गगन घटा गहरानी रे || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

Acharya Prashant

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गगन घटा गहरानी रे || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

अवधूता गगन घटा गहरानी रे।।

पच्छम दिसा से उलटी बादली, रुमझुम बरसे मेहा,

उठो ज्ञानी खेत संभारो, बह निसरेगा पानी।।१।।

निरत सूरत के बेल बनावो, बीजा बोवो निज धानी,

दुबध्या डूब जन्म नहीं पावे, बोवो नाम की धानी।।२।।

चारों कोनें चार रखवाले, चुग न जावे मृग धानी,

काटया खेत मींड़ा घर ल्यावे, जा की पूरन किसानी।।३।।

पांच सखी मिल करे रसोई, जिहमें, मुनि और ज्ञानी,

कहें कबीर सुनो भई साधो, बोवो नाम की धानी।।४।।

वक्ता: ‘अवधूता गगन घटा गहरानी रे’

भारतीय परंपरा में अवधूत, ऋषि, साधू, संत, इन सब के संदृश्य नहीं, इनसे ऊँची अवस्था है।

अवधूत वो है, जो पूरे तरीके से संसार का हो गया है। अवधूत वो है जिसके कोई भ्रम शेष नहीं है।

और इसीलिए अवधूत के लिए कहा गया है कि वो पृथ्वी के चेहरे पर ऐसा घूमता है, ऐसे लोटता है जैसे कोई बच्चा। कहीं ठहरता नहीं है। चलते रहना उसका स्वभाव है। जहाँ भी जाता है, अपना घर ही पाता है। ऐसे अवधूत को सम्भोदित कर रहे हैं कबीर-“गगन घटा गहरानी ”, मन का जो आकाश है, उस पर अब बादल छा रहे हैं। कबीर आवाज़ दे रहे हैं कि अवधूत, देख जो प्रकृति का नियम है, वही हो रहा है। मन के आकाश पर बादल छा रहे हैं। ये चित्त का आकाश है, इस पर विचारों के, संकल्पों के, बादल आ रहे हैं।

‘पच्छम दिसा से उलटी बादली, रुमझुम बरसे मेहा’

एक दिशा से, और एक दिशा से क्या, अनेकों दिशा से संसार अब तेरे भीतर पुनः विकृत रूप में प्रवेश करने की कोशिश कर रहा है। माया अपना आकर्षक नाच फिर शुरू कर रही है और ये सब दिखने में बड़ा मधुर लगेगा। दिखने में बड़ा चित्त आकर्षक लगेगा। बादल आए हैं, हल्की रिम-झूम फुहार है। “ऐसा हो सकता है अवधूत कि, तू भी बहक जाए। तो कहते हैं कि “उठो ज्ञानी खेत संभारो, बह निसरेगा पानी।” -इस समय पर यदि तूने अपने मन की देख भाल नहीं की, तो जो कुछ भी तूने जाना है, अर्जित किया है, वो सब खतरे में पड़ जाएगा। तू फिर उसी माया के शिकंजे में आ जाएगा, जिससे आज़ाद हो करके तू अवधूत हुआ था। “निरत सुरत के बेल बनावो” , “निरत” माने निवृत्ति। निवृत्ति मतलब छोड़ दिया, छूट गए। “सुरत” मतलब सुरति। सुरति मतलब याद करना। लगातार उसी के साथ रहना। “निरत सुरत के बेल बनाओ।” बेल माने रस्सी। इनकी रस्सियाँ बनाओ। इन रस्सियों से जो तुम्हारा खेत है, जो तुम्हारा मन है, इसकी बाड़ तैयार की जाएगी। बाड़ को बाँधने के लिए इन रस्सियों का इस्तेमाल करेंगे, निरत और सुरत की। “निरत सूरत के बेल बनावो, बीजा बो निज धानी।”- और इसमें जो बीज डाले, तुम्हारे खेत में, वो एक ही रहे। तुम्हारी समझ का, तुम्हारे जानने का, तुम्हारे ध्यान का बीज रहे। सन्देश जा रहा है कबीर का कि –अवधूत, बादल छा चुके हैं, वर्षा होगी, तूने लाख बार ये लड़ाई जीती हो, लेकिन इस बार भी तुझे अपने खेत की रक्षा करनी ही पड़ेगी।

दुबध्या डूब जन्म नहीं पावे, बोवो नाम की धानी- इस क्षण पर शंकित मत हो जाना। दुविधा में मत डूब जाना। “नाम की धानी बोओ”, जिस बीज की बात कर रहे थे। हरि नाम की, राम नाम की धानी बोओ। वही है, जो तुमको कैसे भी आकर्षण से, कैसे भी आक्रमण से बचाकर रखेगी। हल्के मत पड़ जाना। आ रहे होंगे चारों तरफ़ से चित्त को खींचने वाले प्रभाव, तुम बहक मत जाना।

“चारों कोनें चार रखवाले, चुग न जावे मृग धानी।” – जो भी कुछ तुमने बोया है, ये कहीं वृत्तियों रूपी, संसार रूपी, आकर्षण रूपी, माया रूपी मृग आ करके चुग न जाए। इसके लिए खेत के चार कोनों पर, चार रखवाले आसीन करो। पारंपरिक रूप से विवेक, वैराग्य, षड्संपत , और मुमुक्षा, इनको बड़ा महत्व दिया गया है। उपनिषद् में इनको साधना चतुष्ठे के नाम से जाना जाता है। कबीर इन्हीं की बात कर रहे हैं कि इन चारों को अपने चार रखवालों की तरह प्रयोग करो। “विवेक, वैराग्य, षड्संपत , और मुमुक्षा।”

श्रोता: षड..?

वक्ता: षड्संपत । उसमें षम, दम, उप्रत्ति, तितिक्षा, ये सब आते हैं।

तो इनको अपनी खेत के रखवालों की तरह इस्तेमाल करो। ताकि चाहे बादल बरसें, चाहे मृग और दूसरे जानवर आ करके तुम्हारे खेत पर आकर हमला करें, तुम्हारी ये जो फ़सल है, ये खराब न हो जाए। तुमने ये जो नाम की धानी बोई है, ये उजड़ न जाए।

“चारों कोनें चार रखवाले, चुग न जावे मृग धानी, काट्या खेत मींड़ा घर ल्यावे, जा की पूरन किसानी।”

जब कबीर खेत की बात कर रहे हैं, तो वहाँ पर कृष्ण का ध्यान आ जाना स्वभाविक है, जहाँ उन्होंने क्षेत्र-क्षेत्र के विभाग वियोग में यही बात करी है। कबीर ने खेत की और अवधूत की छवि ली है, और करीब-करीब ये ही कृष्ण ने भी ली है। तुम क्षेत्रज्ञ हो, और संसार तुम्हारा क्षेत्र है। वही यहाँ पर कबीर छवि उठा रहे हैं। जो अच्छा किसान होता है, वो अपनी फसल कांट करके घर ला पाता है। और जो नहीं होता, लापरवाह होता है, उसका यही होता है कि कभी पानी, वर्षा उसका खेत तबाह करती है, कभी जानवर आकर के उसका खेत चर जाते हैं। अंततः उसके हाथ कुछ नहीं लगता। वो यही पाता है कि जन्म वृथा गंवाया। ‘जन्म वृथा गंवाया।’ फसल हो सकती थी, लाभ हो सकता था, परम की प्राप्ति उसको हो सकती थी, पर हुआ कुछ नहीं। मेहनत भी करी, पर लापरवाही खूब रही, बोध नहीं रहा। चार जो रखवाले थे, वो उसको उपलब्ध नहीं थे, या जो उसने उसमें फसल बोई, वो “नाम” की धानी नहीं थी, उसने कुछ और ही बो दिया उसमें। इधर, उधर की झाड़ , पतवार बो दी। तो अंततः कोई लाभ नहीं मिला।

लाभ मिले उसके लिए क्या करना है? कबीर चेताय दे रहे हैं अवधूत को।

“पांच सखी मिल करे रसोई, जिहमें, मुनि और ज्ञानी।”- जिसने ये सारी सावधानियाँ बरत ली, वो ऐसा क्षेत्रज्ञ हो जाता है, वो ऐसा मालिक हो जाता है कि ये जो पाँचों इन्द्रियाँ हैं, अब ये उसकी परिचारिकाएँ हो जाती हैं। ये उसकी रसोईं कर रही हैं। ये कबीर की दुनिया है। यहाँ पर ऐसे कथन खूब मिलेंगे आपको कि, ‘’ये तो छोड़ दो कि तुम पाँचों माया का रूप रखके मुझे ठगने आई हो। मैं ऐसा मालिक बना हूँ तुम्हारा कि अब तुम पाँचों मेरी नौकरानी हो, और मेरे घर में रसोई पकाती हो।’’ और उस रसोई को जीम कौन रहा है? जीमें, मुनि और ज्ञानी। तुम खाना पकाती हो, और मुनि और ज्ञानी पंगत में बैठे हैं, वो भोजन करते हैं। वो ऐश करते हैं। तो इन्द्रियों का, और इन्द्रियों से आने वाले संसार का, त्याग नहीं है। अवधूत त्यागी नहीं हैं। अवधूत त्यागी नहीं हैं। वो तो कह रहा है, “आँखों, भोजन पकाओ। हम खाएंगे। कानों, सुन्दर से सुन्दर संगीत लेकर आओ, हम सुनेंगे। बताओ क्या सपर्श करना है? हम करेंगे। सब कुछ सपर्श करने में, बड़ा सुन्दर है, बड़ा आनंदपूर्ण है।” पांच सखी मिल करे रसोई, जीमें, मुनि और ज्ञानी। कहें कबीर सुनो भई साधो, बोवो नाम की धानी।” नाम की धानी बोओ। फिर..? आनंद ही आनंद है। समझ रहे हैं?

खेत में क्या करते हैं कि जानवरों से बचाने के लिए लकड़ियाँ, उसकी जो सीमा होती है, जो, उसमें गाढ़ते हैं। जब आप लकडियाँ गाधोगे, तो लकड़ियों को आपस में बाँधने के लिए भी कुछ चाहिए होगा न? तो वो कह रहे हैं कि, ‘निरत सुरत की बेल बनाओ।’ “निरत”-निवृति। निवृति मतलब? हो गया। खत्म। “*आइ ऍम डन।*” कुछ अधूरा नहीं है। कुछ पाने के लिए नहीं है। कुछ पाने के लिए नहीं है। निवृत है। वृत्ति से निवृति हो गई। निरत सुरत की बेल बनाओ। और सुरति। सुरति का मतलब..? “रति” का अर्थ है पास जाना, संलग्न हो जाना।

सुरति का अर्थ है: उसके पास जाना; राम के पास जाना। उनसे जुड़ जाना, सुरति।

तो निरत सुरत की बेल बनाओ, बीजा बोओ, निजधानी।

शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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