भ्रष्ट जीवन का लक्षण है भ्रष्ट भाषा || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2012)

Acharya Prashant

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भ्रष्ट जीवन का लक्षण है भ्रष्ट भाषा || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2012)

आचार्य प्रशांत : सही भाषा, एक सही जीवन का ‘सहायक-फल’ है।

श्रो ता : सही जीवन बता दीजिये क्या है?

आचार्य जी : ग़लत जीवन क्या है, पहले वो समझते हैं! ग़लत जीवन वो है, जो तुम जीते हो।

श्रो ता : वही जानना चाहता हूँ।

आचार्य जी : ग़लत जीवन वो है, जिसमें तुम्हारे पास दिनभर में पढ़ने के लिए आधे घंटे का भी समय नहीं है। ग़लत जीवन समझ में आया? ग़लत जीवन वो है, जिसमें तुम्हारे आस-पास में तुम्हें ये बोलने वाला कोई भी नहीं है कि तू कैसी बातें कर रहा है? ग़लत जीवन वो है! ग़लत जीवन वो है जिसमें तुमने अपने दोस्तों का दायरा बिल्कुल अपने ही जैसा बना रखा है कि मैं जैसा हूँ सारे आस-पास के लोग भी वैसे हों तो सब ठीक है।

कौन, किसको रोशनी दिखायेगा? कौन, किसको प्रेरित करेगा? कौन, किसको आईना दिखायेगा? ग़लत जीवन वो है जिसमें मैं जहाँ पर भी बैठा हुआ हूँ, मैं लगातार दबंग हूँ।

मेरा उसमें मन नहीं लग रहा है। जब मेरा मन नहीं लग रहा है तो मेरी उसमें ऊर्जा कहाँ से आएगी? जब जिस दिन मन नहीं लग रहा होता है तो बड़ी ऊर्जा निकलती है या ऊर्जा और दब जाती है? जब ऊर्जा नहीं रहेगी तो तुममें कहाँ से ये गतिविधि होगी कि जाऊँ ये भी पढ़ लूँ, ये भी जान लूँ, ये भी बोल लूँ। कुछ भी करने के लिए पहले ऊर्जा तो जरूरी है ना? इंटरनेट पर जा के एक लेख भी पढ़ने के लिए उतना तो करना पड़ेगा कि उठ कर जाओ, बैठो, ब्राउज़र खोलो! उस ख़ास वेबसाइट पर जाना पड़ता है, आँख की पुतलियाँ भी उन लाइन पर घुमानी पड़ती हैं, तो उसमें भी ऊर्जा लगती है।

तुम्हें पता है कि कई बार उतना भी करने का मन नहीं करता कि कौन पढ़े, बीच में ही पढ़ के छोड़ देते हो।

ये जो ‘प्रेरणा की कमी’ है, यही है एक ग़लत जीवन।

ये लक्षण हैं, एक ग़लत जीवन के। अभी यहाँ भी बैठे हुए हो तो कईयों की आँखें ऐसे-ऐसे हो रहीं हैं और बात मैं तुम्हारे लिए कर रहा हूँ और तुम्हारे बारे में कर रहा हूँ। ये लक्षण हैं ग़लत जीवन के।

आप कहते हो कि सब ऐसा ही रहेगा। इतनी-सी उम्र में आदमी ‘आलोचक’ बन गया है। और बताता हूँ, कोई भी भाषा सीखने के आरम्भ में ग़लतियाँ होती हैं, ठीक है? आप कोई भी नई भाषा सीखो तो शुरुवात से ही उस भाषा के पण्डित नहीं बन जाओगे। आप शुरू में कुछ ग़लत ही लिखोगे। ‘भाषा’ शुद्ध कैसे होती जाती है, आपके लिए? भाषा शुद्ध ऐसे होती जाती है, जब मेरे मन में एक संकल्प होता है कि किसी भी तरह का भ्रष्टाचार बर्दाश्त नहीं है, किसी भी तरह की अशुद्धि बर्दाश्त नहीं है। अगर मुझे सब कुछ चलता है, तो भाषा में जो ग़लती वो भी चलेगी। जो मैं आज से १० साल पहले करता था, वही अभी-भी करूँगा, क्योंकि मेरा जीवन ही ऐसा है, जिसमें ‘सबकुछ चलता है’।

मैं किसी भी चीज़ में पूर्ण रूप से शामिल नहीं हूँ। मुझे किसी भी चीज़ में श्रेष्ठता की आकांक्षा नहीं है। जब मुझे अभियांत्रिकी(इंजीनियरिंग) भी श्रेष्ठता की आकांक्षा नहीं है, जब मुझे खेल में श्रेष्ठता की आकांक्षा नहीं है, तो मुझे भाषा में श्रेष्ठता की आकांक्षा कहाँ से हो जाएगी?

बात समझ में आ रही है?

जीवन में, आप किसी चीज़ में श्रेष्ठ नहीं हो। तो भाषा में श्रेष्ठ हो जाओगे? जबकि, ‘श्रेष्ठता’ से जीना, जीवन की एक कला है। मैं किसी भी चीज़ में उत्कृष्ट होने की आकांक्षा नहीं करता। तो मैं भाषा में कैसे उत्कृष्टता की आकांक्षा कर लूँ? मेरा तो पूरे जीवन के प्रति रवैया ही यही है कि ‘सब चलता है’। गधे, घोड़े ‘सब चलते हैं’, शुद्धि-अशुद्धि ‘सब चलती है’, तो नतीजा — जो ग़लतियाँ मैं पहले करता रहता था, मेरा कोई इरादा ही नहीं है उनको ठीक करने का।

मैं पहले भी जब बॉयज़ लिखता था, तो उसमें साथ में एक चिन्ह लगा देता था बिना ये जाने कि चिन्ह कब लगता है, कब नहीं और मैं अभी-भी ये करे जा रहा हूँ और ये अशुद्धि पकड़ लेना बहुत आसान है। ज़रा सा dictionary.com खोलो और सब पता चल जाएगा कि कब ग़लती है, कब नहीं। पर वो खोलने के लिये पहले मेरा इरादा तो होना चाहिये ना कि मैं खोलना चाहता हूँ?

तकनीक ने चीज़ें इतनी ज़्यादा ‘सुगम’ बना दी हैं। पहले तो ये होता था कि पॉकेट डिक्शनरी रख के चलो, तो लगता था कौन रख के चले, फिर होता था कि चलो इंटरनेट आ गया, तो होता था कौन जाए सिस्टम तक, अब तो आप जितने बैठे हो सबके फ़ोन में डिक्शनरी है। आप चाहो तो हर चीज़ को फटाक से चेक कर सकते हो, और कईयों में तो पहले से ही डिक्शनरी है। उसके लिए आप इंटरनेट एक्टिवेटेड हो इसकी भी जरूरत नहीं है। कई फ़ोन ऐसे होंगे जिसमें डिक्शनरी है ही पर आप वो तब करो ना जब उत्कृष्टता आपका इरादा हो।

एक छोटा सा उदाहरण देता हूँ –

टाई सही बाँधनी है पर ग़लत बाँध ली तो भी ‘चलती है’। छात्र, पाठशाला जा रहे हैं। छात्र, पाठशाला को जा रहे हैं। तो ये भी चलेगा। जिस लड़के की टाई ग़लत बंधी है पर है ‘चलती है’, तो उसके लिए ये भी चलेगा — छात्र, पाठशाला को जा रहे हैं। क्योंकि ये दोनों एक ही मन से निकल रहे हैं और ये मन कौन-सा है? ये मन वो है जो कहता है, भ्रष्टाचार चलता है। भ्रष्टाचार समझ रहे हो ना, ‘अशुद्धि’। किसी भी चीज़ का भ्रष्ट हो जाना। भ्रष्ट हो जाना मतलब, दूषित हो जाना, ख़राब हो जाना।

जब टाई ग़लत बाँधना ‘चल सकता है’ तो ‘छात्र, पाठशाला जा रहे हैं’ भी चलेगा। अब पूछना मत कि मेरी भाषा क्यों ऐसी है?

अस ली चीज़ यही है ये जो तुमने ताबीज़ पहन रखा है , इसी ताबीज़ ने सारी गड़बड़ कर रखी है।

देखो अपने जूतों को, देखो-देखो! सबने अंदर कर लिये जल्दी-जल्दी। जब ये इस तरीके की चीज़ें चल सकी हैं। तो ‘मैं जाता हूँ’ भी चलेगा? ‘मैं जाता हूँ, आता हूँ भी चलेगा’, ‘मेरा जूता तुम्हारे चेहरे से चमकता है’ आदि। सब चलेगा!

तुम्हारे जूतों पर लिखा हुआ है की भाषा कैसी होगी।

भाई! एक ही मन तो है ना? जो मन कहता है, “कैसा भी हो चलेगा”। तो ‘जूता’ कैसा भी चलेगा, ‘भाषा’ कैसी भी चलेगी। तुम्हें कुशलता चाहिए कहाँ? कहाँ चाहिए तुम्हें कुशलता ? कहाँ चाहिए? ग़लत जीवन और सही जीवन समझ में आ रहा है?

ग़लत भाषा , ग़लत जीवन से पैदा होती है।

यही कारण है कि तुम देखोगे कि जितने अपराधी होते हैं उनकी भाषा भी कैसी होती है?

कैसी होती है?

उन्हीं के जैसी होती है। मैं ये नहीं कह रहा हूँ जिसकी भाषा बहुत अच्छी है उसका जीवन भी बहुत अच्छा होगा पर मैं ये ज़रूर कह रहा हूँ कि जिसका ऊँचा जीवन होता है उसकी भाषा अपने आप ठीक हो जाती है। शुद्ध रहती है, अशुद्ध नहीं।

शुद्ध!

ये तर्क मत देना कि आचार्य जी इसका मतलब क्या ये है कि जिस किसी की भाषा अच्छी होती है वो आदमी भी अच्छा होगा? नहीं! मैं ये नहीं कह रहा हूँ, मैं ये कह रहा हूँ कि जो एक ‘साफ मन’ है, उसकी भाषा ज़रूर साफ हो जाएगी। लेकिन हर आदमी की भाषा साफ हो, इसका मतलब ये नहीं है कि उसका मन भी साफ़ हो। फिर तो ये होता है कि हर अंग्रेज़ी का शिक्षक विलक्षण हो जाता, वो नहीं कह रहा हूँ।

‘भाषा’, भाषा होती है क्योंकि हर भाषा तुम्हारे जीवन से निकलती है।

तुम्हारी तो हिंदी भी ‘अशुद्ध’ है। जब तुम बोलते हो कि अंग्रेज़ी नहीं आती, तो ये तो बात दो कि हिंदी आती है? तुम्हें कुछ नहीं आता। अभी तुम्हारा इम्तिहान लिया जाए तो हिंदी, अंग्रेज़ी, गणित, इंजीनियरिंग, लॉजिक; जिन-जिन चीज़ों में तुम्हें परखा जाए, उन सब में तुम करीब-करीब एक से निकलोगे और वो जो सब में एक सा निकल रहा है वो तुम्हारे जीवन से निकल रहा है।

जैसे व्यक्ति हो तुम, उसे बदलो!

फल बदलना है, उसमें कीड़े लग रहे हैं तो फल पर कॉलिन डाल के फल की नहीं सफाई करी जाती। पत्तियाँ पीली पड़ रही हैं, तो पत्तियों पर नहीं पानी डाला जाता, कहाँ पानी डाला जाता है?

श्रो ता : पेड़ की जड़ में।

आचार्य जी : और जड़ है तुम्हारा ‘मन’, जीवन। तुम किस चीज़ में कुशल हो ये बता दो ना? अच्छा! पढ़ने में नहीं मन लगता। कितने लोग खेल में कुशल हैं? बताओ। कितने लोग हैं?

श्रो ता : मैं!

आचार्य जी : क्या करते हो?

श्रो ता : क्रिकेट खेलते हूँ।

आचार्य जी : क्रिकेट में क्या करते हो?

श्रो ता : बल्लेबाज़ी।

आचार्य जी : कैसी बल्लेबाज़ी करते हो?

श्रो ता : ओपनिंग बल्लेबाज़ हूँ।

आचार्य जी : कुशल बल्लेबाज़ हो?

श्रो ता : जी, आचार्य जी।

आचार्य जी : ओपनिंग से क्या होता है? ओपनिंग से यही पता चलता है कि बाकी सब तुमसे पीछे आते हैं। उसमें ये नहीं पता चलता कि तुम कुछ विशेष हो।

श्रो ता : महीने में कितने दिन खेलते हो? कितना अभ्यास करते हो? अभ्यास ही तुम्हें शुद्धि देता है। (श्रोतागण में बैठे अध्यापक, छात्र से प्रश्न पूछते हुए)

आचार्य जी : क्या उम्र है?

श्रो ता : १९

आचार्य जी : १९! उन्मुक्त की फ़ोटो देखना, जिसमें वो कोई शॉट खेल रहा है। असल में, आज या कल के ही टाइम्स ऑफ इंडिया में आई है, शॉट खेलते वक़्त। उसकी बाहें देखना और उसके कंधे देखना। यदि मैं एक बल्लेबाज़ हूँ, तो मेरे बाज़ू और कलाई बहुत मज़बूती होनी चाहिए। अगर मुझे फ्लिप करना है तो उसके लिए कलाईयाँ कैसी होनी चाहिए? दिखाओ, हाथ उठाओ। क्या ये उत्कृष्टता की निशानी है? हुक कर पाओगे, इन कलाइयों के साथ? हुक करने के लिए पता है ना यहाँ पर क्या चाहिए?(बाज़ू की ओर इशारा करते हुए)

शक्ति!

कर पाओगे? और उन्मुक्त की उमर तुमसे कम है। तुम किसी भी चीज़ में उत्कृष्ट हो क्या कि ‘भाषा’ में ही उत्कृष्ट हो जाओगे?

श्रेष्ठता – जीवन जीने का एक तरीका है।

अभी बहुत बड़ा जीवन पड़ा है और अभी देर नहीं हुई है। अगर बल्लेबाज़ बन रहे हो और वाकई मुझे बहुत अच्छा लग रहा है कि इतने लोगों में एक कम-से-कम तुमने कहा कि मैं श्रेठ होना चाहता हूँ, किसी भी खेल में।

सबसे पहले तो ये तारीफ की बात है अगर श्रेष्ठता से सीख ही रहे हो। कर रहे हो बल्लेबाज़ी, तो वाकई श्रेष्ठ बनो। और मैं तुम्हें ये आश्वासन देता हूँ कि किसी एक चीज़ में श्रेष्ठ होगे तो जीवन के दूसरे क्षेत्रों में भी श्रेष्ठता आ ही जाएगी अपने आप। ठीक है? वो हो के रहेगा। तो यदि तुम कर रहे हो तो पूर्ण रूप से करो, करोगे?

शादी, बारात होती है तो सब नाचना शुरू कर देते हैं, बिल्कुल वही लफंगों की तरह। कोई यहाँ ऐसा नहीं होगा जो आज मेरे यार की शादी है पर नहीं नाचता होगा। पर कितने लोगों को वाकई नाचना आता है? हममें से कितने लोग श्रेष्ठ नर्तक हैं?

हममें से कितने लोग श्रेष्ठ नर्तक हैं? कितने हैं?

श्रोता : कोई नहीं।

आचार्य जी : हम खेलने में श्रेष्ठ(एक्सीलेंट) नहीं, हम नाचने में श्रेष्ठ(एक्सीलेंट) नहीं। आपके इंटरव्यू होते हैं, आप पूछने आते हो, “आचार्य जी, हॉबीज़ में क्या लिखें?” हम अपनी हॉबीज़ में श्रेष्ठ नहीं, अपनी ही हॉबीज़ में श्रेष्ठ नहीं। आप अपनी रुचियाँ लिखते हो; आपसे आपके रूचि के बारे में २ सवाल पूछ दिये जायें, आप बता नहीं पाते। आप उसमें श्रेष्ठ(एक्सीलेंट) नहीं। मैं कहता हूँ अपने जूते के फीते तक बाँधने में श्रेष्ठ नहीं हो। कुछ ऐसा नहीं है जिसको आप पूर्णता के साथ करते हो? तो ऐसे जीवन में ख़ूबसूरत भाषा कहाँ से आ जाएगी? कहाँ से आएगी? आ सकती है?

आधा अधूरा , अधपका सा जीवन जी रहे हैं , उनको देख के खुश हैं। हाँ, ऐसे ही तो जिया जाता है!

कितना आनंद रहा है!

तो जब भी कभी ‘E’ शब्द आए आपके मन में… ‘E’ मतलब?

श्रोता : एक्सीलेंस(श्रेष्ठता)

आचार्य जी : English!(अंग्रेज़ी) याद रहे दूसरा ‘E’ भी। कौनसा दूसरा ‘E’?

श्रोता: एक्सीलेंस(श्रेष्ठता)

आचार्य जी : इन दोनों ‘E’ को एक साथ ही आना चाहिए। एक दुसरे के बिना नहीं आना चाहिए। क्या कहते हो?

श्रो ता : जी, ठीक कहा।

संवाद सत्संग |

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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