श्रोता: सर, कई बार हम किसी गलत आदमी को उसकी गलती की सजा नहीं देते जिसके बाद उसको लगता है कि वो ठीक है। उसके बाद हमें तकलीफ़ होती है कि उसने ऐसा सोचा। अगर मैं सही था तो मुझे तकलीफ़ नहीं होनी चाहिए। ठीक है मैंने उसे माफ़ किया, मैं अच्छा हूँ। अगर मैंने उसे पूरे तरीके से माफ़ नहीं किया है, तो मैंने उसको उसकी गलती की सजा क्यों नहीं दी?
वक्ता: एक बात बताओ। आहात होगे, तभी तो सजा दोगे। गलती होती है, तभी सजा दी जाती है। गलती होने का मतलब है कि कुछ बुरा किया है किसी ने तुम्हारे साथ। कुछ है जो तुमको आहात कर गया। तभी तो सजा देने की बात सोचते हो या नहीं? यह खुला आकाश है। इसमें कील ठोक कर दिखाओ। यहाँ एक लाख कील ठो लो, क्या तब भी इस जगह का कुछ बिगड़ेगा? नहीं बिगड़ेगा। वही कील लाकर इस दीवार पर ठोक दो तो तुरंत क्या होगा? निशान पड़ जायेगा, थोड़ी सी दीवार टूटेगी। इसको अहंकार कहते है।
आहत वही होता है, चोट उसी को ही लगती है, टूटता वही है, जिसके पास अहंकार होता है। चोट सिर्फ अहंकार को लग सकती है। तो जब भी कभी आहात अनुभव करना, तो जान जाना कि अहंकार पर ही वार हुआ है। और कुछ है ही नहीं जिसे चोट लग सके। सत्य को चोट नहीं लगती, बोध को चोट नहीं लगती, अहंकार को ही चोट लगती है। तो तुम में से जिन लोगों ने ये धंधा ही बना रखा है कि उन्हें बात-बात पर चोट लग जाती है, दिल टूट जाता है, वो समझ लें कि वे परम अहंकारी हैं क्योंकि अहंकार को ही चोट लगती है। हमने ये अच्छा खेल खेला हुआ है। पहले तो हम कहेंगे कि हमें चोट लग गयी। किसे चोट लग गयी? मुझे। तो उससे ‘मेरे’ होने की भावना पुख्ता हुई। फिर हम कहेंगे कि हमने माफ़ कर दिया। और माफ़ करने वाला कौन है ?
श्रोता: मैं।
वक्ता: तो बड़ा कौन है ?
श्रोता: मैं।
वक्ता: तो अहंकार कैसा हो गया? और बड़ा हो गया। ये खेल देख रहे हो। बढ़िया खेल है या नहीं? पहले तो चोट लगी और चोट लगने से अहंकार कहता है कि मुझे चोट लगी। चोट लगने में अहंकार और ताकतवर हो जाता है। पहले तो लगे चोट और उसके बाद दी जाए माफ़ी। मैं तुमसे कह रहा हूँ कि चोट खाना और माफ़ करना दोनों अहंकार के लक्षण हैं। तुम माफ़ करोगे ही क्यों अगर तुम्हें चोट ही नहीं लगी? तुमने कौन सा बड़ा काम कर दिया माफ़ करके? तुम माफ़ करके यही सिद्ध कर रहे हो कि चोट बहुत लगी थी। कोई तुमसे अगर माफ़ी भी माँगने आए और तुम वास्तव में हल्के आदमी हो,जो सहज ही जीता है, तुम कहोगे, ‘कैसी माफी? मुझे तो बुरा लगा ही नहीं’। असली जीत उसी की है जिसे बुरा लगा ही नहीं। जब बुरा ही नहीं लगा तो माफ़ क्या करे। कोई आ रहा है और तुमसे कह रहा है कि मैंने तुम्हें दो-चार गाली दे दी थीं, मुझे माफ़ कर देना। तुम कहोगे कि क्या कल कोई बातचीत हुई थी हमारी? कौन सी? हाँ, हाँ कुछ याद तो आ रहा है। फिर क्या हुआ था? अच्छा तुमने गालियाँ दे दी थीं, वो तो मैंने ली ही नहीं। तुमने शायद दी थीं, पर मैंने ली नहीं। माफ़ी किस बात के लिए माँग रहे हो? अरे मेरे पास गालियाँ नहीं हैं, वो तो तुम्हारे पास हैं, उनको छोड़ दो। क्यों लेकर घूम रहे हो? मैं आहात हुआ ही नहीं हूँ। मुझसे क्या क्षमा मांगते हो?
अब ये हालत देख रहे हो। ये बड़ी ताक़तकी हालत है। तुम मेरे मालिक नहीं बन सकते। जो तुम्हें चोट पहुँचाए, वो तुम्हारा मालिक हो गया। तुमने हक़ दे दिया उसे चोट पहुँचाने का। हम प्रेम में खुले हुए हैं। हम अहंकार में बंद नहीं हैं कि हमें तुमने आकर चोट दे दी है। उस व्यक्ति को छोड़ो जिसके बारे में तुम सवाल कर रहे हो। अपनी ओर देखो। तुम्हें अपने मन के साथ जीना है। दिन- रात तुम इसके साथ जी रहे हो। अपने मन की ओर ध्यान दो। मेरा मन ऐसा क्यों है जो जल्दी से व्यथित हो जाता है? उसकी ओर ध्यान दो।
-‘संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।