दूसरों से अलग अनूठे कैसे बनें? || आचार्य प्रशांत (2013)

Acharya Prashant

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दूसरों से अलग अनूठे कैसे बनें? || आचार्य प्रशांत (2013)

प्रश्नकर्ता: मैं अपनी ऊर्जा और समय को कैसे दिशा दूँ, ताकि मैं सबसे अलग और अनूठा बन पाऊँ?

आचार्य प्रशांत: जो तुमने सवाल पूछा है, उत्तर बिलकुल इसी में बैठा हुआ है, सामने ही है। तीन बिन्दुओं का उत्तर है और तीनों तुम्हारे सवाल से ही निकल कर आ रहे हैं। जो पहली बात तुमने कही, वो कही, "हम कैसे दिशा दें अपनी समय और ऊर्जा को, ताकि हम भीड़ से अलग खड़े हो सकें?"

पहली बात; ‘हम’ की भाषा में सोचना छोड़ो और ‘मैं’ की भाषा में सोचना शुरू करो, कोई भी सवाल ‘हम’ से शुरू न हो; ‘मैं’ के लिए हो, ‘मैं’ द्वारा हो। ‘मैं’ माने अपना समय कैसे बचाऊँ। हम माने किस-किस का समय बचाना चाहते हो? भीड़ का कोई समय नहीं होता, भीड़ की कोई चेतना ही नहीं होती। भीड़ का कोई जीवन ही नहीं होता, तो समय कैसे होगा? हाँ, जब तुम ‘हम’ की भाषा में बात करते हो, तो समय निश्चित रूप से नष्ट करते हो क्योंकि जैसे ही तुमने ‘हम’ कहा, ‘मैं’ मिट गया। जैसे ही तुमने ‘हम’ कहा, ‘मैं’ मिट गया, अब समय किसको बचाना है? ‘मैं‘ को या ‘हम’ को बचाना है? समय बचाना है, आयुष को, पर आयुष, भाषा बोल रहा है कि, उसने संबंध बना रखे हैं १० और लोगों से, हम सब १०।

उसने संबंध १० लोगों से बना रखे हैं। अब आयुष (श्रोता को इंगित करते हुए) क्या करता है? क्या सोचता है? किससे प्रभावित होता है? ये सब तो उन १० लोगों पर निर्भर करता है न? समय बचाना है, आयुष को, पर आयुष चलेगा बाकि ९ के इशारे पर क्योंकि ९ भी हम हैं, मैं तो है नहीं, हम हैं, संयुक्त हैं, पूर्ण हैं, और जहाँ हम हैं, वहाँ भीड़ है और जहाँ भीड़ है, वहाँ निजता नहीं है, जहाँ निजता नहीं है, वहाँ निजता का समय नहीं है, समय का नष्ट होना पक्का है। तुम्हारे आस-पास के ‘हम’ आएँगे तुम्हारे पास और कहेंगे, ‘’चल-चल क्यों पढ़ रहा है, थोड़ा खेल कर आते हैं’’ और चूँकि तुम ‘मैं’ नहीं हो तो, तुम उनके साथ चल पड़ोगे क्योंकि तुम्हें भीड़ का हिस्सा होने में मज़ा आ रहा है।

कहा जाता है कि दुनिया के जो सबसे बड़े अपराध होते हैं, वो कभी व्यक्ति नहीं करता, वो हमेशा भीड़ करती है। दुनिया के जो सबसे जघन्य अपराध होते हैं, वो कभी व्यक्ति द्वारा नहीं किये जाते, वो भीड़ द्वारा, ‘हम’ द्वारा किये जाते हैं, सामूहिक समझ द्वारा किये जाते हैं। व्यक्ति भी करता है, जब उसके अंदर ‘हम’ जागृत होता है, तब करता है। जिसका ‘मैं’ जाग्रत है, वो कभी अपराध नहीं कर सकता, न अपने प्रति न अस्तित्व के प्रति।

मैं उस बात को आगे बढ़ा कर कहूँगा; ‘हम’ ही अपराध है,’ जो हम की भाषा में सोचने लग गया, वो अपराधी हो गया क्योंकि उसने स्वीकार कर लिया है कि उसके ऊपर दूसरे हावी हो जाएँ। उसने स्वीकार कर लिया है कि उसके जीवन का केंद्र उसके अतिरिक्त भी कहीं और है। ‘हम’ में है, ‘मैं’ में नहीं है, ‘मैं’ से बाहर स्थित है। ‘हम’ ही अपराध है।

एक दार्शनिक हुआ है जॉन-पॉल-सात्रे नाम से। उसने कहा था, “द अदर इज़ हेल (दूसरा ही नर्क है)’’ उससे पूछा गया था, नर्क की परिभाषा, तो बोलता है, “परायापन ही नरक है। दूसरा ही नर्क है।” अब मैं देखता हूँ तुम्हारे फ़ीडबैक फॉर्म होते हैं, तुम्हारी और भी कई बातें होती हैं, तुम हमेशा ‘हम’ की भाषा में बात करते हो। तो तुम आते भी हो कुछ कहने कि तुम्हें चाहिए, तो तुम ये नहीं कहते कि मुझे चाहिए, तुम कहोगे, “हमें चाहिए।’’ अरे! हम क्या? अपनी बात करो बेटा! तुम अपनी बात करने में बहुत घबराते हो, यहीं पर गलती हो रही है। तुम कह रहे हो, समय और ऊर्जा नष्ट हो रहे हैं, समय और ऊर्जा नहीं, पूरा जीवन नष्ट हो रहा है क्योंकि तुम ‘मैं’ बनने को तैयार नहीं हो। ‘मैं’ का अर्थ होता है, मेरी ज़िम्मेदारी, मेरी। अपने पाँवों पर खड़ा हूँ, अपनी दृष्टि से देखता हूँ, अपनी समझ से समझता हूँ और फिर मेरा समय, मेरा है, अब समय नष्ट नहीं होगा, फिर मेरी ऊर्जा मेरी है, अब ऊर्जा भी नष्ट नहीं होगी। तो ये तो हुई पहली बात।

मैंने कहा था तीन बातें हैं, दूसरी तुमने कहा, "अपने समय और ऊर्जा को कैसे दिशा दूँ?" तुम कह रहे हो, “मैं दिशा देना चाहता हूँ, अपने समय को, अपनी ऊर्जा को। मैं उसे एक दिशा देना चाहता हूँ, मैं उसे एक रास्ता देना चाहता हूँ।” तुम रास्ता दोगे भी तो कैसा दोगे और कहाँ से आएगा वो रास्ता? हमने कहा था, आदमी २ तरह से जी सकता है, या तो स्मृति से या चेतना से। हम जो रास्ते देना चाहते हैं, अपने समय को, अपनी ऊर्जा को, हमारे रास्ते सब स्मृति से आते हैं। हम दूसरों से पूछते हैं, "आपने क्या रास्ता इख़्तियार किया था? चलिए हम भी वही रास्ता चुन लें" या हम अपने-आप से कहतें हैं कि, "पहले मैं ऐसे रास्ते पर चला था, बड़ा अच्छा लगा था, सफलता मिल गई थी, चलो उसी पर दोबारा चल देते हैं।" जब तक तुम कहोगे कि, ‘’दिशा देने का कार्य मैं करूँगा’,’ गड़बड़ होकर रहेगी क्योंकि यह ‘मैं’ अभी ‘शुद्ध मैं’ नहीं है।

हमने पहली बात कही थी, हम से हट कर ‘मैं’ पर आओ, अब दूसरी बात मैं तुमसे कह रहा हूँ, ये जो ‘मैं’ है, ये भी ज़रा एक शुद्ध ‘मैं’ हो। हम अक्सर जब भी कहते हैं कि, ‘’मैं ऐसा करना चाहता हूँ या मैं ऐसा सोचता हूँ’,’ वो मैं होता ही नहीं है।

वो ‘हम’ होता है, जो ‘मैं’ का रूप रख कर आ जाता है। तुम्हें किसी ने पट्टी पढ़ा दी है, कुछ करने की और तुम्हें लगने लग गया कि, "ये तो मेरी इच्छा है, मैं करना चाहता हूँ।" क्या वाकई तुम वो करना चाहते हो? तुम एक विज्ञापन १० बार देखते हो क्योंकि वो तुम्हें १० बार दिखाया जाता है और फिर १० बार वो विज्ञापन देखकर के उसे खरीदने की इच्छा तुम्हारे भीतर उठ जाती है और तुम कहते हो, ‘’मैं खरीदना चाहता हूँ!’’ क्या वाकई तुम खरीदना चाहते हो? तुम खरीदना चाहते हो या कोई और मालिक बैठे हैं, जिन्होंनें तुम्हें विवश कर दिया है और खरीदने के लिए, वही विज्ञापन तुम्हें ५००-५०० बार दिखाकर के, अख़बार में, होर्डिंग में, इंटरनेट पर, बोलो? तो ये जो ‘मैं’ है, ये ‘हम’ ही है अभी, मैं हुआ नहीं और ये मैं जो भी दिशा देने का कार्य करेगा या जो भी काम करेगा, वो गुलामी का ही काम होगा।

ये गड़बड़ है, इसके तो जो भी काम होंगे, वो इसको नुकसान ही पहुँचाएँगे। इसका जीवन ख़राब ही करेंगे , वो इसका समय ले लेंगे और जब सारा समय ये गँवा देगा, उसके बाद खड़ा हो कर कहेगा, ‘’अरे! एक ही ज़िंदगी थी और कैसे फ़िज़ूल कामों में बिता दी", और वो सब ताकतें जो तुम्हारा समय छीन ले रही हैं, वो तब तुम्हें कहीं नज़र नहीं आएँगी, तुम्हारा दुःख बटाने के लिए। उनका स्वार्थ सिद्ध हो गया, वो गईं, उन्हें इतना ही चाहिए था कि उनके छोटे-मोटे स्वार्थों की पूर्ती हो जाए। दोस्त चाहता था कि वो बोर हो रहा है, तो तुम २ घंटे उसके साथ काट लो। फिल्म बनाने वाले चाहते थे कि आकर के तुम २५० रुपये का टिकट खरीद लो। मोबाइल बनाने वाले चाहते थे, तुम्हारे पास पहले ही एक है, पर तुम एक और खरीद लो।

ये ही सब उनके छोटे-मोटे स्वार्थ थे, पूरे हो गए, उन्होंने तुम्हारा जीवन भी ले लिया, तुम्हारा समय भी ले लिया, तुम्हारी ऊर्जा भी ले ली और अब वो तुम्हें कहीं नज़र नहीं आएँगे और जीवन भर तुम्हें लगता ये ही रहा है कि, "मैं जो कर रहा हूँ, अपनी मर्ज़ी से कर रहा हूँ।" उसमें तुम्हारी मर्ज़ी थी कहाँ? ध्यान से पूछो कि हर बार जिसको मैं बोलता हूँ मेरी इच्छा, मेरी मर्ज़ी, मेरे लक्ष्य, क्या वो वाकई मेरे हैं?

तीसरी चीज़ तुमने ये कही, “मैं अलग बन पाऊँ।” तुमने कहा, “मैं कैसे अपना समय और ऊर्जा बचाऊँ? हम कैसे अपना समय और ऊर्जा बचाएँ, ताकि हम दूसरों से अलग दिखाई दे सकें?” दूसरों से अलग दिखाई देने की जब तक चाह है, तब तक तुम्हारे लिए दूसरे महत्वपूर्ण बने ही रहेंगे। मैं अभी तुमसे बात कर रहा हूँ, तुम क्या चाहते हो, मैं तुमसे वो बात करूँ, जो उचित है? या मेरा ध्यान ये रहे कि मैं तुमसे कोई ऐसी बात कहूँ, जो तुम्हें कोई और नहीं कहता? निश्चित ही मुझे तुमसे बस ये ही कहना चाहिए जो उचित है, वही बात करूँ। अगर मेरा ध्यान इस पर चला जाए कि मैं तुम्हें कुछ ऐसी बाते बताऊँ जो तुम्हें कोई नहीं कहता, ताकि मैं अनूठा कहला सकूँ, तो बड़ी दिक्कत हो जाएगी।

फिर मैं यहाँ पर तुम्हारे लिए नहीं आया होऊँगा, मैं यहाँ पर सिर्फ़ तुम्हारा स्वार्थ सिद्ध कर रहा होऊँगा कि मैं जब यहाँ से जाऊँ तो तुम कहो, “वाह! आज इन्होंने कुछ नई, विलक्षण, अनूठी बातें बताई। बिलकुल अद्वितीय, आज तक कभी सुनी ही नहीं थी, यार!"

तो तुम खुश तो हो जाओगे कि बातें अनूठा थीं, पर अपना नुकसान भी कर लोगे क्योंकि मैंने ये ध्यान नहीं दिया कि उचित क्या है तुम को बोलना। जब मैं ये ध्यान दूँ कि उचित क्या है बोलना, तो मैं किसकी भलाई चाह रहा हूँ? तुम्हारी। और जब मैं ये ध्यान दूँ कि मैं अनूठी बातें क्या बोलूँ, तो मैं किसकी भलाई चाह रहा हूँ? अपनी। और मैं लगातार तुलना कर रहा हूँ और मैं डरा हुआ हूँ, जब मैं अनूठे होने की इच्छा करता हूँ — समझो इस बात को — तो मैं डरा हुआ हूँ, तो मैं तुलना कर रहा हूँ।

मेरे मन में ये संदेह है कि कहीं मैं दूसरों जैसा न दिखने लगूँ। जो अनूठे बनने की चाहत है, ये हीनता से निकलती है, तुम जो हो सो हो, और अनूठे तुम पहले से हो, तो बनने की चाहत क्या करनी है? तुम मौज में रहो। तुम अनूठा होना चाहते हो, ताकि सब ये कह सकें कि ये अलग है, ये अलग ही चमकता है। हज़ार पत्थरों के बीच में हीरा है ये, अनूठा, पर वो हीरा जो अभी ये कहने पर ख़ुशी महसूस कर रहा हो कि ये हज़ार पत्थरों के बीच में अलग ही चमकता है, वो अभी हीरा है ही नहीं क्योंकि जो वास्तव में हीरा होगा, वो पत्थरों की परवाह ही नहीं करेगा।

उसको इस बात से कोई ख़ुशी ही नहीं मिलेगी कि मैं इन पत्थरों के बीच में अलग चमक रहा हूँ। अगर अभी तुम पत्थरों की परवाह कर रहे हो, अगर अभी तुम पत्थरों की तुलना कर रहे हो, तो तुमने अपने हीरेपन को पाया कहाँ है? बात समझ रहे हो? बिलकुल इस बात पर तुम ख़ुशी मत बना लेना, अगर कोई तुम्हें बोले कि, "भाई! तू औरों से अलग है", तो उसको बोलना कि, "भाई! तू भी औरों से अलग है।" कौन है जो औरों जैसा है? अलग तो सब हैं ही हैं, इसमें क्या शक है? अलग इस अर्थ में नहीं हैं कि दूर हैं, परायापन है, इस अर्थ में नहीं हैं। अलग इस अर्थ में हैं कि सब अपने जैसे हैं। प्रकृति में कोई दोहराव होता नहीं। सब बिलकुल अद्भुत, विलक्षण, नए ही होते हैं, तो अनूठे ही होते हैं। तो अनूठा बनने की कोशिश क्यों? तुम अनूठे हो, हमेशा से हो, अनूठा बनने की कोशिश मत करो, वो सिर्फ़ एक तुलना है। उसमें तुम दूसरों को बहुत ज़्यादा महत्व दे रहे हो।

अपने पर ध्यान नहीं दे रहे हो, दूसरों को महत्व दे रहे हो। तुम कह रहे हो, "दूसरे सब अगर राईट लेन में चल रहें हैं, सड़क पर राईट साइड चल रहें हैं, तो मुझे अनूठा होना हैं, तो मैं क्या करूँगा? मैं रॉंग (गलत) साइड चलूँगा।" ये परम बेवकूफ़ी है। अरे! तुम्हें क्या अंतर पड़ता है कि दूसरे राईट साइड चल रहें हैं कि रॉंग साइड चल रहें हैं, तुम्हें अपनी राह चलनी है न? तुम्हारा अपना जीवन है, अपनी बुद्धि है, अपने कदम हैं, अपना रास्ता है, उस पर चलो।

या ये कहोगे कि, "सब पूर्व को जा रहे हैं, तो मैं पश्चिम को जाऊँगा, क्योंकि मुझे अनूठा होना है"? पर हम ऐसे ही हैं, तुम देखो न लोग अलग-अलग दिखाई देने के लिए क्या-क्या नहीं करते। कोई सारे बाल साफ़ करा देगा और बीच में एक लकीर छोड़ देगा, कोई कपड़े कटवा-फटवा कर पहन लेगा, कहेंगे फटे-चीथड़े हैं, पर अलग हैं। देखो, ऐसे किसी के पास नहीं होंगे। परवाह सारी ये है कि दूसरे को कैसे नीचा दिखा दें। परवाह सारी ये है कि दूसरा किसी तरह सिद्ध हो जाए भीड़ का हिस्सा, मैं अलग हूँ। ध्यान ये नहीं है कि मेरा क्या हो रहा है, ध्यान सारा ये है कि उसका क्या हो रहा है।

तो ऐसे ही था एक बार, एक सज्जन थे, आयुष के दोस्त, तो उनको भीड़ पकड़ कर पीट रही है, अच्छे से पिटाई चल रही है! आयुष का दोस्त था, और बोल रही है, मारो आयुष को मारो, नालायक है और खूब पिट रहा है। अब पिट रहा है, लेकिन हँसता जा रहा है, खूब पिट लिया अच्छे से कपड़े-वपड़े सब तार-तार, मुँह काला है, इधर खून निकल रहा है, आँख सूज गई। तो बाहर आया आयुष दूर से देख रहा था, अब दोस्ती तो हमारी ऐसी ही होती है कि दूर से देख रहे थे! जब पिट लिया अच्छे से तो पास गए, तो उससे पूछते हैं आयुष, कि, "जब तू पिट रहा था तो इतना हँस क्यों रहा था?" बोलता, “मैं तो पिट लिया कोई बात नहीं, वो सब बेवकूफ़ बन गए।” पूछता है, “क्यों?” बोलता है, “मुझे आयुष समझ कर पीट रहे थे, मैं तो आयुष हूँ ही नहीं!”

तो हमें इससे अंतर नहीं पड़ता कि हमारा क्या हाल हो रहा है जीवन में, "वो बेवकूफ बन गए, मैं अनूठा हूँ!" भाई, क्यों? "अरे! आज तक किसी और ने इस कारण मार नहीं खाई, मैं अनूठा हूँ, मैं पहला हूँ, अद्भुत।" और बड़ी बात नहीं कि ये गिनीज़ बुक पर अपना नाम लिखवाए कि, "मैं पहला हूँ, जिसने संदीप होते हुए, आयुष बन कर मार खाई। अब मैं पहला हूँ, जिसने १०० लोगों को इस तरीके से बेवकूफ बना दिया।" हमें बड़ा आनंद है इसमें। छोड़ो, तीन बाते हैं, तीनों को छोड़ो, तुम्हारा समय भी बचेगा, ऊर्जा भी बचेगी, सब अपने आप बढ़िया हो जायेगा। ठीक है? ‘मैं’, ‘विशुद्ध मैं’ और दूसरों से तुलना नहीं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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