध किया है अपने प्रति। बात समझ रहे हो? नहीं समझ रहे हो?

अगली बात। ये होता ही क्यों है? अष्टावक्र क्यों आश्चर्य व्यक्त कर रहे हैं? ऐसा क्यों कह रहे हैं, ‘आश्चर्य है, आश्चर्य है कि ऐसे मुनि भी ममत्व में फँसे रहते है। आश्चर्य है। ये होता क्यों है? जिन्होंने समस्त भूतों में खुद को देख लिया है, जो खुद में समस्त भूतों को देखते हैं, उनके भीतर भी ममता का भाव बचा रहता है, आश्चर्य है’? बस ऐसा ही है।

(श्रोतागण हँसते हैं)

वक्ता: आश्चर्य है। इसी का नाम तो माया है। इसका, इसका, क्या कहा जाए, ऐसा ही तो है। सतत जागरण। तुम होओगे कुछ भी, फ़िसल कभी भी सकते हो। ये मत कहना की आश्चर्य है, कोई आश्चर्य नहीं है। देह तो धरे हो ना अभी? कभी भी फ़िसल सकते हो, इसीलिए सुरति लगातार रहे। सुरति लगातार रहे, लगातार रहे। आज तुमको ये दिख रहा होगा, वो दिख रहा होगा, सब समझ में आ गया, ऐसा हो गया, वैसा हो गया। कल को यदि फ़िसल जाओ, तो कोई आश्चर्य नहीं है।

याद रखना मोक्ष समय का कोई बिंदु नहीं है, ये समय में घटने वाली कोई घटना नहीं है। मोक्ष है तुम्हारे जागरण की निरंतरता है। एक ऐसी निरंतरता जो समय के बहाव से आगे की है। ऐसी निरंतरता जो तब भी रहेगी जब समय नहीं रहेगा। मोक्ष ये नहीं है कि एक दिन आकर कोई तुम्हें कुछ दे गया, की बुद्ध पेड़ के निचे बैठे हैं, और ऊपर से फल टपक गया, और उस पर लिखा हुआ था, ‘मोक्ष’।

(श्रोतागण हँसते हैं)

वक्ता: ‘ऊपर से आकर गोद में गिरा, मोक्ष, मिल गया। बुद्ध को मिल गया हमें नहीं मिला?’ ऐसा नहीं होता है मोक्ष। मोक्ष है कुछ ऐसा जो इतना पक्का है और इतना लगातार है, कि समय से भी ज़्यादा लगातार है। उसकी नित्यता कालातीत है, और लगातार है। भूलना नहीं, समय में नहीं है कि एक समय में हो गया। बात समझ रहे हो? जो देह है, वो कभी-भी फिसल सकती है। जो मन है, वो कभी-भी फिसल सकता है। उसको तो लगातार ही समर्पित रहना होगा, लगातार ही। उसके लिए क्षण भर का विस्मरण भी बड़ी से बड़ी सज़ा को आमंत्रण है।

साँप-सीढ़ी के खेल में ज़्यादा बुरा कब लगता है? जब निन्यानवे पर पहुँच कर साँप खाता है, या जब पाँच पर ही खा जाता है?

श्रोतागण: निन्यानवे पर।

वक्ता: और निन्यानवे पर वो बड़ा वाला साँप बैठा होता है। देखा है कभी?

श्रोता २: जो सीधा एक पर पहुँचता है।

वक्ता: और आप निन्यानवे पर पहुँच कर गाना गा रहे हैं, ‘मेरा हो गया, मेरा हो गया’।

(श्रोतागण हँसते हैं)

वक्ता: और भूल गए हैं कि वहाँ वो साँप निन्यानवे पर बैठा हुआ है। और भूलना नहीं, तुम हमेशा निन्यानवे पर ही रहोगे, सौवाँ कुछ होता नहीं। क्योंकि सत्य अनंत है। सौ माने तो अंत होता है। तो कोई ये ना कहे कि मैं सौ पर पहुँच गया, वो निन्यानवे पर ही रहेगा हमेशा। हाँ, वो एक फैलता हुआ निन्यानवे है। वो निन्यानवे भी ऐसा है कि वही निन्यानवे आज नहीं होगा, जो पहले था। वो दिन-दूना, रात-चौगुना बढ़ रहा है, ऐसा निन्यानवे है। क्योंकि वो निन्यानवे ही ख़ूब फैल रहा है, इसीलिए सौवें का तो प्रश्न ही नहीं पैदा होता। बात समझो।

निन्यानवे कह रहा है, ‘तू पहले मुझसे तो पार पा ले, मैं ही बहुत बड़ा हूँ। मेरा ही विस्तार लगातार हो रहा है’। तो सौवें की क्या बात करनी है। सौ कभी आता ही नहीं है। निन्यानवे ही फैलता जाता है। बात समझ रहे हो?

– ‘बोध-सत्र’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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