प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, क्या जीवन दुख है? ऐश माने क्या? क्या उम्र का बढ़ना परिपक्वता की निशानी है?
आचार्य प्रशांत: ज़िंदगी बोझ है, ज़िंदगी बोरियत है, ज़िंदगी थकान है, ज़िंदगी नर्क है, ज़िंदगी ऐश कैसे हो सकती है। खबरदार! हमसे कहा कि ज़िंदगी आनंद है। ये मत बता देना हमें, ये शब्द वर्जित हैं।
हाँ, हमें बताओ कि ज़िम्मेदारी कर्तव्य है, ज़िम्मेदारी आँसू है, ज़िंदगी ट्रेजिडी (त्रासदी) है, ज़िंदगी अलसाई आँखें हैं जो थोड़ा और सोना चाहती हैं पर ज़बरदस्ती उठना पड़ रहा है, हम मान लेंगे।
हमें बताओ कि ज़िंदगी एक ऐसा कॉलेज है जहाँ हम पढ़ना नहीं चाहते, ठीक। ज़िंदगी एक ऐसा ऑफिस है जहाँ हम काम नहीं करना चाहते, ठीक। ज़िंदगी एक ऐसा घर है जहाँ हम रहना नहीं चाहते, ठीक। ज़िंदगी एक ऐसी बीवी है जिसके साथ हम जीना नहीं चाहते, ठीक। ज़िंदगी ऐसे कपड़े हैं जो हम पहनना नहीं चाहते, ठीक।
लेकिन ज़िंदगी मस्ती है और मौज है और आनंद है, ये मत कह देना! एफआईआर कर देंगे। (सभी हँस पड़ते हैं) तुम्हें पता भी है ऐश क्या होती है? कभी करी है ऐश?
प्रश्नकर्ता: जिस चीज़ से मुझे खुशी मिलेगी या जिससे मैं बहुत ज़्यादा सैटिस्फाइड (संतुष्ट) हो जाऊँगा।
आचार्य प्रशांत: ऐश का मतलब सैटिस्फैक्शन (संतुष्टि) नहीं है। सैटिस्फैक्शन के लिए तो डिससैटिस्फैक्शन (असंतुष्टि) चाहिए। जब डिससैटिस्फाइड होते हो न तभी सैटिस्फैक्शन की बात उठती है। तुम डिससैटिस्फैक्शन की बात कर लो, अपने आप सैटिस्फैक्शन की बात चालू हो जाएगी। पर ऐश इन दोनों में से कुछ भी नहीं है। उसका तुम्हें कुछ पता नहीं। बस बातें जानते हो, नाम सुना है।
प्रश्नकर्ता: जो हमारे दुख को दबा दे, वो ऐश।
आचार्य प्रशांत: दुख को तो सुख दबा देता है। वो तो वही है, असंतोष-संतोष, ये ऐश नहीं होती है। जिसने एक बार को भी, कैसे भी उसको चख लिया, उसके बाद वो ऐसे नहीं बोलता कि (क्रोधित स्वर में) ऐश करनी है क्या सिर्फ़?
वो फिर कहता है, (मस्ती और आनंद में, चिंतारहित मुस्कान के साथ) ‘ऐश करनी है! चलें! छोड़िए न सर ये बातचीत। चलते हैं, बातचीत में क्या रखा है।ʼ ऐश तुम्हारा पेन रिलीवर (दर्द निवारक) नहीं होती है कि दुखी हो तो जाकर कहीं नाच आए या टीवी देख लिया या शराब पी ली या किसी से फोन पर बात कर ली।
ये ऐश नहीं होती है। तुम्हें कुछ पता भी है कि मस्ती बोलते किसको हैं? अरे! अरे! भूल गया। ऐक्चवली मस्ती हमेशा एडल्ट रेटेड (केवल वयस्कों के लिए) होती है, (श्रोता हँसी को दबाते हैं) बच्चों के लिए होती नहीं। हाँ, बच्चों के लिए तो झुंझुने, पालने, खिलौने, दूध की बोतलें, लोरियाँ ये सब होती हैं।
आनंद तो मैच्योरिटी, परिपक्वता के साथ आता है, उसके लिए वास्तव में बड़ा होना पड़ता है। तो तुम्हें क्या पता है उसका? लल्ला-लल्ला लोरी, दूध की कटोरी, दूध में?
प्रश्नकर्ता: बताशा।
आचार्य प्रशांत: मुन्ना करे?
प्रश्नकर्ता: तमाशा।
आचार्य प्रशांत: ‘मुन्ना ऐश करे,’ ये बोला क्या? मुन्ना करे तमाशा। तो वही जानते हो। ‘मुन्ना करे तमाशा!’
मुन्ना को मैच दिखा दो, मुन्ना यही ऐश जानता है, इतनी ही। ताली बजा-बजाकर नाचेगा मुन्ना, छक्का मारा, छक्का मारा, तुम्हारे लिए ऐश का इतना ही अर्थ है। फिर (हाथ से अंग्रेज़ी का ए लिखा और पूछ रहे हैं) क्या है ये? क्या?
प्रश्नकर्ता: एडल्ट (व्यस्क)।
आचार्य प्रशांत: एडल्ट , बड़ों के लिए है वो। तुमको अगर छोकरा, छोकरी बने रहना है, अगर लोग तुम्हें अभी ऐसे ही देखते हैं, ‘ऐ शर्मा जी का लौंडा आ गया। गुप्ता जी की बच्ची,ʼ तो ऐश नहीं है बेटा तुम्हारे लिए।
मैं अभी यहाँ पर आया तो कई चेहरे दिखाई दिए जो कैंप में थे। फिर अभी उनको देखा और दिल थोड़ा बैठ सा गया। ऐसा लगा जैसे किसी डॉक्टरेट को किसी ने स्कूल के कपड़े पहना दिए हों।
कैसा तुम्हें छोड़ता हूँ और कैसा तुम्हें देखता हूँ। अब कहाँ ये रेत पर लौट रही थी और बारिश में ढ़ोलक बजा रही थी और कहाँ ये स्कूली कपड़े! तुम्हारा पूरा होना ही जैसे बदल जाता है और तुमने समझौता कर लिया है इसी चीज़ के साथ कि हम तो बच्चे हैं।
फिर कहते हैं, ’हैं! सिर्फ़ ऐश करनी होगी? गंदी बात।ʼ गंदी बात में अभी तुम्हें डर यही है कि तुम्हारी छवि छिन जाएगी। ज़रूरी है तुम्हारे लिए कि कुछ गंदी बातें करो, तुम्हारा समय आ गया है। वो जो तुम बचाए बैठे हो, वो छिनने के लिए ही है। उसे क्या लेकर मरोगे?
फ़ेसबुक पर जाकर के बटन दबाने से ऐश नहीं हो जाती, माई कांसेप्ट ऑफ़ सेलिब्रेशन (जश्न मनाने का मेरा सूत्र) और करोगे, तुममें से बहुत सारे। ‘दोस्तों, तुम्हारे हिसाब से मैन ऑफ़ द मैच कौन होना चाहिए?ʼ उधर से वो कुछ बोल रहा है, इधर से ये कुछ बोल रहे हैं और पोकेमोन और पोपोई की बातचीत चल रही है। ये तुम्हारी व्यस्कता है, ये तुम बड़े हुए हो।
अभी घुस रहा था कॉलेज में, अच्छा लगा तुम लोगों ने ऐसे जवान (शहीद भगत सिंह) की फोटो लगा रखी है जो वास्तव में ऐश में जिया और ऐश में मरा। जो भी करो, एक बार देख लिया करो (कि क्या) वो ऐसा करता? (क्या) वो ऐसा करता? जल्दी बताओ?
और उसकी ऐश के क्या कहने! ऐसे होती है ऐश कि सबकुछ छोड़ने को तैयार खड़े हैं, जान भी। तब होती है ऐश। 'ए फोर ऐश एण्ड ए फॉर एडल्ट्स'। (एक छात्र से पूछते हुए) क्या नाम है?
छात्र: आशीष।
आचार्य प्रशांत: ए फोर….. देखो मैंने कैसे पूछा। एक कॉलेज है गाज़ियाबाद में। वहाँ पर तुम्हारी तरह की बीटेक की एक लड़की है। उससे इन लोगों ने पूछा कि तू कैंप में क्यों नहीं आती। तो बोलती है कि मेरी मम्मी कहती है कि तू जहाँ भी जाएगी मैं भी साथ चलूँगी क्योंकि तू मेरे ही हाथ का खाना खाती है। तुम्हारी स्टूडेंट है। यहाँ भी ऐसे बहुत हैं। ये मत सोचना वहाँ बात खुल गई, यहाँ छुपी है। यहाँ ऐसे बहुत हैं।
टिफ़िन खुला….. तीन परांठे, दो छोटी-छोटी कटोरियों में सब्ज़ियाँ, अचार, कई तो होंगे पक्का जो घर से पानी की बोतल भी लेकर आते होंगे कॉलेज में। हैं कि नहीं हैं? बोलो। मिल्टन की बोतल और खोला उसको और…. तुम ऐश करोगे? (व्यंग्य करते हुए) तुम खाना-पीना खाकर सो जाओ ऐसे तकिए में छुपकर।
मैं जब पिछली बार आया था तो मैंने तुमसे कहा कि तुम मुझसे सवाल पूछो, मैं भी कुछ सवाल पूछना चाहता हूँ। मैंने पूछा था, ‘तुममें से कौन है जो अपनी कमाई का एक पैसा भी कमाता है?ʼ मैंने तुमसे पूछा था, ‘कितने हैं जो अपने कपड़े खुद धोते हैं?ʼ मैंने पूछा था, ‘कितने हैं जो खाना खाकर के अपनी कम-से-कम प्लेटें खुद साफ़ करते हैं?ʼ
मैंने कहा, तुम मुझसे इतने बड़े-बड़े सवाल पूछते हो, चलो मैं कुछ बोल देता हूँ। अब मैं तुमसे छोटे-छोटे सवाल पूछ रहा हूँ और तुम चुप बैठे हो। तुममें से कितने हैं जो अपने कपड़े खुद प्रेस भी करते हैं? (कुछ छात्र हाथ उठाते हैं) देखो, दो हाथ, पाँच हाथ, अरे! आधे हाथ। बाकी आधों का क्या करें? कई ऐसे होंगे जिन्हें पता भी नहीं होगा कि प्रेस में कपड़ा ऊपर रहता है या प्रेस ऊपर। (सभी हँस पड़ते हैं।)
तुम्हारे यहाँ आधे ऐसे होंगे जिन्हें कोई खाना बनाकर न दे तो उनकी अकाल मृत्यु हो जाए। पर उन्हें ब्रेड सेंकना भी नहीं आता होगा। बच्चे हैं! अभी क्या करोगे? घर जाओगे, कपड़े उतारकर के डाल दोगे। यही करोगे न? अब माँ का काम है कि जाकर के धोए। करते हो कि नहीं करते हो?
श्रोतागण: येस सर।
आचार्य प्रशांत: जब दूसरी में पढ़ते थे तब भी यही करते थे कि नहीं करते थे? तो दूसरी, तीसरी क्लास थी, अब सेकेंड, थर्ड ईयर है बीटेक का, कुछ बदल गया? लल्ला-लल्ला लोरी! (कुछ लोग हँस पड़ते हैं, आचार्य जी थोड़ा सख्ती से) हँसी आ रही है? ‘मम्मी, कपड़े धोओ न। पापा, पैसे दो न।’ मम्मी किसलिए है? कपड़े धोने के लिए। पापा किसलिए हैं? पैसे देने के लिए। तुम ऐश करोगे! ‘भैय्या, भैय्या ऐश देना। थोड़ी-सी और दे दो न भैय्या।ʼ ऐश दूध-मलाई है?
एक सीमा तक तुम क्यूट होते हो तो शोभा देता है। उस सीमा के बाद एक तेज चाहिए होता है चेहरे पर। उसी तेज को फिर सौंदर्य भी कहते हैं। तुममें वो बच्चों वाली क्यूटनेस तो अभी भी शायद थोड़ी है पर तुममें से सुंदर कोई भी नहीं है। कोई भी नहीं।
क्यूट ही बने रहना चाहते हो, टेडीबीयर? यही हो तुम? फिर टेडीबीयर का तो यही होता है कि उसको लेकर (हाथ से तरोड़-मरोड़कर फ़ेंक दिया)। बोलो। बोलो जल्दी। सुंदर वो है जिसकी तुमने फोटो नीचे लगा रखी है। उसे सुंदर बोलते हैं, नूर है उसके चेहरे पर। नूर है और मूछें हैं।
और तुम इसी में खुश हो जाते हो कि मैं तो बड़ी क्यूट हूँ जी। भद्दा लगता है, गंदा और ओछा लगता है। तुम्हारी क्यूटनेस की उम्र गई। वो पाँचवी, छठी के लड़के-लड़कियों को शोभा देती है। तुम अब मर्द और औरत हो। मतलब समझते हो इस बात का? 'ग्रोन अप मेन एण्ड विमेन'।
आदमी-औरत जानते हैं, छोरा-छोरी थोड़ी जानते हैं। मर्द की बात होती है वो। मर्द असली खेल खेलता है फिर कि लाओ कहाँ है फंदा? तुम इसी में खुश रहते हो, ‘अरे बाउंसर आई! सीने की तरफ़ आई उसके!ʼ सीने की तरफ़ बॉल आ रही है, तुम इसी में उत्तेजित हो जाते हो। वहाँ सीने में बुलेट ली जाती है। मर्द में और छोकरे में यही अंतर होता है। तुम इतने में ही खुश हो जाते हो। ‘तुम्हें पता है वो कितना अच्छा खिलाड़ी है? बाउंसर को वो हुक कर देता है।ʼ
लग भी गई तो क्या होगा? गेंद है। गेंद नहीं, गोलियाँ ली जाती हैं सीने पर, तब होती है मर्दानगी। यहाँ मुझे सुबह-सुबह मेसेज आ रहा है कि लड़के बड़े उत्सुक हैं मैच देखने को, सर, आप भी मैच देखते-देखते इन्हें पढ़ाइए।
सोचो, उनको (वो फोटो जिसकी आचार्य जी बात कर रहे हैं वह शहीद भगत सिंह की है) जाना है असेम्बली में बम डालने। तब याद आया आज मैच है। ‘छोड़ो, कल डालेंगे। आज मैच है भाई, ज़्यादा ज़रुरी है।ʼ गोलियों में जो ऐश है वो गेंदों में नहीं है। कभी लल्ला-लल्ला, कभी बल्ला-बल्ला।
तुममें से कई तो इस वक्त यहाँ इसीलिए बैठे हो कि फर्स्ट हाफ़ में निपटा दें, उसके बाद जाएँगे, आराम से देखेंगे। और क्या करते हो? हॉट व्हील से खेलते हो, बार्बी से खेलते हो? क्या-क्या करते हो, बोलो? चुन्नू… और दिल मेरा दुखता है ये सोचने में कि सही में अभी भी कई ऐसे होंगे जो गुड्डे-गुड़िया से खेलते होंगे, ईमानदारी की बात है कि नहीं, बोलो?
श्रोता: नो सर।
आचार्य प्रशांत: कैसी बात कर रहे हो! देखा है, बड़ी-बड़ी खरीद रही होती हैं, ‘वो वाला दिखाना भैय्या। नहीं, जिसका पिंक वाला ब्लाउज़ है।ʼ (श्रोताओं को इंगित करते हुए) देखो, मज़ा कितना आ रहा है। पिंक वाला नहीं, मैजेंटा।
प्रश्नकर्ता: सर, मैं पाँचवी में भी वही बच्चा था, अभी भी वही बच्चा हूँ। तो ऐसे तो आगे आने वाले टाइम में भी बच्चा ही रहूँगा। तो एडल्ट कैसे बनें?
आचार्य प्रशांत: सोचो, बाप भी बच्चा, बच्चा भी बच्चा! बिना बड़े हुए ही बाप बन गए! ऐसा ही है बेटा। उम्र बढ़ जाने से तुम व्यस्क नहीं हो जाते। उसके लिए यहाँ (दिमाग में) कुछ होना चाहिए। हो सकता है कि तुम अस्सी साल के हो लेकिन अभी भी बिलकुल अपरिपक्व हो और यही हमारी कहानी है।
कोई एक होता है जो बड़ा हो पाता है, बाकी तो सब….। जानते हो जो तुम्हारी इनर एज होती है, मेंटल एज, वो तेरह-चौदह पर जाकर रुक जाती है। उसके बाद शरीर बढ़ता रहता है, मन का विकास नहीं होता। तुम्हारी साइकी का विकास नहीं होता, दुनिया के बारे में तुम्हारा नज़रिया, ये सब करीब-करीब ठहर जाते हैं।
बढ़ते हैं, बढ़ते हैं, चौदह की उम्र में जैसे हो जाते हो, वैसे ही अपना चलते रहते हैं, उनमें कोई आगे बात बढ़ती ही नहीं है। कोई-कोई होता है जो वास्तव में बड़ा हो पाता है। उसको कहते हैं-खिलना, अपनी पूर्णता को प्राप्त होना। कोई-कोई होता है, बाकी तो सब ऐसे जैसे हमारे ऑफिस में डहेलिया है, ये लगे हुए हैं।
तो अभी दस दिन पहले तो मौसम ठंडा था, बारिश-वारिश भी हो गई, ठंडा था। अचानक से गर्म हुआ है तो उनमें सबमें कलियाँ आई हुई थीं, थोड़ा-बहुत जाड़े के फूल हैं, उनमें कलियाँ आई हुई थीं और अब हो गई है धूप, तो मैं उनको देखता हूँ, उन कलियों को, वो फूल बने बिना मर रही हैं और यही इंसान की कहानी है।
कली फूल बने बिना मर जाती है, बिना खिले खत्म हो जाओगे। खौफ़नाक है कि नहीं ये बात, बोलो? अभी ही बहुत देर हो चुकी है, अब तक ही पता नहीं तुम्हें कितना खिल जाना चाहिए था। अविकसित, अर्धविकसित रह गए हो। तुम्हारे चेहरों पर जो भाव है न, मैं फिर कह रहा हूँ और दुख के साथ कह रहा हूँ— तुम्हारे चेहरों पर जो भाव हैं, ये अभी भी बिल्कुल बालकों के हैं, बाल्यवस्था से ऊपर आ नहीं पा रहे हो तुम।
एक तो तुम्हारे चारों ओर का माहौल ऐसा है कि तुम्हें बच्चा बनाए हुए है और दूसरे, अंदर से भी तुम्हारे वो अंतः प्रेरणा उठती नहीं है कि मेरा समय आ चुका है, बीता जा रहा है, फिर तुम्हें अपने आसपास वास्तव में बड़े लोग दिखाई भी नहीं देते। तुम जिसकी भी ओर नज़र करते हो, तुम्हें अपने ही जैसा दिखता है तो तुम्हें लगता है, ऐसे ही ठीक होगा, जब सब ऐसे ही हैं तो यही चलता होगा, शायद यही दुनिया की रीत है।
और कभी-कभार संयोगवश तुम मैच्योरिटी की ओर कदम बढ़ाते भी हो तो तुम्हारी जो ताकतें हैं ज़िंदगी में, वो तुम्हें वापस खींच लेती हैं। या तुम्हें इस बात का दंड मिलता है कि तुमने बड़े होने की कोशिश कैसे करी। पर आखिरी ज़िम्मेदारी तो तुम्हारी है न। क्योंकि जीवन किसका है? अनजीया मरोगे तो किसी और को दोष दोगे? कहोगे कि अरे! उसकी वजह से नहीं जी पाए, समाज ही ऐसा था, माहौल ही ऐसा था।
अच्छा, सही-सही बताओ, हममें से ज़्यादातर की दाढ़ी-वाढ़ी बना दी जाए बिल्कुल और यहीं शहर के किसी स्कूल की ड्रेस पहना दी जाए, तो पूरा शहर यही सोचेगा न कि अभी स्कूल में ही पढ़ता है। वो भी स्कूल दसवीं तक का हो। बड़ी आसानी से तुम दसवीं के बच्चे बनकर के पास हो सकते हो, बड़ी आसानी से।
चेहरे पर वो भाव आया ही नहीं है, नज़र में वो तीखापन, माथे पर वो स्पष्टता आई ही नहीं, आ रही ही नहीं है, कली खिल ही नहीं रही है और समय बीता जा रहा है। जैसे कोई बच्चा पैदा ही न हो रहा हो और नौवाँ, दसवाँ महीना लग गया हो, तो बच्चा मर जाएगा। एक समय होता है पैदा हो जाने का, उस समय पर नहीं पैदा हुए तो ऐसा नहीं है कि गर्भ में और विकास होगा, अब मर जाओगे।
तुम्हारा पैदा होने का समय आ गया है। आ नहीं गया है, बीता जा रहा है। तुम अच्छे हो, मुझे कोई द्वेष नहीं है। ठीक है, भोलापन है, ये सब। पर काम? अब क्यूटनेस नहीं शोभा देती बच्चे तुम्हें और इस बात को कोई बोले कि ही इज़ सो क्यूट, तो गाली माना करो उसको। गाली है।
मैं दो-चार और मर्दों के नाम बताता हूँ। जाकर के देखना वो दिखते कैसे थे। और ऐसा नहीं कि उन्होंने कोई भाव ओढ़ रखा है, ऐसा नहीं कि वो जान-बूझकर के चेहरे पर कोई भाव लेकर चलते थे। सिर्फ़ देखना, वो दिखते कैसे थे और मुझे बताना कि वो क्यूट लगते थे क्या? मुझे बताना कि वो क्यूट लगते थे अब? क्यूट नहीं लगते थे, वो मर्द लगते थे। और ऐसा नहीं कि उनकी उम्र बहुत ज़्यादा थी। उनमें से ज़्यादातर ऐसे थे जो जवानी में ही गए लेकिन उनके चेहरे पर मर्दानगी थी और मर्दानगी से मेरा मतलब ऐसा नहीं कि लड़कों से ही संबंधित है। लड़कियाँ भी होती हैं, उनके चेहरे पर एक स्त्रीत्व होता है, एक बांकापन होता है, एक तेज होता है। तुम्हारे चेहरे पर तेज है?
जाकर देखो धूमिल की फोटो कभी या चंद्रशेखर आज़ाद की देखो या फिडेलकेस्ट्रो की देखो या राम मनोहर लोहिया की देखो। इनमें से कुछ प्रसिद्ध हैं, कुछ ज़्यादा प्रसिद्ध नहीं हैं। पर ये वो लोग हैं जो जीए हैं ठसक में।
कुछ को दुनिया ने जाना, कुछ को नहीं जाना लेकिन मर्द थे ये। तो माहौल ऐसा है कि तुम्हें जिन लोगों के नाम पता चलते हैं, वो भी वही लोग हैं जो वास्तव में बड़े नहीं हो पाए हैं लेकिन समाज के पैमानों के अनुसार सफल हैं। तो तुम्हारे जो ये लोग हैं, इनके चेहरों पर थोड़े कोई परिपक्वता होगी। अब तुम मार्कज़ुकरबर्ग का चेहरा देखोगे तो वो तो आज भी लौंडे जैसा है। तुम्हारे आदर्श ही लेकिन ऐसे बने हुए हैं।
कुछ बातें दे रहा हूँ जो तुम्हें बड़ा होने में मदद करेंगी, ठीक है। इन्हें लिख लो।
पहली — भीड़ से दूर रहो, अकेले चलना सीखो। बिल्कुल झुंड में पाए नहीं जाओ। अकेले दिखने चाहिए। जहाँ कहीं अपने आप को झुंड में पाओ, समझ लेना कि मैं बच्चों वाले ही काम कर रहा हूँ। आ रही है बात समझ में?
दूसरा — कतार में मत लगो; कतार से मेरा मतलब ये नहीं है कि बस की कतार लगी है तो उसको तुम तोड़ दो। कतार से मेरा मतलब है, जिस चीज़ के लिए दुनिया दीवानी हो रही हो, पूरी क्यू बनी हुई है, मुझे भी चाहिए, मुझे भी चाहिए, परिपक्वता की निशानी होती है कि वहाँ तुम पाए नहीं जाओगे। कतार में नहीं लगो। ये पहले से संबंधित बात थी।
तीसरा — आज़ादी सबसे ऊपर। जब भी कभी चुनना हो, कोई निर्णय करना हो, तो उसमें बस ये देखना है कि आज़ादी किस तरफ़ है। फिर भले उस आज़ादी की कीमत कितनी भी देनी पड़े। बात आ रही समझ में?
जब भी तुम कोई निर्णय करते हो न, उस निर्णय में एक तरफ़ गुलामी होती है, एक तरफ़ आज़ादी। भले ही वो छोटे-से-छोटा निर्णय हो, भले ही वो किसी भी संदर्भ में कोई निर्णय किया जा रहा हो पर उस निर्णय में हमेशा एक तरफ़ गुलामी और एक तरफ़ आज़ादी होती है। तो तुम्हें फ़ैसला करते वक्त सिर्फ़ ये खयाल रखना है कि इस फ़ैसले में आज़ादी किस तरफ़ है और मुझे उस तरफ़ ही जाना है। भले ही कुछ भी कीमत देनी पड़े।
अगला (चौथा) — प्रेम के लिए उपलब्धता। और प्रेम से मेरा आशय सिर्फ़ विपरीत लिंग से प्रेम नहीं है। वो भी है, उसको रोका या मना नहीं किया जा रहा पर उससे कहीं आगे की बात है ये। प्रेम के लिए उपलब्धता का मतलब ये है कि अब तुम्हारी वो वय आ गई है जब कुछ तुम्हें ठीक लगेगा, जो तुम्हें ठीक लगा, उसके लिए उपलब्ध रहो। तुम्हारी वो अवस्था आ गई है जब कुछ तुम्हें खींचेगा; आज़ादी खींचेगी, सच्चाई खींचेगी, उड़ान खींचेगी।
जो तुम्हें खींचे, उसे तुम्हें स्वयं को खींच लेने दो। उपलब्ध रहो कि जब सच्चाई दिखाई दिख आई है, तो इसकी ओर जाऊँगा। यही प्रेम है कि पुकार आई है और मैं चला जाऊँगा। आ रही है बात समझ में?
अगला (पाँचवाँ) — डर का पीछा करो। डर का सामना तो कोई भी कर सकता है, तुम्हें डर का पीछा करना है। डर का पीछा करना समझते हो? ‘तू है कहाँ? बाहर निकल।ʼ डर तुम्हारे पीछे नहीं आएगा, तुम डर के पीछे जाओ। ‘मुझे अच्छा लगता है तुझसे खेलना। आ न, डरा न। आ, मुझे डरा।ʼ और न डराए तो उसको चिकोटी काटो। ‘तू डरा क्यों नही रहा, डरा। तेरा काम है मुझे डराना, डरा। हम डरना चाहते हैं, आओ, डराओ।ʼ
अगला (छठा) — फ़ाकामस्त रहो। फ़ाकामस्त समझते हो? बाहर से कम लिया और अंदर से भरपूर हैं, बाहर से फ़ाका, अंदर से मस्ती। दुनिया से कुछ नहीं और भीतर सबकुछ। ये फ़ाकामस्ती है। पेट खाली है तो पेट बजा-बजाकर नाचेंगे, अच्छा है। जैसे ढोलक खाली होती है, तो खूब बजती है न बढ़िया। ढोलक भरी हो तो बजेगी नहीं। आज पेट खाली है, खाने को नहीं मिला, आज पेट बजा-बजाकर नाचेंगे। ये फ़ाकामस्ती है।
जवान आदमी को ये सब शोभा नहीं देता है कि अठ्ठारह के हो और इतनी बड़ी तोंद लेकर के घूम रहे हो। जवान आदमी को फैट, वसा, शोभा नहीं देती है। हड्डियाँ होनी चाहिए वज्र के जैसी, कोई तुम्हारा हाथ छुए तो या तो उसको मांसपेशियाँ मिलें, नहीं तो हड्डियाँ। मांस न मिले। आ रही है बात समझ में?
तुम्हारी वो हालत नहीं कि कोई आए तुम्हारे गाल पकड़े और ‘गोलू-गोलू, कितने प्यारे-प्यारे गाल हैं, लंबे-लंबे,’ खींच रहे हैं। गाल खींच रहा है कोई तुम्हारे और तुममें से तो कईयों के साथ ये होता होगा कि बुआ जी आई हैं और गोलू के गाल खींच रही हैं और गोलू गाल खिंचवा रहे हैं।
“पत्थर सी हों मांस-पेशियाँ, लोहे के भुजदंड अभय नस-नस में हो लहर आग की, तभी जवानी पाती जय।”
पत्थर सी हों मांसपेशियाँ, लिजलिजी नहीं, सॉफ्टी। भुजदंड, भुजाएँ। पत्थर और लोहा चाहिए वहाँ पर। आ रही है बात समझ में?
अगला (सातवाँ) — खुरदुरे रहो, खुरदुरे। क्या अर्थ है खुरदुरे होने का? तुम्हारी वो अवस्था नहीं है कि मन को या तन को चमकाओ, चिकना-चुपड़ा करो। मन भी ज़रा ऐसा रहे कि खुरदुरा है। खुरदरा होने का अर्थ ये है कि रगड़दार, कि संसार से संपर्क में आता है तो घर्षण होता है, ज़रा आग उठती है। और शरीर भी वैसा ही है, तुम्हारे शरीर में गोलइयाँ नहीं शोभा देतीं। शरीर ज़रा एंगुलर रहे, कोण दिखाई देने चाहिए-एंगल्स, कर्व्स नहीं।
अगला (आठवाँ) — बदलते रहो, बढ़ते रहो। बदलते रहो, बढ़ते रहो। ये बच्चे वाला बदलाव नहीं। बच्चे में भी बदलाव होता है पर उसका सारा बदलाव या तो प्रकृति के कारण होता है या समाज के कारण होता है। उसकी देह बढ़ती है प्रकृति के कारण और उसके मन में जो कुछ डाला जाता है वो समाज से आता है। और बूढ़ा वो होता है जिसमें कोई बदलाव नहीं हो रहा होता।
बच्चे दिन में चौदह-चौदह घंटे सोते हैं, बूढ़े चार घंटे ही में काम चला लेते हैं क्योंकि जो प्रकृति का बदलाव होता है न, वो सोते समय होता है। बुढ़ापे में तुम्हारे भीतर रिजुविनेशन (दोबारा उत्पन्न होना) होना बंद हो गया होता है इसीलिए सोने की बहुत कम ज़रूरत पड़ती है। छोटे बच्चों को देखना, वो दिन में सोलह-सोलह घंटे सोते हैं।
बच्चा कौन? जो बदल तो रहा है लेकिन उसका सारा बदलाव बाहरी है। बूढ़ा कौन? जो अब जड़ हो गया है, जो अब अटक गया है, जिसका परिवर्तन अब रुक गया है। जवान कौन? जो बदल रहा है और जिसके बदलाव का केंद्र आंतरिक है।
समझ रहे हो? ये इतनी बातें तुमने लिखी हैं, इनमें से कोई एक-दो भी अगर बैठ जाए तुम्हारे भीतर, तो सब हो जाएगा। कोई इतना ही कर ले बस कि अकेले चलूँगा, तो भी हो गया। कोई इतना ही कर ले कि जब समझ जाऊँगा तो उसका पालन करने के लिए उपलब्ध रहूँगा, उसका भी हो गया। और कोई बस फ़ाकामस्ती को ही ज़िंदगी बना ले, तो उसका भी हो गया।