प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, मेरा नाम रोहिंद है और मैं एक एक्टर (अभिनेता) हूँ। मेरा गोवा शिविर से कुछ समय पहले ब्रेकअप हुआ था।
ब्रेकअप होने के बाद में भी मैं चाहता था रिश्ते में रहना। तो उन्होंने इस तरीक़े से मुझे बिलकुल नीचा दिखाते हुए रिश्ते को समाप्त किया। मैं इमोशनली हर्ट हुआ इस तरीक़े से मेसेज भेजा। और फिर पूरा जो भी कनेक्शन था वो तोड़ दिया। बहुत छोटा रिश्ता था, बहुत लम्बा नहीं था। जितना लम्बा रिश्ता था, उससे ज़्यादा समय ब्रेकअप को हो चुका है। लेकिन अभी भी इसका बहुत असर रहता है, काफ़ी समय तो मतलब परेशान होकर रोने में गुज़र जाता है।
अब इसमें दिक्क़त ये होती है कि आपके वीडियो सुने, बहुत समय से सुन रहा हूँ। तो जो रिश्ते की सुन्दरता थी वो काफ़ी हद तक काल्पनिक थी, ये दिखता है। रिश्ते में भी एक घुटन सी थी ये भी दिखता है। लेकिन जो बहुत ही टैंजिबल (गोचर) चीज़ें थीं रिलेशनशिप में जैसे कि जो एक्चुवली फिजिकल कंपनी में समय बिताया, जो बातें की, जो मेसेजेज थे, वॉइस नोट थे वो याद रहते हैं और उनके अगेंस्ट कोई जस्टिफिकेशन (तर्कयुक्त कारण) नहीं आते दिमाग में। तो मतलब ये, ये दिक्क़त है।
और एक और चीज़ होती है कि थौट्स की या फिर फीलिंग्स की, इमोशंस की, जो एक इम्पर्मानेंस (क्षणभंगुरता) है कि आज मैं अच्छा लग रहा हूँ, मेरे साथ रहना है और कल नहीं रहना है।
कैसे हुआ और क्या हुआ ये फिर भी समझ में आता है। क्यों हुआ, उसका एक-दो बार तक जवाब आता है। फिर उस पर भी जब पूछता हूँ, 'क्यों?' तो फिर उसका एक कोई निश्चित जवाब ही नहीं आता। तो ये सब चीज़ें ओवरऑल बहुत ज़्यादा अभी भी प्रभावित करती हैं।
आचार्य प्रशांत: इसका तुम कुछ कर नहीं सकते। इसकी अपनी एक अवधि होती है, आयु होती है और वो अपनी आयु पूरी करेगा। जिसको यादें बोल रहे हो और पुराने समय की तड़प है वो तो कम होते-होते कम होगी, उसमें सालों लग जाने हैं। तो मैं ये नहीं कहूँगा कि भुला दो या कोई ऐसा नुस्खा है, जिससे जल्दी से भूला जा सकता है, ये सब कुछ नहीं होता।
उस चीज़ को साथ रखे रहो और जो दुख है तुमको, उसी को अपनी ऊर्जा बनाओ। साफ़ दिख रहा है तुमको कि एक छोटी सी अवधि का रिश्ता था, कितने दिन चला?
प्र: डेढ़ महीना सर।
आचार्य: डेढ़ महीना चला। और टूटे कितने दिन हो गये?
प्र: ढाई से तीन महीने हो चुके हैं।
आचार्य: ढाई से तीन महीने हो चुके हैं। तो अब ये दिख रहा है न तुम्हें कि एक तरह से अपमान की बात है! डेढ़ महीने के लिए कोई तुम्हारी ज़िंदगी में आता है, उथल-पुथल मचा देता है और चला जाता है। और जा भी कैसे रहा है? तुम कह रहे हो तुम्हें आहत करके जा रहा है, तुमको नीचा दिखा के जा रहा है। और उसके गये हुए तीन महीने बीत चुके हैं और तुम अभी तक परेशान हो। ये अपमान की बात है न, चोट लगनी चाहिए।
तुम्हें इस बात की चोट लगी हुई है कि चला गया, तुम्हें चोट इस बात की लगनी चाहिए कि तुम कितने छोटे हो कि उसके जाने का आज तक मातम मना रहे हो। बोलिए, चोट किस बात की लगनी चाहिए? एक चोट इस बात की है कि हाय-हाय इतना प्यारा था और चला गया। डेढ़ महीने तक आया ऐसे ही बिलकुल, झलक दिखला कर भाग गया। एक तो चोट इस बात की है।
और एक चोट इस बात की है कि एक इतनी छोटी सी चीज़, इतने कम अवधि का रिश्ता और वो भी मेरे लिए इतनी बड़ी चीज़ हो गयी कि मैं दुख पा रहा हूँ, और जो-जो तुमने कहा, 'रो रहा हूँ, तड़प रहा हूँ, इत्यादि।' इससे चोट लगनी चाहिए, ये अपमान की बात है। तुमने अपनेआप को बहुत-बहुत दुर्बल बना लिया।
तो ये मत पूछो कि कैसे इससे मुक्त हो जाऊँ। मैं तो कह रहा हूँ कि इसको और अनुभव करो, क्योंकि वैसे भी इस बात को चलना है, लम्बा चलना है। अभी कम-से-कम सालभर तो तुम खींचोगे ही।
(श्रोतागण हँसते हैं)
आचार्य: हँस रहे हो ऐसे जैसे! तो जब चलना ही है तो इसको ऐसे मत याद रखो कि कोई प्यारी चीज़ छिन गयी उसका शोक है। इसको ऐसे याद रखो कि मैं कितना छोटा हूँ और कितना कमज़ोर बन बैठा हूँ, मुझे उसका अफ़सोस है। अफ़सोस उसके जाने का नहीं होना चाहिए, अफ़सोस अपनी कमज़ोरी का होना चाहिए।
मैं इतना कमज़ोर कैसे हो गया कि जाने वाला चला गया और मैं बैठा अभी भी छाती पीट रहा हूँ? मेरी ज़िंदगी में और कुछ नहीं, मेरा जीवन बिलकुल ख़ाली, शून्य, रिक्त है? मैं कैसा हूँ? मेरा समय इसीलिए है कि अब मैं पीछे से जाकर के देख रहा हूँ कोई नया बन गया है, उसकी स्टॉकिंग कर रहा हूँ। ब्लॉक कर रखा है, झूठा दूसरा अकाउंट बनाकर के घूम रहा हूँ, पुराने दोस्तों से पूछ रहा हूँ, पुराने जो मेसेजेज हैं उनको बार-बार देख रहा हूँ। वाइस नोट्स तुमने बोला, वाइस नोट बार-बार सुन रहा हूँ, रात में रो रहा हूँ, तकिया गीला कर रहा हूँ। ये क्या है ये?
अपनेआप को क्या बना लिया, क्या बना लिया ये, आत्मसम्मान कुछ होता है कि नहीं होता है? और अहंकार के साथ यही समस्या है, उसमें आत्मसम्मान नहीं होता। हम सोचते हैं कि प्राइड (अभिमान) माने इगो (अहम्) होता है, बिलकुल उल्टी बात है। अहंकार में आत्मसम्मान होता ही नहीं है क्योंकि अहंकार में होता है मोह।
अहंकार के पास क्या होता है? मोह। और मोह जहाँ है वहाँ आत्मसम्मान बचेगा ही नहीं। अहंकार के पास होती है दुर्बलता, ताक़त का वो तो बस दिखावा करता है। होती क्या उसके पास? दुर्बलता। और जहाँ दुर्बलता है वहाँ आत्मसम्मान बचेगा ही नहीं।
लेकिन हमारी नासमझी है कि हमने अहंकार का सम्बन्ध घमंड से जोड़ दिया है, इगो का सम्बन्ध प्राइड से जोड़ दिया है। अहंकार में कोई गरिमा नहीं होती, कोई डिग्निटी नहीं होती। जो अहंकारी है, माने जो जीवन ग़लत केंद्र से जी रहा है, उसके जीवन में कोई गरिमा, कोई गौरव वास्तव में होगा ही नहीं। वो ऐसे ही रहेगा कि छोटी सी चोट लगेगी, साल भर कराहेगा।
कच्चे घड़े होते हैं न जैसे, ज़रा सी चोट लगी कितने टुकड़े हो जाते हैं! तो ज्ञानियों ने कहा, "दुर्बल कुंभ कुम्हार के" बोलिए, बोलिए? "एक ही धक्का दरार।"
सोना सज्जन साधुजन, टूट जुड़े सौ बार। दुर्बल कुंभ कुम्हार के, एक ही धक्का दरार।।
~ कबीर साहब
एक धक्का पड़ता है और ये जो कच्चे घड़े होते हैं, खट से टूट जाते हैं। और तीन को कहते हैं कि ये नहीं टूटते चाहे तुम इन्हें तोड़ो सौ बार। और उनका क्या है? एक धक्का दरार!
वो तीन कौन हैं, जिनको कितनी भी बार तोड़ो, टूटते नहीं हैं?
श्रोता: सोना, सज्जन, साधुजन।
आचार्य: बहुत बढ़िया; सोना, सज्जन, साधुजन। इनको मारते रहो, मारते रहो ये टूटते नहीं हैं। सज्जनता की निशानी ही यही है कि उस पर कितनी भी चोट कर लो (टूटती नहीं है) या टूटती भी है तो (जुड़ जाती है)। टूटा घड़ा जोड़ सकते हो वापस? पर सज्जनता, साधुता खंडित नहीं होती।
आ रही है बात समझ में?
अपनेआप से फिर पूछो, जितनी बार चोट लगे उतनी बार अपनेआप से पूछो, 'छोटा ही रह गया न मैं?' और चोट लगती रहेगी, भुला नहीं सकते तुम आसानी से। जितनी बार चोट लगे, फिर से पूछो, 'फिर आ गया कोई मुझे मेरी हीनता, क्षुद्रता, अपमान की याद दिलाने?' बदला वग़ैरा मत लेने लग जाना, उसके लिए नहीं बोल रहा हूँ।
(श्रोतागण हँसते हैं)
ये तुम्हारे अपने विकास, अपनी बेहतरी के लिए बोल रहा हूँ, ये नहीं कि वहाँ जाकर के कुछ और कर आये।
इतना आश्रित हो जाए कोई, तो उसको थोड़ी लाज आनी चाहिए न अपने ऊपर। और प्रेम करना ही है तो, वहाँ गुरुओं ने गाया है, महल्ला नौवा है, "तन मन जे तोको दियो तासे प्रेम न कीन।" जो तुम्हारा वास्तविक हितैषी है, जिसने तुमको तन भी दिया है, मन भी दिया है, 'तासे नेह न कीन।' उससे तो प्रेम तुमसे आज तक करा ही नहीं गया। और "दुनिया में तू डोल रहा है, नर बावरे, बनकर इतना दीन।" दीनता समझते हो? क्या? बेचारगी! मैं दीन हूँ, मैं दरिद्र हूँ, मैं छोटा हूँ।
जो प्रेम करने लायक़ था, 'जब उससे प्रेम न कीन, तो जग डोलत नर बावरे, बनकर इतना दीन।' तो दीनता का कारण ही यही होता है कि जो प्यार करने लायक़ था उससे तो कभी प्यार कर नहीं पाये और इधर-उधर चले गये, वहाँ प्रेम का कटोरा लेकर 'भीख, भीख, भीख।' वहाँ भीख मिल जाए तो अपमान है और भीख न मिले तो अपमान है। नर बावरे!
(श्रोतागण हँसते हैं)
ये नारियाँ क्यों प्रसन्न हो रही हैं! नर माने सब हैं, नारी भी; नारी बावरी!
(मैं तो बोल रहा हूँ तो!)
यादों को मिठास की तरह नहीं, सबक की तरह लेना शुरू करो। याद तो रहेगी, जब याद आये तो ये नहीं कहना है कि कोई मीठी बात याद आ गयी, याद ऐसे करो कि दुर्घटना याद आ गयी, दोबारा नहीं होने देनी है। कुछ ऐसा याद आ गया जो प्रदर्शित करता है कि मैं कितना हीन, दीन, दुर्बल हूँ, और उस दुर्बलता को मुझे मिटाना है। ये मेरे साथ दोबारा नहीं होना चाहिए। न लड़की के साथ, न लड़के के साथ, न दुनिया के साथ, न पैसे के साथ, न नौकरी के साथ, दोबारा नहीं होना चाहिए ये।
तो इस याद का ही तुम सही इस्तेमाल करना सीख लो, ये तुम्हारे काम आ जाएगी। दुनिया में जो कुछ भी हो रहा हो, अगर तुम उसका सही इस्तेमाल करना सीखो, तो काम ही आता है।
और प्रेम बहुत ऊँची चीज़ है। कहीं भी जाकर मत बैठ जाना दोबारा कि प्रेम हो गया है। जो प्रेम के लायक़ हो उससे ही करना। जाने वाले इस सीमा तक गये हैं कि उन्होंने कह दिया कि दुनिया में कोई है ही नहीं प्रेम के लायक़। तो उन्होंने कहा एक ही है प्रेम के लायक़, वो ऊपर बैठा है। उसी से है और किसी से है नहीं।
"मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई।"
बड़ी माननीय देवी रही होंगी, भीतर मान का बड़ा भाव रहा होगा। उन्होंने कहा, 'ये दुनिया, ये इसके टुच्चे नर, हटो सब! कोई होओगे तुम, बड़े धनी होओगे, बड़े ज्ञानी होओगे, राणा साहब होओगे; हटो सब हटो! गिरधर गोपाल से नीचे का कोई चलेगा ही नहीं।'
तो प्रेम ऐसे ही नहीं है कि कहीं भी जाकर के 'हें, हें, हें.. दे दे, प्यार दे, प्यार दे।'
'नया तो नहीं शुरू कर रहे?' (प्रश्नकर्ता से पूछते हुए)
ये होता है एक ख़त्म होता है तो आदमी जल्दी से दूसरे में कूदता है, और जो दूसरा वो पहले से भी ज़बरदस्त निकलता है।
अच्छा है न, जल्दी सबक मिल गया है। बात एक लड़की की नहीं है, दुनिया ही ऐसी है बेटा, 'दिल लगाओगे, चोट खाओगे।' तो सबक याद रखो बस, 'दिल लगाऊँगा, चोट खाऊँगा।' और जो हो रहा था वो बहुत अच्छा नहीं था। ऐसे मत याद करो कि कुछ बहुत अच्छा था जो छिन गया; ऐसे याद करो कि उस डेढ़ महीने में रोज़ लुट रहे थे।
चोट तुमको उस दिन नहीं लगी है, जिस दिन ब्रेकअप हुआ है; चोट तुमको उस डेढ़ महीने के प्रतिदिन लग रही थी। तो वो वॉइस नोट्स या वो तस्वीरें ऐसे मत देखा करो कि 'अहाहा कितना सुंदर हैं।' वहाँ सुंदरता नहीं है, वहाँ लूट मची हुई है। वहाँ तुमको लूटा जा रहा है, तुम बर्बाद हो रहे थे उस डेढ़ महीने में।
डेढ़ महीने के आख़िरी दिन, पैतालीसवें दिन, तुम्हें पता चला है कि तुम लुट गये; लुटे तुम उन पैतालीस दिनों में प्रतिदिन हो। भूल क्या करे, अभी भी वो पुरानी फोटो देख रहे, 'क्या फोटो है बहुत बढ़िया, अहाहा! कितनी सुन्दर लग रही है और मैं कैसा, मेरी आँखों में प्रेम देखो।' हगिंग, फोन्डलिंग, किसिंग, सब तो कर-करके, अब तो सेल्फी ले-लेकर रखी हुई है, दबा के रखे हो उसको। और उसी को देख-देखकर अब और तड़पते हो।
वो अच्छा नहीं है, वही है जिसने तुमको बर्बाद करा। बर्बादी फिर कह रहा हूँ, बर्बादी भी पैतालीसवें दिन नहीं हुई थी, बर्बादी एक से लेकर पैतालीस दिन तक प्रतिदिन हुई थी। उसको ऐसे ही देखना है, 'ये देखो ऐसे हुए थे हम बर्बाद, ये देखो। (हाथों की सहायता से फ़ोटो दिखाने का अभिनय करते हुए) इतने मूर्ख थे, समझ में ही नहीं आ रहा था। मूर्खता का प्रदर्शन, ये देखो।' ऐसे नहीं देखना है 'आहाहा! हसीन यादें।' वो हसीन यादें नहीं हैं। कोई तुम्हारी कनपटी पर बंदूक रखे हो, तुम सेल्फी लोगे? वो हसीन याद है? कोई तुमको मूर्ख बनाकर तुम्हें नंगा कर रहा हो, तुम्हारे कपड़े भी लूटे ले जा रहा हो, तुम कहोगे ये मेरी मधुर स्मृतियाँ हैं?
उनको वैसे ही देखा करो। ये देखो, यहाँ लुटे, यहाँ लुटे, यहाँ लुटे, यहाँ लुटे, ऐसे लुटे, यह हुआ, यह हुआ फिर ये हुआ। और पता कब चला? पैतालीसवें दिन। फिर शायद लुटने से बचो। उसका लाभ हो जाएगा, लुटने का भी लाभ हो जाएगा; आगे लुटने से बच जाओगे।
देखो होना यही था, अगर वो रिश्ता चलता भी रहता तो पाँच साल बाद उन सब फोटोज को देखते और इस बार ज़रा जासूस की नज़र से देखते। 'तो विनोद!'
(श्रोतागण हँसते हैं)
'देख रहे हो न, ऐसे हुई थी शुरुआत।' ये सब जितने चालीस-पचास साल के हो गये हैं, अपनी शादियों का एलबम कैसे देखते हैं?
(श्रोतागण तालियाँ बजाते हैं)
मैं तो इसीलिए बोलता हूँ कि उसकी रिकॉर्डिंग ज़रूर करा लेना। तुम्हारी तो किस्मत है डेढ़ ही महीने में निपट लिए, बढ़िया है कि नहीं? मौज करो और बाँधकर रखोे कि दोबारा नहीं होने देना है, एक बार काफ़ी होना चाहिए बस।
प्र: धन्यवाद।
प्र: प्रणाम आचार्य जी, मेरा इससे सम्बन्धित सवाल है कि मैंने इनसे काफ़ी रिलेट किया। मैंने भी कुछ चीज़ें अप्लाई की लेकिन मेरे अन्दर वो एक रेजिस्टेंस (प्रतिरोध) आ गया और मैं दूर होने लगा। तो वो भी एक तरह से सही नहीं है।
तो मुझे लगा कि ये भी ठीक नहीं है, ये तो एस्केपिज़म (भगोड़ापन) हो गया, एक तरह से मैं भाग रहा हूँ। क्योंकि मेरे को लगता है मैं फिसल जाऊँगा इसलिए मैं पास नहीं जा रहा हूँ, और नहीं तो दम नहीं है मेरे में। तो वो एक तरह से सही नहीं लगा मेरे को तो इस पर स्पष्टता चाहिए।
आचार्य: सही चीज़ के पास जाने में भी दम लगता है और व्यर्थ चीज़ से दूर रहने में भी दम लगता है। किस दम की बात कर रहे हो? कैसे पता तुम्हें कि चीज़ सही है या ग़लत? पहला सवाल तो यही होना चाहिए न, दम की बात तो बाद में होगी। चीज़ अगर सही है तो फिर दम लगाकर उसके निकट जाओ। और सही चीज़ के पास जाने में भीतर से बहुत विरोध उठता है, तो इसलिए बहुत आत्मबल लगेगा। दम पूरा लगाना पड़ेगा तब सही चीज़ के पास जा पाओगे।
और व्यर्थ चीज़ खींचती है। वो खींचती है, उसकी ओर नहीं जाना तो भी दम लगता है। तुम अभी कौनसा दम लगा रहे हो?
प्र: नहीं जाने वाला।
आचार्य: वो चीज़ तुम्हें पक्का है कि व्यर्थ है?
प्र: मतलब जो एक्सपीरिएंस (अनुभव) हुआ, अब उस एक्सपीरिएंस की तरफ़ दोबारा नहीं जाने का।
आचार्य: पहले ये तो पता करो न कि वो एक्सपीरियंस चीज़ क्या है। ये पता कर लोगे, फिर दम का सवाल प्रासंगिक होगा। ठीक है? जितना ज़रूरी है वो समझना, जो इनको बोला कि जीवन में कोई व्यर्थ काम हो गया, दोबारा होना नहीं चाहिए। उतना ही ज़रूरी है जीवन में सार्थक काम को होने देना।
और सार्थक काम करने के लिए ही कह रहा हूँ कि उसमें भी बहुत दम लगता है। इनको दम लगेगा कि कोई बेकार काम दोबारा न हो, पुनरावृत्ति न हो; ये इनका दम। और एक दम फिर इसमें भी लगेगा कि कोई मिल गया है सही, तो उसके पास जाएँ और बने रहें। मैं लड़की की ही नहीं बात कर रहा, जीवन में कुछ भी जो सही हो उसके पास जाने और बने रहने में भी बहुत दम लगता है, ठीक है?
पहले पहचान कर लो साफ़-साफ़, साफ़ पहचान कर लो। पहचान से दम जागृत होता है, बोध से बल जागृत होता है। ठीक है?
प्र: तो सही चीज़ की तरफ़ जाने…।
आचार्य: पहले पहचानो, सही है या नहीं। 'दम-दम' पहले मत करने लग जाओ, पहले पहचानो सही है क्या। सही है क्या? और सही है तो फिर दिखाओ दम। और ग़लत है तो फिर तो पता ही नहीं।
प्र: धन्यवाद आचार्य जी।