गहरे आनंद का अनुभव || आचार्य प्रशांत (2021)

Acharya Prashant

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गहरे आनंद का अनुभव || आचार्य प्रशांत (2021)

आचार्य प्रशांत: तुम बहुत इकट्ठा कर लो, बहुत बड़े हो जाओ तो भी सत्य नहीं मिलेगा। तुम बहुत छोटे हो जाओ तो भी नहीं मिलेगा। मिट के ही मिलेगा, बचाये-बचाये नहीं मिलेगा। तुम बचाये-बचाये जो अधिक-से-अधिक और जो कम-से-कम कर सकते हो, तुम सब आज़मा कर देख लो, तुम्हें असफलता ही मिलेगी, सत्य नहीं। बाल लो, बाल की नोक लो, उसके सौ हिस्से करो, उसमें से एक हिस्सा उठाकर के उसके भी सौ हिस्से करो, फिर भी जो हाथ आएगा, जीवात्मा ही है। अब अपनी ओर से इससे ज़्यादा तो नहीं कह सकते वो। हम तब भी न समझे तो फिर!

अहम्-वृत्ति की बात हो रही है, जीवात्मा की बात हो रही है। इतना सूक्ष्म है, लेकिन वही फिर न जाने कितना प्रसार ले लेता है। ख़ुद उसकी कोई हस्ती नहीं लेकिन उसे सबके साथ जुड़ना बहुत पसन्द है। तो दो चीज़ें हैं जो हटानी हैं — एक वो जिसके साथ वो जुड़ गया है और वैसी कितनी चीजें हैं जिनके साथ वो जुड़ गया है? हज़ारों, हज़ारों। कह रहे हैं, 'अनन्त रूपों में विस्तृत हो जाता है।’ अनन्त चीज़ों के साथ उसने जुड़ाव ले लिया है। तो एक तो उन चीज़ों को हटाना ज़रूरी है।

उन चीज़ों को हटाने के बाद भी क्या बचेगा? वो जो अति सूक्ष्म है और जुड़ने को आतुर है। वो आख़िरी चुनौती होता है क्योंकि अब उसे छोड़ना नहीं है, अब उसे आत्मघात करना है। पहले तो वो अनन्त चीज़ें जिनसे वो जुड़ा हुआ है उसे छोड़ना है, वही बड़े कष्ट का काम है, 'हाय-हाय छोड़ कैसे दूँ, ये छोड़ दिया वो छोड़ दिया!' और फिर आख़िरी चुनौती क्या होती है? कि ये जो अति सूक्ष्म बचा है जीवात्मा, अहंकार, इसको अब क्या करना है? इसे आत्मदाह करना है, इसे आत्मसमर्पण करना है। इसे आत्महन्ता होना है। वो सबसे मुश्किल होता है, 'सब छोड़ तो दिया, अब तो जीने दो!’ नहीं, सब छोड़ दिया, अब अपने जीवन का समर्पण कर दो। ये आख़िरी चीज़ पकड़ कर क्यों रखते हो?

ये आख़िरी चीज़ का क्या नाम है?

'मैं’।

उससे पहले इतनी चीज़ें थीं, उनका क्या नाम था?

'मेरी’।

‘मेरी-मेरी’ छोड़ने के बाद क्या बचा?

'मैं’।

ये ‘मैं’ आख़िरी चुनौती है, सूक्ष्मतम चुनौती है। इसी को कबीर साहब बोले,

मोटी माया सब तजे झीनी तजी न जाय। पीर पैगंबर औलिया, झीनी सबको खाय।।

ये मोटी माया क्या है? 'मेरा’।

और झीनी माया क्या है?

‘मैं’। झीनी, उसी को यहाँ पर श्लोक में कहा गया है, वो जो सूक्ष्मत्म है। वो नहीं छूटती।

जीने की कला जानते हो क्या होती है? जीने की कला ये होती है कि इसी में मत लगे रहो कि जो 'मेरा' है उसको छोड़ दो। जीने की कला ये है कि 'मैं' को छोड़ दो। फिर मेरा जो कुछ है, वो तेरा हो गया। अब मेरा अगर कुछ है भी तो उसका मेरा होना घातक नहीं रहा। जो मूर्ख साधक होता है वो ‘मेरा’ छोड़कर के ‘मैं’ को पकड़े रह जाता है। और चतुर साधक पूरी कोशिश करता है ‘मैं’ को छोड़ देने की। ‘मेरा’ वो जानता है कि अपनेआप छूट गया, अगर ‘मैं’ छूट गया। वो फिर बाहर-बाहर से दिखाई देता है वस्तुओं के साथ, वो कह भी देगा 'मेरी वस्तुएँ'। पर जब ‘मैं’ ही नहीं बचा तो उसका ‘मेरा’ कहना बहुत प्रासंगिक या घातक नहीं होता।

वो जो मूर्ख साधक होता है, वो क्या कहता है? वो कहता है, 'ये छोड़ दो, वो छोड़ दो; ये नहीं करना, वो नहीं करना। अरे-अरे, इतने बजे बिस्तर छोड़ दो। अरे, ये खाना छोड़ दो, ये पहनना छोड़ दो।'

सब छोड़ दिया, क्या पकड़ कर रखा?

'मैं’।

क्या बोला?

'मैनें सब छोड़ दिया।’

क्या-क्या?

'मैं' ने सब छोड़ दिया।

(आचार्य जी मुस्कुराते हुए) तो भाई, पहले तू वस्तुओं का भोग करता था, अब तू वस्तुओं को छोड़ने का भोग कर रहा है। तू बड़ा भोगी है, तू क्या भोगा रहा है अभी? तू छोड़ना भोग रहा है। समझो बात को, 'छोड़ना' बहुत बड़ा भोग होता है। 'मैंने छोड़ दिया।' मैं भोग रहा हूँ इस बात को कि मैंने छोड़ दिया।

जीने का अर्थ वही है जो हमें अन्यत्र उपनिषद् में सिखाया गया था, “तेन त्यक्तेन भुंजिथ:” — त्याग करते हुए भोग करो; सब त्याग दो। किसको त्याग दो? ‘मैं’ को त्याग दो। जिसको ‘मेरा’ कहते थे, उसके बाद उसका भोग चलता रहेगा, कोई हानि नहीं होगी, ख़तरा टल गया।

‘मैं’ को त्यागो। ‘मेरा’ त्यागना तो तुम्हारे लिए वैसे भी पूर्णतया सम्भव नहीं है जब तक देह है। कैसे तुम ‘मेरा’ त्याग दोगे जब तक कि देह है? देह तो मेरी ही है न, देह को यही तो कहोगे। तो इससे अच्छा है जो ‘मैं’ वाला भाव है, उसको त्यागो।

इसीलिए अध्यात्म बाहरी चीज़ों को त्यागने का अभ्यान नहीं है, ‘मैं’ भावना की अनुसन्धान, शुद्धि, तृप्ति और निवृत्ति का काम है वो। ये मूर्खता कि बात है कि हम आध्यात्मिक है तो हमने क्या छोड़ दिया? 'अजी देखिए साहब, हम गाड़ी से नहीं चलते, हम तो पैदल चलते हैं। हम आध्यात्मिक हैं अब।'

तो पैदल भी क्यों चल रहे हो? ये पाँव, इनको कब त्यागोगे? जल्दी त्यागो। पाँव त्यागो। तुम पाँव हो क्या? जैसे तुम गाड़ी नहीं हो, ठीक उसी तरीक़े से तुम देह भी तो नहीं हो न। तो पाँव भी त्यागो, तुरन्त त्यागो। अज़ीब बात है, कह रहे हैं 'हम आध्यात्मिक है', कैसे? 'हम फ्लाइट (हवाई ज़हाज) पर नहीं चलते, हम रेल पर चलते हैं।' तो रेल आध्यात्मिक कैसे हो गयी और फ्लाइट (हवाई ज़हाज) कैसे नहीं हुई? ये रंग-भेद, वर्ण-भेद, जाति-भेद जो भी भेद है, ये कैसे कर लिया तुमने? तुम एक काम करो न, मैं तो कह रहा हूँ तुम पाँव ही त्याग दो, चलने का झंझट ही नहीं बचेगा।

क्या त्यागना है? अध्यात्म ये सब चीज़ें त्यागने का नाम नहीं होता। अध्यात्म इनसे अपना रिश्ता त्यागने का नाम होता है। है, तो भोग लिया। नहीं है, हम तो भी सूरमा है।

“कोई दिन लाडू, कोई दिन खाजा, कोई दिन फाँकम-फाँका जी।”

ये जीने का एक बहुत अलग अन्दाज़ है।

प्रश्नकर्ता: सुख, दुख और आनन्द को गहराई से कैसे समझें, इनमें स्पष्ट कैसे भेद करें?

आचार्य: देखो दो तरह के काम होते हैं इसमें, समझना होगा। दुख-सुख, आनन्द सारे अनुभवों की बात करूँगा। जैसे-जैसे अहंकार झीना होता जाता है, वैसे-वैसे एक तरफ़ तो दुख और सुख के अनुभव शिथिल पड़ते जाते हैं, दूसरी तरफ़ दुख-सुख और सारे अनुभवों में एक गहराई, एक तीव्रता, एक इनटेनसीटी भी आती जाती है। अब मुझे नहीं पता मैं इसको शब्दों में कैसे बयान करूँ!

वास्तव में जो गहराई है न, इनटेनसीटी , वही स्पिरिचुअलिटी (अध्यात्म) है। हमारे जो अनुभव भी होते हैं दुख-सुख के, वो बड़े सतही होते हैं। कोई बोले भी कि वो बहुत गहरे दुख में है, वो गहरे दुख में होता नहीं है। कोई यहाँ तक गहरे दुख में हो कि वो आत्महत्या कर ले, तो भी मत मान लेना कि उसने बहुत गहरा दुख अनुभव किया है।

वो इंसान बहुत गहरा नही था इसलिए उथले दुख का भी सामना नहीं कर पाया। उथले पानी में भी डूब कर मर सकते हो कि नहीं? इसका मतलब ये नहीं है कि पानी बहुत गहरा था। इसी तरीक़े से दुख से मौत हो गयी, इसका मतलब ये ज़रूरी नहीं है कि दुख बहुत गहरा था। इसका मतलब ये है कि तुम बहुत कच्चे तैराक हो।

अध्यात्म का मतलब होता है जीवन में गहराई आएगी — दुख में गहराई आएगी, सुख में गहराई आएगी। और जब गहराई आती है दुख में तो दुख, दुख नहीं रह जाता। बात बहुत सूक्ष्म है, मैं कैसे बताऊँ! जब दुख में गहराई आती है तो दुख, दुख नहीं रह जाता। उसका रूपान्तरण हो जाता है, वो कुछ और हो जाता है। सुख में भी जब गहराई आती है तो वो कुछ और हो जाता है। ज़्यादातर लोग जीवन की बस सतह पर जीते हैं — सतही दुख, सतही सुख। लोग डर जाते हैं कुछ गहरा आ जाए जीवन में तो। अनुभव नहीं कर पाते, काँप से जाते हैं। यही अध्यात्म है।

प्र: तो सुख-दुख की गहराई का‌ अनुभव ही अध्यात्म है?

आचार्य: वही है। सुख-दुख क्या, सब अनुभवों की। इसलिए आध्यात्मिक आदमी जैसे अनुभव पाता है वैसे अनुभव दूसरे आदमी को होते नहीं। तभी तो फिर सन्तों ने कहा है न, ‘जीवन दूसरा आदमी ख़राब किये ले रहा है‘, क्योंकि जीवन तुम अनुभव ही को तो बोलते हो।

चेतना लगातार क्या करती है? अनुभव करती है। तुम्हें अगर गहरे अनुभव ही नहीं हो रहे हैं तो तुम ज़िन्दा कहाँ हो! एक लाश को क्या नहीं हो रहा है? एक लाश, लाश क्यों है? क्योंकि उसे कोई चेतना नहीं, कोई अनुभव नहीं। वैसे ही आम आदमी इतना डरा हुआ है कि वो अपनेआप को अनुमति ही नहीं देता गहरे अनुभव करने की। गहरे अनुभव का जब भी मौक़ा आता है, वो तुरन्त संकुचित हो जाता है, श्रृंक कर लेता है, पीछे हट जाता है। रिट्रीट (पीछे हटना) कर लेता है, क्योंकि यहाँ कुछ ऐसा हो सकता है जो बहुत गहरा हो, वो मेरे सीमाओं को तोड़ देगा, मेरे अहंकार को। तो वो इस तरह के सारे मौक़ों से तत्काल अपना पाँव पीछे खींच लेता है। छोटी-मोटी चीज़ होगी तो वो उसमें सम्मिलित हो जाएगा। जहाँ कोई समुद्र जैसी चीज़ सामने आएगी, उसको बाथटब दे दो छप-छप करने के लिए, ठीक है। समुद्र से वो घबराता है, वहाँ ख़तरा है डूबने का।

और आनन्द, देखो, डर के बिना‌ हो नहीं सकता। सुख सस्ती चीज़ है। सुख हमारा है ही वही जिसमें डर न लग रहा हो। हम इतने डरे हुए लोग हैं कि हमें जब डर नहीं लगता तब हम कहते हैं कि सुख है।

हमारे लिए सुख क्या है?

जब यदा-कदा हमको डर का कम अनुभव होता है तो हमको सुख लगता है, क्योंकि हम चौबीस में से साढ़े-तेईस घंटे कैसे थे? डरे हुए। अब आधे घंटे के लिए कोई ऐसी सुरक्षा, कोई ऐसा भरोसा मिल गया कि डर कम लग रहा है तो हम कहते हैं, 'यही तो सुख है।’

आनन्द का मामला कुछ अलग है। आनन्द डर के बिना हो ही नहीं सकता। वो इंटेंसिटी (तीव्रता) चाहिए फिर, जहाँ डर तो लग रहा है पर आप डटे हुए हो। आपकी शक्ल पर बड़े मिश्रित से भाव हैं। डर का भी भाव कि एक तरफ़ तो पता चल रहा कि अभी थोड़े ही देर में कहीं कुछ आपके साथ ग़लत न हो जाए। एक तरफ़ तो डर है और दूसरी तरफ़ उस डर को झेल जाने का जज़्बा भी।

आनन्द को डर की अनुपस्थिति मत समझ लेना। आनन्द है डर की चुनौती को चीरने का अनुभव। और चीर रहे होगे डर को, पर हो तो डर के बीचों-बीच ही न, ‌डर रहे होगे।

जो जितना डर के भीतर घुस सकता है वो उतना आनन्दित हो सकता है। जीवन से ज़्यादा माँगो, और माँगो। सतह पर सन्तुष्ट मत हो जाओ। आनन्द कभी सतह पर नहीं मिलेगा। छोटे-मोटे साधारण अनुभव सतह पर मिल जाएँगे। और नीचे जाओगे तो अलग होना पड़ेगा न, क्योंकि ज़्यादातर लोग कहाँ होते हैं? सतह पर ही। नीचे जाओगे तो भीड़ से अलग होना पड़ेगा। ऐसे काम करोगे जो और कोई नहीं कर रहा। एक डर तो इसी बात का लगेगा। क्या? कि हम कुछ ऐसा कर रहे हैं जो कोई और नहीं कर रहा।

मैं तो कहता हूँ ख़तरे का पहला निशान ही यही है कि तुम वही कर रहे हो जो सब कर रहे हैं। जहाँ-जहाँ तुम वही सबकुछ कर रहे हो जो सब कर रहे हैं, वहाँ-वहाँ अपनेआप से ये चीज़ पूछ लिया करो — ये चीज़ आवश्यक है या सिर्फ़ डर के वजह से चल रही है?

ये तो पक्का है कि असली चीज़ जब भी करोगे, अपनेआप को अकेला पाते जाओगे। जैसे-जैसे आगे बढ़ोगे, वैसे-वैसे भीड़ छँटती जाएगी, अकेले होते जाओगे। डर तो लगना ही है। कोई नहीं होगा जो तुमसे कहे कि सही कर रहे हो। जो कर रहे हो, अकेले कर रहे हो। काहे का भरोसा है? बस अपने विचार का और अपनी श्रद्धा का — यही दो चीज़ें होती हैं। हमने विचार करा है और जहाँ विचार रुक गया है, वहाँ अपनी श्रद्धा का भरोसा है हमें।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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