दूसरों की सोच से प्रभावित क्यों? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

Acharya Prashant

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दूसरों की सोच से प्रभावित क्यों? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

आचार्य प्रशांत: सवाल है, ‘कुछ भी करने में एक डर क्यों बना रहता है कि कोई और मेरे विषय में क्या सोचेगा?’ ये डर सिर्फ कुछ स्थितियों में नहीं होता हमारे जीवन में। सच तो ये है कि हमारा जीवन ही डर बनकर रह गया है। एक-एक कदम जो लिया जा रहा है, एक-एक निर्णय, वो दूसरों के प्रभाव में लिया जा रहा है, दूसरों के डर में ही लिया जा रहा है। क्यों डर रहे हैं? इसकी वजह को जानना होगा। ध्यान देंगे तो स्पष्ट हो जाएगी बात।

जो कुछ भी तुम अपना समझते हो वो तुम्हें दूसरों ने दिया है, वो बाहर से आया है। जो कुछ भी है तुम्हारे जीवन में, जिसे तुमने अपना मान रखा है, आया वो दूसरों से है। और दूसरों से मेरा आशय सिर्फ व्यक्तियों से नहीं है, दूसरों से मेरा अर्थ है वो सब कुछ जो तुम नहीं हो। ‘दूसरा’ जब मैं कहता हूँ तो ‘दूसरा’ से मेरा अभिप्राय है वो सब कुछ जो तुम नहीं हो। वो कोई समय हो सकता है, कोई स्थिति हो सकती है, कोई व्यक्ति हो सकता है या कुछ और। जब मेरा सब कुछ दूसरे से आया है तो दूसरा उसे वापिस भी ले जा सकता है। नतीजा- डर। मन में कभी आश्वस्ति नहीं आती कि मैं सुरक्षित हूँ। मन में एक खटका बना रहता है कि कहीं जो मेरा है, जिसे मैं अपना समझता हूँ, कहीं वो चला ना जाए। इसी विचार का नाम कि 'मेरा कुछ है जो खो जाएगा', इसी विचार का नाम डर है।

डर क्या है, ठीक-ठीक समझ में आया? डर है ये विचार कि मेरे पास कुछ है जो खो सकता है, मुझसे दूर हो सकता है। दिक्कत उसमें ये है कि जो भी कुछ तुम्हारे पास है, मैं दोहरा रहा हूँ, वो बाहर से आया है। जो कुछ भी तुमने अपना जाना है वो सब बाहर से आया है। नतीजतन मन हमेशा डरा हुआ रहेगा क्योंकि जो बाहर से आया है, जो समय से आया है, जो स्थिति से आया है, जो दूसरे व्यक्ति से आया है उसे निश्चित रूप से समय, स्थिति या दूसरा व्यक्ति ही वापिस भी ले जा सकते हैं।

एक उदहारण लेते हैं। कोई आता है और तुमसे कहता है कि तुम बहुत बुद्धिमान हो। कोई आया और उसने तुमसे कहा कि तुम बहुत बुद्धिमान हो। और ये वाक्य तुम्हारे मन में इन शब्दों में बैठा कि ‘मैं बुद्धिमान हूँ’। उसने कहा, ‘तुम बुद्धिमान हो’ और तुमने कहा, ‘मैं बुद्धिमान हूँ’। तुमने कैसे कहा, ‘मैं बुद्धिमान हूँ’? क्योंकि उसने बताया कि तुम बुद्धिमान हो। अब जब उसने तुमको बोला कि तुम बुद्धिमान हो और तुम मान गए तो तुम अब उस पर निर्भर हो गए। अब तुम्हारे मन में ये आशंका भी आएगी कि कहीं वो ये न कह दे कल को कि तुम मूर्ख हो। क्योंकि जब तुमने अपने आप को बुद्धिमान माना उसके कहने पर तो तुम्हें अपने आप को मूर्ख भी मानना पड़ेगा उसके कहने से। दरवाज़े खुल गए, अब कुछ भी अंदर आ सकता है। तुम्हारी अपने बारे में भी जो अवधारणा है, वो तुमने किसी और से पाई है। नतीजा- डर। दूसरों ने तुमको सरंक्षण दिया तो मन में डर रहेगा कि संरक्षण कहीं छिन ना जाए क्योंकि दूसरों का दिया हुआ है। तुम्हारा सब कुछ बाहर से आया हुआ है। तुम्हारी अपनी समझ से नहीं। और जो कुछ भी बाहर सेआया है उसको लेकर मन में आशंका बनी ही रहेगी। समय ने दिया है, समय छीन भी सकता है। तुम्हें सारा नाम दूसरों ने दिया है तो इसलिए तुम्हें आशंका रहती है कि कहीं मेरा नाम ना छिन जाए। दूसरों ने दिया है, दूसरे छीन भी सकते हैं।

जो तुम्हारा अपना हो उसको लेकर क्या डर हो सकता है? जो तुम हो ही वो तुम से छीन कौन सकता है? उसको लेकर तुम डरोगे नहीं कभी। कभी नहीं डरोगे। तुम डरते हो चार लोगों के सामने कुछ बोलने में। क्या कभी एकांत में बोलने में भी डरे हो? नहीं। तुम चार लोगों के सामने बोलने में डरते इसलिए हो क्योंकि तुम्हारी सारी प्रसिद्धि, तुम्हारा सारा नाम, उन पर निर्भर करता है, उन्होंने तुम्हें दिया है। तो तुम डरे हुए हो कि कहीं वो उसे वापिस ना खींच लें। आज जिन्होंने तुम्हें नाम दिया है कल कहीं वो ही तुम्हें बदनाम ना कर दें, इसलिए डर। देखो तुम कि तुमने अपने आप को भी दूसरों कि नज़रों में जाना है, अपनी नज़रों में नहीं। तुम्हारा अपना जो सेल्फ-कांसेप्ट (आत्म अवधारणा) है, ये जो पूरी छवि है तुम्हारी, वो तुम्हारी छवि है ही नहीं। वो तो तुम देखते हो कि दूसरे ने क्या सोचा है मेरे बारे में और उसी को आत्मसात कर लेते हो। तुम स्वयं को खुद नहीं जानते। समझ रहे हो बात को? दूसरों ने कह दिया कि तुम भले, और पाँच लोग बोल दें एक के बाद एक कि तुम बड़े अच्छे हो, तो तुमको लगता है कि अच्छा ही होऊँगा इसलिए कह रहे हैं। और किसी दिन अगर दस लोग आकर एक के बाद एक बोल दें कि बड़े बेहूदे हो तो तुम्हें शक पैदा हो जाता है कि कहीं मैं बेहूदा तो नहीं। नहीं तो इतने सारे लोग कैसे कहते?

जो कुछ भी दूसरे से मिलेगा उसके विषय में तुम सदा आशंकित रहोगे। जो कुछ भी तुम्हें किसी और से मिलेगा उसे लेकर हमेशा एक चिंता बनी रहेगी। समझ रहे हो? बस यही कारण है डर का। तो डर कैसे जाएगा? जब जान लोगे कि जो छिन सकता है वो तो वैसे भी तुम्हारा था ही नहीं। और जो तुम्हारा है वो छिन नहीं सकता। जब भी डर उठे तो उस डर को ध्यान से देखो कि इस डर के मूल में कोई-न-कोई दूसरा बैठा हुआ है। जैसे ही इस डर को ध्यान से देख लोगे, इस डर को समझ लोगे तो पाओगे कि समझते ही ये डर गायब हो गया। डर से लड़ना नहीं है, डर को दबाना नहीं है। डर को समझ लेना है। समझते ही तुम पाओगे कि फ़िज़ूल था और फिर चला जाएगा। फिर कोई दिक्कत नहीं है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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