आचार्य प्रशांत: आमतौर पर जो घरों की बुरी दशा रहती है, जो कलह-क्लेश संताप रहता है, उसका बहुत बड़ा कारण ये है कि घर के केन्द्र में जो महिला बैठी है, जो स्त्री है, पत्नी है, माँ है, गृहिणी है उसको घर में क़ैद कर दिया गया है। घर उसी से है और उसको घर में बिलकुल बाँध दिया गया है। जब वो घर से कभी बाहर निकलेगी नहीं तो उसे दुनिया का कुछ पता नहीं चलेगा। दुनिया का जिसे कुछ पता नहीं वो अन्धेरे मे जी रहा है, वो क्या बच्चे की परवरिश करेगा, वो क्या पति के काम को समझेगा। बहुत बचकानी हरकतें करेगा फिर वो।
पुरुष ने साज़िश करी कई वजहों से स्त्री को घर में क़ैद करके और उसने सोचा कि मैं बड़ी होशियारी का काम कर रहा हूँ। मैंने औरत पर एकाधिकार कर लिया, सत्ता जमा ली। घर से बाहर ही नहीं निकलेगी तो क्या पंख फैलाएगी, क्या उड़ेगी, क्या मेरी अवज्ञा करेगी? मेरे इशारों पर चलेगी। मेरी दासी, सेविका बन कर रहेगी घर में।
पुरुष ने सोचा कि वो बड़ी होशियारी का काम कर रहा है। उस पगले को समझ ही नहीं आया कि स्त्री घर की धुरी है, घर का केन्द्र है। तुमने अगर उसको बन्धन में रख दिया, अशिक्षित रख दिया तो पूरा घर बर्बाद होगा। पुरुषों का षड़यन्त्र पुरषों पर ही बहुत भारी पड़ा है। आमतौर पर हम जिन्हें गृहिणियाँ कहते हैं, हाउसवाइफ कहते हैं, उनकी बड़ी दुर्दशा की है पुरुषों ने। उनसे कहा गया है कि तुम घर का काम देखो। घर का काम माने क्या?
दुनिया, समय, समाज, तकनीक, राजनीति, विज्ञान ये वो जगह हैं जहाँ आदमी की उत्कृष्टम प्रतिभा अपना रंग दिखा रही है। उन सबसे तुमने काट दिया न औरत को। तुम उसे पता भी नहीं लगने दे रहे कि विज्ञान कहाँ जा रहा है, आधुनिक टेक्नोलॉजी से तुम उसका परिचय ही नहीं होने दे रहे। अर्थव्यवस्था चलती कैसे है और क्या है, तुम उसे जानने ही नहीं दे रहे।
तुमने उसे कृत्रिम सुविधा दे दी है कि तू घर में बैठ, घर के काम कर, बाहर निकलेगी तो तेरे लिए झंझट है, ख़तरा है। इस कृत्रिम सुविधा और सुरक्षा के कारण स्त्री के बाजू नहीं मजबूत हो पा रहे। जब तक धूप नहीं झेलेगी, सड़क पर ठोकरें नहीं खाएगी, दुनिया की चुनौतियाँ नहीं स्वीकार करेगी, स्त्री की माँसपेशियाँ सबल कैसे होंगी? नहीं होगी न। तो वो कोमल-कोमल ही रह गयी, धूप में नहीं निकली तो गोरी-गोरी ही रह गयी। कोमल, गोरी और मुलायम गृहिणी — ये पुरुष के भोग के लिए अति-उत्तम है। पर बड़ा दुखद जीवन बिताती है। ख़ुद भी बहुत दुख में रहती है और अपने साथ परिवार को भी डुबाती है।
आप देखते नहीं हैं, दिनभर टीवी में जो कार्यक्रम आते हैं जो ख़ासतौर पर गृहिणियों को लक्ष्य करके बनाये गए होते हैं वो किस श्रेणी के होते हैं और उनमें कितनी बुद्धिमत्ता और गुणवत्ता होती है? सुबह दस बजे से शाम के छ: बजे के बीच टीवी में जो सामग्री आती है वो किसके लिए आती है? गृहणियों के लिए आती है। और देखो वो कैसी रहती है, कैसी रहती है? किस कोटि की रहती है? उसमें मसले कैसे रहते हैं? बोलो। उनमें किन विषयों को उठाया गया होता है?
प्र: पारिवारिक कलह, क्लेश।
आचार्य: वो भी किस तल का? पारिवारिक कलह, क्लेश भी किस तल का? एकदम ही घटिया तल की न। आदमी ने षड़यन्त्र कर-करके स्त्री को उस तल पर बाँध दिया है। ये पुरुष की साज़िश है। इस साज़िश के केन्द्र में पुरुष की असुरक्षा है और पुरुष की कामवासना है। तो उसने साज़िश करी कि औरत को घर में क़ैद कर लूँ ताकि उसपर सर्वाधिकार रहे बिलकुल। गूँगी गुड़िया बना दिया उसको, डम्ब और सोचा कि इसमें नुक़सान तो सिर्फ़ औरत का है बेचारी का। उसे पता भी नहीं चला कि घर की आत्मा है स्त्री और तुमने उसको अगर गूँगी गुड़िया बना दिया, घर में क़ैद कर दिया तो तुम्हारा पूरा घर पतन में गिरेगा।
यही तर्क दिया जाता है न? ‘जानू तुम्हें काम करने की क्या ज़रूरत है, हम हैं तो।’ तो भाई काम करने के मज़े तुम अकेले ही ले लोगे? काम क्या सिर्फ़ पैसा कमाने के लिए किया जाता है? जानते नहीं हो क्या कि काम ही व्यक्ति का निर्माण करता है। कल हम बात कर रहे थे न कि क्रिया तो जीव भी कर लेते हैं, क्रिया तो सब पशु इत्यादि भी कर लेते हैं। मनुष्य पशुओं से कैसे अलग है? वो काम करता है, वो कर्म करता है। दैनिक क्रियाएँ — खाना, पीना, प्रजनन, सोना, उठना ये सब तो पशु भी करते हैं। आदमी और पशुओं में अन्तर क्या है? आदमी कर्म करता है। आदमी को मुक्ति चाहिए। तुमने स्त्री से कर्म का अधिकार ही छीन लिया। तुमने स्त्री से कह दिया, ‘तेरा कर्म है तू रसोई साफ़ रख, तू बिस्तर बिछा, तू पोतड़े धो और फिर टीवी देख; ये तीनों निपटा ले फिर टीवी देख।’ तुमने स्त्री को ठीक से इंसान भी नहीं रहने दिया। बड़ा शोषण किया है और ये बात बच्चियों में बचपन से ही डाल दी जाती है कि तुम्हारा काम है दूसरों की सेवा करना।
यहाँ बगल में काम चल रहा था, मजदूर थे, मैं देखता था। एक लड़की आती थी बहुत छोटी, चार-छ: की होगी और वो गोद में उठाए-उठाए घूमती थी अपने छोटे भाई को। बहुत कम लड़के होते हैं जो ये काम करते हैं। लड़कियों में ये भावना बचपन से ही डाल दी जाती है कि तुम्हारी ज़िन्दगी तो दूसरों के लिए है। वो चार-पाँच साल की है। उससे ठीक से उठ भी नहीं रहा वो छ: महीने का बच्चा, पर वो उसे उठाए-उठाए घूम रही है।
और स्त्री के अहंकार को सेवा से बाँधा जाता है। उससे कहा जाता है कि तुम बहुत अच्छी लड़की हो अगर तुम दूसरों के लिए जीती हो। स्त्री को तो ठीक से स्वार्थी होने का हक़ भी नहीं दिया जाता। उसको गौरवान्वित किया जाता है, उससे कहा जाता है, ‘देखो तुम दूसरों के लिए तो जी रही हो न, इसी में तो तुम्हारी महिमा है। यही तो नारी का गौरव है दूसरों के लिए जीना।’ दूसरों के लिए तो तब जीयोगे न जब पहले तुम ख़ुद कुछ रहोगे। बहुत अच्छी बात है दूसरों के लिए जीना। मैं पूरा समर्थन करता हूँ दूसरों के लिए जीने का। लेकिन अगर हम ही कुछ नहीं हैं तो हम दूसरों को क्या दे सकते हैं?
औरत को कुछ बन तो जाने दो फिर वो दूसरों की सेवा करेगी न। तुम उसे बनने ही नहीं दे रहे कुछ और उसके भीतर ये बात घुसेड़ दी है कि जीवन की सार्थकता तो इसी में है कि इसकी सेवा कर दो, उसके लिए कुछ कर दो।
बच्चों को भी आप ज़्यादा कुछ नहीं दे पाएँगी अगर सबसे पहले आपने अपना निर्माण नहीं किया है। अपना तो निर्माण करिए न, वो आपका प्रथम दायित्व है। फिर कहता हूँ, ‘दूसरों को कुछ देना, दूसरों की सेवा करना भली बात है। लेकिन प्रथम दायित्व आपका अपने प्रति है। आप कुछ नहीं हैं तो आप दूसरों को क्या देंगी?’
अच्छा मैं यहाँ बैठा हूँ, मैं कहूँ कि यहाँ जितने लोग बैठे हैं, मैं उनकी सेवा करूँगा और मेरे पास कुछ हो ही न आपको बता पाने के लिए, कह पाने के लिए, फिर क्या होगा?
आज हम गीता के आठवें अध्याय पर बात कर रहे हैं। मैं कहूंँ कि मुझे सबकी सेवा करनी है और सेवा करने के चक्कर में मैं आठवाँ अध्याय पढ़ूँ भी नहीं, बस आपके सामने आ कर बैठ जाऊँ। कहूँ कि मैं इतना व्यस्त था आपकी सेवा करने में कि मैंने आठवाँ अध्याय पढ़ा ही नहीं।’ और मैं चार घंटे कुछ भी यूँ ही बोलता रहूँ। तो ये मैंने आपकी सेवा करी या आपसे शत्रुता निकाल दी? बोलो। तो कई बार तुम सेवा के नाम पर दूसरे व्यक्ति का अहित कर जाते हो। क्योंकि तुम सेवा के योग्य ही नहीं होते। सेवा करने के लिए कुछ योग्यता भी तो चाहिए न। वो योग्यता कैसे आएगी?
प्रेम में किसी के लिए कुछ करना एक बात होती है और प्रभाव वश, संस्कार वश किसी के लिए कुछ करना बिलकुल दूसरी बात होती है। जहाँ प्रभाव हैं, संस्कार हैं और विवशता है और बन्धन है और ग़ुलामी है, वहाँ प्रेम तो होगा ही नहीं। एक मशीन की तरह आप काम करते रहोगे। फिर क्या नतीजा निकलेगा? बेटियाँ होंगी घर में, आप बेटियों को भी यही सीख दोगे कि जो हमने करा वही ठीक है बेटी, तुम भी ऐसे ही करना। क्यों सीख दोगे? क्योंकि आपको अगर लगा ही होता कि जो आप कर रहे हैं वो ठीक नहीं है तो आपने बदल दिया होता न! आपको अगर ये लगा ही होता कि जो आप कर रहे हैं वो ठीक नहीं है तो आपने बदल डाला होता न।
और ऐसा भी होता है कि कुछ कर डालो ज़िन्दगी भर तो फिर उसको ग़लत मानते हुए अहंकार को भी चोट लगती है। ‘चालीस साल से हमने कुछ नहीं करा है, घर में बस झाड़ू-पोछा किया, वही लौंग, लहसुन। चालीस साल से हमने यही करा है। अब मान कैसे ले कि हमने पूरी ज़िन्दगी ग़लत जी और ग़लत गँवा दी?’ तो फिर जो हमने करा, वही हम बेटी से भी कराएँगे और फिर बहू से भी कराएँगे।
ये बड़ा एक कुचक्र है फिर जो आगे बढ़ता है कि हम भी जीवन भर घर में ही क़ैद रहे अब बहू आयी है, बहू को भी काम नहीं करने देंगे। क्योंकि अगर हमने बहू को काम करने के लिए प्रेरित किया तो फिर ये साबित हो जाएगा न कि हमारी ज़िन्दगी बर्बाद गयी। हम कहेंगे, ‘बहू देख, हमने तो कभी काम नहीं करा, हम तो फिर भी खुश हैं। हममें कोई कमी दिखती है क्या तुझे? तो जैसे हमने कुछ नहीं करा, तू भी कुछ मत कर। और ये बड़ा तर्क रहता है न कि हममें कोई कमी दिखती है क्या तुझे?
एक बड़े पूज्यनीय और प्रचलित गुरुजी हैं आजकल, स्त्रियाँ बाहर काम करें या न करें इस मसले पर उन्होंने कहा कि मेरी दादी ने ज़िन्दगी भर कहीं बाहर निकल कर काम नहीं करा, पर वो बड़ी असाधारण स्त्री थी। इससे सिद्ध हो जाता है कि स्त्रियों को बाहर काम करने की कोई विशेष आवश्यकता है नहीं।
ये बड़ा ख़तरनाक, झूठा और घातक तर्क है कि बहू हममें तुझे कुछ खोट दिखती है क्या? हम तो कभी न गयें दफ़्तर-शफ़्तर। वो (हमारे पति) काफ़ी थे कमा के लाने के लिए। हम जैसे नहीं गये, तू भी घर पर बैठ। या फिर तू हिम्मत करके हमारे मुँह पर बोल कि हाँ दादी, तुम्हारी ज़िन्दगी में खोट है। वो हिम्मत हम कर नहीं पाते कि मुँह पर बोल दें कि सासू माँ, आपकी ज़िन्दगी में बहुत खोट है और आपकी ज़िन्दगी पूरी बर्बाद है। कृपा करके हमारी ज़िन्दगी में अपनी छाया न डालें। ये हम बोल नहीं पाते। उन्होंने तर्क ही ऐसा दिया है कि हमारी ज़िन्दगी में कोई कमी है क्या? कोई कमी है? कमी के अलावा और क्या है आपकी ज़िन्दगी में? और सबसे बड़ी कमी ये है कि वो आपको कमियाँ दिखती भी नहीं हैं। जानते हो ये कितनी बड़ी कमी होती है।
जब सड़क पर निकलो न तो अपनी कमियाँ पता चलती हैं। अक्सर जो व्यक्ति घर में ही बैठ गया वो बड़ा दम्भी, घमंडी, अहंकारी हो जाता है क्योंकि उसे अपनी कमियों का पता भी नहीं होता। जाओ ज़रा दुनिया की चुनौतियाँ स्वीकार करो, अनजाने लोगों के साथ काम करो तो पता चले कि तुममें कितनी सामर्थ्य है और कहाँ-कहाँ पर तुम्हारी चूक है। अब घर पर हो, खाना बनाया, खाने वाले भी कौन हैं? तुम्हारे ही पति, तुम्हारे ही बच्चे औक़ात किसी की कि बोल दे कि ये क्या बनाती हो तुम भूसा? यहाँ तो तुम्हारी कोई खोट भी नहीं निकालेगा कि निकाल पाएगा?
बाहर निकलो तो पता चले न कि क्या है। अब घर में हो और छ: बजे सो कर उठो या सात बजे सो कर उठो, अपना ही राज़ है। करो किसी दफ़्तर में काम और वहाँ बॉस को रोज़ बताओ कि आज एक घंटे लेट (देरी से) आएँगे फिर देखो क्या होता है।
जो बाहर काम करते हैं उनके व्यक्तित्व का निर्माण होता है, उनकी खोट एक-एक करके निकाली जाती है, कम होती है। जो घर में बैठ गया उसे अपनी खोट-कमियों का पता भी नहीं लगने पाता, वो यही सोचता है कि हम ही तो दुनिया के बादशाह हैं। मैं ही बेग़म हूँ, मैं ही रानी हूँ। अक्सर गृहिणियों की अकड़ बिलकुल लाजवाब होती है। आएगा-जाएगा कुछ नहीं, दुनिया का कुछ अता-पता नहीं लेकिन बहुत भारी अकड़।
भाई तुम हो कौन? और वो अकड़ और ज़्यादा घातक हो जाती है जब उस अकड़ के पीछे पति का पैसा हो। क्योंकि पति ने जब क़ैद करके तुम्हें घर में रखा है तो कुछ मुआवज़ा तो देगा न और मुआवज़ा मिलता है, मोटा मुआवजा मिलता है और ये मुआवजा अकड़ को और बढ़ा देता है।
पति में फिर भी कुछ विनम्रता होगी क्योंकि वो बाहर काम करता है। घर में जो बैठी है वो तो अकड़े ही रहती है और फिर एक स्थिति ऐसी आती है पाँच-दस साल बीतने के बाद कि उसको हाथ में लाकर नौकरी दे दो, वो तब भी नहीं करेगी। क्योंकि उसे घर में बैठकर खाने की आदत लग गयी है अब। अब तुम उसे हाथ में लाकर के दे दो नौकरी कि ये लीजिए नौकरी लगवा दी है, कृपा करें, बाहर निकलें, करें। वो कहेगी,’ ये हमारी गोरी मुलायम खाल देखी है? अब हम बाहर निकलकर अजनबियों से पैसे लेंगे क्या? हमारे इतने बुरे दिन आ गये हैं? वो (हमारे पति) तो हर महीने एक तारिख को गड्डी लाकर सीधे हमारे हाथ में रख देते हैं। कि तुम ही तो हो वित्तमन्त्री, गृहमन्त्री, सब कुछ। अब मैं बाहर जाऊँगी? फिर, अपने दम पर कमाऊँगी तो कितना? मेरी पात्रता ही यही बची है कि अपने दम पर कमाऊँगी तो पाँच-हज़ार, दस-हज़ार, पन्द्रह-हज़ार इससे ज़्यादा कोई मुझे देगा ही नहीं। मुझे पता है भलीभाँति भीतर कि मेरी हैसियत अब इतनी ही बची है कि बाहर निकलूँगी तो पाँच-दस-पन्द्रह, बस। पति, वो तो पूरी गड्डी लाकर रख देते हैं तो ये तुम क्या कह रहे हो? जब घर में, मुफ़्त में बैठे-बैठे इतनी मोटी गड्डी मिल जाती हो तो मैं बाहर निकलकर काम क्यों करूँ दो चार चन्द छोटे नोटों के लिए? और फिर मैं बाहर निकलूँ तो ये साबित नहीं हो जाएगा कि मेरी दस-हज़ार की ही हैसियत है। अभी तो घर बैठे-बैठे लाख रुपये सीधे हाथ में आते हैं। क्रेडिट कार्ड ही मिल गया है।’
ये बुरे-से-बुरा है जो किसी भी व्यक्ति के साथ हो सकता है। चाहे पुरुष हो या स्त्री हो कि उसको घर बैठे हाथ में क्रेडिट कार्ड दे दिया जाए कि कमाना तुझे है नहीं, तू घर बैठ, ये ले क्रेडिट कार्ड। कुछ करना नहीं है तुझे, बँधी-बँधायी इतनी मिल जाएगी, बस तू घर के काम कर दिया कर।
घर के कामों के लिए और लोग मिल जाएँगे, रोज़गार के अवसर पैदा करिए। बहुत लोग हैं जो घूम रहे हैं कि मुझे घरों में काम करने को मिल जाए। उनको कुछ हज़ार रुपये दीजिए वो कुछ आपकी साफ़-सफ़ाई भी कर देंगे, आपकी रसोई का काम भी कर देंगे। उस काम की हैसियत इतनी ही है। किसी को पाँच-दस हज़ार दीजिए वो पूरा कर देगा — पूरा घर भी साफ़ कर देगा, बिस्तर भी बना देगा, कपड़े धो देगा।
जो आप कह रही हैं न कि मैं नौकरी की तैयारी छोड़कर के, करियर को छोड़कर के घर में यही सब करती रहती हूँ। वो काम करने का अधिक-से-अधिक आपसे कोई पाँच-दस हज़ार रुपया ही लेगा महीने का। तो फिर सोचिए, आप जो काम कर रही हैं उसकी फिर क्या क़ीमत है? क्या क़ीमत है? बस पाँच-दस हज़ार। आप पाँच-दस हज़ार की ही क़ीमत रखती हैं क्या जीवन में? बोलिए। फिर सब गृहिणियाँ ये पाँच-दस हज़ार वाला काम करते हुए ज़िन्दगियाँ क्यों बर्बाद कर रही हैं? तुम कुछ और करो न ऊँचा।
और बहुत लोग हैं जो ये पाँच-दस हज़ार वाला काम कर देंगे। मैं कह रहा हूँ, ‘उनको रोज़गार के मौक़े दो।’ वो बेचारे ग़रीब सड़कों पर घूम रहे हैं। उनको मौक़ा दो कि वो आकर झाड़ू-पोछा कर दें, कपड़े धो दें, खाना बना दें। तुम थोड़ा बाहर तो निकलो और ये बड़ा पाप हुआ जा रहा है कि तुम जो काम करते हो वो तो पाँच-दस हज़ार का है और उसके बदले में लेते क्या हो? पूरी मोटी गड्डी और दस से छ: तक का टीवी, ये कहीं का नहीं छोड़ रहा है आपको। ये बुद्धि को कुन्द कर देता है, ज्ञान को शून्य कर देता है। मुक्ति की कोई आकांक्षा भीतर नहीं बची रहने देता।
साज़िश पुरुषों की थी निसन्देह, पर बड़ी अनहोनी घटना घटी है। इस साज़िश को बहुत सारी महिलाओं ने आत्मसात् कर लिया है। पुरुषों ने महिलाओं के शोषण के लिए ये व्यवस्था रची कि महिलाएँ बस घोंसले में ही रहें, अंडे सेती हुई। लेकिन इस व्यवस्था के ख़िलाफ़, पुरुषों के इस षड़यन्त्र के ख़िलाफ़, विद्रोह करने की जगह बहुत सारी स्त्रियाँ इस षड़यन्त्र में शामिल हो गयी हैं। इस षड़यन्त्र में उन्होंने अपने स्वार्थ खोज लिए हैं।
विद्रोह करिए, इसी में सबका भला है। इसी में आपका भी भला है, बच्चों का भी भला है, पति देव का भी, नात-रिश्तेदारों का भी।
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