बोधग्रंथों को पढ़े बिना ध्यान करने की कोशिश || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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बोधग्रंथों को पढ़े बिना ध्यान करने की कोशिश || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, शिविर के बाद बहुत परिवर्तन हुआ है। मन स्थायी रूप से शांत रहता है। मुझे ध्यान करना और आपके वीडियो सुनना अच्छा लगता है। परंतु मेरी धार्मिक ग्रंथों में अभी रुचि नहीं है। क्या यह सही है? कृपया मार्गदर्शन करने की कृपा करें।

आचार्य प्रशांत: भावना जी, धार्मिक ग्रंथों का काम व्यक्ति में कुछ जोड़ना नहीं होता, उसे कुछ अलग करने के लिए प्रेरित करना इत्यादि नहीं होता। धार्मिक ग्रंथ जिसे आप कह रही हैं, अगर वह खरा है तो नकार के रास्ते पर चलेगा, निषेध की बात करेगा। वह आपको सिखाएगा भी तो कुछ ऐसा जो आपसे कुछ घटा देता हो, कुछ जोड़ेगा नहीं आप में।

ग़ौर करिएगा कि अधिकांशतः जो शब्द धर्म के साथ जुड़ते हैं, वह नकार के शब्द हैं — अहिंसा, अपरिग्रह, अचौर्य, असत्य। आपसे कहा जाता है — जीवन से कुछ हटाओ। आपसे कहा जाता है — जीवन से कुछ हटाओ — यह काम होता है धर्म ग्रंथों का।

धर्म ग्रंथ जीवन से क्या हटाने को कहते हैं? वो, जो असली लग रहा है पर असली है नहीं। और लग कैसा रहा है? असली और आकर्षक और सुंदर। क्या कहने! तो धर्म ग्रंथ कुछ ऐसा हटाने को कहते हैं जीवन से जो असली लग रहा है, असली है नहीं।

अब आते हैं ध्यान पर। आपने कहा ध्यान करना पसंद है लेकिन धर्मग्रंथ पढ़ना पसंद नहीं है। जिसे आमतौर पर ध्यान कहा जाता है, वह क्या है? वह है किसी ध्येय में मन को एकाग्र करके स्थिर और संयमित कर देना। यही है न ध्यान?

ध्येय तो सभी चुनते हैं, भावना जी। दुनिया में कोई नहीं मिलेगा आपको जो पूर्णतया ध्येयरहित हो। और ध्येय अगर सभी के पास है तो ध्यानी भी सभी हो गए एक दृष्टि से। जब जीवन में सभी के ध्येय उपस्थित है तो ध्यानी भी तो सभी हो गए न उस नाते! पर सब तो ध्यानी होते नहीं। ध्यान तो अद्भुत, विलक्षण और विरल बात है। किसी-किसी को ही संभव हो पाता है वास्तविक ध्यान।

तो इसका मतलब बाकी सब ध्यानी अवास्तविक ध्यान कर रहे हैं। और अवास्तविक ध्यान क्या हुआ? अवास्तविक ध्येय में चित्त को लगा देना ही अवास्तविक ध्यान है। किसी ऐसे लक्ष्य पर केंद्रित हो जाना जो असली, तात्त्विक, मूल्यवान लग रहा है। लग रहा है पर है नहीं — यह हुआ नकली ध्यान।

नकली ध्यान क्या है, सब समझें। नकली ध्यान है किसी ऐसे लक्ष्य पर केंद्रित हो जाना, किसी ऐसे ध्येय पर एकाग्र हो जाना जो लग तो रहा है लोकातीत, आनंदप्रद, मुक्तिप्रद, न्यारा, पर है नहीं। यह हुआ नकली ध्यान।

ध्यान असली हो सके तो फिर इसके लिए शर्त क्या हुई? शर्त यह हुई कि आपको ध्येय में असली-नकली का भेद करना आता हो। जो असली लक्ष्य को नकली लक्ष्य से अलग देख सकता है वह ही असली ध्यान भी कर सकता है।

लेकिन अब समस्या यह है कि नकली लक्ष्य भी प्रतीत तो असली जैसा ही होता है। कौन कहता है कि मैंने अपनी ज़िंदगी में जो इरादे बनाए हैं, जो कामनाएँ रखी हैं, जो लक्ष्य बाँधे हैं, जो ध्येय बाँधा है वह नकली है? सबको यही लगता है कि नहीं, असली है। असली से क्या तात्पर्य है? कि उसको पा लेंगे तो तर जाएँगे; उसमें कुछ बड़ी कीमत है; जीवन में ऐश्वर्य आ जाएगा अगर उस लक्ष्य की प्राप्ति हो गई — ऐसा ही लगता है न जब भी किसी लक्ष्य के पीछे जाते हो?

तो ध्यानी तो सभी हैं लेकिन सार-असार का भेद सबके पास नहीं है, सत्य-असत्य का भेद सबके पास नहीं है। सब नहीं जानते कि कौन-सा लक्ष्य ध्यान धरने योग्य है और कौन-सा लक्ष्य ध्यान धरने योग्य बिलकुल नहीं है।

जो यह नहीं जानता कि कौन-सा लक्ष्य ध्यान करने योग्य है और कौन-सा नहीं, उसको फल क्या मिलेगा? उसको फल यह मिलेगा कि वह जीवन-भर ध्यान तो ख़ूब करेगा और जो असली चीज़ है उसे पाएगा नहीं, पाएगा भी अधिक से अधिक तो क्या? वह जो उसने नकली ध्येय बना रखा है, वह पा जाएगा।

असली से तो वंचित हो ही गया है क्योंकि असली पर तो उसने निशाना ही नहीं साधा। उसे अधिक से अधिक मिलेगा भी तो क्या? जो उसने नकली ध्येय रखा। और नकली ध्येय का मिलना और बुरा होता है न मिलने से। तुम नकली चीज़ चाहो और वह तुम्हें मिल भी जाए, यह तो तुम्हारे साथ दूनी दुर्घटना हो गई।

अब बताइए आप कि अगर नहीं पता है कि कौन-सी चीज़ नकली है, तो आप ध्यान कैसे कर लोगे? और नकली का पता कैसे लगेगा जब तक आप नकार के मार्ग पर नहीं बढ़ोगे? नकार के मार्ग पर कैसे बढ़ना है यह बताते हैं धर्म ग्रंथ। वही बताते हैं कि नकली की पहचान क्या है। वही बताते हैं कि पता कैसे लगेगा क्या सार क्या असार; क्या नित्य क्या अनित्य; क्या सत्य क्या असत्य।

मात्र ध्येय बना लेना और उस पर केंद्रित हो जाना काफ़ी नहीं है। ध्येय को लेकर अतिशय सतर्कता भी चाहिए। ग़लत ध्येय बनाने की सज़ा होती है ग़लत ध्येय की प्राप्ति।

जीव के लिए बहुत आसान है, वह अपनी मदहोशी में अपनेआप को ध्यानी होने की शाबाशी देता हुआ ज़िंदगीभर ध्यान करता रहे, और वह ध्यान किसपर कर रहा था? — किसी छवि पर, किसी ध्वनि पर, किसी दृश्य पर, किसी घटना पर, किसी मूर्ति पर, किसी शब्द पर। और वह क्यों ध्यान करे जा रहा था इन सब विषयों पर? क्योंकि उसको पता ही नहीं था कि नित्य क्या, अनित्य क्या, और अनित्य वस्तु ध्यान योग्य नहीं होती। यह बात तो धर्म ग्रंथ ही बताएँगे न।

आपको पता कैसे चलेगा कि आपने ध्यान का जो लक्ष्य बनाया है वह सही है? बताइए न! आपको पता कैसे चलेगा कि जीवन में जो कुछ भी आपको प्रिय लगता है वह आपके हित का है या नहीं है?

ध्यान माने तो यही है जैसे निशाना साधना। पर निशाना साधना काफी नहीं है, यह भी तो पता हो कि किस पर निशाना साध रहे हो। और मैं फिर दोहरा रहा हूँ, सबने अपनी-अपनी व्यक्तिगत समझ से जो निशाने चुने होते हैं उन्हें अपनी दृष्टि में तो उत्तम और उत्कृष्ट ही लगते हैं। सबको यही लगता है कि मैंने जो इरादे बनाए हैं, मैंने जिसपर नज़र करी है, वही सर्वोत्कृष्ट है। पर फिर जीवन कुछ दिनों बाद झटका देता है।‌ पता चलता है कि जिसको इतने दिनों से अपने प्रयत्नों का लक्ष्य बना रहे थे वह इस लायक ही नहीं था।

ध्यान में अगर शुद्धता लानी हो तो धर्म ग्रंथों की ओर जाएँ। कई दफ़े तो व्यक्ति जानबूझकर धर्मग्रंथों से कन्नी काटता है क्योंकि वह सच बोलते हैं। उनके सामने हमारे झूठ पकड़े जाते हैं। और धर्मग्रंथों का कोई स्वार्थ नहीं है, तो वह आपसे बेलाग सच बोलते हैं। उन्हें किसी किस्म का कोई डर नहीं है, तो वह अपनी बात बेख़ौफ़, बेखटके रखते हैं आपके सामने।

इतनी स्पष्टता, इतनी सत्यता के हम अभ्यस्त नहीं होते। हमें ज़्यादा बेहतर लगते हैं व्यक्ति। क्योंकि व्यक्ति तो जीवित है, माने जीव है। जब तक जीव है वो, तब तक उसके कुछ स्वार्थ होंगे, जगत से कुछ सरोकार होंगे। तो जीव के साथ यह संभावना रहती है कि वह आपसे थोड़ी मीठी बात कर लेगा, थोड़ी चिकनी-चुपड़ी बात कर लेगा। भई, अभी वह जीव है! उसे भी कुछ चाहिए। तो वह आपसे बहुत कड़ा और बहुत कड़वा नहीं हो पाएगा। वह थोड़ा मिश्री घोलकर बोलेगा क्योंकि उसे भी आपसे कुछ स्वार्थ सिद्ध करने हैं।

तो हमें लोगों की बात सुनना फिर भी गंवारा हो जाता है। बात भी तो हम उन्हीं लोगों की सुनते हैं न, जो हमसे थोड़े संबंधित होते हैं। और जो आपसे संबंधित होगा वह आपको क्यों बहुत कड़वा बोलकर ठेस पहुँचाएगा! वह आधी सच्चाई छुपा जाएगा, अगर उसे पूरी पता हो तो। जीव के साथ सबसे बड़ी समस्या यह कि उसे पूरी बात पता ही नहीं होगी। जितनी आधी-तिही पता होगी उसमें से भी वह आधी और छुपा जाएगा और फिर जो आपको बताएगा, उसे मक्खन-मिश्री के साथ। तो हमें लगता है यह ठीक है।

धर्मग्रंथों से हम अक्सर बचना चाहते हैं क्योंकि वहाँ मामला बिंदास है। उन्हें जो कहना है वह कह देंगे। उनका अब कोई स्वार्थ बचा नहीं है। न वह आपसे कुछ चाहते हैं, न उन्हें आपसे डर लगता है। आपको भला लगा तो अच्छा और आपको चोट लगी तो भी कोई बात नहीं। जिन्हें कहना था वह कह गए।

इसीलिए आजकल कुछ प्रचलन-सा भी हो गया है। मेरे पास लोग आएँगे, कहेंगे कि ‘मैं आपको सुनता हूँ।’ मैं कहूँगा, ‘मैंने न जाने कितने धर्मग्रंथों पर, ऋषियों पर, संतों पर, दार्शनिकों पर, विचारकों पर सैकड़ों बार बोला है। आप मेरे वीडियो इत्यादि देखते हैं तो मेरे वीडियो इत्यादि तो धर्मग्रंथों पर भी हैं।’ बोले, ‘हाँ, हाँ, बिलकुल। मैंने आपका देखा था वह वीडियो। आप किन्हीं अष्टा, अष्टा… अष्टावकर पर बोल रहे थे!’

मैं कहूँगा, ‘अच्छा, मैं अष्टावकर पर बोल रहा था। तो आपने सुना वह वीडियो?’ कहेंगे, ‘हाँ, बिलकुल सुना। बड़ा अच्छा लगा।’ मैंने कहा, ‘फिर क्या किया?’ बोले, ‘मैंने और उसके नीचे के पढ़े तो उनमें सबमें लिखा था – अष्टावकर, अष्टावकर, अष्टावकर; चार-पाँच थे लाइन से।’

मैंने कहा, ‘क्या करा आपने?’ बोले, ‘मैंने सब देखा।’ मैंने कहा, ‘सब देखा, उसके बाद उठाकर अष्टावक्र गीता पढ़ी?’ बोले, ‘नहीं, उसकी ज़रूरत क्या है! उसकी ज़रूरत क्या है!’

ताज्जुब! मैं अष्टावक्र पर बोल रहा हूँ, आप कह रहे हैं कि मेरी बात आपको भली लगती है। आप अष्टावक्र को नहीं पढ़ना चाहेंगे? और मुनि अष्टावक्र पर मैं क्या कह रहा हूँ, यह भी आपको बेहतर तभी समझ में आएगा जब पहले आप उन्हें पढ़ने का थोड़ा कष्ट करें।

धर्मग्रंथों के पाठ के बिना जो लोग आगे बढ़ना चाहते हैं आध्यात्मिक साधना में, मुझे उनको लेकर के बड़ा ताज्जुब है! बड़ा संदेह है! यह व्यर्थ ही थोड़े था कि सब नहीं तो अधिकांश प्रमुख धर्मों की एक क़िताब या कुछ क़िताबें हुईं। और धर्म के केंद्र पर ही वह क़िताब या क़िताबें थीं। आप धर्म की कल्पना ही नहीं कर सकते उस क़िताब के बिना।

अधिकांश धर्मों के साथ ऐसा ही है। चाहे वह पूरब के धर्म हों या इब्राह्म की परंपरा के, क़िताब तो है। पूरब आएँगे तो वेद हैं, धम्मपद हैं, गुरु ग्रंथ साहिब है। और थोड़ा पश्चिम की ओर देखेंगे तो बाइबल है, क़ुरान है। और यह सब ग्रंथ अपने-अपने धर्मों के स्रोत की तरह हैं।

कोई सिक्ख मिले आपको और कहे कि ‘अरे, मुझे गुरु ग्रंथ साहिब से क्या लेना-देना!’ तो कैसा लगेगा आपको? कोई मुसलमान मिले, बोले – ‘क़ुरान! क़ुरान क्या है?’ तो कैसा लगेगा?

कुछ बात होगी न कि धर्मग्रंथों को इतना महत्त्व और इतना आदर दिया गया। पर यह चीज़ आजकल बड़े प्रचलन में आ गई है कि हम तो ध्यान करते हैं, हमारा धर्म से कोई लेना-देना नहीं है। धर्म तो संकीर्ण और सांप्रदायिक चीज़ होती है और ध्यान और मेडिटेशन — यह धर्मनिरपेक्ष होते हैं। यह सेकुलर (धर्मनिरपेक्ष) हैं।

तो अगर आप धर्मग्रंथ पढ़ रहे हो तो धार्मिक इत्यादि हो गए। हो सकता है कोई थोड़ा शंका की दृष्टि से देखने लगे कि कहीं कट्टरवादी तो नहीं हैं! पर आप बात करो मेडिटेशन (ध्यान) की, तो आप बढ़िया आदमी हो। आप बढ़िया आदमी हो। अब आप उदारवादी कहलाओगे, वृहदमना कहलाओगे, धर्मनिरपेक्ष कहलाओगे।

और मुझे यह समझ में नहीं आता कि धर्म के बिना ध्यान कौन-सा? और यह बिना धर्म के लोग ध्यान कर रहे हैं तो ध्येय किसको बना रहे हैं? (आचार्य जी हँसते हैं) जो ध्येय बनाने लायक है, उससे तो आपका परिचय धर्म ने ही‌ करवाया। तो बिना धर्म के यह जो तुम मेडिटेशन करते हो, आजकल की रंग-बिरंगी दुकानों पर जा-जा के, यह मेडिटेशन चीज़ क्या है?

मैं बताता हूँ यह चीज़ क्या है। यह फर्ज़ी चीज़ है, यह फ़रेब है; यह आत्मप्रवंचना है, ख़ुद को धोखा है। यह जीवन के आमूलचूल बदलाव का तरीक़ा नहीं है। यह कुछ समय का आध्यात्मिक मनोरंजन है। यह आपको आपकी गंदी दिनचर्या के तनाव से अल्पकालीन राहत देने का सस्ता उपाय है। कि आओ, बैठ जाओ, कुछ आसन बना लो, कुछ आँख बंद कर लो, थोड़ी देर ऐसे करो, थोड़ी देर वैसे करो; कुछ क्रिया, कुछ प्रक्रिया बता दी गई और वह करके आपको तात्कालिक राहत मिल गई। और उसको आपने नाम क्या दे दिया? —ध्यान, मेडिटेशन।

अरे! वह ध्यान नहीं है, वह यूँ ही है सस्ती चीज़, फर्ज़ी। ध्यान का अर्थ होता है पूरा जीवन उच्चतम ध्येय को समर्पित कर देना। और उच्चतम से मिलोगे कैसे तुम अगर वेदों के ऋषियों से नहीं मिले? अगर बाइबल के जीसस से नहीं मिले? अगर क़ुरान के पैगंबर से नहीं मिले? कौन तुम्हारा परिचय कराएगा? पर यह खूब चल रहा है, खूब चल रहा है।

“उपनिषद पढ़े?”

“नहीं।”

“अष्टावक्र?”

“क्या — अष्टावकर?”

वो तो ‘वकर’ हो चुके हैं!

“संतों-साधुओं का कुछ पता है? चीन, जापान? — लाओत्ज़ु, लीत्ज़ू, चुआंगज़ू, ह्वांगपो?”

“हँ?”

“तो फिर क्या करते हो?”

"मेडिटेशन"

“वो क्या होता है?”

“वो आँख बंद करके कभी सांस गिननी होती है, कभी संगीत सुनना होता है – झुनझुन झुनझुन, झुनझुन झुनझुन।”

“ये क्या चल रहा है?”

“मेडिटेशन।” (व्यंग्यात्मक रूप में)

एक ने मुझे जो वृतांत बताया था उससे मैं उबर ही नहीं रहा हूँ। वहाँ पर मेडिटेशन — नहीं, वह मेडिटेशन नहीं होता। देखिए, मेडिटेशन में तो फिर भी थोड़ा-सा भारतीय स्पर्श आ गया न, मेडिटेशन। यह सारी बातें पूरे तरीक़े से अभारतीय हैं। यह सारी बातें पूरे तरीक़े से पश्चिम से आयातित हैं, इसीलिए वह ध्यान तो हो ही नहीं सकता, मेडिटेशन भी नहीं हो सकता। वह 'मिडिटिशन' है।

तो एक मिले यही मिडिटिशन वाले, मैंने पूछा, “क्या करते हो?” बोले, “वो कमरे में बंद कर देते हैं, अंधेरा कर देते हैं और रिकॉर्ड्स चालू कर देते हैं। कहते हैं, ‘सुनो।’ और उसमें झींगुरों की आवाज़ें आती हैं। बोलते हैं, यह अनहद है। और यही परमध्यान है। सुनो।” तुमने उपनिषद् का ‘उ’ पढ़ लिया होता तो भी बच जाते फ़रेब की इस दुकान से।

ध्यान कोई छोटी-मोटी चीज़ नहीं होती। ध्यान हँसी-ठट्ठा, खिलवाड़ नहीं है। ध्यान लाइफ़स्टाइल (जीवन शैली) को थोड़ा-सा बेहतर करने का ज़रिया नहीं है।

फ़ोर टू फ़ाइव (चार से पॉंच) मैं स्विमिंग (तैराक़ी) जाती हूँ, फ़ाइव टू सिक्स (पॉंच से छह) मैं किटी जाती हूँ, सिक्स टू सेवेन (छह से सात) मैं मिडिटिशन करती हूँ और सेवेन टू एट (बात से आठ) फिर मैं इधर-उधर शॉपिंग (खरीदारी) करती हूँ!”

ये नहीं है ध्यान। वह इसलिए नहीं है कि आपकी घटिया ज़िंदगी में एक अतिरिक्त क्रिया की तरह जुड़ जाए। जो जीवन का समग्र कायाकल्प चाहते हों सिर्फ़ उनके लिए है ध्यान। जिन्हें संसार में खोखलापन दिखने लगा हो, जिन्हें संसार से पार की सच्चाई की तलब उठने लगी हो, सिर्फ़ उनके लिए है ध्यान।

बाकी लोग जो कर रहे हैं मिडिटिशन वगैरह, वह करते रहें। पर कम-से-कम उसको ध्यान का नाम मत दीजिए। ध्यान बहुत ऊँची चीज़ है, उसका नाम मत खराब करिए। जान दे देने से ज़्यादा मुश्किल है ध्यान, बस यह समझ लो। जान दे देने में तो सिर्फ़ जिस्म टूटता है। ध्यान में वह टूटता है जिसको तुम ‘मैं’ कहते हो। वह ज़्यादा मुश्किल है, ज़्यादा कष्टप्रद है; वह ज़्यादा बड़ी क़ुर्बानी माँगता है।

तो यह जिसको आप धर्मनिरपेक्ष ध्यान कहते हो, मैं लानत भेजता हूँ इस पर; यह हो नहीं सकता। इस तरह की अफ़वाहों से बाज आइएगा कि ‘धर्म की कोई ज़रूरत नहीं, ध्यान काफ़ी है।’ इस तरह की बातें कही गईं हैं। और यह बहुत विषैली, बहुत ख़तरनाक और निस्संदेह बहुत झूठी बातें हैं।

ध्यान से धर्म की शुरुआत ही हुई थी। पर वह वो लोग थे जिनका ध्यान इतना गहरा था, इतना गहरा था कि धर्म उनके ध्यान के फूल की तरह खिला। और उस धर्म का फिर उद्देश्य क्या था? औरों को ध्यान तक लेकर आना। ध्यान अगर बिना धर्म के संभव ही होता तो धर्मों की ज़रूरत क्यों पड़ती? धर्मों की ज़रूरत इसलिए थी ताकि आपको ध्यान तक ला सकें।

रहे होंगे बिरले, लाखों में एक, जो बिना धर्म के ध्यान तक आ गए। आद्य ऋषि, जो कोई पहला ऐसा था कि उसे धर्म का समर्थन नहीं मिला हुआ था, उसे धर्म की पृष्ठभूमि नहीं मिली हुई थी, तब भी उनके ध्यान की गहराई ने धर्म को जन्म दे दिया। वह कोई अनूठा, अनोखा रहा होगा। हम-आप ऐसे नहीं हैं। हमें तो धर्म दिया ही इसीलिए गया है ताकि धर्म सहायता से हम ध्यान तक पहुँच सकें।

जिनके पास धर्म नहीं है — मैं कह रहा हूँ — उनके लिए ध्यान तक पहुँचना असंभव है। कम-से-कम दस हज़ार में से नौ हज़ार नौ सौ निन्यानवे लोगों के लिए असंभव है। और आप न सोचिएगा कि वह जो एक है दस हज़ार में से वह आप हैं; आप नहीं हैं। संभावना बहुत क्षीण है।

बिना धर्म का ध्यान सदा ग़लत ध्येय पर होगा। तो अपनी दृष्टि में आप ध्यानी बने रहेंगे, पर जो हो रहा होगा वह बहुत मिथ्या, बहुत व्यर्थ होगा और हानिप्रद भी। झूठा है तुम्हें सिखाने वाला, यह इसी बात से पकड़ लेना कि वह तुम्हें ध्यान तो दे रहा हो और धर्मग्रंथ न दे रहा हो। जब भी कोई तुम्हें ऐसा मिले जो कहे, “आओ, तुम्हें ध्यान कराऊँगा लेकिन धर्मग्रंथ की कोई ज़रूरत नहीं है।” समझ लेना यह मक्क़ार, फ़रेबी।

ये मनोरंजन करना चाहता है तुम्हारा। और मनोरंजन का तो तुम दाम चुकाते ही हो। यह बस तुम्हारा मनोरंजन करके तुमसे कुछ दाम वसूल लेना चाहता है। और मनोरंजन को, सस्ते मनोरंजन को नाम इसने बहुत ऊँचा दे दिया है। यह बड़ा घात है। क्योंकि न सिर्फ़ मनोरंजन सस्ता है बल्कि तुम्हें धोखे में रखा जा रहा है कि तुम्हें कोई महँगी और उसी चीज़ मिल रही है। मिल जो तुम्हें चीज़ रही है वह बहुत सस्ती है, दो कौड़ी की है। उससे कुछ नहीं होने वाला। उससे तुम्हारा भ्रम बल्कि और गहरा जाएगा।

तो ध्यान में उतरिए। और मैंने कहा, भावना जी, ध्यान का बहुत गहरा संबंध धर्म से है। मिडिटिशन से बचिएगा।

प्रश्नकर्ता २: प्रणाम आचार्य जी, आपकी पुस्तक 'आध्यात्मिक भ्रांतियाँ' पढ़ने के बाद यह प्रश्न उठ रहा है कि आत्मबोध ही मेरा लक्ष्य है। जो अभी तक मैं समझ नहीं पाया हूँ। अभी तो इस नाशवान शरीर से तादात्म्य है और मन को थोड़ा-थोड़ा समझ पा रहा हूँ जो कि चंचल है, नियंत्रित और शांत नहीं हो पा रहा है। कितनी बार संकल्प और प्रतिज्ञा ली लेकिन शांत नहीं हो पा रहा है। इससे आगे नहीं समझ पा रहा हूँ कि आत्म को कैसे उपलब्ध हो जाऊँ। असली तत्व–सत्य को कैसे जान पाऊँ?

आचार्य जी, मार्गदर्शन देने की अनुकम्पा करें।

आचार्य: यह जितनी अभी बातें लिखी हैं — यह नहीं हो पा रहा है, वह नहीं हो पा रहा है — अभी तो इस बात को भी बहुत गंभीरता से मत लो कि यह सबकुछ होने लायक भी है। एक पुस्तक पढ़ी है तो इतने प्रश्न आए हैं, कई पुस्तकें पढ़ने की ज़रूरत है। संस्था में जिससे भी संपर्क में हो, मुरारी न? (आचार्य जी प्रश्नकर्ता के नाम की पुष्टि करते हुए)। संस्था में जिससे भी संपर्क में हो, मुरारी, उनसे कहो कि पढ़ने योग्य कम-से-कम दस-पंद्रह पुस्तकों के तुम्हें नाम सुझाएँ, उनका गहन अध्ययन करो। फिर आगे बात बनेगी।

आत्मबोध कह रहे हो, आत्मबोध हमारे लिए सिर्फ़ एक छवि है, एक सपना है। और चूँकि हमारे लिए वह एक पूर्वनिर्धारित छवि है इसीलिए वास्तविक आत्मबोध होने नहीं पाता। आत्मबोध तो अपनी निस्सारता का बोध है।

आत्मबोध का अर्थ होता है– जिसका बोध करने गए थे उसी से खाली हो गए। इसीलिए आत्मबोध की बहुत ज़्यादा बात मैं कभी करता ही नहीं। मैं आत्मज्ञान पर बल देता हूँ। मैं कहता हूँ स्वयं को देखो, अपने चेहरे को, अपनी हालत को, अपने विचारों को, अपने कर्मों को, और अगर ईमानदारी से देख रहे हो तो यह आत्मज्ञान है।

आत्मज्ञान में दिख रहा होता है कि ‘मैं’ क्या कर रहा है। देखने वाला अभी जुड़ा हुआ है उससे जो दिख रहा है। तुम कहते हो, ‘मैं देख रहा हूँ ‘मैं’ को।’ यह दोनों ‘मैं’ जुड़े हुए हैं — यह आत्मज्ञान की स्थिति नहीं है। पर ‘मैं’ ने अगर वाकई देखा ‘मैं’ को, अपनेआप को तुमने ईमानदारी से देख लिया तो अपनेआप से आज़ाद हो जाते हो — यह आत्मबोध है।

अभी मेहनत करनी है। अभी साधना करो। एक क़िताब पढ़ने से बहुत कुछ नहीं हो जाएगा।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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